अंग्रेजी की एक बहुत मशहूर कविता है -" Death the Leveler "इस काविता को हाई स्कूल या इंटरमीडिएट के उन सभी विद्यार्थियों नें पढ़ा होगा जो अंग्रेजी को एक विषय के रूप में लेते हैं । कविता का सारांश यही है कि सिंहासन और ताज ,हँसिया या कुदाली सभी को मिट्टी में मिल जाना है और एक जैसा बन जाना है । मृत्यु न तो सम्राटो को छोडती है न अरब पतियों को । स्वर्ण महल में रहनें वाला और झुग्गी -झोपड़ी में रहनें वाला दोनों को एक दिन मिट्टी बन जाना है इस सत्य को सभी जानते हैं पर न जानें क्यों संसार के अधिकाँश नर -नारी मिथ्या बड़प्पन का आडम्बर ढोनें की चेष्टा करते रहते हैं । जब विवेकानन्द नें अमेरिका के विश्व धर्म सम्मलेन में 1898 में सभागार में उपस्थित लोगों को Sisters and Brothers of America कहकर सम्बोधित किया था तो सारा हाल करतल ध्वनि से दो मिनट तक गूँजता रहा था । ऐसा इसलिये हुआ था कि विवेकानन्द नें भाषण के बहुप्रचलित संबोधन "Ladies and Gentlemen"को बदल कर " Sisters and Brothers "का जनतान्त्रिक जामा पहनाया था । दरअसल साम्राज्यवादी ब्रिटेन में इतनें पद और पदवियाँ वहाँ के King या Queen के द्वारा प्रदान किये जाते थे कि सामान्य आदमी जीवन भर अपनें को उपेक्षित महसूस करता था । Duke और Earl या Prince के यह पद और उपाधियाँ खानदानी बन गयी थीं और जन्म से ही औरों से अलग कर एक निराधार उच्चता का भाव सामन्तीय वर्ग में फ़ैल चुका था । आप जानते ही हैं कि अमरीका भी काफी समय तक ब्रिटिश साम्राज्य की एक कालोनी ही था और अन्ततः जब उसनें संघर्ष करके स्वतन्त्र और सार्वभौम राज्य का अधिकार पाया तो वहाँ खानदानी टाइटिल्स समाप्त कर दिये गये और उस व्यवस्था को अलोकतान्त्रिक माना गया पर अँग्रेजी सम्बोधन में Ladies and Gentlemen फ्रेज चलता रहा । विवेकानन्द जी नें अपनें विवेक से अमेरिका में जन्मी सच्ची जनतान्त्रिक भावना को सराहा और इसी कारण उन्हें अनूठी प्रशंसा प्राप्त हुयी । अँग्रेजी का शब्द Ladies उस समय की कुछ ख़ास ऊँचें घराने की Ladies के लिये प्रयोग होता था और Gentlemen की भी एक उच्च वर्गीय अवधारणा स्थापित हो चुकी थी । यह दोनों शब्द कुलीन वर्ग से सम्बन्धित थे । अँग्रेजी के एक प्रसिद्ध कवि नें इसी सन्दर्भ में एक सुन्दर दोहा बनाया था । दोहा इस प्रकार है " When Adam Delved and Eve Span
Who was then a Gentlemen "
अकेले ब्रिटेन में ही नहीं लगभग संसार के हर देश में ही पुराकाल और मध्यकाल यानि अठ्ठारहवीं शताब्दी तक सच्चे अर्थों में मानव समानता को स्वीकार नहीं किया गया था । भारत में तो प्राचीन काल में शासकों के साथ न जानें कितनें अजीबो -गरीब विशेषण लगाये जाते थे । परम भट्टारट ,चक्रवर्ती ,राजाधिराज ,देवनाम प्रिय ईश्वरावतारीय जैसे अनेकों शब्द गढ़कर ऊंच -नींच की कभी न भरी जाने वाली विभाजक खाइयाँ तैय्यार कर दी गयी थीं । मुगल काल में भी जहाँगीर ,शाहजहाँ और आलमगिर जैसी उपाधियाँ अतिशयोक्ति की कहानिया बनकर रह गयी हैं । नवाबों और देशीय राजघरानों के अपनें अलग ठाठ -बाट थे । अंग्रेज हुकूमत नें हिन्दुस्तान में किसी को राजा साहब बनाया । तो किसी को राव साहब किसी को Knight की उपाधि दे डाली तो किसी को बहादुर की । भारत की जनता में सैकड़ों भेद -विभेद कर दिये गये । आजादी के बाद सरदार बल्लभ भाई पटेल के प्रयासों से 540 से अधिक देशी रियासतों का विलयन स्वतन्त्र भारत में संभ्भव हो सका । श्रावण कोड ,जूनागढ़ ,और हैदराबाद में शक्ति प्रदर्शन भी करना पड़ा । जम्मू और कश्मीर के राजा हरीसिंह को काफी देर बाद भारत में मिलनें की समझ आयी पर तब तक पाकिस्तान समर्थित कबीलाई हमले नें कश्मीर की राजनीतिक स्थिति को डावांडोल कर दिया था । भारतीय सेना नें अपनें अपूर्व शौर्य प्रदर्शन के बल पर कश्मीर घाटी को मुक्त कर लिया पर गिलगिट और वाल्टिश्तान जिसे अब आजाद कश्मीर कहा जाता है अभी तक पाकिस्तानी कब्जे में है । दुनिया की पंचायत में मामला डाल देने से नेहरू और पटेल को लाचार होकर जम्मू कश्मीर में विभाजन की रेखा को स्वीकार करना पड़ा । यह तो खुशी की बात है कि महाराजा हरी सिंह के पुत्र कर्ण सिंह नें एक प्रतिष्ठित विद्वान और महाराजा के पुत्र होनें का अभिमान नहीं पाला पर अभी भी भारत के न जाने कितनें ऐसे नवाबी और राजसी घराने हैं जो अपना मिथ्या अभिमान ढोते चले जा रहे हैं । जनतान्त्रिक चुनाव में भी इन राजसी घरानों के लोग अपनी उच्च कुलीनता का ढोंग रचकर परम्पराके आधार पर साधारण जनता से बोट माँगते रहते हैं । पर अब स्वतन्त्र भारत में एक नये प्रकार का राजतन्त्र और नवाबी कल्चर शुरू हो गया है । लता मंगेशकर ,सचिन तेन्दुलकर ,या वैज्ञानिक C.N.R. राव को तो भारत रत्न अपनी प्रतिभा के बल पर मिला है और जनतान्त्रिक भारत को उनपर अभिमान है । पर हर राज्य में बहुत से नकुछ और नकारा नर -नारी विशेष प्रकार की गाड़ियाँ पाकर राज्य मन्त्री या उप राज्य मन्त्री का दर्जा पाये हुये हैं । उनका गुण केवल उनकी राजनीतिक चाटुकारिता ही होती है । पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम नें बिल्कुल उचित कहा था कि नाम से पहले किसी भी उपाधि के जोड़ने से कोई व्यक्ति महान नहीं बनता । महानता व्यक्ति की निजी विशेषता में होती है । जिसे वह कुदरत की दी हुयी प्रतिभा को अपनें प्रयासों से चमका पाताहै । स्वतन्त्रता के बाद भारत वर्ष में भारत रत्न ,पद्म विभूषण ,पद्म भूषण ,और पद्म श्री जो मानद उपाधियाँ प्रदान की जाती हैं उन में भी आने वाले बहुत सारे नाम उपाधि के योग्य नहीं होते । एक अनुमान के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत उपाधियाँ मात्र राजनैतिक दबावों के कारण प्रदान की जाती हैं । आज भी भारत में कितनें वैज्ञानिक ,चिन्तक ,विचारक और लेखक ,समाजसेवी और सन्त मौन भाव से जनकल्याणकारी योजनाओं को रूपायित कर रहे हैं । उन्हे किसी उपाधि या सम्मान की आकांछा नहीं है क्योंकि वे निष्काम कर्म की अमृत्व वाली व्यवस्था में विश्वास रखते हैं । अखबारों में चर्चित होनें की इच्छा भी एक प्रकार की मानसिक बीमारी है । सन्त -महात्माओं को यदि वे वास्तव में सन्त -महात्मा हैं तो इस बीमारी से मुक्त रहना चाहिये । आवश्यक नहीं कि हर एक सदाचारी की मृत्यु पर ताजमहल बनाया जाय या हर व्यक्ति की एक आदमकद प्रतिमा खड़ी की जाय । अफगानिस्तान से लेकर मगध तक शासन करने वाले कनिष्क की प्रतिमा का सिर उखड कर कहीं चला गया है । एक हाथ भी गायब है । दो पैरों पर खड़ा धड़ ही शेष रह गया है पर बुद्ध धर्म के गहरे विवेचक होनें के नाते सम्राट कनिष्क का नाम आज भी आदर के साथ लिया जाता है । जो अपनें को सन्त कहते हैं उन्हें महाकवि तुलसीदास द्वारा वर्णित सन्तों की गुणावली का अध्यन करना चाहिये । अरबों की सम्पत्तिसे कोई सम्मान का अधिकारी नहीं बन जाता हाँ जनसाधारण को भयातुर अवश्य कर सकता है । आइये हम आप स्वतन्त्र भारत के आदर्श नागरिक बनने का प्रयास करें । इस दिशा में यदि हमें आंशिक सफलता भी मिलती है तो वह हमारे जीवन की एक उल्लेखनीय उपलब्धि होगी ।
Who was then a Gentlemen "
अकेले ब्रिटेन में ही नहीं लगभग संसार के हर देश में ही पुराकाल और मध्यकाल यानि अठ्ठारहवीं शताब्दी तक सच्चे अर्थों में मानव समानता को स्वीकार नहीं किया गया था । भारत में तो प्राचीन काल में शासकों के साथ न जानें कितनें अजीबो -गरीब विशेषण लगाये जाते थे । परम भट्टारट ,चक्रवर्ती ,राजाधिराज ,देवनाम प्रिय ईश्वरावतारीय जैसे अनेकों शब्द गढ़कर ऊंच -नींच की कभी न भरी जाने वाली विभाजक खाइयाँ तैय्यार कर दी गयी थीं । मुगल काल में भी जहाँगीर ,शाहजहाँ और आलमगिर जैसी उपाधियाँ अतिशयोक्ति की कहानिया बनकर रह गयी हैं । नवाबों और देशीय राजघरानों के अपनें अलग ठाठ -बाट थे । अंग्रेज हुकूमत नें हिन्दुस्तान में किसी को राजा साहब बनाया । तो किसी को राव साहब किसी को Knight की उपाधि दे डाली तो किसी को बहादुर की । भारत की जनता में सैकड़ों भेद -विभेद कर दिये गये । आजादी के बाद सरदार बल्लभ भाई पटेल के प्रयासों से 540 से अधिक देशी रियासतों का विलयन स्वतन्त्र भारत में संभ्भव हो सका । श्रावण कोड ,जूनागढ़ ,और हैदराबाद में शक्ति प्रदर्शन भी करना पड़ा । जम्मू और कश्मीर के राजा हरीसिंह को काफी देर बाद भारत में मिलनें की समझ आयी पर तब तक पाकिस्तान समर्थित कबीलाई हमले नें कश्मीर की राजनीतिक स्थिति को डावांडोल कर दिया था । भारतीय सेना नें अपनें अपूर्व शौर्य प्रदर्शन के बल पर कश्मीर घाटी को मुक्त कर लिया पर गिलगिट और वाल्टिश्तान जिसे अब आजाद कश्मीर कहा जाता है अभी तक पाकिस्तानी कब्जे में है । दुनिया की पंचायत में मामला डाल देने से नेहरू और पटेल को लाचार होकर जम्मू कश्मीर में विभाजन की रेखा को स्वीकार करना पड़ा । यह तो खुशी की बात है कि महाराजा हरी सिंह के पुत्र कर्ण सिंह नें एक प्रतिष्ठित विद्वान और महाराजा के पुत्र होनें का अभिमान नहीं पाला पर अभी भी भारत के न जाने कितनें ऐसे नवाबी और राजसी घराने हैं जो अपना मिथ्या अभिमान ढोते चले जा रहे हैं । जनतान्त्रिक चुनाव में भी इन राजसी घरानों के लोग अपनी उच्च कुलीनता का ढोंग रचकर परम्पराके आधार पर साधारण जनता से बोट माँगते रहते हैं । पर अब स्वतन्त्र भारत में एक नये प्रकार का राजतन्त्र और नवाबी कल्चर शुरू हो गया है । लता मंगेशकर ,सचिन तेन्दुलकर ,या वैज्ञानिक C.N.R. राव को तो भारत रत्न अपनी प्रतिभा के बल पर मिला है और जनतान्त्रिक भारत को उनपर अभिमान है । पर हर राज्य में बहुत से नकुछ और नकारा नर -नारी विशेष प्रकार की गाड़ियाँ पाकर राज्य मन्त्री या उप राज्य मन्त्री का दर्जा पाये हुये हैं । उनका गुण केवल उनकी राजनीतिक चाटुकारिता ही होती है । पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम नें बिल्कुल उचित कहा था कि नाम से पहले किसी भी उपाधि के जोड़ने से कोई व्यक्ति महान नहीं बनता । महानता व्यक्ति की निजी विशेषता में होती है । जिसे वह कुदरत की दी हुयी प्रतिभा को अपनें प्रयासों से चमका पाताहै । स्वतन्त्रता के बाद भारत वर्ष में भारत रत्न ,पद्म विभूषण ,पद्म भूषण ,और पद्म श्री जो मानद उपाधियाँ प्रदान की जाती हैं उन में भी आने वाले बहुत सारे नाम उपाधि के योग्य नहीं होते । एक अनुमान के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत उपाधियाँ मात्र राजनैतिक दबावों के कारण प्रदान की जाती हैं । आज भी भारत में कितनें वैज्ञानिक ,चिन्तक ,विचारक और लेखक ,समाजसेवी और सन्त मौन भाव से जनकल्याणकारी योजनाओं को रूपायित कर रहे हैं । उन्हे किसी उपाधि या सम्मान की आकांछा नहीं है क्योंकि वे निष्काम कर्म की अमृत्व वाली व्यवस्था में विश्वास रखते हैं । अखबारों में चर्चित होनें की इच्छा भी एक प्रकार की मानसिक बीमारी है । सन्त -महात्माओं को यदि वे वास्तव में सन्त -महात्मा हैं तो इस बीमारी से मुक्त रहना चाहिये । आवश्यक नहीं कि हर एक सदाचारी की मृत्यु पर ताजमहल बनाया जाय या हर व्यक्ति की एक आदमकद प्रतिमा खड़ी की जाय । अफगानिस्तान से लेकर मगध तक शासन करने वाले कनिष्क की प्रतिमा का सिर उखड कर कहीं चला गया है । एक हाथ भी गायब है । दो पैरों पर खड़ा धड़ ही शेष रह गया है पर बुद्ध धर्म के गहरे विवेचक होनें के नाते सम्राट कनिष्क का नाम आज भी आदर के साथ लिया जाता है । जो अपनें को सन्त कहते हैं उन्हें महाकवि तुलसीदास द्वारा वर्णित सन्तों की गुणावली का अध्यन करना चाहिये । अरबों की सम्पत्तिसे कोई सम्मान का अधिकारी नहीं बन जाता हाँ जनसाधारण को भयातुर अवश्य कर सकता है । आइये हम आप स्वतन्त्र भारत के आदर्श नागरिक बनने का प्रयास करें । इस दिशा में यदि हमें आंशिक सफलता भी मिलती है तो वह हमारे जीवन की एक उल्लेखनीय उपलब्धि होगी ।