अधिकाँश देशो में जनतन्त्र की शासन व्यवस्था स्थापित हो जाने के कारण अब ये माना जाने लगा है कि किसी देश का क़ानून इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये बनना चाहिये कि सभी मनुष्यों में काफी कुछ समानता लायी जाय । इस प्रक्रिया को सोशल इन्जीनियरिंग का नाम दिया जाता है । अब तो राजनीति में भी यह विचार धारा गहरायी से यह पैठ बना गयी है और कई राजनैतिक पार्टियाँ सोशल इन्जीनियरिंग के नाम पर जनता का समर्थन पाने का प्रयास कर रही हैं । जहाँ तक मैं समझता हूँ सोशल इन्जीनियरिंग का यही अर्थ है कि अधिक से अधिक लोगों को प्रगति के अवसर मिलें और ऐसा करने में कम से कम लोगों को असुविधा हो । यह तो कभी संम्भव नहीं हो पायेगा कि सभी नर -नारी एक रूप से समान हो जाँय । प्रकृति में अपार विभिन्नता है । रूप ,रंग ,आकार और वाणी की विभिन्नता तो है ही साथ ही मस्तिष्क के विकास क्रम में भी अपार विभिन्नता परिलक्षित होती है । यह विभिन्नता निश्चय ही धरती के विशाल भू -भागो में प्राकृतिक ,,भौगोलिक ,वानस्पतिक और भू स्खलनीय भिन्नताओं के कारण आयी होगी । पर मानव के विकास के प्रारम्भिक दौर से आधुनिक सभ्यता के काल तक आने का दौर लाख़ों वर्षों का है । ऐतिहासिक काल तो इस विशाल समय चक्र का एक बहुत ही छोटा हिस्सा है । ऐसे में मानव जाति में पायी जाने वाली भिन्नतायें समाप्त कर बराबरी का स्तर दे पाना लगभग असम्भव ही है । मार्क्स वादी विचारक भले ही यह मानते रहें कि पूंजी के साधनों को दुर्बल वर्ग के हाथ में देकर वे भौतिक सुविधाओं का एक समान संसार स्थापित कर देंगें । पर ऐसा संम्भव नहीं है और शायद कभी हो भी नहीं सकेगा । सत्तर वर्ष तक सोवियत रशा में यह प्रयोग चलता रहा और काफी दिनों तक विचारकों का एक बड़ा वर्ग यह भ्रम पालता रहा कि साम्यवादी व्यवस्था भौतिक समानता का आधार प्रस्तुत कर देगी । पर सोवियत रशिया के विखण्डन के बाद और उसके आर्थिक आधार के खोखले पन के बाद अब लगभग यह सिद्धान्त सर्वमान्य है कि बल प्रयोग और लादी हुयी विचारधारा समानता के लिये कारगर नहीं हो सकती । जनतन्त्र की व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य की स्थापना ही इस दिशा में एक सफल प्रयोग साबित हो सकती है । चीन जैसे महादेश भी अपनी साम्यवादी व्यवस्था को निजी पूँजी के समाजोन्मुख उपयोग से जोड़ रहे हैं । चीन का साम्यवाद बहुत कुछ यह स्वीकार कर चल रहा है कि समानता के विकास के लिये पूँजी का होना एक अनिवार्यता है और जिन व्यक्ति समुदायों ने अपने असाधारण सामर्थ्य से यह पूँजी एकत्रित की है वे सब प्रशंसा के पात्र हैं । उन्हें राष्ट्र हितैषी के रूप में देखना होगा न कि वर्ग शत्रुओं के रूप में ।
सबसे पहली बात जो किसी राज्य को स्थायित्व दे सकती है वह है इस बात को स्वीकार करना कि मानव जाति को भिन्न -भिन्न विचारधाराओं को स्वीकार कर जीवन में ढालने का अधिकार है । केवल इतना ध्यान रखना है कि ऐसा करते समय खून -खराबा न किया जाय । मनुष्य की विचारधारा उसके परिवेश से मिलती है । वह आसमान से टपक कर नहीं आती । यदि कोई विचारधारा या आर्थिक व्यवस्था अच्छे परिणाम दिखाती है तो स्वतः ही अन्य विचारधारा या भिन्न आर्थिक व्यवस्था के लोग उसकी तरफ आकर्षित होंगें । आज ऐसा ही कुछ हो रहा है । सभी को जीवन यापन के उचित साधन मिलें और नये ज्ञान से उत्पन्न होने वाली अपार सम्पदा में समाज के सभी वर्ग अपना अपना हिस्सा पा सकें यह एक सहज स्वीकृत मान्यता है । राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क़ानून भी इसी दिशा में काम कर रहे हैं ।
क़ानून की हेी बात लें तो हमें यह मान कर चलना होगा कि समाज के विकास के साथ साथ क़ानून में भी परिवर्तन ,संशोधन होता चलता है । कुछ बातें तो सार्वभौमिक हैं क्योंकि वह मानव सभ्यता की धुरी हैं जैसे पर सम्पत्ति का अपहरण न करना ,स्वीकृति के बिना शारीरिक सम्पर्क न साधना ,अपने से अधिक समर्थ और प्रतिभा संपन्न व्यक्ति को अधिक सुविधायें पाने पर कुंठित न होना ,या अपने से भिन्न विचारधारा वाले व्यक्ति को अपनी पूरी बात कहने का अवसर देना आदि आदि । शाय वाल्टेयर ने ही तो कहा था ,"मैं आपकी बात से कभी सहमत नहीं हो पाऊँगा पर आपको अपनी बात कहने के अधिकार की रक्षा मैं जीवन की अन्तिम सांस तक करूँगा ।"इस प्रकार की सहनशीलता ही जनतन्त्र की सफलता का आधार बनती है। हम यह तो कर सकते हैं कि हर एक को उसकी योग्यता के अनुसार काम पाने का अधिकार हो पर हम हर एक को एक जैसा योग्य नहीं बना सकते । इस विश्व में सुकरात हैं ,न्यूटन हैं ,आइन्सटाइन हैं ,गांधी हैं और अमर्त्य सेन हैं । और इस विश्व में नर मांस भक्षी सुरेन्द्र कोली भी है ,बलात्कारी टैक्सी ड्राइवर भी है और जालसाज नटवर लाल भी है । सुधार की प्रक्रिया से काफी कुछ बदलता भी है पर काफी कुछ नहीं भी बदलता । हमें इस विभिन्नता को सहज रूप से स्वीकार करना चाहिये । हाँ क़ानून को यह कार्य अवश्य करना चाहिये कि वह यह प्रयास करे कि साधनों के अभाव में कोई वर्ग या व्यक्ति न्याय से वंचित न रह जाय ।
दरअसल पश्चिमी देशों से लिया हुआ हमारा राजनीतिक ढाँचा इतना भारी भरकम और जटिलताओं से भरा है कि सामान्य आदमी का उसके बोझ के तले दम घुटने लगता है । न्याय पालिका के इतने स्तर हैं कि चक्रव्यूह की भांति उसे भेद कर बाहर निकलना एकाध गाण्डीवधारी पार्थ के लिये ही सम्भव है । नवयुवकों का आदर्श अभिमन्यु भी अन्तिम घेरे में पहुँच कर अनुकरणीय शौर्य दिखाकर निष्क्रिय हो उठता है । इन्ही सब बातों को देखते हुये कानूनी व्यवस्था में एक नयी अवधारणा का सूत्र पात हुआ जिसे P.I.L. जनहित याचिका के नाम से जाना जाता है । संयुक्त राष्ट्र अमरीका में 1965 के आस पास जनहित याचिका की कानूनी व्यवस्था पूर्ण रूप से स्थापित हो गयी थी । भारतवर्ष में इस दिशा में अस्सी के दशक में सार्थक कदम उठाये गये । 1982 में एस ० पी ० गुप्ता V/S यूनियन आफ इण्डिया (A.I.R.1982Sc.149) में न्यायमूर्ति पी ० एन ० भगवती ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया । जिसमें उन्होनें कहा -
" Where a legal wrong or legal injury is caused or threatened to a person or determinate class of poverty ,helplessness or disability or socially or economically disadvantaged position is unable to approach the court for relief ,any member of the public can maintain an application for an appropriate direction, order or writ in the High Court under article 226and in case of any fundamental right of such person or determinate class of persons in this court (i.e.The supreme Court )under article 32 seeking judicial redress for the legal wrong or injury caused to such person or determinate persons."
न्यायमूर्ति वी ० आर ० कृष्णा ० अय्यर नें भी जनहित याचिकाओं के द्वारा समाज के असहाय असमर्थ और दुर्बल वर्ग को राहत पहुँचानें की जोरदार पैरवी की है । अब तो भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी सामान्य चिट्ठियों और अखबार की कतरनों को भी आधार मानकर उन लोगों के खिलाफ कदम उठाने की पैरवी की है जिन अधिकारियों ने क़ानून का गलत स्तेमाल किया है ।
जन हित याचिकाओं द्वारा बिना अपराध बंद किये गये कैदियों ,बधुआ मजदूरों ,असंगठित क्षेत्र के मजदूरों ,फुटपाथ पर रात काटने वाले श्रमिकों और प्रदूषण फैलाने वाले दलालों के खिलाफ कारगर न्यायिक कार्यवाही की जा सकती है । पर जैसा कि हिन्दुस्तान में अक्सर होता है कोई भी अच्छा कदम कई बार दुर्पयोग में लाया जाने लगता है । अभी हाल ही में कई जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी नाराजगी जतायी है । और कहा है कि ऐसी याचिकायें सुप्रीम कोर्ट का समय बर्बाद करती हैं । सयंम और विवेक से ही जनहित याचिकाओं का अधिकार वांछित न्याय दिलाने में सक्षम होगा । अनावश्यक अधकचरे कानूनी स्नातकों द्वारा जनहित याचिकायें दायर करने की प्रक्रिया पर लगाम लगाने की आवश्यकता है । इसके लिये आर्थिक दण्ड का प्रावधान बुरा नहीं रहेगा । आज विश्व इतनी तेजी से सिकुड़ता जा रहा है कि शायद आने वाले कल में अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून के द्वारा ही मानव जाति की न्याय पाने की आकांक्षाओं को पूरा किया जा सकेगा । भारत में तो सदैव से ही "वसुधैव कुटुम्बकम "का सिद्धान्त न केवल प्रतिपादित किया है बल्कि व्यवहार के धरातल पर आचरित भी किया है । उन सभी कानूनों का जो मानव जाति को बेहतर इन्सान बनाने और प्राप्त भौतिक सुविधायें प्रदान करने में सहायक हों भारतवर्ष स्वागत करेगा । अपनी ओर से तो वह इस दिशा में पहल कर ही रहा है । प्रसिद्ध लेखक आस्कर वाइल्ड का यह कहना -"कि सारे मनुष्य धरती की गन्ध भरी गलियों से गुजर रहे हैं पर उनमें से कई मुक्त आकाश के सितारों को भी देख रहे हैं ।"
आज की विश्व मानवता के सन्दर्भ में पूर्ण रुप से सार्थक है । आइये हम एक ऐसे मानव समाज की संरचना करें जो इस मूल सिद्धान्त पर आधारित है कि सभी मनुष्य समान हैं और सभी को जीवन की मूलभूत सुविधायें मिलनी चाहिये । भारत की न्याय पालिका इस दिशा में प्रशंसनीय काम कर रही है ।
सबसे पहली बात जो किसी राज्य को स्थायित्व दे सकती है वह है इस बात को स्वीकार करना कि मानव जाति को भिन्न -भिन्न विचारधाराओं को स्वीकार कर जीवन में ढालने का अधिकार है । केवल इतना ध्यान रखना है कि ऐसा करते समय खून -खराबा न किया जाय । मनुष्य की विचारधारा उसके परिवेश से मिलती है । वह आसमान से टपक कर नहीं आती । यदि कोई विचारधारा या आर्थिक व्यवस्था अच्छे परिणाम दिखाती है तो स्वतः ही अन्य विचारधारा या भिन्न आर्थिक व्यवस्था के लोग उसकी तरफ आकर्षित होंगें । आज ऐसा ही कुछ हो रहा है । सभी को जीवन यापन के उचित साधन मिलें और नये ज्ञान से उत्पन्न होने वाली अपार सम्पदा में समाज के सभी वर्ग अपना अपना हिस्सा पा सकें यह एक सहज स्वीकृत मान्यता है । राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क़ानून भी इसी दिशा में काम कर रहे हैं ।
क़ानून की हेी बात लें तो हमें यह मान कर चलना होगा कि समाज के विकास के साथ साथ क़ानून में भी परिवर्तन ,संशोधन होता चलता है । कुछ बातें तो सार्वभौमिक हैं क्योंकि वह मानव सभ्यता की धुरी हैं जैसे पर सम्पत्ति का अपहरण न करना ,स्वीकृति के बिना शारीरिक सम्पर्क न साधना ,अपने से अधिक समर्थ और प्रतिभा संपन्न व्यक्ति को अधिक सुविधायें पाने पर कुंठित न होना ,या अपने से भिन्न विचारधारा वाले व्यक्ति को अपनी पूरी बात कहने का अवसर देना आदि आदि । शाय वाल्टेयर ने ही तो कहा था ,"मैं आपकी बात से कभी सहमत नहीं हो पाऊँगा पर आपको अपनी बात कहने के अधिकार की रक्षा मैं जीवन की अन्तिम सांस तक करूँगा ।"इस प्रकार की सहनशीलता ही जनतन्त्र की सफलता का आधार बनती है। हम यह तो कर सकते हैं कि हर एक को उसकी योग्यता के अनुसार काम पाने का अधिकार हो पर हम हर एक को एक जैसा योग्य नहीं बना सकते । इस विश्व में सुकरात हैं ,न्यूटन हैं ,आइन्सटाइन हैं ,गांधी हैं और अमर्त्य सेन हैं । और इस विश्व में नर मांस भक्षी सुरेन्द्र कोली भी है ,बलात्कारी टैक्सी ड्राइवर भी है और जालसाज नटवर लाल भी है । सुधार की प्रक्रिया से काफी कुछ बदलता भी है पर काफी कुछ नहीं भी बदलता । हमें इस विभिन्नता को सहज रूप से स्वीकार करना चाहिये । हाँ क़ानून को यह कार्य अवश्य करना चाहिये कि वह यह प्रयास करे कि साधनों के अभाव में कोई वर्ग या व्यक्ति न्याय से वंचित न रह जाय ।
दरअसल पश्चिमी देशों से लिया हुआ हमारा राजनीतिक ढाँचा इतना भारी भरकम और जटिलताओं से भरा है कि सामान्य आदमी का उसके बोझ के तले दम घुटने लगता है । न्याय पालिका के इतने स्तर हैं कि चक्रव्यूह की भांति उसे भेद कर बाहर निकलना एकाध गाण्डीवधारी पार्थ के लिये ही सम्भव है । नवयुवकों का आदर्श अभिमन्यु भी अन्तिम घेरे में पहुँच कर अनुकरणीय शौर्य दिखाकर निष्क्रिय हो उठता है । इन्ही सब बातों को देखते हुये कानूनी व्यवस्था में एक नयी अवधारणा का सूत्र पात हुआ जिसे P.I.L. जनहित याचिका के नाम से जाना जाता है । संयुक्त राष्ट्र अमरीका में 1965 के आस पास जनहित याचिका की कानूनी व्यवस्था पूर्ण रूप से स्थापित हो गयी थी । भारतवर्ष में इस दिशा में अस्सी के दशक में सार्थक कदम उठाये गये । 1982 में एस ० पी ० गुप्ता V/S यूनियन आफ इण्डिया (A.I.R.1982Sc.149) में न्यायमूर्ति पी ० एन ० भगवती ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया । जिसमें उन्होनें कहा -
" Where a legal wrong or legal injury is caused or threatened to a person or determinate class of poverty ,helplessness or disability or socially or economically disadvantaged position is unable to approach the court for relief ,any member of the public can maintain an application for an appropriate direction, order or writ in the High Court under article 226and in case of any fundamental right of such person or determinate class of persons in this court (i.e.The supreme Court )under article 32 seeking judicial redress for the legal wrong or injury caused to such person or determinate persons."
न्यायमूर्ति वी ० आर ० कृष्णा ० अय्यर नें भी जनहित याचिकाओं के द्वारा समाज के असहाय असमर्थ और दुर्बल वर्ग को राहत पहुँचानें की जोरदार पैरवी की है । अब तो भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी सामान्य चिट्ठियों और अखबार की कतरनों को भी आधार मानकर उन लोगों के खिलाफ कदम उठाने की पैरवी की है जिन अधिकारियों ने क़ानून का गलत स्तेमाल किया है ।
जन हित याचिकाओं द्वारा बिना अपराध बंद किये गये कैदियों ,बधुआ मजदूरों ,असंगठित क्षेत्र के मजदूरों ,फुटपाथ पर रात काटने वाले श्रमिकों और प्रदूषण फैलाने वाले दलालों के खिलाफ कारगर न्यायिक कार्यवाही की जा सकती है । पर जैसा कि हिन्दुस्तान में अक्सर होता है कोई भी अच्छा कदम कई बार दुर्पयोग में लाया जाने लगता है । अभी हाल ही में कई जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी नाराजगी जतायी है । और कहा है कि ऐसी याचिकायें सुप्रीम कोर्ट का समय बर्बाद करती हैं । सयंम और विवेक से ही जनहित याचिकाओं का अधिकार वांछित न्याय दिलाने में सक्षम होगा । अनावश्यक अधकचरे कानूनी स्नातकों द्वारा जनहित याचिकायें दायर करने की प्रक्रिया पर लगाम लगाने की आवश्यकता है । इसके लिये आर्थिक दण्ड का प्रावधान बुरा नहीं रहेगा । आज विश्व इतनी तेजी से सिकुड़ता जा रहा है कि शायद आने वाले कल में अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून के द्वारा ही मानव जाति की न्याय पाने की आकांक्षाओं को पूरा किया जा सकेगा । भारत में तो सदैव से ही "वसुधैव कुटुम्बकम "का सिद्धान्त न केवल प्रतिपादित किया है बल्कि व्यवहार के धरातल पर आचरित भी किया है । उन सभी कानूनों का जो मानव जाति को बेहतर इन्सान बनाने और प्राप्त भौतिक सुविधायें प्रदान करने में सहायक हों भारतवर्ष स्वागत करेगा । अपनी ओर से तो वह इस दिशा में पहल कर ही रहा है । प्रसिद्ध लेखक आस्कर वाइल्ड का यह कहना -"कि सारे मनुष्य धरती की गन्ध भरी गलियों से गुजर रहे हैं पर उनमें से कई मुक्त आकाश के सितारों को भी देख रहे हैं ।"
आज की विश्व मानवता के सन्दर्भ में पूर्ण रुप से सार्थक है । आइये हम एक ऐसे मानव समाज की संरचना करें जो इस मूल सिद्धान्त पर आधारित है कि सभी मनुष्य समान हैं और सभी को जीवन की मूलभूत सुविधायें मिलनी चाहिये । भारत की न्याय पालिका इस दिशा में प्रशंसनीय काम कर रही है ।