अंग्रेजी में एडिट करने का अर्थ किसी रचनात्मक आलेख में यदि कोई तार्किक विसंगति पायी जाती है तो उसे ठीक करना भी होता है । पर साहित्य की कुछ विधाओं जैसे कवितायें ,नाटकीय सम्भाषण या स्वगत कथनों में लेखक के शब्द चयन और वाक्य संगठन को पर्याप्त स्वतंत्रता दी जानी चाहिये । कई बार वहाँ अधिक कलम चलाने से कहा जाने वाला अभिप्रेत पाठक तक नहीं पहुँच पाता । दृश्य ,काव्य या मंचीय रचनाओं में आंगिक मुद्राओं के द्वारा बहुत कुछ ऐसा कहा जा सकता है जो शब्दों से अभिहित न हो पर जहाँ केवल शब्द ही पढ़ने के लिये हैं वहाँ शब्दों के चयन पर सम्पादक को एक नजर दौड़ानी ही होती है । शब्द चयन और वाक्य संगठन में लेखक के व्यक्तित्व की विशिष्टता झलकने लगती है । कई बार हम पाते हैं कि कुछ रचनाओं को पढ़ने के बाद हम रचनाकार की कथन शैली को अच्छी तरह पहचान जाते हैं । यह पहचान कभी कभी इतनी गहरी हो जाती है कि हम रचना का कुछ अंश पढ़कर ही बता सकते है कि यह अमुख रचनाकार की श्रष्टि है पर ऐसा तभी संम्भव हो पाता है जब हमारा अध्ययन विशाल हो और हमारा भावबोध मानस तरंगों को उनकी सम्पूर्ण प्रवाहमयता को पकड़ सकने में समर्थ हो । अधिकतर देखा गया है कि कुशल सम्पादक महान लेखक नहीं बन पाते । पर इसके अपवाद भी हैं । आप जानते ही हैं कि विशाल औद्वोगिक घराने नयी तकनीक और वैज्ञानिक खोजों के लिये बहुत सुलझे और ऊँचे दिमाग ऊँची -ऊँची तनख्वाहें देकर खरीदने में लगे रहते हैं । ऐसा आवश्यक भी है क्योकि प्रतिस्पर्धा की कटीली चोंटें शीघ्र ही घटिया टेक्नालॉजी को काटकर फेंक देती हैं । पर उद्योग घराने के बड़े बड़े वित्तीय निकायों और तकनीकी संस्थानों को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिये जिस कौशल की आवश्यकता होती है वह कौशल तकनीकी या वैज्ञानिक दक्षता से अलग प्रकार का होता है । प्रबन्धन विज्ञान की न जाने कितनी शाखायें प्रबन्धन सूक्ष्मताओं की खोजबीन कर उन्हें एक सुनियोजित ढंग से कुशल प्रबन्धक के मानसिक शक्ति के रूप में परिवर्तित करती है । यही कारण है कि किसी विशाल उद्योग घराने की कहानी किसी भी उद्योग के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स के आस -पास घूमती रहती है ।
साहित्यिक मैगजीन के एडिटर को विशिष्टतः अवैतनिक एडिटर को वित्तीय संसार की छोटी बड़ी परिभाषाओं में घेरा नहीं जा सकता । उसे जो सबसे बड़ा लाभ होता है वह है उसके भावबोध का उन्नयन । जितनी भी श्रेष्ठ रचनायेँ उसके पास छपने के लिये आती हैं उतनी ही मात्रा में उसके भावबोध की उत्कृष्टता बढ़ती जाती है । आत्मा का परिष्कार ,चेतना का प्रदीप्तीकरण प्रभावी भाषा में बध्य प्रेरणात्मक विचारों और उद्दात्त उद्गारों के द्वारा ही सुनिश्चित किया जा सकता है । 'माटी 'का सम्पादक भी इस अमूल्य परिष्करण प्रक्रिया का लाभ उठाता रहता है । यह तो एक निरन्तर दोहराया जाने वाला सत्य है कि आत्मा अमर है ,न तो इसका जन्म होता है न ही इसकी मृत्यु होती है । यह तो अविनाशी तत्व का अंश है । और उसी अविनाशी तत्व में मिल जाना ही इसका स्वाभाविक धर्म है पर आत्मा को निवास के लिये यदि उसे परिभ्रमण करना है कोई सुगेह भी तो चाहिये और सुकाया के सिवाय और सुगेह हो ही क्या सकता है ?यह सुकाया मानव काया ही है । सच पूँछो तो सुसंगठित मानव देह चाहे वह नर की हो या नारी की अपने में अपार आकर्षण छिपाये है । (क्रमशः )
साहित्यिक मैगजीन के एडिटर को विशिष्टतः अवैतनिक एडिटर को वित्तीय संसार की छोटी बड़ी परिभाषाओं में घेरा नहीं जा सकता । उसे जो सबसे बड़ा लाभ होता है वह है उसके भावबोध का उन्नयन । जितनी भी श्रेष्ठ रचनायेँ उसके पास छपने के लिये आती हैं उतनी ही मात्रा में उसके भावबोध की उत्कृष्टता बढ़ती जाती है । आत्मा का परिष्कार ,चेतना का प्रदीप्तीकरण प्रभावी भाषा में बध्य प्रेरणात्मक विचारों और उद्दात्त उद्गारों के द्वारा ही सुनिश्चित किया जा सकता है । 'माटी 'का सम्पादक भी इस अमूल्य परिष्करण प्रक्रिया का लाभ उठाता रहता है । यह तो एक निरन्तर दोहराया जाने वाला सत्य है कि आत्मा अमर है ,न तो इसका जन्म होता है न ही इसकी मृत्यु होती है । यह तो अविनाशी तत्व का अंश है । और उसी अविनाशी तत्व में मिल जाना ही इसका स्वाभाविक धर्म है पर आत्मा को निवास के लिये यदि उसे परिभ्रमण करना है कोई सुगेह भी तो चाहिये और सुकाया के सिवाय और सुगेह हो ही क्या सकता है ?यह सुकाया मानव काया ही है । सच पूँछो तो सुसंगठित मानव देह चाहे वह नर की हो या नारी की अपने में अपार आकर्षण छिपाये है । (क्रमशः )