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                                        ............................ हमारे पूर्वी सीमान्त पर कुछ जमीन दबाकर बैठे हुये चीन को अभी तक हम शान्ति के द्वारा मैत्री का सन्देश भेजते रहे हैं  पर ऐसा लगता है कि वहाँ के नेताओं की चालबाजी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती ।  अब चीन  ने  भारत के उत्तरी पूर्वी सीमान्त में स्थित अरुणांचल  प्रदेश पर चीनी भूभाग पर एक क्षेत्र होने का दावा किया है । उसका कहना है क्योंकि अरुणांचल प्रदेश तिब्बत का एक हिस्सा था और तिब्बत अब चीन का हिस्सा है इसलिये अरुणांचल प्रदेश भी उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाता है । उसका कहना है कि अरुणांचल प्रदेश के निवासी भी तिब्बतन प्रजाति हैं और अरुणांचल प्रदेश पर भारत का कोई हक़ नहीं है । सौभाग्य से 81 वर्षीय  दलाईलामा अभी हमारे बीच हैं वे जब 50 वर्ष बाद अरुणांचल प्रदेश अपने अनुयायियों से मिलने के लिये चार दिन की मिलन यात्रा पर नवम्बर 2009 के दूसरे सप्ताह में गये थे ,दलाईलामा जिन्हें शान्ति का नोबेल पुरष्कार मिल चुका है आज अहिंसा के सबसे आदरणीय प्रतीक के रूप में विश्व भर में जाने माने जाते हैं । उनकी अरुणांचल प्रदेश की यात्रा ने चीन के सत्ता गलियारों में हलचल मचा दी थी । दलाईलामा ने स्पष्ट रूप से कहा था कि अरुणांचल प्रदेश पर चीन का कोई अधिकार नहीं है और तिब्बत पर भी उसका जो अधिकार हुआ है वह जबरजस्ती से किया हुआ एक फ़ौजी अधिकार है जो तिब्बत की जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया है ।
                           1959 में जब दलाईलामा तिब्बत की राजधानी ल्हासा से भारत की ओर शरण लेने के लिये चले थे तो वे बीच में कुछ दिनों के लिये अरुणांचल प्रदेश के ट्वाँग में जहां बुद्ध धर्म का एक बहुत बड़ा महन्त गृह है रुके थे । तिब्बत से भागते हुये दलाईलामा को कुछ दिनों के विश्राम के लिये टवाग में रुकना पड़ा था और फिर वे वहाँ से चलकर धर्मशाला आये थे । हमारे पाठक ट्वाँग से शायद भौगोलिक रूप से परिचित होना चाहेंगें । ट्वाँग अरुणांचल प्रदेश में  लगभग 8750 फ़ीट ऊँचाई पर स्थित है । यह असम प्रदेश की राजधानी गुवहाटी के उत्तर पूर्व में लगभग 550 किलोमीटर की दूरी पर है । तिब्बत बुद्ध धर्म की सबसे बड़ी Monastery तिब्बत की राजधानी ल्हासा में है जहाँ दलाईलामा रहते थे और दूसरे  नम्बर की Monastery अरुणांचल प्रदेश के ट्वाँग में ही है । कितना आश्चर्य है कि अरुणांचल प्रदेश जो सदियों से भारत का अभिन्न अंग रहा है अब चीन के नेताओं द्वारा चीन का क्षेत्र बताया जाता है  और इसके बारे में उल्टी सीधी बाते बक रहा है । ऐसा करने के कई कारण हैं । आइये संक्षेप में हम इन कारणों पर भी एक नजर डाल लें ।
                                          सबसे प्रमुख कारण तो यह है कि दलाईलामा के जीवित रहते तिब्बतन नस्ल के लोग तिब्बत पर  चीन के अधिकार को जबरदस्ती किये हुये फ़ौजी अधिकार के अतिरिक्त और कुछ नहीं मान सकते । दूसरा कारण है कि दलाईलामा ने अरुणांचल प्रदेश में यह कहकर कि यह प्रदेश कभी भी चीन का भू -भाग नहीं रहा है और भारत के साथ इसका अविभाज्य सम्बन्ध है । चीन की शाख विश्व की आँखों में घटाकर रख दी है । जब दलाईलामा जो तिब्बत के शासक थे और जिन्हें भागकर भारत आना पड़ा स्वयं  ही यह कहते हैं कि अरुणांचल प्रदेश सदैव से भारत का हिस्सा रहा है तो फिर चीन किस मुंह से यह कहता फिरेगा कि अरुणांचल प्रदेश पर उसका हक़ है । एक और प्रमुख कारण यह हो सकता है कि यदि अरुणांचल प्रदेश पर चीन अपने हक़ की बात न करे तो उसे आजाद कश्मीर के उस क्षेत्र में सड़कें बनाने या सामरिक चौकियां बनाने का कोई हक़ नहीं होता जो पाकिस्तान के अधिकार में है । जबरजस्ती फ़ौजी अधिकार में लिया जाने वाला आजाद कश्मीर का क्षेत्र पाकिस्तान की जिहादी साजिशों का एक अड्डा बन गया है और पश्चिमी दुनिया भी इस खतरे से परिचित हो गयी है । चीन से पाकिस्तान की इस मिली भगत का  पर्दाफ़ाश हो गया है । चीन से पाकिस्तान की मिली भगत और इस गैर कानूनी तथा अनैतिक स्थित को टालने के लिये चीन अरुणांचल प्रदेश पर अपने हक़ मांग दोहरा रहा है । एक और बड़ी बात जो "माटी "की निगाह में उभर कर आ रही है वह यह है कि दलाईलामा ने ट्वाँग में जो बाते कही थीं उनसे चीन का राजनैतिक चेहरा बेनकाब हो गया था उन्होंने कहा था कि चीन ने 1980 में उन्हें पाँच शर्तों के साथ तिब्ब्बत वापस आने को कहा था । चीन ने कहा था कि यदि वे इन शर्तों के साथ आना चाहें तो चीन एक राजनैतिक दूत दिल्ली भेज देगा जो उन्हें वापस तिब्बत ले आयेगा । दलाईलामा ने ये शर्तें नामंजूर कर दी थीं । चीन ने फिर उन्हें 1993 और फिर उसके बाद 2002 में तिब्बत वापस बुलाने की पेशकश की पर इन दोनों मौकों पर दलाईलामा ने स्पष्ट इन्कार कर दिया । चौदहवें दलाईलामा का कहना है कि उनका  अपना कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है और वे शासनाध्यक्ष होने या अन्य किसी अधिकारपूर्ण पद पर आसीन होने के लिये उत्सुक नहीं हैं । वे जीवन संध्या की ओर बढ़ रहे हैं और उन्हें विश्व ने धर्म गुरु के रूप में किसी भी शासनाध्यक्ष से अधिक सम्मान दिया है । महात्मा गान्धी के देश में वे अब तक अहिंसा के प्रतीक के रूप में सम्मानित किये जाते हैं और नोबेल पुरुष्कार देकर निर्णायकों ने यह साबित कर दिया है कि वे विश्व शान्ति के सच्चे अग्रदूत हैं । बुद्ध धर्म ने उन्हें इच्छाओं से ऊपर उठने का पाठ पढ़ाया है और दूसरों के लिये जीने का सबक सिखाया है । वे अपने लिये नहीं बल्कि 60 लाख तिब्बतन नस्ल के उन लोगों के लिये जिन्दा हैं और काम कर रहे हैं जो चीन के फ़ौजी शासन के नीचे कुचले जाकर कराहें भर रहे हैं । दलाईलामा इस बात से भी हर्षित थे कि अक्टूबर 2009 में ही अरुणांचल प्रदेश में निष्पक्ष जनतान्त्रिक चुनाव सम्पन्न हुये थे और लोगों ने अपने शासक नेताओं को स्वयं चुना था ।
                                     "माटी "दलाईलामा के लम्बे जीवन की कामना करती है । ट्वाँग में दलाईलामा का जो स्वागत हुआ था उसे देखकर ऐसा लगता है कि तिब्बत मूल के लोग आज भी उन्हें ईश्वर के जीवित प्रतिनिधि के रूप में लेते हैं और उनके दर्शन से मोक्ष पा जाने की सँभावना पर विश्वास करते हैं । भारत जनतान्त्रिक देश है और यह चाहता है कि तिब्बती मूल के लोगों को अपनी स्वेच्छा से अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार मानवीय अधिकार की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिये ।  भारत चीन से सभी सीमा विवादों को शान्ति पूर्ण ढंग से सुलझाने के लिये हमेशा से प्रयासरत रहा है । प्रभु करें ऐसा ही हो पर यदि 1962 का विश्वासघात फिर दोहराया गया तो तिब्बत की स्वाधीनता भारत की राजनीति का अगला दूरगामी कदम साबित हो सकती है । राहुल सांकृत्यायन द्वारा तिब्बत और सीमान्त प्रदेशों से खच्चर पर लाद कर लाये गये सैकड़ों बुद्धिष्ट धर्मग्रन्थ और तान्त्रिक धर्मसूत्र हमारे राष्ट्रीय संग्राहलयों में उपलब्ध  हैं । "माटी "के बहुभाषा विद्य पाठक यदि चाहें तो इन तक अपनी पहुँच बना सकते हैं । तिब्बत और तिब्ब्तन बुद्ध विचारधारा पर फिर  कभी आगे चर्चा करेगें । 

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