हो पूछ रही
आधार अस्वीकृति का मेरी
आलेख असंगति का मेरी
मेरे विजडन का अर्थ
पलायन की गाथा
क्यों आत्म -दैन्य से
झुका रहा मेरा माथा
जो दर्द शब्द से परे
न उसको कहलाओ
जो व्यथा -घाव भर रहा
न उसको सहलाओ
माना रंगिणि ,स्वीकार न पाया
वह मेहदी से रचा हाँथ
माना मेरे पग विचल गये
चल सका न तेरे साथ -साथ
माना पायल की रुनझुन पर
कल्पना गीत प्रिय बन न सका
गोरी चन्दा की किरणें नाचीं बहुत
मगर हिम -श्वेत चंदोवा तन न सका
इसलिये भीरु ?
स्वीकार तुम्हारा सम्बोधन
गतिशील बनूँ ।
स्वीकार तुम्हारा उद्बोधान
हूँ उत्तरदायी
यह समाज का न्यायालय
इसका प्रधान स्वीकार मुझे
इसका विधान स्वीकार मुझे
पर इतना तो अधिकार
मुझे भी दो रूपसि
जड़ -लौह शिलाओं से वन्दित
अभियुक्त सही
जो सत्य खण्ड मैंने देखा है जाना है
कह सकूं काव्य के माध्यम से
कुछ ही क्षण की
यह मुक्ति सही ।
मैनें सोचा
कैसे गुलाब का फूल तोड़ लूँ डाली से
जब कहीं न कोई मेरी अपनी क्यारी है
यह छुई -मुई की लाता सलोनी संकोची
कैसे छु लूँ
जब मेरा यह स्पर्श कांच सा भारी है
मैंने सोचा
चांदनी कपासी धरती पर सिर धुन -धुन कर पछतायेगी
मैंने सोचा
यह कुहकिन ,प्रस्तर पिंजड़े में क्या राग बसन्ती गायेगी ?
ये हाथ
कि जिनमें हीरे नीलम झूलेंगें
हिमदात चन्द्रिका इन्दीवर पर झूल रही
यह रंग रंगीले नाखूनों की नख साजी
मानों गुलाब की पतली क्यारी फूल रही
मैं कर न सका स्वीकार
सुनहले हाँथ
करूं दूषित
इनको हल्दी की पीली लाली से
बर्तन की खुर्चन काली से
यह हीरक वर्ण तुम्हारा
मटमैला कर दूँ
युग तिरस्कृता संथाली सा
आतप -झुलसित बन माली सा
माना तुमनें दो बार
मुझे बतलाया था
सीता को पति के साथ साथ
वन को जाना
कुछ याद नहीं
फिर भी शायद ,तुमनें मुझको
समझाया था
युग -पुरुष काल से
सावित्री का टकराना
पर क्षुद्र बुद्धि मैं क्षुद्र प्राण
मैनें सोचा
इच्छित बनवास नहीं मेरा
मैं तो सदैव का वनवासी
चौदह वर्षों की बात नहीं
मैं तो युग -युग का अधिवासी
मैं सत्यवान सा गत -वैभव
पर राजपुत्र हूँ नहीं किसी अधियन्ता का
मैं एक वर्ष से अधिक अवधि का आकांक्षी
क्रम तोड़ न पाओगी तुम किसी नियन्ता का
मैं सत्यवान बन भी जाऊँ
तुम को पाकर
मैं दिब्य गर्व से तन जाऊँ
पर क्या तुमको विश्वास कि
तुम मृत्यु लोक तक जाओगी
अंगुष्ठ -प्राण हठकर वापस ले आओगी
सब ओर देख मैनें सोचा
मेरा दुःख दैन्य तुम्हे अभिशप्त न कर जाये
मेरा जीवन- सन्ताप कहीं तुमको भी तप्त न कर जाये
तुम फूल सेज पर पली
नग्न धरती पर पड़ कुम्हलाओगी
तुम प्रिया रूप में मधुर
न पर
जीवन- संगिनी बन पाओगी
तुम खिलो किसी की बगिया में
लेटो गुलाब की सेजों पर
तुम गुलदस्ते का फूल बनों
सजकर कंचन की मेजों पर
इसलिये प्रिये !
मैं कर न सका स्वीकार सुनहरे हाँथ
करूँ दूषित इनको
हल्दी की पीली लाली से
युग तिरस्कृता संथाली से ।
आधार अस्वीकृति का मेरी
आलेख असंगति का मेरी
मेरे विजडन का अर्थ
पलायन की गाथा
क्यों आत्म -दैन्य से
झुका रहा मेरा माथा
जो दर्द शब्द से परे
न उसको कहलाओ
जो व्यथा -घाव भर रहा
न उसको सहलाओ
माना रंगिणि ,स्वीकार न पाया
वह मेहदी से रचा हाँथ
माना मेरे पग विचल गये
चल सका न तेरे साथ -साथ
माना पायल की रुनझुन पर
कल्पना गीत प्रिय बन न सका
गोरी चन्दा की किरणें नाचीं बहुत
मगर हिम -श्वेत चंदोवा तन न सका
इसलिये भीरु ?
स्वीकार तुम्हारा सम्बोधन
गतिशील बनूँ ।
स्वीकार तुम्हारा उद्बोधान
हूँ उत्तरदायी
यह समाज का न्यायालय
इसका प्रधान स्वीकार मुझे
इसका विधान स्वीकार मुझे
पर इतना तो अधिकार
मुझे भी दो रूपसि
जड़ -लौह शिलाओं से वन्दित
अभियुक्त सही
जो सत्य खण्ड मैंने देखा है जाना है
कह सकूं काव्य के माध्यम से
कुछ ही क्षण की
यह मुक्ति सही ।
मैनें सोचा
कैसे गुलाब का फूल तोड़ लूँ डाली से
जब कहीं न कोई मेरी अपनी क्यारी है
यह छुई -मुई की लाता सलोनी संकोची
कैसे छु लूँ
जब मेरा यह स्पर्श कांच सा भारी है
मैंने सोचा
चांदनी कपासी धरती पर सिर धुन -धुन कर पछतायेगी
मैंने सोचा
यह कुहकिन ,प्रस्तर पिंजड़े में क्या राग बसन्ती गायेगी ?
ये हाथ
कि जिनमें हीरे नीलम झूलेंगें
हिमदात चन्द्रिका इन्दीवर पर झूल रही
यह रंग रंगीले नाखूनों की नख साजी
मानों गुलाब की पतली क्यारी फूल रही
मैं कर न सका स्वीकार
सुनहले हाँथ
करूं दूषित
इनको हल्दी की पीली लाली से
बर्तन की खुर्चन काली से
यह हीरक वर्ण तुम्हारा
मटमैला कर दूँ
युग तिरस्कृता संथाली सा
आतप -झुलसित बन माली सा
माना तुमनें दो बार
मुझे बतलाया था
सीता को पति के साथ साथ
वन को जाना
कुछ याद नहीं
फिर भी शायद ,तुमनें मुझको
समझाया था
युग -पुरुष काल से
सावित्री का टकराना
पर क्षुद्र बुद्धि मैं क्षुद्र प्राण
मैनें सोचा
इच्छित बनवास नहीं मेरा
मैं तो सदैव का वनवासी
चौदह वर्षों की बात नहीं
मैं तो युग -युग का अधिवासी
मैं सत्यवान सा गत -वैभव
पर राजपुत्र हूँ नहीं किसी अधियन्ता का
मैं एक वर्ष से अधिक अवधि का आकांक्षी
क्रम तोड़ न पाओगी तुम किसी नियन्ता का
मैं सत्यवान बन भी जाऊँ
तुम को पाकर
मैं दिब्य गर्व से तन जाऊँ
पर क्या तुमको विश्वास कि
तुम मृत्यु लोक तक जाओगी
अंगुष्ठ -प्राण हठकर वापस ले आओगी
सब ओर देख मैनें सोचा
मेरा दुःख दैन्य तुम्हे अभिशप्त न कर जाये
मेरा जीवन- सन्ताप कहीं तुमको भी तप्त न कर जाये
तुम फूल सेज पर पली
नग्न धरती पर पड़ कुम्हलाओगी
तुम प्रिया रूप में मधुर
न पर
जीवन- संगिनी बन पाओगी
तुम खिलो किसी की बगिया में
लेटो गुलाब की सेजों पर
तुम गुलदस्ते का फूल बनों
सजकर कंचन की मेजों पर
इसलिये प्रिये !
मैं कर न सका स्वीकार सुनहरे हाँथ
करूँ दूषित इनको
हल्दी की पीली लाली से
युग तिरस्कृता संथाली से ।