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                वामन विस्तार 

गिल गणेश की चाह पितर से तारों -पार मिलूं मैं
उदधि- वक्ष पर आन्दोलित हो काल -बन्ध को कीलूँ
युलीसस को भटकन की अतृप्ति में मिली अमरता
पवन -पुत्र की जन्म कामना अरुण विम्ब को लीलूँ |
मेरा भी मानव का मन है दूर कहीं उड़ जाता
गरुण पंख ले गगन पार के अद्दभुत द्रश्य दिखाता |
यह मन का व्योपार निराला है इसको चलने दो
बहुतों नें छल लिया मुझे अब खुद को ही छलने दो |
सच क्या है , छलना क्या है यह तत्व ज्ञान की बातें
काया की सीमां में जकड़ा आतुर मन अकुलाता
धरती छोटी बहुत हो गयी एक पहर की सीमा
वामन मन अब डग भरने को अन्तरिक्ष तक जाता |
यह अनन्त संसार शान्त बन जाय सहज संम्भव है
तकनीकी विहगों  नें अम्बर तक डैनें फैलाये
यदि ऐसा दिन कभी आ गया हाय मनुज रोयेगा
कविता को निश्वधि असीम कर शून्य राग ही भाये |
उलट वासियाँ , मृत्यु कुयें में वर्तुल नर्तन
यह सब सीमा पार निकल जानें की राहें
गूँगें का गुड़ , अनुभव की अदभुत मादकता
इन्हें  बाँध क्या  सकी मृत्यु की निष्क्रिय बाहें |
अलक्षेन्द्र का स्वप्न व्यक्ति का बंम्भ नहीं था
युग सीमा  में  था असीम का लंगड़ा सपना
चाचा सैम उसी मग पर डग उठा रहे हैं
अन्तरिक्ष की गूँज बनी करनाल कल्पना |
यह असीम विस्तार , शून्य संगीत निराला |
ज्योति खगों की गूढ़ अबूझी अटपट भाषा
है रहस्य इंगित से मुझको पास बुलातीं
निंवल पांव फड़फड़ा रही है मन -अभिलाषा |
तड़पन में ही मुक्ति हमें अब पानी होगी |
अन्तरिक्ष के पार द्वार कब खुल पायेंगें ?
सीढ़ी बननें का सौभाग्य मिला है हमको
स्वर्ग -विहग के स्वर कल घर घर छा जायेंगें ||

 

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