दो अगर सहमति ,बता दूं विश्व को अपनी कहानी
क्या पता सन्देश कब आ जाय प्रिय उस पर से ।
बात तो वैसे पुरानी हो चुकी है
प्यार की स्मृति न मन पर भूल पाया
अनकही अन्तर्व्यथा से विद्ध होकर
जानती हो सुमुखि ,कितना शूल पाया ?
मानता हूँ मैं न उठ पाया गगन तक
प्यार अपना भी जगत की धूळ में खो जायेग़ा
रो रहे शिशु सा सुबक कर अंत में
निशा विस्मृति में सहम सो जायेगा
शब्द दो दे दूँ मगर मैं प्यार को
क्या पता अक्षर क्षरण को झेल जायें
काल की विकराल ग्रीवा पर थिरक कर
मोतियों का माल बनकर खेल जायें ।
चीर कर कैशोर्य की गालियाँ बढ़ा था
द्वार यौवन के पुलक दस्तक लगाने
तुम पटों की ओट प्रिय छिप कर खड़ी थीं
मधुप -मन में रूप की तृष्णा जगाने
तुम अपरचित थीं न शायद प्यार के व्यवहार से
मैं मुसहिष था नया दरबार का रूपसि तुम्हारे
पर कहीं कुछ रिक्त थीं तुम भीड़ में भी
अन्यथा मेरे लिये क्यों तोड़तीं सम्बन्ध सारे ।
याद है पर बाद में तुमनें कहा था
तुम न आते जानती मैं क्या समर्पण
मुक्त हो शैवाल के प्रस्तार से
कुमुदनी सी बिहँस विधु की गोद में
वक्ष पर मेरे सुवासित सिर टिका
तर्जनी रख मम अधर पर मोद में
मौन का आदेश दे मुझको मुखर
प्राण ,यों ही बीतते युग काल थे
बोलकर कोयल थकी मधुमास में
कट गये अनजान ही दस साल थे ।
तुम दुपहरी सी उतर कर ढल चलीं
मैं सुबह के सूर्य सा चढ़ता गया
आयु का व्यवधान शर्माता रहा
वासना का ताप नित बढ़ता गया
रूप -दीपायित तुम्हारे भाल पर
दंश देती नागिनों का जाल था
एक दिन देखा रजत के तार सा
रच रहा वैचित्र्य कोई बाल था ।
और पहली बार आलोचक बना मन
आँख के नीचे अँधेरे दीख आये
रिक्त मधु से हो रहा है पुष्प जाना
भाव भँवरे भ्रमण करना सीख आये
बुद्ध मन का जग न पाया उस समय
सत्य का अन्तिम चरण क्या मिल सका ?
चाह कर भी चाह की मृदु डाल पर
भान का सुन्दर सुमन क्या खिल सका ?
नारि -मन से तुम सहज ही जानती थीं
युवा मन ढलती किरण से भागता है
रूप -आश्रित प्यार लेता है जभ्भाई
जब वदन -सौन्दर्य साधन माँगता है
ले सहज संकोच का मेरे सहारा
चाहती तुम कुछ वरस तो बीत जाते
बूँद अन्तिम वासना की सोख कर भी
प्राण निश्चय ही हमारे रीत जाते ।
किन्तु वह क्षण तुम न शायद झेल पातीं
जब दया की गोद चढ़कर प्यार आता
जब तुम्हारे रूप का पागल पुजारी
पुष्प लेकर के कहीं अन्यत्र जाता
इसलिये तुम एक दिन सहसा प्रिये
जा छिपीं किस नगर में किस गाँव में
विजन में निर्मित तपी के उटज में
नगर के किस नगर- चुम्बी धाम में ।
पंक्तियाँ दो नाम मेरे थीं तुम्हारी
जो जिया वह सत्य झूठा शेष है
मुक्त तुमको छोडती हूँ प्राण धन
खोजना मत कौन मेरा देश है
दे सके जो हूँ ऋणी उसके लिये
जो न पाया वह नहीं अधिकार था
जा रही हूँ माँग कर इतना वचन
गीत मत लिखना कि मुझसे प्यार था ।
दो दशक बीते न तुम हो मिल सकीं
एक स्मृति ही तुम्हारी पास है
सुमुखि यौवन दर्प कब का मिट चुका
आस तब तक शेष जब तक सांस है
देह यदि मिट भी गयी जल आग में
स्वर तुम्हारे प्यार का उठता रहेगा क्षार से
दो अगर सहमति !
क्या पता सन्देश कब आ जाय प्रिय उस पर से ।
बात तो वैसे पुरानी हो चुकी है
प्यार की स्मृति न मन पर भूल पाया
अनकही अन्तर्व्यथा से विद्ध होकर
जानती हो सुमुखि ,कितना शूल पाया ?
मानता हूँ मैं न उठ पाया गगन तक
प्यार अपना भी जगत की धूळ में खो जायेग़ा
रो रहे शिशु सा सुबक कर अंत में
निशा विस्मृति में सहम सो जायेगा
शब्द दो दे दूँ मगर मैं प्यार को
क्या पता अक्षर क्षरण को झेल जायें
काल की विकराल ग्रीवा पर थिरक कर
मोतियों का माल बनकर खेल जायें ।
चीर कर कैशोर्य की गालियाँ बढ़ा था
द्वार यौवन के पुलक दस्तक लगाने
तुम पटों की ओट प्रिय छिप कर खड़ी थीं
मधुप -मन में रूप की तृष्णा जगाने
तुम अपरचित थीं न शायद प्यार के व्यवहार से
मैं मुसहिष था नया दरबार का रूपसि तुम्हारे
पर कहीं कुछ रिक्त थीं तुम भीड़ में भी
अन्यथा मेरे लिये क्यों तोड़तीं सम्बन्ध सारे ।
याद है पर बाद में तुमनें कहा था
तुम न आते जानती मैं क्या समर्पण
मुक्त हो शैवाल के प्रस्तार से
कुमुदनी सी बिहँस विधु की गोद में
वक्ष पर मेरे सुवासित सिर टिका
तर्जनी रख मम अधर पर मोद में
मौन का आदेश दे मुझको मुखर
प्राण ,यों ही बीतते युग काल थे
बोलकर कोयल थकी मधुमास में
कट गये अनजान ही दस साल थे ।
तुम दुपहरी सी उतर कर ढल चलीं
मैं सुबह के सूर्य सा चढ़ता गया
आयु का व्यवधान शर्माता रहा
वासना का ताप नित बढ़ता गया
रूप -दीपायित तुम्हारे भाल पर
दंश देती नागिनों का जाल था
एक दिन देखा रजत के तार सा
रच रहा वैचित्र्य कोई बाल था ।
और पहली बार आलोचक बना मन
आँख के नीचे अँधेरे दीख आये
रिक्त मधु से हो रहा है पुष्प जाना
भाव भँवरे भ्रमण करना सीख आये
बुद्ध मन का जग न पाया उस समय
सत्य का अन्तिम चरण क्या मिल सका ?
चाह कर भी चाह की मृदु डाल पर
भान का सुन्दर सुमन क्या खिल सका ?
नारि -मन से तुम सहज ही जानती थीं
युवा मन ढलती किरण से भागता है
रूप -आश्रित प्यार लेता है जभ्भाई
जब वदन -सौन्दर्य साधन माँगता है
ले सहज संकोच का मेरे सहारा
चाहती तुम कुछ वरस तो बीत जाते
बूँद अन्तिम वासना की सोख कर भी
प्राण निश्चय ही हमारे रीत जाते ।
किन्तु वह क्षण तुम न शायद झेल पातीं
जब दया की गोद चढ़कर प्यार आता
जब तुम्हारे रूप का पागल पुजारी
पुष्प लेकर के कहीं अन्यत्र जाता
इसलिये तुम एक दिन सहसा प्रिये
जा छिपीं किस नगर में किस गाँव में
विजन में निर्मित तपी के उटज में
नगर के किस नगर- चुम्बी धाम में ।
पंक्तियाँ दो नाम मेरे थीं तुम्हारी
जो जिया वह सत्य झूठा शेष है
मुक्त तुमको छोडती हूँ प्राण धन
खोजना मत कौन मेरा देश है
दे सके जो हूँ ऋणी उसके लिये
जो न पाया वह नहीं अधिकार था
जा रही हूँ माँग कर इतना वचन
गीत मत लिखना कि मुझसे प्यार था ।
दो दशक बीते न तुम हो मिल सकीं
एक स्मृति ही तुम्हारी पास है
सुमुखि यौवन दर्प कब का मिट चुका
आस तब तक शेष जब तक सांस है
देह यदि मिट भी गयी जल आग में
स्वर तुम्हारे प्यार का उठता रहेगा क्षार से
दो अगर सहमति !