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आत्म भर्त्सना

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जीता हूँ
शास्त्रों ने कहा है
जीवन वरदान है
और फिर मानव का जीवन तो
कर्मयोनि
विमत पुल्य -श्रृंखला का
चरम प्रतिदान है ।
कर्म योनि -अर्थ क्या ?
सुबह शाम रस हीन दिनचर्या
सस्ते फिल्म ,भोडे गान
 क्षणिक उत्तेजना काफी पान
सभी कुछ कर्म है
मान युग - धर्म है
पीले शहर -नंगे गाँव
अंध दौड़  गर्दन तोड़
चिल्ल पों ,काँव झाँव
साँठ -गाँठ ,जोड़ -तोड़
नव्यतर ,नव्यतम ,न चूहा दौड़ 
अर्थव्रत ,विषम बाहु ,तंग मोड़ ।
दंडहींन ,लुंज पुंज
लक्ष्य हींन -प्राण हीन
यही नर जीवन है
यही कर्मयोनि क्या ?
दो चार पीढ़ी बाद
शेष रह जायेगी
अणुमंडित सड़कें
खोखले ,पोपले धूल के बबूले
सायं सायं
वर्तुल ,ऊर्ध्व ,अधोमुख
और फिर 
कोई विक्षिप्त स्वर शून्य में पुकारेगा
मनु पुत्र ,अभिशप्त थे तुम
विपुला प्रकृति को निर्वस्त्र करते रहे
अंध  मद सुरापी
जननी को भोग्या बनाया
छिः नाली के कीड़े का जीवन जी
चरम विनाश ही
नियति तुम्हारी है
किन्तु कहीं
आर्ष स्वर बोला है
माटी का चन्दन लेप
रश्मि रथारूढ़ प्राण आभा का कर स्वागत
शाप मुक्ति संम्भव है
शरणागत शरणागत । 










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