चार पंक्तियाँ लिखूं या कि दो पौधे रोपूँ
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है।
मूल्यों की पहचान अभी तक रही अधूरी
सदा पकडनें को दौड़ा मैं झूठी काया
आत्म केन्द्रित दर्शन की वर्तुल राहों में
अहँकार का अश्व घूमकर वापस आया
भाषण दूँ या दरी बिछाऊँ
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
क्या थोथा क्या भरा न अब तक जान सका हूँ
शोध -साध डाले अनेक रस रूप रिसाले
दर्शन की छेनी से संवरी सिम सिम खुलनी
खोल न पायी कुहा -गुहा के काले ताले
थन से गिरते दुग्ध- धार की छनक सुनूँ
या छनक छनक मंचों का पायल राग सुनाऊँ ,
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
पढ़ डाला भूगोल विश्व का जान न पाया
चण्डीगढ़ किसको मिलना है ,पानी किसका सीमा वासी
लड़ डाला चटगाँव युद्ध बन्दी सहस्त्र शत ,
विंधीं पडी है किन्तु अयोध्या ,,मथुरा ,काशी
घासी की शव- यात्रा में कुछ हाथ बटाऊँ
या सत्ता -स्वागत का तोरण -द्वार सजाऊँ ,
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
कस्तूरी मृग की तलाश में भटका गिरि वन
स्वेद सुवासित देह श्रमिक की दी न दिखायी
राजभोग की मध्ययुगीन ललक में लपका
हेय समझता रहा कृषक की खांड मिठाई
कवि सम्मेलन जाऊँ कर्तल ध्वनि अपनाने
या श्यामा के बोझ वहन में हाथ बटाऊँ ,
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
कौन भान पा बुद्ध गगन की ज्योति बन गये
कौन भान गांधी को गोली तक ले आया
धूमदास का प्रेत पूछता मुझसे प्रति निशि
पत्थर की खानों ने सोना कैसे पाया
प्रेक्षा गृह में जाऊँ मन्द भूख उकसाने
या अभाव के द्वार प्यार की धाप लगाऊँ ,
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है।
मूल्यों की पहचान अभी तक रही अधूरी
सदा पकडनें को दौड़ा मैं झूठी काया
आत्म केन्द्रित दर्शन की वर्तुल राहों में
अहँकार का अश्व घूमकर वापस आया
भाषण दूँ या दरी बिछाऊँ
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
क्या थोथा क्या भरा न अब तक जान सका हूँ
शोध -साध डाले अनेक रस रूप रिसाले
दर्शन की छेनी से संवरी सिम सिम खुलनी
खोल न पायी कुहा -गुहा के काले ताले
थन से गिरते दुग्ध- धार की छनक सुनूँ
या छनक छनक मंचों का पायल राग सुनाऊँ ,
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
पढ़ डाला भूगोल विश्व का जान न पाया
चण्डीगढ़ किसको मिलना है ,पानी किसका सीमा वासी
लड़ डाला चटगाँव युद्ध बन्दी सहस्त्र शत ,
विंधीं पडी है किन्तु अयोध्या ,,मथुरा ,काशी
घासी की शव- यात्रा में कुछ हाथ बटाऊँ
या सत्ता -स्वागत का तोरण -द्वार सजाऊँ ,
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
कस्तूरी मृग की तलाश में भटका गिरि वन
स्वेद सुवासित देह श्रमिक की दी न दिखायी
राजभोग की मध्ययुगीन ललक में लपका
हेय समझता रहा कृषक की खांड मिठाई
कवि सम्मेलन जाऊँ कर्तल ध्वनि अपनाने
या श्यामा के बोझ वहन में हाथ बटाऊँ ,
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।
कौन भान पा बुद्ध गगन की ज्योति बन गये
कौन भान गांधी को गोली तक ले आया
धूमदास का प्रेत पूछता मुझसे प्रति निशि
पत्थर की खानों ने सोना कैसे पाया
प्रेक्षा गृह में जाऊँ मन्द भूख उकसाने
या अभाव के द्वार प्यार की धाप लगाऊँ ,
मन का यह संघर्ष विकट है
परवाना आ गया निकट है ।