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जाग मछन्दर

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निकल भागा ,निकल भागा ,
डाट खुलते ही
कळूछा
बन्द बोतल का निशाचर ।
तमस की उठती घटायें
अग्रजन की धूर्ततायें
भ्रष्ट तन्त्री कुटिलतायें
दे रहीं भय-भूत को
अति प्रस्तरण की संभ्भावनायें
बाग़ की हर शाख पर
है लगा उसका ठिकाना
हर भले इन्सान का
अब बन्द है इस राह आना
अब कहाँ जादू मछन्दर
देवता सब भग गये हैं
छोड़ सिंहासन छिपे हैं स्वयं इन्दर
अब कहाँ जादू मछन्दर
बज्र मुष्ठी में पकड़ जो
कैद कर दे फिर गुहा में
अमिट विस्मृति  की कुहा में
भ्रष्टता का यह निशाचर
डर रहे जिससे
दिवाकर और प्रभाकर
उठ मछन्दर जाग
क्यों अब सो रहा है
देख तेरे देश में क्या हो रहा है ?
शब्दकारों उठो !अब गोरख बनों तुम
सुप्त जनता को मछन्दर सा गुनों तुम
दो उसे ललकार
पावे शक्ति अपनी
दो उसे संज्ञान जानें युक्ति अपनी
वोट का बल
वज्र की ही चोट तो है
है यही जादू मछन्दर
इसी जादू से
सहम कर
भ्रष्टता के कलुष पुतले
 फिर घिरेंगे कुहा अन्दर
कुहा का लघु द्वार कस कर बन्द करना
कौन जानें फिर कहीं
सोची गयी हो कुटिल छलना ।






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