वह सुबह कभी क्या आयगी ?किशोरावस्था में जो इतिहास हमें इण्टरमीडिएट के स्तर पर पढ़ाया गया था उसमें गुप्त काल को स्वर्ण काल के नाम से वर्णित किया गया था । युवा होने के कुछ समय बाद मैंने पाया कि इतिहासकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आ गयी है जो गुप्त काल को स्वर्ण काल माननें पर सहमत नहीं है और यह दावा करते हैं कि उस काल में भी हिन्दुस्तान के आर्थिक हाशिये पर खड़े बहुसंख्यक दलित .पीड़ित और उपेक्षित समाज को न्याय नहीं मिल पाया था । समृद्धि की दृष्टि से वह काल भले ही स्वर्ण काल कहा जाय पर समृद्धि के सामाजिक बटवारे की दृष्टि से उस काल को भी सामन्तवादी व्यवस्था का ही एक फैलाव माना जाना चाहिये । आधुनिक भारत में भी कुछ ऐसी परिस्थितियां दिखायी पड़ रही हैं । आर्थिक प्रगति की दृष्टि से पिछले 10 -15 वर्षों में भारत ने जो कर दिखाया है वह निश्चय ही एक प्रशंसनीय करिश्मा हैपर समृद्धि गुप्त काल की तरह बहुसंख्यक सामान्य जन समुदाय तक नहीं पहुँच सकी है । ऐसा क्यों होता है ?इसका उत्तर पाने के लिये समाज शास्त्रियों और मानव मन के गंभ्भीर खोजियों ने बहुत से उत्तर तलाशे हैं । शासकों और प्रशासकों की अच्छी नियत के बावजूद न्याय कानूनों की साधना के बावजूद मन्दिरों ,मस्जिदों, गुरुद्वारों और गिरजाघरों के धार्मिक उपदेशों के बावजूद आर्थिक प्रगति नीचे उतरते ही अपना वेग क्यों खो देती है जबकि लगभग सभी धर्म की धारायें नीचे पहुँच कर अधिक बलवती बन जाती है ।
फ्रायड और मार्क्स का चिन्तन अब पुराना पड़ चुका है । अधुनातन चिन्तन यह स्वीकार करने लगा है कि भौतिक सुविधाओं की प्रचुरता ने आर्थिक रूप से सबल होने की मनोलहरियों को इतना प्रबल बना दिया है कि कोई भी धार्मिक या दार्शनिक विचारधारा इन उद्दाम लहरियों को नियन्त्रित नहीं कर सकती दुसरे शब्दों में मनोवेगों पर आत्मा का कोई अंकुश नहीं रहा है । आत्मा की अस्मिता और सर्वोच्च्ता अब एक सामाजिक निष्ठा न होकर व्यक्तिगत निष्ठा बन गयी है । इन हालात में अगर कहीं कोई नियन्त्रण हो सकता है तो ऐसा थोड़ा बहुत नियन्त्रण क़ानून के द्वारा ही संम्भव है । संविधान विशेषज्ञ दुनिया के भिन्न -भिन्न देशों में बने हुये कानूनों की तुलना करके अपने निष्कर्ष निकालते रहते हैं । पर सामान्य जन को ऐसा लगने लगा है कि संसार के किसी भी देश में सच्चे अर्थों में मानव समता वादी व्यवस्था नहीं है और अधिकतर क़ानून केवल उन वर्गों के लिये बने हैं जो सुविधा भोगी हैं या विलासता से अथवा राज्य की पक्षपात पूर्ण नीतियों के कारण संपत्ति के अधिकारी बन गये हैं । भारत के सन्दर्भ में इन दिनों भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये जितनी तत्परता दिखायी पड़ती है वैसी तत्परता आजादी पाने के लिये किये गये संघर्षों में भले ही दिखायी पडी हो पर अन्य कहीं किसी जगह देखने को तो मिलती नहीं । हो सकता है कि सशक्त लोकपाल बिल के सर्वसम्मत से बन जाने के बाद ऊँचे स्तर पर भ्रष्टाचार में थोड़ी बहुत कमी आ जाय ?यद्यपि मुझे ऐसा लगता है कि खुराफाती मानव मष्तिष्क चालबाजी की इतनी अनूठी प्रक्रियाये खोज निकालता है कि सारे क़ानून अपना सिर पटक- पटक कर बेमानी होने लगते हैं । पर मान लो कि यदि हमारे प्रधान मन्त्री ,कैबिनेट मन्त्री ,मुख्य मन्त्री और क्लास वन आफीसर्स अधिकाँश में पूरी तरह ईमानदार हो जायँ तो क्या निचले स्तर का भ्रष्टाचार रुक जायेगा ? वैसे आज भी हमारे सभी मुख्य मन्त्री अपने को दूध का धोया ही बताते हैं और हर वर्ष आला अफसरानों में न जाने कितनों को ईमानदारी के प्रशस्तिपत्र दिये जाते हैं । तो क्या ? कहीं हमारे राष्ट्रीय चरित्र में कही कोई कमी तो नहीं है ?
जब संविधान लिखा गया तब भी हमारे संविधान निर्माता यह जानते थे कि संवैधानिक प्रावधान देश की स्वस्थ आन्तरिक ऊर्जा को और अधिक मजबूत बनाने के लिये किये जाते हैं । वे जानते थे कि जिस पवित्र आन्तरिक ऊर्जा के बल पर देश को आजादी मिल पायी है वह उर्जा समय के साथ धीरे -धीरे धीमी पड़ती जायेगी हमारे बापू तो विश्व के महानतम मानव थे ही पर हमारी लम्बी गुलामी ने भी हमें ठोकर मार -मार कर जीवन के विषय में नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया था । यही कारण है कि स्वतन्त्रता पूर्व और उनके प्रारभ्भिक वर्षों का नेतृत्व बलिदानी जीवन जीता था । सुख -सुविधा से सजाव और संयोजन उनके जीवन का लक्ष्य नहीं था । आकस्मिक रूप से उन्हें जो मिल गया वह बहुत लगता था और वे अपने जीवन को खाद बनाकर एक नयी चरित्रवान पीढ़ी खड़ी कर सके । इस स्वप्न को देखते -देखते उन्होंने अपनी जिन्दगियां समाप्त कीं । पर कौन नहीं जानता कि स्वप्नों का संसार कभी सत्य का संसार नहीं बन पाता । हजारों वर्षों तक भारत की जनता डण्डे के सहारे शाषित होती रही थी और अब जो शासन व्यवस्था संविधान स्वीकृत हुयी थी उसमें डण्डे का बल न के बराबर था । और चरित्र बल का प्रयोग सबसे अधिक था । कुछ प्रारम्भिक वर्षों में चरित्रबल डण्डे पर हावी रहा पर जब चरित्र बल से वंचित लोग विखण्डित- जातीय ,मजहबी और क्षेत्रीय लहरों पर चढ़कर शीर्ष पर पहुँच गये तो फिर से डण्डे का बल ही प्रयोग में आने लगा । भारत के हर राज्य में अब जो कुछ हो रहा है वह हम सबकी आँखों के सामने है । जब लन्दन जैसे शहर में उपेक्षित और वंचित तीन चार दिन तक लूट पाट और हत्यायें करते रहे तो फिर भारत के उपेक्षित और वंचित वर्ग से यह आशा करना कि वह अनन्त काल तक चुप बैठा रहेगा कैसे संभ्भव रहेगा । भारत का मध्यम वर्ग काफी समय तक यह भ्रम पालता रहा कि वह उपेक्षित और वंचित वर्ग से ऊपर का वर्ग है और इसलिये उसे चुप रहकर राजनीतिक घटनाओं को और उन घटनाओं के मोड़ को देखते रहना चाहिये । अब भारत के मध्यम वर्ग में भी कई श्रेणियाँ हैं और इस वर्ग का सबसे बड़ा भाग जो निचला मध्यम वर्ग है वह वंचित लोगों से घेरने वाली सीमा रेखा से बिल्कुल सट कर खड़ा हुआ है । उसने जब देखा कि उसके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही अपने वर्ग से दगाबाजी कर रहे हैं और कुबेर पतियों से सांठ -गाँठ कर कुछ टुकड़े और कतरे संवैधानिक दायित्व के नाम पर नीचे फेंककर अपना घर भरने में लगे हैं तो विद्रोह की भावना उठनी स्वाभाविक ही थी पर चूंकि भारत वर्ष में कौरव सभा में महामानव श्री कृष्ण द्वारा शान्ति के लिये की गयी वकालत से लेकर जितेन्द्रिय महावीर ,सिद्धार्थ गौतम ,और गान्धी तक शान्ति बनाये रखने की एक लम्बी आदर्शवादी परम्परा रही है इसलिये यह विद्रोह पूरी तरह से हिंसक नहीं हो सका है । हाँ भारत के एक अत्यन्त उपेक्षित आदिवासियों और जनजातियों की पट्टियों में यह विद्रोह हिंसक हो उठा है और वहां इस विद्रोह का नेतृत्व मध्यम वर्गीय बुद्धि जीवी ही कर रहे हैं । पर भारत की विशालता में आक्रोश को व्यक्त कारण के लिये अहिंसक मार्ग अपनाने का जो दर्शन लम्बी परम्परा से चल रहा है उसने ही हजारे जैसे वृद्ध गांधी वादियों को प्रमुख भूमिका में ला बिठाया था । व्यक्ति तो केवल एक प्रतीक होता है । विचारधारा ही स्वस्थ्य चिन्तन के लिये सामाजिक आधार प्रस्तुत करती है । (क्रमशः )
फ्रायड और मार्क्स का चिन्तन अब पुराना पड़ चुका है । अधुनातन चिन्तन यह स्वीकार करने लगा है कि भौतिक सुविधाओं की प्रचुरता ने आर्थिक रूप से सबल होने की मनोलहरियों को इतना प्रबल बना दिया है कि कोई भी धार्मिक या दार्शनिक विचारधारा इन उद्दाम लहरियों को नियन्त्रित नहीं कर सकती दुसरे शब्दों में मनोवेगों पर आत्मा का कोई अंकुश नहीं रहा है । आत्मा की अस्मिता और सर्वोच्च्ता अब एक सामाजिक निष्ठा न होकर व्यक्तिगत निष्ठा बन गयी है । इन हालात में अगर कहीं कोई नियन्त्रण हो सकता है तो ऐसा थोड़ा बहुत नियन्त्रण क़ानून के द्वारा ही संम्भव है । संविधान विशेषज्ञ दुनिया के भिन्न -भिन्न देशों में बने हुये कानूनों की तुलना करके अपने निष्कर्ष निकालते रहते हैं । पर सामान्य जन को ऐसा लगने लगा है कि संसार के किसी भी देश में सच्चे अर्थों में मानव समता वादी व्यवस्था नहीं है और अधिकतर क़ानून केवल उन वर्गों के लिये बने हैं जो सुविधा भोगी हैं या विलासता से अथवा राज्य की पक्षपात पूर्ण नीतियों के कारण संपत्ति के अधिकारी बन गये हैं । भारत के सन्दर्भ में इन दिनों भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये जितनी तत्परता दिखायी पड़ती है वैसी तत्परता आजादी पाने के लिये किये गये संघर्षों में भले ही दिखायी पडी हो पर अन्य कहीं किसी जगह देखने को तो मिलती नहीं । हो सकता है कि सशक्त लोकपाल बिल के सर्वसम्मत से बन जाने के बाद ऊँचे स्तर पर भ्रष्टाचार में थोड़ी बहुत कमी आ जाय ?यद्यपि मुझे ऐसा लगता है कि खुराफाती मानव मष्तिष्क चालबाजी की इतनी अनूठी प्रक्रियाये खोज निकालता है कि सारे क़ानून अपना सिर पटक- पटक कर बेमानी होने लगते हैं । पर मान लो कि यदि हमारे प्रधान मन्त्री ,कैबिनेट मन्त्री ,मुख्य मन्त्री और क्लास वन आफीसर्स अधिकाँश में पूरी तरह ईमानदार हो जायँ तो क्या निचले स्तर का भ्रष्टाचार रुक जायेगा ? वैसे आज भी हमारे सभी मुख्य मन्त्री अपने को दूध का धोया ही बताते हैं और हर वर्ष आला अफसरानों में न जाने कितनों को ईमानदारी के प्रशस्तिपत्र दिये जाते हैं । तो क्या ? कहीं हमारे राष्ट्रीय चरित्र में कही कोई कमी तो नहीं है ?
जब संविधान लिखा गया तब भी हमारे संविधान निर्माता यह जानते थे कि संवैधानिक प्रावधान देश की स्वस्थ आन्तरिक ऊर्जा को और अधिक मजबूत बनाने के लिये किये जाते हैं । वे जानते थे कि जिस पवित्र आन्तरिक ऊर्जा के बल पर देश को आजादी मिल पायी है वह उर्जा समय के साथ धीरे -धीरे धीमी पड़ती जायेगी हमारे बापू तो विश्व के महानतम मानव थे ही पर हमारी लम्बी गुलामी ने भी हमें ठोकर मार -मार कर जीवन के विषय में नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया था । यही कारण है कि स्वतन्त्रता पूर्व और उनके प्रारभ्भिक वर्षों का नेतृत्व बलिदानी जीवन जीता था । सुख -सुविधा से सजाव और संयोजन उनके जीवन का लक्ष्य नहीं था । आकस्मिक रूप से उन्हें जो मिल गया वह बहुत लगता था और वे अपने जीवन को खाद बनाकर एक नयी चरित्रवान पीढ़ी खड़ी कर सके । इस स्वप्न को देखते -देखते उन्होंने अपनी जिन्दगियां समाप्त कीं । पर कौन नहीं जानता कि स्वप्नों का संसार कभी सत्य का संसार नहीं बन पाता । हजारों वर्षों तक भारत की जनता डण्डे के सहारे शाषित होती रही थी और अब जो शासन व्यवस्था संविधान स्वीकृत हुयी थी उसमें डण्डे का बल न के बराबर था । और चरित्र बल का प्रयोग सबसे अधिक था । कुछ प्रारम्भिक वर्षों में चरित्रबल डण्डे पर हावी रहा पर जब चरित्र बल से वंचित लोग विखण्डित- जातीय ,मजहबी और क्षेत्रीय लहरों पर चढ़कर शीर्ष पर पहुँच गये तो फिर से डण्डे का बल ही प्रयोग में आने लगा । भारत के हर राज्य में अब जो कुछ हो रहा है वह हम सबकी आँखों के सामने है । जब लन्दन जैसे शहर में उपेक्षित और वंचित तीन चार दिन तक लूट पाट और हत्यायें करते रहे तो फिर भारत के उपेक्षित और वंचित वर्ग से यह आशा करना कि वह अनन्त काल तक चुप बैठा रहेगा कैसे संभ्भव रहेगा । भारत का मध्यम वर्ग काफी समय तक यह भ्रम पालता रहा कि वह उपेक्षित और वंचित वर्ग से ऊपर का वर्ग है और इसलिये उसे चुप रहकर राजनीतिक घटनाओं को और उन घटनाओं के मोड़ को देखते रहना चाहिये । अब भारत के मध्यम वर्ग में भी कई श्रेणियाँ हैं और इस वर्ग का सबसे बड़ा भाग जो निचला मध्यम वर्ग है वह वंचित लोगों से घेरने वाली सीमा रेखा से बिल्कुल सट कर खड़ा हुआ है । उसने जब देखा कि उसके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही अपने वर्ग से दगाबाजी कर रहे हैं और कुबेर पतियों से सांठ -गाँठ कर कुछ टुकड़े और कतरे संवैधानिक दायित्व के नाम पर नीचे फेंककर अपना घर भरने में लगे हैं तो विद्रोह की भावना उठनी स्वाभाविक ही थी पर चूंकि भारत वर्ष में कौरव सभा में महामानव श्री कृष्ण द्वारा शान्ति के लिये की गयी वकालत से लेकर जितेन्द्रिय महावीर ,सिद्धार्थ गौतम ,और गान्धी तक शान्ति बनाये रखने की एक लम्बी आदर्शवादी परम्परा रही है इसलिये यह विद्रोह पूरी तरह से हिंसक नहीं हो सका है । हाँ भारत के एक अत्यन्त उपेक्षित आदिवासियों और जनजातियों की पट्टियों में यह विद्रोह हिंसक हो उठा है और वहां इस विद्रोह का नेतृत्व मध्यम वर्गीय बुद्धि जीवी ही कर रहे हैं । पर भारत की विशालता में आक्रोश को व्यक्त कारण के लिये अहिंसक मार्ग अपनाने का जो दर्शन लम्बी परम्परा से चल रहा है उसने ही हजारे जैसे वृद्ध गांधी वादियों को प्रमुख भूमिका में ला बिठाया था । व्यक्ति तो केवल एक प्रतीक होता है । विचारधारा ही स्वस्थ्य चिन्तन के लिये सामाजिक आधार प्रस्तुत करती है । (क्रमशः )