"ललित साहित्य से सम्बन्धित प्रत्येक नर- नारी अपनें मन में ऐसा विश्वास पालनें लगता है ,कि सामान्य जन समुदाय को नये जीवन मूल्य बोधों से अवगत करा सकता है । सृजनात्मक साहित्य के रचयिता कभी -कभी इस विश्वास को दंभ्भ की सीमा तक पहुँचा देते हैं । वे माननें लगते हैं कि वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी हैं और उनकी सृजनात्मक प्रतिभा अनूठी होनें के कारण औरों के लिये आदर का पात्र होना चाहिये । पर किसी भी प्रकार की प्रतिभा को इस अहंकार में घिर कर नहीं रहना चाहिये कि वो किसी दूसरे संसार से पायी हुयी वस्तु है । प्रतिभा हर स्तर पर प्रत्येक समाज में वहाँ के चुनौती भरे जीवन संघर्ष और अनुभवों से तराशी जाकर ही असरदार पैनापन पा सकती है । "
शब्द -शिल्पी तभी युग प्रवर्तक बन सकते हैं जब उनका अनुभव अत्यन्त विशाल हो और विशालता के साथ अत्यन्त गहरायी तक मानव मनोविज्ञान की मूल प्रेरक वृत्तियों से परिचित हों । आज तो ललित साहित्य भी तब तक औसत दर्जे का ही माना जायेगा जब तक उसके रचयिता तकनीकी विकास के इस आश्चर्यजनक युग में अधुनातन जीवन शैली से परिचित न हों । मात्र गरीबी ,भुखमरी का चित्रण आज उनकी गहरी सम्बेदना नहीं जगा सकता जितना कि आजादी के पहले और आजादी के कुछ वर्ष बाद तक संभ्भव था । इक्कीसवीं सदी का भारत गरीबी तो नहीं मिटा सका है पर उसके पास सकारात्मक प्रतिभा को प्रभावित करनें वाली उपलब्धियां उपस्थित हैं । भारत आर्थिक विकास और उस विकास के फलस्वरूप सम्पन्न वर्ग की मनोग्रंथियां ,अति शिक्षित व्यक्तियों का गहरा व्यक्तिवादी बोध और राज्य सत्ता से आरोपित नारी समानता और मानव समानता के संवैधानिक प्राविधानों से प्रभावित समाज की उलझनें और जटिलतायें आदि पर भी श्रेष्ठ साहित्य की रचना हो सकती है । कई बार अवकाश के क्षणों में मैं जब अमरीका और इंग्लैण्ड की कथा रचनाओं पर निगाह डालता हूँ तो मुझे उनकी कथा वस्तु में प्राकृतिक विज्ञान से सम्बन्धित ताजी से ताजी जानकारी सम्मिलित होती दिखायी पड़ जाती है । इक़्कीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक समाप्ति की ओर बढ़ रहा है पर पहले दशक में ही विश्व की संचार तकनीक नें जो कर दिखाया है वह बीते युग के माया लोक कल्पना से भी कहीं अधिक चमत्कृत करने वाला है । मय नाम के वास्तु शिल्पी नें महाभारत में पाण्डवों के जिस अद्दभुत भवन का निर्माण किया था वैसे भ्रमात्मक चाक -चिक्य आज अभियन्त्रकीय के सामान्य कारीगरों से भी संभ्भव हो जाता है । नभ गंगाओं की रूप परियाँ अब हमें और नहीं छल पातीं ठीक वैसे ही जैसे समुद्र सुन्दरियां अब मत्स और नारी के रोमांचक मिलन को लेकर हमें आनन्दातिरेक नहीं दे पातीं । साहित्य के साधनों की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को समझ कर उसे ऐसे रूप में ढालना होगा जो सामान्य जन की संवेदना को उकेर सके । अब यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में विज्ञान और तकनीक अभी हमारी जीवन शैली का अंग नहीं बना है और इसलिये वह हमारी संवेदनाओं से नहीं जुड़ पाया है । आज किसी भी शहर का मध्यम वर्ग भले ही वह निम्न मध्यम वर्ग क्यों न हो नारी के इस चित्रण से प्रभावित नहीं होगा कि चूल्हा फूँकते उसका मुँह लाल हो गया है या कि धुयें से उसकी आँखों में आँसू आ गये हैं ।बार -बार सिर झटकने से उसके बाल बेतरतीब होकर बिखर गये हैं । रसोईं गैस की पहुँच हर मध्यम वर्ग में हो चुकी है और बिजली के स्टोब ,चूल्हे ,ओवन और अन्य अनेकानेक उद्पाद हर घर में पहुँचते जा रहे हैं । स्कूल जाते हुये बच्चों की साफ़ -सुथरी यूनिफार्म और उनके गले की टाई अब एक सामान्य अनुभव है । अब बनियान और नेकर पहनकर स्कूल जानें वाले बच्चे का चित्रण पढ़े लिखे पाठक को वास्तविक नहीं लगता । यह हो सकता है कि भूख से ऊपर उठ चुका हूँ इसलिये मेरे ये अनुभव उस वर्ग को न भावें जिन्हें अभी भी दो जून की रोटी मय्यसर नहीं होती । पर गरीबी रेखा से नीचे वाले भारत के अतिरिक्त स्वतन्त्र भारत के और भी कई रूप हैं और गरीबी रेखा के नीचे के वर्ग भी अपनें निजी प्रयत्नों और सरकारी सहायता के बल पर जीवन की मूलभूत सुविधायें जुटा लेनें की ओर अग्रसर हैं । और फिर प्रगति का आज एक ही अर्थ है और वह आर्थिक विकास के आस- पास घूमता है । आज नहीं तो कल भारत की प्रगति के साथ -साथ भुखमरी और असहायता इतिहास की वस्तु बन कर रह जायेंगीं । साहित्य तब भी रचा जायेगा और उस साहित्य में भी कालजयी रचनाएँ संभ्भव होंगीं । पढ़े लिखे परिवारों को प्रतिभा के धनी शिशुवों और किशोरों को इस प्रकार पाला और पोषा जाना चाहिये कि उनकी सोच एकात्मक न होकर विश्वव्यापी मानव विकास की अद्दभुत सफलताओं से प्रेरणा प्राप्त कर सके । शिशु और किशोरों को अतीत के कटघरे में बन्द रखना और उनकी सोच को बीते कल के भारत के किस्सा -कहानियों से ही नियन्त्रित करना अब लक्षित उपलब्धियाँ हासिल नहीं करवा सकता । हमें ध्रुव के दोनों छोरों पर तो खड़ा ही होना है और साथ ही गिरि श्रृंगों से ऊपर उठकर सितारों का भी हमजोली बनना है । कावेरी बेसिन से निकला तरल सोना (पेट्रोलियम )हमें राजा महाराजाओं के सोने से अलग एक नयी सोच ,विकास को एक नयी अवधारणा के प्रति प्रेरित करनें में समर्थ होगा । सृजनात्मक प्रतिभा विज्ञान के क्षेत्र में यदि हम नोबेल प्राइज पुरुष्कार प्राप्त वैज्ञानिकों की नामावली पर द्रष्टि डालें तो हम पायेंगें कि उनमें से बहुत शब्दों के भी समर्थ अधिकारी थे । विज्ञान और तकनीक के अधिकारी विद्वान आने वाले समय में शब्द शिल्प की महारथ भी हासिल करेंगें और तब जो रचनायें हमारे सामनें आयेंगीं वे निश्चित ही निराली होंगीं । हिन्दी के कवि आज भी रस ,छंद वक्रोक्ति और नायिका वर्गीकरण में उलझे हैं । उन्हें वहाँ से कुछ समय के लिये बाहर निकलकर जीवन उद्यान के अन्य धुंधली या प्रकाशित क्यारियों में से गुजरना होगा । बिना अनुभव और अध्ययन की विशालता के छोटी -मोटी रचनायें ही संभ्भव हो पाती हैं । सफल उद्योगपति भी समर्थ वक्ता और लेखक बनते जा रहे हैं । चाहे रंगमंच हो ,चाहे सिनेमायी पर्दा ,चाहे क्रिकेट हो ,टेनिस हो या फ़ुटबाल ,चाहे भारोत्तोलन हो या पहलवानी सभी जगह श्रेष्ठ प्रतिभायें निखर पाती हैं और अगर इन प्रतिभाओं को भाव प्रकाशन की महारथ हासिल हो जाय तो एक प्रेरक साहित्य अनवरत रूप से हमारे सामनें उपस्थित होता रहेगा । राजनीतिज्ञों नें साहित्य के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया है । प्रेरक पुस्तकों और जीवन सफलता के बीच गहरा सम्बन्ध है । भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए ० पी ० जे ० अब्दुल कलाम की पुस्तकें न जानें कितनों को आकर्षित कर सकी हैं । हिन्दी भाषा में भी चोटी पर पहुंचें हुये हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों को अपना योगदान देना चाहये ।
अंग्रेजी की दीवानगी में कोख में पायी मातृ भाषा को छोड़ देना अहसान फरामोसी के अतिरिक्त और क्या है । हमें हर सफल हिन्दी भाषा -भाषी जीवन संग्राम के नायकों से यह अनुरोध है कि वे अपनी आत्म कथायें और संस्मरण हिन्दी के माध्यम से नयी पीढी के समक्ष रखें । मात्र हिन्दी दिवस मनाकर और छोटे -मोटे सरकारी आयोजन कर हिन्दी का उत्थान संभ्भव नहीं हो सकता । हमें सरकारी आयोजन लगाव छोड़कर हिन्दी के प्रति वही लगाव करना चाहिये जो ह्रदय की धड़कनों से स्पन्दित होता है । हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र के वैज्ञानिक ,तकनीक विशारद ,चिकित्सा गुरु ,उद्योग सम्राट और प्रबन्धन प्रवीण जब इस ओर सम्पूर्ण तत्परता से प्रतिबद्धित हो जायेंगें तब हिन्दी का विकास आश्चर्य जनक छलांगें लगाने लगेगा ।
शब्द -शिल्पी तभी युग प्रवर्तक बन सकते हैं जब उनका अनुभव अत्यन्त विशाल हो और विशालता के साथ अत्यन्त गहरायी तक मानव मनोविज्ञान की मूल प्रेरक वृत्तियों से परिचित हों । आज तो ललित साहित्य भी तब तक औसत दर्जे का ही माना जायेगा जब तक उसके रचयिता तकनीकी विकास के इस आश्चर्यजनक युग में अधुनातन जीवन शैली से परिचित न हों । मात्र गरीबी ,भुखमरी का चित्रण आज उनकी गहरी सम्बेदना नहीं जगा सकता जितना कि आजादी के पहले और आजादी के कुछ वर्ष बाद तक संभ्भव था । इक्कीसवीं सदी का भारत गरीबी तो नहीं मिटा सका है पर उसके पास सकारात्मक प्रतिभा को प्रभावित करनें वाली उपलब्धियां उपस्थित हैं । भारत आर्थिक विकास और उस विकास के फलस्वरूप सम्पन्न वर्ग की मनोग्रंथियां ,अति शिक्षित व्यक्तियों का गहरा व्यक्तिवादी बोध और राज्य सत्ता से आरोपित नारी समानता और मानव समानता के संवैधानिक प्राविधानों से प्रभावित समाज की उलझनें और जटिलतायें आदि पर भी श्रेष्ठ साहित्य की रचना हो सकती है । कई बार अवकाश के क्षणों में मैं जब अमरीका और इंग्लैण्ड की कथा रचनाओं पर निगाह डालता हूँ तो मुझे उनकी कथा वस्तु में प्राकृतिक विज्ञान से सम्बन्धित ताजी से ताजी जानकारी सम्मिलित होती दिखायी पड़ जाती है । इक़्कीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक समाप्ति की ओर बढ़ रहा है पर पहले दशक में ही विश्व की संचार तकनीक नें जो कर दिखाया है वह बीते युग के माया लोक कल्पना से भी कहीं अधिक चमत्कृत करने वाला है । मय नाम के वास्तु शिल्पी नें महाभारत में पाण्डवों के जिस अद्दभुत भवन का निर्माण किया था वैसे भ्रमात्मक चाक -चिक्य आज अभियन्त्रकीय के सामान्य कारीगरों से भी संभ्भव हो जाता है । नभ गंगाओं की रूप परियाँ अब हमें और नहीं छल पातीं ठीक वैसे ही जैसे समुद्र सुन्दरियां अब मत्स और नारी के रोमांचक मिलन को लेकर हमें आनन्दातिरेक नहीं दे पातीं । साहित्य के साधनों की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को समझ कर उसे ऐसे रूप में ढालना होगा जो सामान्य जन की संवेदना को उकेर सके । अब यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में विज्ञान और तकनीक अभी हमारी जीवन शैली का अंग नहीं बना है और इसलिये वह हमारी संवेदनाओं से नहीं जुड़ पाया है । आज किसी भी शहर का मध्यम वर्ग भले ही वह निम्न मध्यम वर्ग क्यों न हो नारी के इस चित्रण से प्रभावित नहीं होगा कि चूल्हा फूँकते उसका मुँह लाल हो गया है या कि धुयें से उसकी आँखों में आँसू आ गये हैं ।बार -बार सिर झटकने से उसके बाल बेतरतीब होकर बिखर गये हैं । रसोईं गैस की पहुँच हर मध्यम वर्ग में हो चुकी है और बिजली के स्टोब ,चूल्हे ,ओवन और अन्य अनेकानेक उद्पाद हर घर में पहुँचते जा रहे हैं । स्कूल जाते हुये बच्चों की साफ़ -सुथरी यूनिफार्म और उनके गले की टाई अब एक सामान्य अनुभव है । अब बनियान और नेकर पहनकर स्कूल जानें वाले बच्चे का चित्रण पढ़े लिखे पाठक को वास्तविक नहीं लगता । यह हो सकता है कि भूख से ऊपर उठ चुका हूँ इसलिये मेरे ये अनुभव उस वर्ग को न भावें जिन्हें अभी भी दो जून की रोटी मय्यसर नहीं होती । पर गरीबी रेखा से नीचे वाले भारत के अतिरिक्त स्वतन्त्र भारत के और भी कई रूप हैं और गरीबी रेखा के नीचे के वर्ग भी अपनें निजी प्रयत्नों और सरकारी सहायता के बल पर जीवन की मूलभूत सुविधायें जुटा लेनें की ओर अग्रसर हैं । और फिर प्रगति का आज एक ही अर्थ है और वह आर्थिक विकास के आस- पास घूमता है । आज नहीं तो कल भारत की प्रगति के साथ -साथ भुखमरी और असहायता इतिहास की वस्तु बन कर रह जायेंगीं । साहित्य तब भी रचा जायेगा और उस साहित्य में भी कालजयी रचनाएँ संभ्भव होंगीं । पढ़े लिखे परिवारों को प्रतिभा के धनी शिशुवों और किशोरों को इस प्रकार पाला और पोषा जाना चाहिये कि उनकी सोच एकात्मक न होकर विश्वव्यापी मानव विकास की अद्दभुत सफलताओं से प्रेरणा प्राप्त कर सके । शिशु और किशोरों को अतीत के कटघरे में बन्द रखना और उनकी सोच को बीते कल के भारत के किस्सा -कहानियों से ही नियन्त्रित करना अब लक्षित उपलब्धियाँ हासिल नहीं करवा सकता । हमें ध्रुव के दोनों छोरों पर तो खड़ा ही होना है और साथ ही गिरि श्रृंगों से ऊपर उठकर सितारों का भी हमजोली बनना है । कावेरी बेसिन से निकला तरल सोना (पेट्रोलियम )हमें राजा महाराजाओं के सोने से अलग एक नयी सोच ,विकास को एक नयी अवधारणा के प्रति प्रेरित करनें में समर्थ होगा । सृजनात्मक प्रतिभा विज्ञान के क्षेत्र में यदि हम नोबेल प्राइज पुरुष्कार प्राप्त वैज्ञानिकों की नामावली पर द्रष्टि डालें तो हम पायेंगें कि उनमें से बहुत शब्दों के भी समर्थ अधिकारी थे । विज्ञान और तकनीक के अधिकारी विद्वान आने वाले समय में शब्द शिल्प की महारथ भी हासिल करेंगें और तब जो रचनायें हमारे सामनें आयेंगीं वे निश्चित ही निराली होंगीं । हिन्दी के कवि आज भी रस ,छंद वक्रोक्ति और नायिका वर्गीकरण में उलझे हैं । उन्हें वहाँ से कुछ समय के लिये बाहर निकलकर जीवन उद्यान के अन्य धुंधली या प्रकाशित क्यारियों में से गुजरना होगा । बिना अनुभव और अध्ययन की विशालता के छोटी -मोटी रचनायें ही संभ्भव हो पाती हैं । सफल उद्योगपति भी समर्थ वक्ता और लेखक बनते जा रहे हैं । चाहे रंगमंच हो ,चाहे सिनेमायी पर्दा ,चाहे क्रिकेट हो ,टेनिस हो या फ़ुटबाल ,चाहे भारोत्तोलन हो या पहलवानी सभी जगह श्रेष्ठ प्रतिभायें निखर पाती हैं और अगर इन प्रतिभाओं को भाव प्रकाशन की महारथ हासिल हो जाय तो एक प्रेरक साहित्य अनवरत रूप से हमारे सामनें उपस्थित होता रहेगा । राजनीतिज्ञों नें साहित्य के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया है । प्रेरक पुस्तकों और जीवन सफलता के बीच गहरा सम्बन्ध है । भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए ० पी ० जे ० अब्दुल कलाम की पुस्तकें न जानें कितनों को आकर्षित कर सकी हैं । हिन्दी भाषा में भी चोटी पर पहुंचें हुये हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों को अपना योगदान देना चाहये ।
अंग्रेजी की दीवानगी में कोख में पायी मातृ भाषा को छोड़ देना अहसान फरामोसी के अतिरिक्त और क्या है । हमें हर सफल हिन्दी भाषा -भाषी जीवन संग्राम के नायकों से यह अनुरोध है कि वे अपनी आत्म कथायें और संस्मरण हिन्दी के माध्यम से नयी पीढी के समक्ष रखें । मात्र हिन्दी दिवस मनाकर और छोटे -मोटे सरकारी आयोजन कर हिन्दी का उत्थान संभ्भव नहीं हो सकता । हमें सरकारी आयोजन लगाव छोड़कर हिन्दी के प्रति वही लगाव करना चाहिये जो ह्रदय की धड़कनों से स्पन्दित होता है । हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र के वैज्ञानिक ,तकनीक विशारद ,चिकित्सा गुरु ,उद्योग सम्राट और प्रबन्धन प्रवीण जब इस ओर सम्पूर्ण तत्परता से प्रतिबद्धित हो जायेंगें तब हिन्दी का विकास आश्चर्य जनक छलांगें लगाने लगेगा ।