............................ कामायनी में मनु का चित्रण देखिये या श्रद्धा का ,रामायण में राम का चित्रण देखिये या सीता का ,कृष्णायन में कृष्ण का चित्रण देखिये या रुक्मणी का सभी सन्दौर्य की कालजयी सुषुमा से विभूषित हैं । 'माटी 'भी चाहती है कि विचारों की ऊर्जा सशक्त ,अर्थवान और सुसंगठित वाक्यों में की जाय । कोई विचार सूत्र रूप में भी पेश किया जा सकता है पर जन जन तक पहुँचानें के लिये उस सूत्र को सहज ,सुलभ और तर्क संगत प्रणाली के द्वारा व्याख्यायित करना होता है । सामाजिक क्रान्तियों का सूत्रपात बहुधा उन सशक्त और प्राणवान कृतियों से होता है जिनमें युगान्तकारी विचार प्राण आन्दोलित करने वाली भाषा शैली में व्यक्त किये जाते हैं । कई बार कुछ पत्रिकायें भी भाषा के प्रांजलीकरण और विचारों के सशक्तीकरण का काम करती हैं । कौन हिन्दी साहित्य का अध्येता है जो यह नहीं जानता कि महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित सरस्वती पत्रिका के बिना आधुनिक हिन्दी का विकास या दूसरे शब्दों में खड़ी बोली का विकास राष्ट्रीय भाषा के रूप में होना सम्भव नहीं था । मुझे स्पष्ट याद है कि मैनें अपनी तरुणायी के दौर में हिन्दी की कई पत्रिकाओं से काफी कुछ पाया है । और उनमें छपी विचारोत्तेजक रचनाओं ने मुझे जीवन की गहरी समस्याओं पर नये ढंग से सोचने पर विवश किया है । इस सन्दर्भ में धर्म युग और प्रतीक जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं के नाम उभरकर दिमाग में आ जाते हैं । इन दिनों भारत के लगभग सभी विश्वविद्द्यालयों में हिन्दी भाषा का उच्च स्तरीय अध्ययन अध्यापन किया जा रहा है । मेरे पास सही आंकड़े तो नहीं हैं पर मैं समझता हूँ कि हिन्दी में सब मिलाकर सहस्त्राधिक शोध कार्य तो हो ही चुके होंगें । विश्वविद्यालयों की अपनी विभागीय पत्रिकायें भी छपती रहती हैं उनमें कुछ सामान्य जन के लिये पढ़ने लायक हों भी तो भी सामान्य जन की पहुँच वहाँ तक नहीं हो पाती । जो साप्ताहिक और पाक्षिक निकल रहे हैं उनमें अधिकतर राजनीतिक क्षेत्र से लाया गया कूड़ा करकट ही छपता दिखायी पड़ रहा है । साहित्य अकादमी के पुरष्कारों से सम्मानित साहित्यकारों की रचनाएँ भी यदि समर्थ प्रकाशकों के पास न जायें तो अपनी छपाई का खर्चा नहीं निकाल पातीं । अंग्रेजी समझनें वालों की संख्या हिन्दी समझनें वालों की संख्या के दस प्रतिशत से भी कम है फिर भी अँग्रेजी का साहित्यकार और अंग्रेजी की पत्रिकायें हिन्दुस्तान में अपनी धूम मचाये हैं । मुझमें उस धूम के प्रति कोई ईर्ष्या भाव नहीं है पर न जाने क्यों मैं हिन्दी भाषा भाषी जनता से यह अपेक्षा करता हूँ कि वह इस धूम को नगाड़े पर टंकार देकर ललकारें । हिन्दी साहित्य की प्रेरक गौरव गाथा यदि फिर से पुर्नजीवन नहीं पाती तो यह हम कोटि -कोटि हिन्दी भाषियों के लिये कलंक की बात रहेगी । सम्मानजनक अस्तित्व संरक्षण के रण -रक्षण में 'माटी 'को आप सदैव अगली पंक्ति में खड़ा पायेंगें । जय -पराजय विधि के हाँथ में है ।
↧