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नई डगर 

चल रहा हूँ जो डगर अब तक रही अनजान है
इसलिये सब  कह रहे हैं यह सिर - फिरा इन्सान है
हंस रहीं प्रिय तुम , जगत उपहास करता
स्वप्न -जीवी कह न मुझसे बात करता
सोचता जग मैं पुरानी लीक पर चढ़ बढ़ता चलूँ
स्वर्ग -सीढ़ी पर संभल हर वर्ष मैं चढ़ता चलूँ
पर मुझे वह राह चलनी जो निबल के द्वार तक
जा सके लेकर मुझे दुखिया बहन के प्यार तक
राह जो फुटपाथ पर सोते अनाथों तक चले
राह जिसपर गान्धी की , बुद्ध की ममता पले
राह जिससे राह खुल जाये व्यथा -उन्मुक्ति का
राह जिससे राह खुल जाये कि अन्तर -मुक्ति का
चल सके जो राह यह छोटा नहीं इन्सान है
क्या हुआ यदि राह यह तुम तक रही अनजान है
चल रहा हूँ जो डगर ------------------------------
हर हिंडोला स्वर्ग का संसार में होता नहीं
विलखता शिशु देख करके हर हृदय रोता नहीं
हर हृदय- विश्वास कब पहुँचा प्रिया के द्वार तक
हर लहर  पहुँचीं भला क्या तीर के उस पार तक
क्या हुआ यदि मैं तुम्हारी राह से हटता गया हूँ
चन्द्रमा सा हर दिवस आकार में घटता गया हूँ
और हैं जो द्रष्टि - पथ पर प्रिय तुम्हारे चल सकेंगें
स्वप्न तेरे ,हृदय में उनके निरन्तर पल सकेंगें
राज पथ पर चल सकें जो वे तुम्हारा साथ देंगें
हेम -मण्डित  सीढ़िया चढ़ हाथ में वे हाँथ देंगें
पर मुझे चल कर पहुँचना हर गली चौपाल में
आस्था के स्वर जगानें हैं कृषक गोपाल में
श्रवण - दुनिया के अपरचित हैं रहे जिस गीत से
सर्वथा नूतन रचे जय -गीत की यह तान है
चल रहा हूँ जो डगर --------------------------
बहुत संम्भव है कि जीवन इस तरह ही बीत जाये
मृत्यु मेरी कामना पर खिलखिलाकर कर जीत जाये
पर झरे जो बीज धरती पर उगेंगें
पुष्प उनमें फिर कभी निश्चय लगेंगें
सूख कर भी बूँद , प्रिय क्या नष्ट होती
वायु में मिलकर जलद में सृष्टि होती
और फिर मिट भी गया यदि इस क्षणिक संसार से
मुक्त ही होगी धरा कुछ हड्डियों के भार से
हैं सहस्त्रों उठ रहे निश दिन धरा की गोद से
जगत का व्यापार पर चलता सदा ही मोद से
राज पथ पर जो चले हैं धूल में मिल जायेंगें
सोम रस पीती रही दुनियां युगों से आज तक
किन्तु शिव की साधना तो बस गरल का पान है
चल रहा हूँ जो डगर -----------------------------
राह जो मैनें चुनी है राजपथ बन जायेगी
धूल से उठकर सितारों तक प्रिये तन जायेगी
उस समय शायद न हूँ मैं देखनें को यह छटा
ज्वार का उन्माद कब कुछ बूँद घटनें से घटा
इस नये संसार की  ही खोज मेरी राह है
है यही बस स्वप्न मेरा , एक ही यह चाह है
हूँ अकेला ही नहीं मैं और भी कुछ साथ हैं
किन्तु गोवर्धन उठानें के लिये कम हाँथ हैं
प्रलय को बरसात सर पर आ रही है
अणु  -घटा  बढ़ती घहरती छा रही है
बह  न जायें चूर्ण होकर दीन दुखियों के बसेरे
कृष्ण पर , युग बोध पर , फिर से न कोई अब हँसे रे
थूक दे हीरक - खचित इस जगमगाते ताज पर
दे बता ओ तरुण , तेरी देह में भी जान है
चल रहा हूँ जो डगर -------------------------------



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