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(गतांक से आगे )
                                       
                                               एलोरा की गुफाओं में घूमते समय पथरीले मार्गों के किसी एकान्त कोनें पर नताशा द्वारा कहा हुआ वाक्य मुझे स्मरण हो आया | अंग्रेजी में उसनें कहा था , " Sir,in India love becomes sacred in spiritual context,but why the vitol urges of human body are considered simful."मैं उसके इस प्रश्न का ठीक उत्तर नहीं दे पाया था | जहाँ तक मुझे याद है मैनें यह कहकर प्रश्न को टाल दिया था कि केवल भारत ही नहीं विश्व के प्रत्येक देश में शारीरिक प्यार आत्मिक प्यार से निचले स्तर का माना गया है | Christianity भी तो Adam और Eve के दैहिक आकर्षण को एक Sin ( अपराध ) मानती है और शायद इसीलिये अंग्रेजी का यह वाक्य बार -बार दोहराया जाता है , " Man was born in sin."नताशा मुस्कराकर चुप रह गयी थी पर मैं जानता हूँ कि उसकी आँखें मेरी पौरषीय भीरुता का उपहास कर रही थीं | रविवार की  शाम जब मैं अपर्णां और उसकी माँ के साथ डा ० ऊषा कालिया के घर पहुंचा तो वहां हंसती -खिलखिलाती किशोर -किशोरियों और तरुणियों का जमघट नजर आया | ऊषा की पुत्री अपनी ही यूनिवर्सिटी की एक छात्रा सखी पमेला को साथ ले आयी थी | पमेला टूरिस्ट विजा पर एक पखवारे में उसके साथ रहकर भारत के वैविध्य का आनन्द लेना चाहती थी | ऊषा कालिया की बेटी संयोगिता बचपन से ही मुझे जानती थी और मुझे Great Uncle कहकर पुकारती थी | अपर्णा की माँ उसके लिये बड़ी मम्मी थी और अपर्णां उसकी छोटी बहन | अपर्णां की माँ अपनें संकोच के  बावजूद मेरे अधिक आग्रह करनें पर मेरे साथ चली अवश्य जाती थी पर वह बात -चीत में हिस्सा न लेकर खाने -पीने की चीजों की व्यवस्था में लग जाया करती थी | Winsconsin यूनिवर्सिटी में अपनी थीसिस जमा करने के बाद लौटी संयोगिता  को मैनें काफी कुछ बदला हुआ पाया | उसकी चंचलता गंभीरता में बदल गयी थी और आधुनिक साज- सज्जा में भी मुझे ऐसा लगा कि वह भारतीय संस्कृति की नारी गरिमा को अधिक महत्व देने लगी है | अमेरिका जानें से पहले विश्वविद्यालय की वाद -विवाद प्रतियोगिताओं में वह भारतीय नारी  के जीवन पद्धति पर कड़े व्यंग्य किया करती थी और तलाक लेने वाली अपनी माँ को आदर्श के धरातल पर स्थापित करती थी | वह नारी स्वतन्त्रता की पूर्ण हामीं थी और यह मान कर चलती थी कि सामाजिक विकास के क्रम में भारतीय नीतिशास्त्र मध्य युग से आगे नहीं बढ़ सका है | पर अब मुझे ऐसा लगा कि कहीं बहुत अधिक गहरे में संयोगिता वैचारिक परिवर्तन के दौर में गुजर रही है | मुझे ऐसा लगा कि अमेरिका के प्रवास के दौरान उसके जीवन में शायद ऐसा कुछ घटा है जिसनें उसे नये सिरे से सोचनें के लिये बाध्य किया है | उसकी अमेरिकन सहेली पमेला उन्मुक्त स्वभाव की छरहरे और सुन्दर आकृति की एक मनभावन तरुणीं थी और वह टूटी -फूटी हिन्दी में बोल लेती थी | मेरी बेटी अपर्णां तरुणायी की ओर बढ़ रही थी और संयोगिता से बहुत पहले से ही प्यार पाने के कारण वह निः संकोच उस जमघट में शामिल हो गयी और भारतीय सन्दर्भों में नये उभरते जीवन मूल्यों की परिचर्चा में रस लेने लगी | मुझे इस बात की खुशी थी कि अपर्णां हिन्दी , अंग्रेजी और थोड़ा बहुत पंजाबी में भी अपनी बात सशक्त ढंग से कह सकती थी और उसकी तर्कशैली उसे मंच पर कई सफलतायें दे चुकी थी | संयोगिता उसे किसी भी बहस में बराबर का हकदार माननें लग गयी थी और कई बार मुझसे कह चुकी थी Great Uncle देखना अपर्णां गौरीशंकर की चोटी छुयेगी , मैं मुस्कराकर अपनी मूक स्वीकृति देता रहता था | अपर्णां की माँ कुछ अन्य गृहणियों के साथ खान पान की व्यवस्था में लग गयी | मैनें ऊषा जी से यह जानना चाहा कि संगीता डॉक्टरेट पाने के बाद क्या फिर यू ० एस ० ए ० जानें का विचार कर रही है तो उन्होंने बताया कि अभी इस दिशा में कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया है | हो सकता है कि संयोगिता भारत में ही किसी अच्छे करियर की तलाश करे | डा ० ऊषा कालिया का अपना जीवन आर्थिक द्रष्टि से एक सफल -शिक्षित नारी का जीवन तो था पर प्रेम , विवाह , सन्तानोंत्पत्ति और फिर तलाक इन सबकी चाटक धूमिल रेखायें उनके चेहरे पर प्रतिबिम्बित होनें लगी थीं | निश्चय ही वह यह नहीं चाहती होंगीं कि संयोगिता के जीवन में वह सब घटित हो जो उनके जीवन में हुआ था | अटूट प्रेम की जीवन भर चलने वाली महाकाव्यीय गाथाओं से संयोगिता भली -भांति परिचित थी और उसे यद्यपि अपनें पिता से मिले हुये काफी समय हो गया था | फिर भी शायद वह अपने पिता को अपनें मन में किसी हीन धरातल पर खड़ा नहीं कर पा रही थी | डा ० ऊषा कालिया के तलाक की कहानी और उनके पति के पुनर्विवाह की चर्चा अन्य सन्दर्भों में की जाती रहेगी | यहाँ इतना कहना ही आवश्यक है कि संयोगिता के जीवन मूल्य अपनी माँ के जीवन मूल्यों से सम्पूर्णताः मेल नहीं खाते थे और वह अपने जीवन पथ के लिये मानव संम्बन्धों के आदर्श आयामों को छू रही थी | लगभग दो- ढाई घण्टे बाद जब हम आने के लिये प्रस्तुत हो रहे थे तो बाहर एक गाड़ी रुकी और एक अत्यन्त सुन्दर नवयुवती अंग्रेजी वेशभूषा में सिर पर Felt Cap  लगाये हुये अन्दर आयी | उसनें ऊषा जी से कहा , " Sorry aunty, I am too let . I was busy in the reheasal .और यह कहकर वह संयोगिता की ओर मुड़ी और हाँथ मिलाते हुये बोली , " How do you do  Sonyoo,you had a long stay abroad. संयोगिता नें उससे पूछा कहाँ से आ रही है  यह क्या पहन रखा है | आनें वाली सुन्दरी नें उसे बताया कि विश्वविद्यालय में शैक्सपियर की कमेडी "Twlth Night "मंच पर अभिनीत होनें जा रही है और मैं उसमें Oliya का रोल अदा कर रही हूँ | सीधे रिहर्सल से तुम्हारे पास आयी हूँ | मुझे दरवाजे तक गाडी में बैठानें के लिये डा ० ऊषा कालिया बाहर आयीं और जब अपर्णां की मां गाड़ी में बैठ गयी तो मुझसे धीरे से बोलीं , "प्रोफ़ेसर साहब यह जो लड़की अन्दर आयी है यही प्रियम्वदा है कैप्टन जबर सिंह की पुत्री | आपका बेटा राकेश इसी के साथ हीरो का रोल अदा कर रहा है | आपकी बेटी अपर्णां प्रियम्बदा से परिचित है | सुनकर मैं अपनें भीतर कहीं शंकाओं के गहरे अन्धेरे में डूब गया | हे भगवान् ! यह नाटक ,यह मंच , यह सिनेमायी चित्रण ,यह नारी मुक्ति आन्दोलन , यह सौन्दर्य प्रतियोगितायें और यह वस्त्र प्रदर्शनियाँ क्या हमारे घरों की मर्यादाओं को सुरक्षित रहनें देंगीं | पर क्या किया जाये ? बदलते समय को मुठ्ठी में बांधकर नहीं रखा जा  सकता पर क्या पता कहीं इस उथल -पुथल में समुद्र के अन्तः स्थल में पड़े गहरे मोती भी निकल आयें ? घर वापस आकर भी मेरा मन शंकाओं से घिरा रहा | अपर्णां बड़ी हो गयी है | उसके नख -शिख भी लुभावने हैं , उसकी प्रतिभा भी प्रभावी असर छोड़ती है | युवक उसकी ओर आकर्षित होनें लगे हैं | उसे  अच्छे -बुरे की निर्णय क्षमता कैसे मिल पायेगी | ऐसा कुछ किया जाये  कि Post Graduation के लिये उसे विदेश में जानें की व्यवस्था हो सके | उसे किसी Scholarship के लिये तैय्यार करना होगा अब वह युग नहीं रहा जब माँ -बाप की जिम्मेदारी लड़की की शादी कर देनें के बाद समाप्त हो जाती थी | लड़का भले ही आर्थिक द्रष्टि से सुद्रढ़ न हो पावे | पर लड़की को तो अपनें पैरों पर खड़ा करनें योग्य बनाना ही होगा | पलंग पर लेटे -लेटे न जानें कब झपकी आ गयी  और तन्द्रिल अवस्था में मन कई दशक पहले बचपन में देखे गये उन द्रश्यों को दोहराने लगा जो मेरे स्व ० पिता के अन्तिम प्रयाण के समय के थे | पिताजी के देहान्त के बाद मेरी माँ द्वारा किया हुआ अटूट संघर्ष और उनके अजेय जीवट की कथा मेरे उपचेतन से उभरकर अन्तर चक्षुओं के सामनें झलकने लगी | तीन -तीन अबोध बच्चों को छोड़कर परलोक सिधारे हुये पिता के गौरव को अक्षुण रखनें और बच्चों को पाल -पोषकर समर्थ बनानें की जिस जुझारू जीवन्तता नें माँ का निर्माण किया था उस निर्माण का थोड़ा -बहुत अंश तो उनकी सन्तानों में होना ही चाहिये | | हाँ हाँ मैं अपर्णा को समर्थ बनाऊंगा  ओक के उस वृक्ष की भांति जो पहाड़ों की सीधी खड़ी कटानों पर  भी सिर ऊँचा किये खड़ा रहता है | अन्तर चक्षुओं के आगे घूम गया गाँव के घर बाहरी दालान का वह द्रश्य जहां एक आठ वर्ष की बालिका और उसके दो छोटे भाई रोती सिसकती माँ की छाती में सिर छिपोये पड़े हों और उनका मृत प्राय पिता काष्ठ की पट्टिकाओं पर अन्तिम साँसे ले रहा हो | पर यहीं से तो शुरू होती है उस अदम्य जीवट की कहानी जिसनें एक नया इतिहास रच डाला | इतिहास में वर्णित रानियों की वीरता गाथायें हम सभी पढ़ते रहते हैं पर कुछ ऐसी गाथायें हैं जिन्हें हम कभी नहीं पढ़ते पर जो अपने साहस ,वीरता और अपनें परिवार की आन पर मर मिटनें की संकल्प द्रढ़ता से भरी पुरी है | उन्हीं गाथाओं में से एक है अपर्णा की दादी की कथा | अपने यत्न से आर्थिक स्वतन्त्रता पाकर भारत के नारी संसार के समक्ष नये मूल्यों की स्थापना और उन्हें ठोस व्यवहारिक धरातल पर मूर्तवान  करना | अपर्णा क्या उस विरासत के योग्य बन सकेगी ? वह संघर्षों की आग से नहीं गुजरी है | कंचन में मिला हुआ खोट अभी जलकर नष्ट नहीं हुआ है | बिना तप किये हुये कोई श्रेष्ठ उपलब्धि नहीं हो पाती | पर यह क्या ? यह कैसी स्वप्निल झांकी है ,यह तो स्वामी वृन्दावन पुरी जी हैं जो मेरी माँ के पैर छू रहे हैं | नहीं ,नहीं सन्त तो किसी के पैर नहीं छूते | मेरी माँ बताया करती थीं कि यदि पुत्र भी सन्त या सन्यासी हो जाय तो उसके पैर छुये जाते हैं क्योंकि उसमें ईश्वरत्व का अंश आ जाता है | मानवीय काया के सारे लगाव सन्त होते ही समाप्त हो जाते हैं | फिर वृन्दावन पुरी जी जिनकी यशोगाथा चारो ओर फ़ैली है मेरी माता जी के पैर क्यों छू रहे हैं ? इस रहस्य को तो खोलना ही होगा | तभी अपर्णां की माँ की आवाज सुनायी पड़ी , "उठो सुबह हो गयी ,मैं बेड टी बनाकर ले आयी हूँ | "
                                              आँखें मलते हुये मैं उठ बैठा | दीवाल घड़ी पर नजर पडी तो देखा कि सुबह के छः  बज चुके हैं | अरे भाई , जल्दी ही तैय्यार होना होगा | प्रातः नौ बजे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा ० खण्डेलवाल का व्याख्यान होना है | विषय है "भारत के महाकाव्यों में नारीपात्र "अंग्रेजी का प्रवक्ता होनें पर भी मेरे ऊपर ही मंच संचालन की जिम्मेदरी सौंपी गयी है | मानवकीय संकाय में किसी विभाग में भी Extension लेक्चर होना हो तो मुझे ही मंच संचालन करना पड़ता था | मंच संचालक को कुछ समय पहले पहुँच कर अपनें को आश्वस्त करना पड़ता है कि सबकुछ ठीकठाक है | कि श्रोता समय के पहले बैठ गये हैं | कि शान्ति बनाये रखनें की पूरी व्यवस्था हो गयी है और कि मंच पर किस किस को लाकर बिठाना है | लेक्चर के बाद प्रश्न पूछनें का भी सुअवसर श्रोताओं को दिया जाता था | जिज्ञासु श्रोता अपना कोई एक प्रश्न विद्वान वक्ता से पूछते थे और इस प्रकार विद्वान वक्ता की जीवन द्रष्टि के कुछ सशक्त पहलू उजागर हो जाते थे | हिन्दी साहित्य के फाइनल इयर के दो प्रतिभाशील विद्यार्थी मेरे सम्पर्क में आये थे | एक को मैनें यह प्रश्न पूछनें को कहा था , क्या दशरथ पुत्र राम को अपनी पत्नी जनक पुत्री सीता को परित्याग करने का कोई सामाजिक ,नैतिक या वैधिक अधिकार था ?उनका यह कार्य सामाजिक उन्नयन की दिशा में कितना सार्थक माना जा सकता है ? दूसरे विद्यार्थी को मैनें यह प्रश्न लिखवाया था ,क्या पांचाल के राजा द्रुपद की पुत्री द्रोपदी का पांच पाण्डव पतियों को समान भाव से शरीर समर्पण करनें का विधान एक सोची समझी राजघरानें की कूटनीतिक चाल थी या पाण्डवों द्वारा अपनी माता कुन्ती के आदेश का पालन मात्र ? मैं जनता था कि इन प्रश्नों पर डा ० खण्डेलवाल को काफी गहरायी से सोच -विचारकर उत्तर देना होगा और उन्हें अपनें पाण्डित्य ,अपने भाषाधिकार और अपनी सामाजिक सूझ -बूझ दर्शानें का पूरा समय मिल जायेगा | विद्यार्थियों से यह कह दिया गया था कि डा ० साहब जो भी कहें उसे सुन लेनें के बाद उसपर आगे तर्क -वितर्क करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इन प्रश्नों का उत्तर गणितीय परिधियों में नहीं घेरा जा सकता | यह प्रश्न हजारों वर्षों से अनुत्तरित रहे हैं और प्रत्येक बदलते सामाजिक सन्दर्भों में इनकी नयी -नयी व्याख्यायें होती रहेंगीं | लेक्चर समाप्ति और चाय पान के बाद प्राचार्य कक्ष में बैठकर डा ० खण्डेलवाल नें मुझसे पूछा क्या मैं हिन्दी और अंग्रेजी के महाकाव्यों के तुलनात्मक अध्ययन में कोई  रूचि रखता हूँ और मेरे हाँ कहनें पर उन्होंने मुझे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में आयोजित होनें वाली हिन्दी प्रोफेसरों की गोष्ठी में आनें के लिये आमन्त्रित किया | उन्होंने यह भी जानना चाहा कि क्या हिन्दी में अंग्रेजी महाकाव्य BEUWOLF (वियो उल्फ ) और PARADISE LOSTके मानक हिन्दी अनुवाद प्राप्य हैं और मैनें अपनी जानकारी में आये हुये कुछ नाम उन्हें सुझाये | उन्हें विदा करनें के बाद स्टाफ रूम में उनकी कही हुयी बातों पर गरमागरम चर्चा होनें लगी | हिन्दी की प्राध्यापिका डा ० स्नेह लता बंसल डा ० खण्डेलवाल को पुरुष की पशु शक्ति का प्रचारक कहकर छोटा करनें लगीं जबकि डा ० ए ० सी ० कम्बोज उन्हें स्वस्थ्य जीवन दर्शन के प्रभावी वक्ता के रूप में प्रशंसित करनें लगे | पर यह तो सब होता ही है अकेडमिक सर्किल में | ध्यान आ गया कि अपर्णां की माँ नें आते समय कहा था कि भोला पंसारी से पांच शेर शुद्ध सरसों के तेल के लिये बोल देना | सोचा लौटते समय रास्ते में उसी मार्ग में रहने वाली कपिला बुधराजा से मिलता चलूँगा वे राजनीति शास्त्र में रिसर्च कर रही हैं और कई बार अपनी थीसिस " The political affiliation of scheduled caste voters in shora kothi"पर परिचर्चा के लिये मुझसे मिल चुकी हैं | घर पहुंचने पर पत्नी नें बताया कि गाँव के मुन्ना बाबा का एक पत्र आया है जिसमें उन्होंने खेतों को बेच देनें की बात लिखी है | अरे भाई इस जीवन में कितना झंझट झमेला है | किन किन मोर्चों पर आदमी लड़ने जाय ?  पर जूझना तो होगा ही ,निराला की पंक्तियाँ मन में उभर आयीं | "करना होगा यह समर पार ,झेलना सांस का दुसह भार "पर संघर्ष की शक्ति कहाँ से लाऊँ ? लौटता हूँ फिर अपनेँ बचपन की ओर माँ की गोद में बैठे हुये एक अबोध चार पांच वर्ष के बालक के रूप में ,वही तो है वह स्थान ,वह शक्तिस्थल जहां से पुनर्जीवन देनें  वाली संजीवनी मुझे मिल जाया करती है |
(क्रमशः ) 

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(गतांक से आगे )

                                         तो चलूँ बचपन की ओर ,मातृ शक्ति की तलाश में जो क्षीण हो रही जीवन ऊर्जा को स्फुरित कर नया आवेग दे सके | पर मातृ शक्ति भी तो मूलतः नारी शक्ति ही है | वात्सल्य संरक्षण का ज्योतिर्मय आँचल प्रसरण | दार्शनिक बर्टेन्ड रसल के इस कथन में कितनी बड़ी सच्चायी है कि मानव जाति के कुछ महामानव सभ्यता के पिछले छह हजार वर्षों में नैतिक ऊंचाई का इतना बड़ा कद  पा गये हैं कि सितारे भी उनके आगे बौनें लगते हैं | पर फिर भी विश्व के बहुसंख्यक मनुष्य अभी भी कृमि कीटों भरी सड़ांध में गोते लगा रहे हैं | ऐसा ही तो कुछ हुआ था पुरुन्दर की उस पहाड़ी पर एक मास के सामरिक प्रशिक्षण के दौरान | स्वास्थ्य की कुछ समस्याओं के बावजूद मेरा उस प्रशिक्षण में जाना अति आवश्यक हो गया था | क्योंकि बटालियन कमाण्ड करनें की पात्रता उस प्रशिक्षण के बाद ही स्वीकृत हो पाती थी | मेरा शरीर उन दिनों अधिक शारीरिक श्रम वहन करनें योग्य नहीं लग रहा था | क्योंकि वायरल अटैक  के एक लम्बे दौर से पायी क्षीणता से वह अभी तक मुक्त नहीं हुआ था पर प्रशिक्षण के पहले ही दिन आयोजित एक सामरिक शैक्षिक परिचर्चा में मेरा योगदान सराहना के योग्य माना गया | और ब्रिगेडियर देसाई नें मुझे ऊषा पूर्व होनें वाली शारीरिक ड्रिल से मुक्त कर दिया | इस छूट के साथ ही मैं तीन प्रशिक्षुओं की एक कमेटी का संयोजक भी बना दिया गया | जो सौ से भी अधिक आये कॉलेजों के एन ० सी ० सी ० पदाधिकारियों का प्रशिक्षण प्रवास सुखद बना सकें | रविवार के दिन अवकाश रहता था और जैसा कि मैं अपनें पहले प्रशिक्षण प्रयासों में किया करता था वैसा ही फिर से पहाड़ी की ऊंची चोटी पर बनें नन्दी आरोहित देवाधिदेव शिव के मन्दिर जाकर सायंकाल का समय व्यतीत करने लगा | मेरी कल्पना द्रुति गामी अश्व पर सवार शिवा राजे उस मन्दिर में पूजा अर्चना कर पहाड़ी के ऊबड़ -खाबड़ चक्करदार मार्गों से उतरते हुये नीचे के ग्राम आंचलों की ओर जाते दिखायी पड़ते थे | महाराष्ट्र के इस महान योद्धा और महामानव नें किस प्रकार दिल्ली की अविजेय कही जानें वाली मुगुल सेना के छक्के छुड़ा दिये थे ये सोच -सोच कर मुझे रोमांच हो आता था | कुछ वरिष्ठ प्रशिक्षु मेरी तरह पहाड़ी की चोटी पर आकर आस -पास का सौन्दर्य निहारा करते थे | | पर अधिकाँश तरुण आफीसर्स जिनके लिये प्रशिक्षण का यह पहला दौर था पहाड़ी से नीचे उतरकर राम पेट होते हुये टैक्सी लेकर पूना चले जाते थे | रात्रि को नौ बजे से पहले वापस आनें की सीमारेखा कितनें ही ऐसे अफसरों द्वारा तोड़ दी जाती थी और मुझे संचालन कमेटी का Co-Ordinator होनें के नाते कई बार उन्हें सावधान भी करना होता था | कुछ प्रशिक्षु रामपेट गाँव के आस -पास चहलकदमी करते थे  और स्थानीय छोटी -मोटी दुकानों से कुछ खरीद -फरोख्त भी कर लेते थे | वैसे पुरुन्दर ट्रेनिंग अकादमी की अपनी शाप तो है ही | पत्रिका के अधिकाँश पाठक शायद महाराष्ट्र की इन पहाड़ियों के आँचल में बसे ग्रामवासियों से परिचित न हों इसलिये मैं बताना चाहूंगा कि इनमें से अधिकाँश मराठी लोग हैं जिन्हें अपनी वीरता ,अपनी पारिवारिक पवित्रता , और भारत के महाकाव्यीय गौरव पर अभिमान है | औद्योगिक द्रष्टि  से महाराष्ट्र एक विकसित प्रदेश है | बम्बई और उसके आस -पास भारत के सबसे धनी लोग और सबसे बड़े यद्योगपति पाये जा सकते हैं पर पहाड़ियों के बसे आँचल में आज से लगभग 50 वर्ष पहले घोर गरीबी थी और जहां तक मैं समझता हूँ शायद आज भी उस गरीबी का उन्मूलन न हो पाया हो | तो रामपेट गाँव के अधिकाँश पुरुष आफीसर्स की बैरकों में हेल्पर्स का काम करते थे उन्हें अंग्रेजी में बैरे या Bearer कहा जाता है | जूते पालिश करना ,पेटियां रंगना या चमकाना , सफाई करना या बिस्तरे लगाना आदि काम उनके द्वारा किये जाते थे और छोटी -मोटी तनख्वाह के साथ उन्हें बख्शीश भी मिल जाया करती थी | सभी प्रशिक्षु कॉलेजों के प्राध्यापक थे और सभी अच्छी  आर्थिक स्थिति के थे | नीचे के गाँव से जरूरत की छोटी -मोटी चीजें भी ये बैरे लाकर दे देते थे | पहाड़ी के ऊपर उगने वाले पेंड़ पौधे , झाड़ -झंखारों की सूखी डालियाँ इनके घरों की औरतें इकठ्ठा कर लेती थीं जिनसे सर्दी के दिनों में ठंड से बचने में मदद मिलती थी | झाड़ -झंखारों को काट -काट ये उनके स्थानों पर डाल देती थीं और जब ये सूख जाते तो इन्हें इकठ्ठा कर लेती थीं | संम्भवतः घर में खाना बनानें के लिये भी वे लकड़ियों का प्रयोग करती होंगीं | भारत के भिन्न -भिन्न शहरों से आये हुये हम लोग नीचे से ऊपर की चढ़ायी एक बार कर लेने पर दुबारा उतरनें की हिम्मत नहीं करते थे पर ये औरतें दिन में न जानें कितनी बार ऊपर नीचे आया -जाया करती थीं | रविवार के दिन बैरों की भी छुट्टी होती थी और इसलिये अधिकतर औरतें घर पर ही रहती थीं पर एकाध बार जरूरत पड़ने पर वह ईंधन इकठ्ठा करनें के लिये तीन चार किलोमीटर के दायरे में फ़ैली पुरुन्दर की पहाड़ी चट्टानों पर भी चक्कर लगा लेती थीं |
                                उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक और पूर्व में आसाम से लेकर पश्चिम में वारमेड़ ( राजस्थान ) की सीमाओं तक एन ० सी ० सी ० का प्रशिक्षण रक्षा मन्त्रालय की देख -रेख में सुनिश्चित किया गया है | भारत के सभी भागों में प्रोफ़ेसर प्रशिक्षु जिन्होनें एन ० सी ० सी ० में कमीशन लिया था इस प्रशिक्षण शिविर में आये थे उन दिनों राष्ट्रपति से पाये  हुये कमीशन को वही सम्मान मिलता था जो आजकल आई ० ए ० एस ० आफीसर को मिलता है | तो प्रशिक्षण के दूसरे  रविवार की एक घटना मुझे संचालन कमेटी के संयोजक होनें के नाते एक गहरे सशोपंत में डाल दिया | बात कुछ यों  थी शाम को पांच बजे रामपेट गाँव का एक अधेड़ मराठा और उसकी पत्नी रामाबाई अकेडमी के कमाण्डेन्ट ब्रिगेडियर देसाई से मिलनें के लिये आये | ब्रिगेडियर देसाई उस समय एक जरूरी काम में व्यस्त थे | इसलिये उन्होंने उन्हें अगले दिन आनें के लिये कहलवा भेजा पर दामोदर शिन्दे और रामाबाई मिलनें के लिये जिद्द करने लगे और कहा कि उन्हें एक बहुत जरूरी बात कहनी है कल तक कुछ भी हो सकता है | ब्रिगेडियर देसाई कर्नल राम सिंह को लेकर बाहर कमरे में बैठे मराठा दम्पति को मिलनें आ गये  और पूछा कि कौन सी ऐसी जरूरी बात है जिसे उन्हें तुरन्त बताना है | शिन्दे चुप रहा पर रामाबाई नें मराठी में कुछ कहना शुरू किया | देसाई गुजरात से थे और उन्हें मराठी का भी बहुत अच्छा ज्ञान था | कर्नल राम सिंह भी महाराष्ट्र में ही बहुत दिनों से थे और अच्छी मराठी बोल लेते थे | मैनेँ रामबाई की बात -चीत तो नहीं सुनी  पर ब्रिगेडियर देसाई नें मुझे जो बताया उसका सारांश कुछ इस प्रकार था | रामाबाई का कहना है कि उसकी लड़की जो कि करीब चौदह पन्द्रह साल की है आज शाम  चार बजे लकड़ियां इकठ्ठी करने के लिये पहाड़ी पर आयी थी | जिस जगह वह लकड़ियां इकठ्ठी कर रही थी उसी के  पास से होकर जीप वाली चक्कर दार सड़क गुजरती है | शाम को चार बजे के करीब तीन चार अफसर नीचे से ऊपर की ओर जा रहे थे वे शायद पूना से वापस आये होंगें उनमें से तीन तो ऊपर चले गये पर एक वहीं कहीं चट्टानों पर बैठा रहा | मेरी लड़की चोली और घाघरा पहनें थी | जब वह लकड़ी का गठ्ठर बांधकर सिर पर रखनें लगी तो भरे बदन का अफसर जिसका रंग सांवला है उसके पास आकर उसकी चोली में हाँथ डालनें लगा और जेब से कुछ नोट  निकालकर उसकी ओर बढ़ाये लड़की चिल्लानें लगी और गठ्ठर फेंककर नीचे की ओर भागी | वह गुण्डा दौड़कर वहां से ऊपर की ओर भाग गया | वह जरूर इन्हीं किन्हीं बैरकों में होगा | | लड़की नें मुझे सब बात बतायी | हमारी बिरादरी नें तय किया है कि हम आप से मिलकर सब बात बता दें | हम सब तलाश में हैं ज्यों ही वह गुण्डा हमें दिखायी पड़ा हम उसकी बोटी -बोटी काटकर कुत्तों के आगे फेंक देंगें | कुत्ते खायेंगें या नहीं खायेंगें यह माँ भवानी जानें | आप अगर कोई कदम नहीं उठाते तो कल सुबह से कोई बैरा इन बैरकों  में काम करने नहीं आयेगा |
                                           ब्रिगेडियर देसाई नें सूबेदार धर्म पाल को भेजकर तुरन्त मुझे बुलानें के लिए कहा और उस मराठा दम्पत्ति को बाहर बैठकर थोड़ी देर इन्तजार करनें की बात कही | मैं घबराया हुआ ब्रिगेडियर साहब के पास गया और सेल्यूट कर उनसे बुलानें का कारण पूछा | ब्रिगेडियर साहब तो चुप रहे पर कर्नल राम सिंह नें मुझे पूरी स्थित समझायी | और पूछा कि अब क्या किया जाय | मैं सौ से अधिक कालेज प्रोफेसरों का प्रतिनिधि था और वे जानते थे कि अगर वे स्वयं कोई दण्ड निर्धारित करेंगें तो एन ० सी ० सी ० आफीसर्स और रेगुलर आर्मी आफीसर्स के बीच में एक दरार पैदा हो सकती है |मुझे अन्तर्मन में विश्वास था कि माँ भवानी की शपथ खानें वाले मराठे झूठ नहीं बोलते और मराठा दंपत्ति नें जो कुछ कहा है उसमें निसंदेह सच्चायी है  पर आफीसर को काट कर फेंक देनें में उनकी योजना मुझमें घबराहट पैदा कर  रही थी | पर दण्ड तो देना ही था | क्या किया जाय ?कैसे किया जाय ? कुछ सोचकर  मैं अंग्रेजी में इस प्रकार बोला सर यह बहुत संगीन मामला है | पहले तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि वह गुण्डा हमारे इस आफीसर्स बैच का ही आदमी है या बाहर का कोई व्यक्ति | पहचान हो जानें के बाद ही हम दण्ड का निर्धारण कर सकेंगें | इस बीच मैं अपनें पैनल के दो अन्य सदस्यों से भी विचार विमर्श कर लूंगा | इस वख्त अन्धेरा होने वाला है वैसे भी रविवार है रात्रि नौ बजे तक आनें की छूट है बहुत से आफीसर्स अभी तक नहीं आये होंगें , कल सुबह ऊषा पूर्व पी ० टी ० के दौरान जब सभी आफीसर्स फाल इन हों तो तो उस समय आप इस मराठा दम्पति को इनकी लड़की के साथ बुला लीजिये | पी ० टी ० में आफीसर्स जंगल हैट नहीं लगाये होंगें और वह लड़की आसानी से उस गुण्डा आफीसर को पहचान लेगी | इसके बाद दण्ड का निर्णय हम आप की राय को सर्वोपरि मानते हुये ले लेंगें और सभी एन ० सी ०सी ० आफीसर्स उस निर्णय से पूरी सहमति जतायेंगें | ब्रिगेडियर देसाई नें मेरे सुझाव के औचित्य को मान लिया | उन्होंने मराठा दम्पत्ति को यह बात समझायी | रामाबाई ने कहा , "बिटिया के बापू को तो कल सुबह काम पर जाना है वो तो नहीं आ पायेगा पर मैं और मेरी बेटी सबेरे पांच बजे आपके पास हाजिर होंगें ,आप हमारे माई -बाप हैं जो फैसला करेंगें  हम मान लेंगें तबतक हम अपनी बिरादरी के लोगों को कुछ न करने की बात पर राजी कर लेंगें |
                                             वो रात मेरे लिये काटनी काफी कठिन हो गयी मैनें अपनें दोनों साथी कैप्टन देवेन्द्र सिंह और कैप्टन पुणताम्बार को विश्वास में लिया दोनों ही वरिष्ठ एन ० सी ० आफीसर्स तो थे ही पर साथ ही दोनों अपनें -अपनें विषय के उदभट विद्वान भी थे | हमनें आपस में यह तय किया कि एन ० सी ० सी ० आफीसर्स की लाज बचाने के लिये पहचानें गये इस गुण्डा आफीसर को किसी तरह यहां से निकालकर इसे अपनें कालेज में भेजना होगा | पर अगर ब्रिगेडियर देसाई ने कहीं उसे मराठा दम्पति के हवाले कर दिया तो क्या होगा | तय हुआ कि सूझ बूझ कर हर कदम उठाया जाय और किसी न किसी प्रकार रेगुलर आर्मी आफीसर्स को अपने साथ रखा जाय | हमें ट्रेनिंग देनें वाले बहुत से सूबेदार और हवलदार मराठा थे और उनकी सहानुभूति स्वाभाविक रूप से उस पीड़ित परिवार के साथ थी | वैसे भी एन ० सी ० सी ० आफीसर्स के पूरे ग्रुप को बदनामी की चादर में लपेट देनें में उन्हें छुपा आनन्द मिल रहा था क्योंकि कमीशन्ड अफसर और नान कमीशन्ड आफीसर्स के बीच काम्प्लैक्सेस पलते रहते हैं | हम तीनों के अतिरिक्त और किसी एन ० सी ० सी ० आफीसर को कानों कान यह खबर नहीं मिली कि कल सुबह एक आइडेंटिटी परेड हो रही है जिसमें गुंडई का ताज किसी के सिर पर रखा जायेगा | किस प्रदेश से आया है यह गुण्डा प्रोफ़ेसर आफीसर ,किस कालेज की शान बना फिरता है यह नीच व्यभिचारी | किस माँ -बाप की औरस सन्तान है यह नाली का कीड़ा जैसा मैं पहले कह चुका हूँ मुझे पी ० टी ० पर जानें की छूट मिल चुकी थी पर उस सुबह मैं सीटी लगनें के पहले ही पी ० टी  ग्राउण्ड पर खड़ा था | सूबेदार जोगेन्दर सिंह नें सीटी मुंह में लगानें से पहले पूछा मेजर साहब आज इधर कैसे ? मैनें कहा सर सोचा आज आपसे शरीर विकास की कुछ नयी तकनीकें सीख लूँ सीटी बजाइये और एक के बाद एक और एक के बाद एक सफ़ेद टी शर्ट और सफ़ेद हाफ पैन्ट पहनें प्रोफ़ेसर आफीसर्स पी ० टी ० मैदान में सीधी पंक्ति में खड़े होने लगे | उस दिन पहली बार ब्रिगेडियर देसाई पी ० टी ० ड्रेस में आ उपस्थित हुये | सूबेदार जोगेन्दर सिंह घबरा गये कि कमाण्डेन्ट साहब इंस्पेक्शन पर क्यों आये तभी कर्नल राम सिंह और उनके पीछे रामाबाई और उनकी किशोरी बेटी फूलमती आती दिखायी पड़ी | एक छरहरी मझोले कद की सांवली सलोनी बालिका किशोरी | मैं भी जाकर पंक्ति के प्रथम सिरे पर खड़ा हो गया | कमाण्डेन्ट साहब नें सूबेदार जोगेन्दर सिंह को काशन देने के लिये कहा एक सौ तीन आफीसरों वाली वह पंक्ति सावधान मुद्रा में खड़ी हो गयी | कमाण्डेन्ट साहब , कर्नल साहब ,रामाबाई और फूलमती मेरे पास से होते हुये एक एक आफीसर्स के चेहरे को देखते हुये आगे बढ़ने लगे | दो तीन आफीसरों के बाद ब्रिगेडियर साहब नें मुझे लाइन से हटकर अपनें पास बुला लिया और साथ साथ चलने को कहा | मैं 96  तक गिनती कर चुका था और मेरा मन अत्यन्त हर्षित था कि शायद वह नीच गुण्डा हममें से नहीं है तभी सत्तानवे आफीसर के बाद जाकर  वह लड़की रुक गयी यूनिफार्म में न होनें के कारण उसका नाम मैं उस समय न जान पाया | ब्रिगेडियर साहब नें फूलमती से मराठी में कहा ठीक से देख लिया | फूलमती नें स्वीकृति में सिर हिलाया | ब्रिगेडियर साहब नें उस गुण्डा आफीसर से कहा फाल आउट और उनके इशारे पर दो हवलदारों ने दायीं  और बायीं ओर से उसका एक एक हाँथ पकड़ लिया और उसे खींचकर हेड क्वार्टर की ओर ले चले | कमाण्डर साहब ने मुझसे कहा मेजर अवस्थी , " Accompany me to my office , let us take a decision."सारी पी ० टी ० परेड पर मौत का सा सन्नाटा छा गया | क्या बात है , क्या होने वाला है ? बिहार राज्य के सासाराम चुनाव क्षेत्र से आने वाला यहएन ० सी ० सी ० आफीसर कैद में क्यों ले लिया गया ? सासाराम तो बाबू जगजीवन राम का चुनाव क्षेत्र है , यह मराठा लड़की यहाँ क्यों आयी ? न जानें कितनें प्रश्न हर दिमाग में उछलकर उत्तर मांगनें लगे |
(क्रमशः ) 

Article 4

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(गतांक से आगे )

                                     लम्बी यात्रा के दौरान पिछले विश्राम स्थल मुड़कर देखनें पर स्पष्ट नजर नहीं आते | धुन्धलके से घिरी वस्तुयें और घटनायें रहस्यमयी लगनें लगती हैं  पर बीते कल का सत्य आज यदि सत्य न भी रहा हो तो भी अपनें युग की सीमाओं में उसकी सार्थकता से इन्कार नहीं किया जा सकता | धोबी घाट पर कही सुनीं बातें आज हमारे लिये बिल्कुल बेमानी हैं | पर सामाजिक नैतिकता निर्माण के प्रारम्भिक काल में उनका काफी कुछ महत्व रहा होगा तभी तो राम जैसे महापुरुष को क्षुद्र मुहों से निकली उपेक्षणींय कटुक्तियों नें विचलित कर दिया था | पर राम का नाम जिसके बिना भारत के सांस्कृतिक अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती न जानें कितनें अन्य नामों के साथ जुड़कर अपावन गर्त की गहराइयों में डूब चुका है ऐसे ही गन्दी नाली में बुदबुदाते कृमि कीटों सा थाह बिहार के सासाराम का सेकेण्ड लेफ्टीनेन्ट का सितारा लगाने वाला जी ० राम | पूरा नाम था गया राम गोंद पर अब हम उसे गुन्डू राम के  नाम से अभिहत करेंगें | कमाण्डेन्ट के दफ्तर में गुन्डू राम को हाजिर किया गया | अपराधी प्रकृति का एक और साक्ष्य उस समय मिला जब गुन्डू राम नें प्रथमतः यह माननें से इन्कार किया कि उसनें किसी लड़की की चोली पर हाँथ रखा था और उसे नोट दिखाये हैं | और जब ब्रिगेडियर साहब नें उससे कहा कि इस दफ्तर से बाहर जाते ही रास्ते घेर कर बैठे हुये मराठे उसे पकड़कर बोटी -बोटी काट डालेंगें तो वह घबरा गया | उसनें कहा कि उस लड़की से तो उसनें सिर्फ यह पूछा था कि वह किस गाँव की है और वह गाँव वहां से कितनी दूर है | जब बाहर बैठी लड़की और उसकी माँ  को उसके सामनें लानें की बात कही गयी तब गुन्डू राम मान गया कि चलते समय गल्ती से उसका हाँथ लड़की की छाती से लग गया था | पर उसनें नोट नहीं दिखाये थे | उसनें कुछ कदम आगे चलकर पैन्ट की जेब से नोट इसलिये निकाले थे कि उसे यकीन हो जाये कि कहीं पूना में उन्हें खो तो नहीं आया है | उसकी इन बातों से हमें स्पष्ट हो गया कि गुन्डू राम एक अत्यन्त घटिया स्तर का अध्यापक है | उसनें कहा कि वह एक इण्टर कालेज में भूगोल पढ़ाता है | वह किस जाति में जन्मा था हम यह बतानें की आवश्यकता नहीं समझते क्योंकि हमारा अनुभव हमें बताता है कि अपराधी प्रवृत्ति के लोग हर जाति , हर काल , और हर क्षेत्र में पाये जाते हैं | पर वह मनुष्य कहा जानें योग्य तो है ही नहीं इतना तो सुनिश्चित ही हो गया | ब्रिगेडियर देसाई नें जब उससे कहा कि वो उसे बाहर बैठे मराठों को सौंप देते हैं और उसे अकेडमी से बाहर निकाल देनें का आर्डर कर देते हैं तो गुन्डू राम के हाँथ पैर फूल गये | पहली बार वह गिड़गिड़ाता हुआ बोला कि उसे मराठों के हाँथ न सौंपा जाय कि वह अकेडमी द्वारा दी जाने वाली हर सजा को मंजूर करेगा , कि वह एक गन्दा इन्सान है और कमीशन के काबिल नहीं है | कि वह अपनें पाप का प्रायश्चित करेगा और अच्छा इन्सान बननें की कोशिश करेगा , कि वह शादी -शुदा है और उसके दो बच्चे हैं , कि उसकी बीबी ग्रेजुएट है और उसका ससुर दिल्ली नगर निगम में सफायी विभाग का कर्मंचारी है | वह कमाण्डेन्ट साहब के पैरों पर गिर पड़ा | और फूट -फूट कर रोने लगा | हम लोगों को ऐसा लगा कि शायद इसका हृदय परिवर्तन हो जाय | हमें रत्नाकर डाकू के बाल्मीक ऋषि बननें की बात याद आ गयी | ब्रिगेडियर देसाई भी भारत की प्राचीन पौराणिक कथाओं से परिचित थे और अन्तरमन से यह चाहते थे कि पापी को सुधरनें का एक मौक़ा मिलना चाहिये | कमाण्डेन्ट साहब ने मेरी ओर देखा | मैनें उनसे निवेदन किया कि जी. राम को कुछ देर के लिये दूसरे कमरे में ले जाया जाय हम लोग फिर आपस में विचार -विमर्श करके दण्ड का स्वरूप और परिमाण तय कर लेंगें | जी. राम ब्रिगेडियर साहब के पैरों से चिपटा रहा पर उनके हुक्म देनें पर वह उठ खड़ा हुआ और दो हवलदार उसे पकड़कर क्वार्टर गार्ड में ले गये जहां वह बन्द कर दिया गया | मैनें ब्रिगेडियर साहब से कहा , "सर ऐसा लगता है कि सारी कालिख के बीच अभी इसमें इन्सानियत का एक चेतन बिन्दु उपस्थित है | अब आप बताइये कि क्या किया जाये | दो बातें स्पष्ट हैं | पहली यह कि हमें इसे मराठों के सुपुर्द नहीं करना चाहिये | यह अपनी अकेडमी में प्रशिक्षण के लिये आया है | इसनें अपराध की गंम्भीरता को स्वीकार कर लिया है अब दण्ड देनें का नैतिक और कानूनी अधिकार हमारा ही  है मराठा दम्पति ने हमें आश्वस्त ही कर दिया है कि वह हमारे निर्णय को स्वीकार कर लेंगें | दूसरी बात यह है यदि यह  अकेडमी में बना रहता है तो यह गाँव से आनें वाले बैरों की नजर में रहेगा और मराठा आनर के नाम पर कोई भी घटना घट सकती है इसलिये इसे अकेडमी से वापस  लौटाना ही होगा |
                                      ब्रिगेडियर साहब कुछ सोच में पड़ गये उन्होंने कर्नल राम सिंह की राय जाननी चाही | कर्नल साहब नें कहा , "सर इसे डी. कमीशन कर दिया जाय और इसके कालेज को इसके अपराध की सूचना दे दी जाय तथा इसके परिवार को भी इसके अपराध से सूचित कर दिया जाय और इसे   अकेडमी से वापस भेज दिया जाये | ब्रिगेडियर साहब नें मेरी ओर देखा मैनें कहा सर, मैं एन ० सी ० सी ० आफीसरों के प्रतिनिधि के रूप में आपके बीच उपस्थित हूँ | कर्नल साहब जी कहना बिल्कुल ठीक है पर कालेज में रिपोर्ट करनें से इसकी नौकरी चली जायेगी और यह दर -दर भटकनें लगेगा | कहीं ऐसा न हो कि हम इसे घोर अपराधी बना दें और यह क़ानून व्यवस्था के लिये एक मुसीबत खड़ी कर दे | सर मुझे एक बार अकेले में जी. राम से मिलनें की इजाजत दीजिये फिर मैं उसकी गल्ती के लिये दिये जानें वाले दण्ड के सम्बन्ध में विश्वास के साथ निवेदन कर सकूंगा | ब्रिगेडियर देसाई नें कैप्टन हूडा को बुलाया मुझे क्वार्टर गार्ड में बन्द जी.  राम से मिलनें की इजाजत मिल गयी | मेरे लिये एक कुर्सी डाल दी गयी | जी. राम जमीन पर बैठ गया | मैनें कहा देखो भाई हम दोनों ही मूलतः अध्यापक हैं | एन. सी. सी. की आफ़ीसरी तो हमारे लिये अतिरिक्त सम्मान और थोड़ी -बहुत अतिरिक्त आय का साधन मात्र है | कर्नल राम सिंह जी चाह रहे हैं कि तुम्हें डी ० कमीशन्ड कर दिया जाये |तुम्हारे कालेज और तुम्हारे परिवार को तुम्हारे अपराध के  बारे में लिख दिया जाय और तुम्हें अकेडमी की जीप में सुरक्षित रूप से पूना ले जाकर गाड़ी में बिठा दिया जाय ताकि तुम बिहार पहुंच जावो | बोलो तुम्हें इस सम्बन्ध में कुछ कहना है | जी. राम नें मेरे पैरों पर माथा रख दिया और रोने लगा | मैनें कहा अरे भाई यह क्या करते हो ? मैं तो तुम्हारा अध्यापक भाई हूँ खुल कर बताओ कि क्या ऊपर कही हुयी बातें तुम्हें जीवन भर के लिये विकार तो नहीं देंगीं | जी. राम बोला , "सर अगर आपनें मेरे कालेज को लिख दिया तो मैं नौकरी से निकाल दिया जाऊँगा | Moral Turpitude का चार्ज मुझे कहीं का नहीं रखेगा , मैं सड़क पर आवारा कुत्ते की भांति भटकनें लगूंगा | इससे  तो मैं मर जाना बेहतर समझूंगा | हाँ परिवार को आप न भी लिखें तो भी मैं बता ही दूंगा | मुझे अपनी गल्ती की गंभ्भीरता  का अहसास है | मैनें लड़की की गरीबी का नाजायज फायदा उठाना चाहा | अपनी पत्नी की आँखों में मैं कीड़े से बढ़कर और क्या लगूंगा | हाँ आप मुझे डी. कमीशन करना चाहें तो करवा दें | मैं एन ० सी ० सी ० आफीसर के लायक नहीं रहा | मैनें कहा भाई जी. राम सजा का अन्तिम निर्णय ब्रिगेडियर देसाई करेंगें | मैं तो बीच की एक कड़ी मात्र हूँ | फिर भी मैं प्रयास करता हूँ कि तुम्हारा जीवन नष्ट न हो और तुम एक बेहतर इन्सान बन जाओ |  तुम्हारे बच्चे बड़े होकर तुम्हें घृणा से न देखें अब  मैं जा रहा हूँ और कुछ देर के बाद कमाण्डेन्ट साहब तुमको  बुलाकर दण्ड के संम्बन्ध में अन्तिम निर्णय सुनायेंगें | हो सकता है कि मराठा दम्पति भी उस समय बुला लिया जाय | फिर मैं बैरक में आया और मैनें अपनें दो अन्य वरिष्ठ साथी कैप्टन देवेन्द्र सिंह और  कैप्टन पुणताम्बर से काफी देर तक विचार -विमर्श किया | हम तीनों ने तय किया कि लेफ्टीनेन्ट जी. राम का अपराध क्षमा के योग्य नहीं है पर उसका दण्ड भी ऐसा हो जिससे उसका सम्पूर्ण जीवन नष्ट न हो जाये  | क्षमा यदि कोई कर सकता है तो मराठा दम्पति और उनकी पुत्री ही इसका अधिकार रखती है | हाँ यदि कर्नल राम सिंह नहीं मानते हैं तो डी. कमीशन की बात पर विचार किया जा सकता है | पर अच्छा यही होगा कि उसे इस कोर्स से वापस लौटा दिया जाये | ऐसा करने के लिये उसे लिये जानें वाले टेस्ट में फेल हो जानें की वजह बतायी जा सकती है | हम सौ से ऊपर एन.सी . सी. आफीसर यही चाहते हैं बाकी कमाण्डेन्ट साहब यदि और दण्ड देना चाहें तो हम उस पर सोच विचार कर सकते हैं | करीब एक घण्टे बाद मैनें अर्दली को इस निवेदन के साथ अन्दर कमाण्डेन्ट के पास भेजा कि मैं उनसे मिलना चाहता हूँ | बुलावा आ गया | अन्दर ब्रिगेडियर साहब और कर्नल साहब विचार - मशिवरा कर रहे थे | मैं समझता हूँ कि रामाबाई और फूलमती भी घर के भीतर ब्रिगेडियर साहब की पत्नी और लड़कियों के बीच बैठी हुयी थी | कमाण्डेन्ट साहब नें पूछा कि वह कुत्ते का बच्चा क्या चाहता है | मैनें कहा , "सर वह फिर से इन्सान बनना चाहता है | "वह चाहता है कि आप उसे एक नया जीवन जीनें की इजाजत दें | -साफ़ सुथरा अध्यापक का जीवन | उसकी प्रार्थना है कि आप उसके इस अपराध की सूचना उसके कालेज को न भेंजें | | उसनें वादा किया है कि वह अपनें इस अपराध को अपनी पत्नी से स्वयं ही बता देगा और उनसे क्षमा मांगेगा | हाँ वह एन.सी. सी. अफसर होनें के लायक नहीं है इसलिये यदि हम उसे डी ० कमीशन्ड करना चाहें तो तो उसे वह स्वीकार कर लेगा | साथ ही उसनें कहा है कि वह फुल परेड के सामनें मराठा दम्पति के पैरों पर गिरकर क्षमा की याचना कर सकता है | और उनकी बेटी से राखी बंधवा कर उसे जीवन भर पवित्र प्यार और गौरव दे सकता है | मैंनें अपनें दोनों वरिष्ठ साथियों से बातचीत कर ली है | सारे के सारे एन. सी.सी. आफीसर इस फैसले में हमारे साथ खड़े होंगें |
                           जी. राम को पूना स्टेशन से गाड़ी में बिठा दिया जाय और वह पटना पहुँच जायेगा | कमाण्डेन्ट साहब  हँसे और  उन्होंने कहा मेजर अवस्थी मैं तुम्हारी बातों से काफी कुछ सहमत हूँ | रामाबाई और उसकी बेटी यहीं पर है उस गधे के बच्चे को बुलाओ | वह उनसे मांफी मांगें | वह जैसा कहेगी  वैसा हम  कर देंगें | जी. राम को बुलाया गया | वह कांपते हुये अन्दर आया और देसाई साहब के पैरों पर गिर पड़ा | कमाण्डर साहब ने कहा , "अबे गधे के बच्चे मेरे पैरों पर मत पड़ अन्दर जा जहां रामाबाई और उसकी बेटी मेरी पत्नी और बच्चियों के साथ बैठी है  उनके पैरों पर गिर माफी मांग | वे माफ़ कर देंगीं तो हम भी माफ़ कर देंगें | ब्रिगेडियर साहब नें मुझे भी जी. राम  के साथ अन्दर जानें का आदेश दिया | जी. राम अन्दर जाते ही पहले ब्रिगेडियर साहब की पत्नी के पैरों पर लोट गया और फिर रामाबाई के पैरों पर सिर रखकर रोनें लगा | उसनें कहा माता जी मेरे सिर पर आप हजार बार जूते मारिये मैं गन्दी नाली के कीड़े से भी बद्तर हूँ | मैनें अपनी बहिन की इज्जत से खिलवाड़ किया | माँ मुझे माफ़ करो | रामाबाई गरीब अवश्य थी पर ओजस्वी मराठा जाति की चरित्रवान नारी थी उसनें कहा तुमनें मेरी बेटी को बहन कह कर पुकारा है जीवन भर अपनी पत्नी के अतिरिक्त सभी नारियों को माँ ,बहिन और बेटी के भाव से देखना | जा माँ भवानी तुझे माफ़ कर देंगीं | मैं ब्रिगेडियर साहब से कह दूंगीं के वे तेरा कोई नुकसान न करें | मैनें जी. राम की पीठ पर हाँथ रखकर उसे उठाया वह रोता -रोता बैठके में आकर ब्रिगेडियर साहब के पैरों के पास बैठ गया | कमाण्डेन्ट साहब नें कहा तू है तो गधे का बच्चा पर आज तूनें मराठा नारी के पैरों में सिर रखकर और उसे माँ कहकर एक कसम खायी है कि तू एक अच्छा इन्सान बनेगा | जा हम तुझे माफ़ करते हैं | मेजर अवस्थी का जीवन भर अहसान मानना जिनकी समझदारी से तेरा जीवन नष्ट होनें से बच गया | हम तुझे डी कमीशन भी नहीं करेंगें केवल कल सुबह जीप से पूना स्टेशन पहुंचाकर  बिहार के लिये गाड़ी में बिठा देंगें | तुम एक  अप्लीकेशन लिख कर छोड़ जाना कि तुझे एक बहुत जरूरी काम से प्रशिक्षण कोर्स छोड़कर घर जाना पड़ेगा | बाद में घर पहुंचकर तार भेज देना कि किसी ख़ास वजह से तुम यह कोर्स अटेण्ड नहीं कर पाओगे और तुम्हें अगले वर्षों में प्रशिक्षण के लिये भेजा जाय | ध्यान रहे यह सब उन एन. सी. सी. आफीसर्स की इज्जत के लिये किया जा रहा है जिनके नाम पर तुम्हारी यह गल्ती कलंक का न मिटनें वाला धब्बा लगा देती | Be a man still there is a chance.और यह कहकर उन्होंनें अर्दली को बुलाकर हुक्म दिया कि जी. राम को वापस बैरक में पहुंचा दिया जाय | कर्नल राम सिंह से उन्होनें कहा कि कल सुबह जवानों से सुरक्षित जीप में जी. राम को पूना  ले  जाकर बिहार वाली गाड़ी में बिठा दिया जाय | कर्नल राम सिंह यस सर कहकर बाहर चले गये | ब्रिगेडियर देसाई मुझे अपने छोटे भाई के रूप में लेते थे उन्होनें मुझसे कहा अवस्थी बैठे रहो | मिसेज देसाई और उनकी दो किशोर बेटियां सुप्रभा और सुकन्या रामाबाई और फूलमती के साथ बैठके में आ गयीं | रामाबाई ने कहा हुजूर हमें आपके फैसले से पूरा सन्तोष है|  हम मराठा नारियां किसी का जीवन बर्बाद करना नहीं चाहतीं | अपनें हमारे गौरव की पूरी रक्षा की है , आप जैसा न्याय और कहाँ मिल सकता था | मैनें ब्रिगेडियर साहब की ओर मुखातिब होकर कहा , "सर मुझे जानें की इजाजत दीजिये | "कमाण्डर साहब नें मेरी तरफ मिलानें के लिये  हाँथ बढ़ाते हुये कहा , "  Well done Awasthi !N.C.C.is proud of officers like you. "
( क्रमशः )

Article 3

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गतांक से आगे

                                                         कितनें अवसरों पर कितनें मंचों पर और कितनें वैविध्यपूर्ण कार्य क्षेत्रों में मुझे सहभागिता का सुअवसर मिल पाया है इसकी आधी अधूरी खोज बीन भी मुझे कुछ चौंकाने वाले स्थलों की ओर ले जाती है | सोचनें लगता हूँ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं दंम्भ की पगडण्डियों पर मिथ्या का अनुसरण कर रहा हूँ | फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि मिथ्या में भी शायद कोई समकालीन सभ्यता का भाव होता है तभी तो न जानें कितनी मिथ्यायें काल परिवर्तन के साथ मिथक बनकर जन मानस में अपना स्थान बना लेती हैं | इस धरित्री पर कब और कैसे जीवन का आविर्भाव हुआ और उसके अचल और सचल स्वरूपों में प्राणद ऊर्जा का निरन्तर गतिमान प्रवाहमयता कहाँ से आयी इन सब प्रश्नों का सम्पूर्णतः आश्वस्त करने वाला उत्तर मुझे आज तक नहीं मिल पाया है | और यदि मैं भूल नहीं करता तो शायद विश्व का कोई भी मनीषी शत -प्रतिशत निश्चयात्मकता के साथ जीवन -मरण की पहेली को सुलझा नहीं पाया है | दार्शनिकों की राष्ट्र भाषायें होनें में न होनें का तत्व छिपायें हैं और न होनें में सनातनता की चेतना धार की तलाश करती है | न जानें कितनी बार मुझे दिव्य सन्त महात्माओं की चमत्कार भरी शक्तियों के बारे में पढ़ने और सुननें को मिला है और जिन पारम्परिक परिवारों में हम पले बढ़े हैं उनमें अधिकाँश माताओं ,बहिनों का जीवन चक्र अधिकतर सन्त महात्माओं और बाबाओं के इन चमत्कारी शक्तियों के केन्द्रीय वृत्त में बंधकर ही घूमता रहता है | भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल जी संम्भवतः एक ऐसे धार्मिक महामानव थे जिन्होनें कहीं भी धर्म का वाह्य प्रदर्शन नहीं किया पर उसे अपनें आचरण में जीवन भर लक्षित करते रहे | धर्म निरपेक्षता अपनें सच्चे अर्थों में उनमें आध्यात्मिकता की उस गहरायी को झलकाती थी जो प्लेटो से लेकर कबीर , विवेकानन्द और मार्टिन लूथर तक पहुँचती है | चमत्कारों के प्रति मैं सदैव से शंकालु रहा हूँ पर सन्तत्व की आचरण पवित्रता के समक्ष मैं सदैव ही नत -मस्तक होता रहा हूँ |
                            तो पुरुन्दर के उस एक मास के प्रशिक्षण के बाद वापसी से पहले पहाड़ी की चोटी पर विशाल चट्टानों में कटी शिव नन्दी की जीवन दीप्ति उजागर करने वाली मूर्ति को प्रणाम करनें का अन्तिम सुअवसर का लाभ उठाया | मैं जानता था कि शताधिक आफीसरों में संम्भवतः मैं अपनें प्रशिक्षकों की द्रष्टि में योग्यता के शीर्षतम स्थान के आस -पास रखा गया हूँगा | कमाण्डेन्ट नें मेरे लिये पूना तक पहुंचाने के लिये एक स्पेशल जीप की व्यवस्था करके इस बात का आभाष दे दिया था कि वे मेरे लिये अपनें हृदय में गहरे लगाव और मानवीय सम्मान का भाव रखते हैं | पूना से बम्बई पहुंचकर मुझे दिल्ली के लिये एक फर्स्ट क्लास कूपे में आरक्षण मिला था | काफी पहले की बात है और जहां तक मैं समझता हूँ उस समय तक एयर कन्डीशन्ड यात्रा की सुनिश्चित व्यवस्था भारतीय रेल नहीं कर पायी थी | प्रथम श्रेणीं का आरक्षण ही उच्चतम सुविधा मानी जाती थी | 'माटी 'के पर्यटन विशेषज्ञ पाठक यह जानते ही हैं कि कूपे में चार सीटें होती हैं | दो नीचे और दो ऊपर | इस कूपे की तीन सीटें पहले से ही आरक्षित थीं और  बाकी एक सीट मेरे आरक्षण के हिस्से में आ गयी थी | हुआ ऐसा कि जो सीट मेरे  हिस्से में आयी थी वो नीचे की थी और शायद आरक्षण करानें के लिये भेजे गये सूबेदार साहब की अतिरिक्त पैरवी के कारण ऐसा हो सका था | बम्बई में स्टेशन पर खड़ी ट्रेन के कूपे में आरक्षित अपनी सीट में बैठकर मैं जूते खोलकर लेटनें की सोच रहा था | ट्रेन छूटनें का टाइम होनें वाला था और तभी  लगभग आठ दस सेना के जवानों के साथ मिलेट्री वर्दी में एक आला सिक्ख  आफीसर उनकी पत्नी और उनकी ग्यारह बारह साल की पुत्री स्टेशन पर आ गये | उन्होंने शीघ्र ही काफी सारा सामान उस कूपे में लाकर रख दिया | | सरदार जी उनकी पत्नी और उनकी पुत्री कूपे में बैठ ही पाये थे कि गाड़ी नें सीटी दी और चल पड़ी |साथ आये जवानों नें उन्हें सल्यूट किया और गाड़ी से उतर आये | सरदार जी नें मेरी और देखा और मैनें उनके परिवार का आँखों ही आँखों में जायजा लिया | वे लगभग 38 वर्ष के रहे होंगें और मैनें उनके Badges को देखकर जान लिया कि वे ब्रिगेडियर रैंक के हैं | उनकी पत्नी 32 ,33 के आस -पास होंगीं और पहली ही द्रष्टि में अपनी ओर आकृष्ट कर लेने वाली मुखाकृति और शरीर रचना उन्होंने प्रकृति के द्वारा पायी थी | मैं जानता था कि मात्र मेजर होनें के नाते मैं सरदार जी के मुकाबले एक जूनियर आफीसर हूँ पर मैं नागरिक वस्त्रों में था | और मैं क्यों और कहाँ जा रहा हूँ इससे वे परिचित नहीं थे | मैं उनसे उम्र में लगभग आठ -दस वर्ष बड़ा था और चूंकि नीचे की बर्थ मेरे नाम पर आरक्षित थी इसलिये उन्हें आराम करने के लिये स्वयं या उनकी बेटी को ऊपर की बर्थ पर जानें की जरूरत थी | मुझे कुछ अजीब सा लगा कि नीचे की एक बर्थ पर उनकी पत्नी हों और बगल की दूसरी बर्थ पर मैं आराम करूं | पहल मैनें ही की | मैनें कहा, सरदार जी अगर आप चाहें तो आप या आपकी बच्ची इस नीचे की बर्थ पर आ जायें | मैं ऊपर आ जाऊँगा | वे बोले , थैंक यू जनाब ,और यह कहकर उन्होंने अपनी बेटी मोनिका को मेरी बर्थ पर जानें को कहा | मैं ऊपर की बर्थ पर चला गया | अब मैं और वह ऊपर की बर्थ्स पर थे और इस समीपता ने हमें बातचीत करनें के लिये प्रेरित किया | उन्होंने पूछा आप कहाँ जा रहे हैं ? और क्या आप सेना में हैं ?मैनें बताया कि मैं दिल्ली के आसपास के कालेज में अंग्रेजी का प्राध्यापक हूँ  और एन. सी. सी. में प्रशिक्षण के लिये एक महीनें के लिये पुरुन्दर आया था | अब उन्हें लगा कि वे मुझसे अधिक विश्वास के साथ बातचीत कर सकते हैं | मिलेट्री के एक बड़े अफसर होनें के नाते वे यह जानते ही थे कि एन  ०सी ० सी ० में उन दिनों मेजर से बड़ा कोई रैंक नहीं होता था और वे एक ब्रिगेडियर थे इसलिये एक बड़प्पन का भाव भी कहीं उनके अन्तर्मन में छिपा था | पर मेरे अंग्रेजी बोलनें के ढंग से वे प्रभावित थे | और उन्हें लग रहा था कि अंग्रेजी के प्राध्यापक होनें के नाते सामान्य ज्ञान और भाषा सौष्टव की द्रष्टि से मैं उनसे कहीं कम न था | कहना न होगा कि हमारी सारी बातचीत अंग्रेजी में हो रही थी और नीचे पड़ी उनकी पत्नी तथा छठी सातवीं में पढ़ने वाली उनकी पुत्री मोनिका भी यह बातचीत सुन रही थी | बात ही बात में उन्होंने मुझे बताया कि वे झांसी जा रहे हैं जहाँ से उन्हें मऊ जाना है और वे मऊ में एक विशेषज्ञ के नाते कर्नल रैंक के आफीसरों के प्रशिक्षण से संम्बन्धित हैं | मैं प्रभावित हुआ क्योंकि  कि उन दिनों 1965  में होने वाली पाकिस्तान की युद्ध योजना अपनें चरम पर पहुँच रही थी और ब्रिगेडियर साहब संम्भवतः रक्षा मन्त्रालय की अत्यन्त गुप्त योजनाओं से थोड़े बहुत परिचित जान पड़ते थे | बातचीत में ही उन्होंने बताया कि मोनिका किसी अत्यन्त प्रसिद्ध क्रिश्चियन स्कूल में पढ़ रही है और वह बाइबिल में आये हुये कुछ प्रसंगों पर मुझसे बातचीत करती है पर मैं बाइबिल के इन प्रसंगों से इतना परिचित नहीं हूँ क्योंकि मेरी पत्नी तो अधिकतर पूजा -पाठ में लगी रहती है |  बातचीत करते काफी समय हो चुका था और मोनिका भी बीच -बीच में हमारी बातों में कुछ हिस्सा लेनें लगी थी | बच्चों का स्वभाव ही कुछ निर्मल होता है और वे जब तक जगते हैं  कुछ न कुछ बातचीत करना चाहते हैं | मोनिका की माँ अलस भरे नींद के झोंके ले रही थी | संम्भवतः यही कारण था कि ब्रिगेडियर साहब कुछ खुलकर बातें कर रहे थे | मैनें मोनिका से कहा बेटे , "तुम्हें बाइबल के कई प्रसंग याद हैं | तुम्हें यह भी पता है कि यूशू जो जोसफ  के बेटे थे , कि उनका जन्म वेथेलम में हुआ था ,कि उनकी माँ का नाम मेरी था और उनका जन्म पशुओं के लिये चारा रखनें वाले नांद या Manger में हुआ था यह सब जानना बहुत अच्छी बात है पर क्या तुम यह बता सकती हो कि राम के भाई शत्रुघन की माता का क्या नाम था मोनिका नें कहा , " I dont know any thing about Ramayana but I think he was a son of a Queen called Koshala. मैं मोनिका के इस अज्ञान पर मन ही मन हंसा और फिर मैनें उसे रामायण की कुछ मूल बातें बतायीं | फिर मैनें उससे पूछा कि क्या वह गुरुग्रन्थ साहब से पूरी तरह परिचित है ?  इस दिशा में भी उसका ज्ञान अधूरा ही लगा | सरदार जी नें मुझे बताया कि दरअसल यह क्रिश्चियन स्कूल में होने के कारण अधिकतर उन्हीं मित्रों के बीच उठती बैठती है जिन्हें पश्चिमी सभ्यता का जीवन जीनें का अवसर मिला है | यह भारतीय परम्पराओं से पूरी तरह परिचित नहीं है | और सच पूछो तो मैं भी योरोपीय अधिक हूँ और हिन्दुस्तानी कम | मोनिका एक प्रतिभाशाली लड़की थी और मेरी बातचीत से उसको लगा कि मैं उसके पिता जैसा या उनसे भी अधिक सामान्य ज्ञान का अधिकारी हूँ और वह मुझसे बड़े आदर के साथ बातचीत करने लगी | मैनें उसे बातों ही बातों में रामायण के एक और महापात्र रावण , उसके पिता विश्रवा  और उसके बाबा पुलत्स्य के बारे में बताया | मैनें रावण की पत्नी मन्दोदरी की चर्चा भी की और मैनें बताया कि मन्दोदरी की बात न माननें के कारण ही रावण अपनें परिवार को विनाश पथ की ओर ले गया | रात का अन्धेरा बढ़ने लगा था | गाड़ी के हल्के धक्कों में हिलता डुलता शरीर अलस भरी ऊँचाइयों में झूल रहा था | मोनिका की माँ और मोनिका धीरे धीरे सो गये | ब्रिगेडियर साहब अब सहज हो गये मुझसे बोले ब्रदर अवस्थी , तुम तो यार पण्डित लगते हो | बहुत सारी धर्म की बातें  जानते हो | मैं तो तोप के गोले और टैन्क संचालन के अलावा और कुछ जाननें का मौक़ा ही नहीं पा सका और फिर आवाज को धीमी करके बोले , "अवस्थी , मैं तुमसे एक बात पूछना चाहूंगा | मेरी पत्नी सांई बाबा की बहुत बड़ी भक्त है | सांई बाबा का फोटो अपनें कमरे में लगा रखा है और हर रोज उनकी पूजा अर्चना करती है | मैनें एक दिन उससे इस बारे में कुछ जानना चाहा तो उसनें कहा कि सांई बाबा ईश्वरीय अवतार हैं , और वे जो भी चाहें कर सकते हैं | मैं मिलेट्री का अफसर हूँ और मैं जानता हूँ कि हमारे राज जाननें  के लिये बहुत सी खुपिया एजेन्सीज  पूजा -पाठ और सन्त महात्माओं की  ओट में हमारी छिपी बातों का पता लगाना चाहती हैं | कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरी पत्नी एक सहज स्वभाव की नारी होनें के कारण किसी खुफिया तन्त्र की चालबाजी में फंस गयी हो |  मैनें कहा सर ,आपनें पूछा नहीं कि आपकी पत्नी को सांई बाबा के चमत्कारों में कैसे विश्वास हुआ | उन्होंने कहा मैनें उससे एक बार ऐसा ही प्रश्न किया था तो उसनें कहा कि उनकी फोटो से पूजा के बाद स्पर्श करनें से एक ऐसी भभूति निकलती है जिसकी सुगन्ध से अत्यन्त गहरा आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है | मैनें उससे कहा कि वह मुझे भी उस भभूत का अनुभव कराये | अगले दिन उसनें पूजा के बाद मुझे भीतर बुलाया और कहा कि तस्वीर तुम्हारे सामनें है इसमें कहीं कुछ नहीं है | प्रणाम करके इसे स्पर्श करो तो तुम्हारे हाँथ में भभूति आ जायेगी और उसकी सुगन्ध तुम्हें एक नयी स्फूर्ति देगी | मैनें ऐसा ही किया और सच कहता हूँ अवस्थी न जानें कहाँ से वह महकती हुयी सुनहली भस्म मेरे हाँथ में आ गयी  और मैं विस्मय विमूढ़ हो गया | भाई अवस्थी ,मुझे शक है कोई विदेशी खुफिया जालतन्त्र मेरी धर्म परायण पत्नी के द्वारा मेरे द्वारा संचालित होनें वाली उस सामरिक प्रशिक्षण प्रक्रिया की निगरानी कर रहा है | मैं अन्दर से बहुत शंकाग्रस्त हो उठा हूँ | अत्यन्त धीमी आवाज में उन्होंने कहा , " Awasthi, she is now in deep sleep ."इसीलिये मैं आपसे ये बातें कर रहा हूँ | आप तो प्रोफ़ेसर  हैं ,पण्डित हैं बहुत सी धार्मिक क्रियाओं को जानते हैं | क्या वाकई में सांई बाबा में अदभुत चमत्कारी शक्तियां हैं | क्या मेरी पत्नी का सोचना ठीक है अगर मैं उसके जीवन में दखल देता हूँ तो परिवार की शान्ति नष्ट हो जायेगी | मैं बहुत असमंजस में हूँ कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरा  Careerखतरे में है |
                                  मेरे सामनें एक अत्यन्त जटिल समस्या आ खड़ी हुयी | क्या उत्तर दूँ ? क्या कह दूँ कि चमत्कारों की बात विज्ञान की रासायनिक प्रक्रियाओं का एक सोचा -समझा जाल विस्तरण है | पर ऐसा कैसे कह दूँ | महान सन्तों ,महाकाव्यों में और अतीत के भक्तों की जीवनियों में चमत्कारों की भरमार है | और भारत के कोटि -कोटि नर -नारी उसे निर्विवाद सत्य मानकर चलते हैं | पर विवेक क्या कहता है ? क्या देव की अद्रश्य शक्ति के अतिरिक्त और कोई व्याख्या उपयुक्त नहीं हो सकती | सूफी कवियों नें भी तो गाया है , "रवि ससि , नखत विपहिं ओहि जोती | रतन पदारथ मानक मोती || "
                              तो क्या सांई बाबा उस परम सत्ता के साथ डायरेक्ट कान्टेक्ट में हैं | मैं काफी देर चुप रहा | ब्रिगेडियर साहब नें कहा अवस्थी तुम कुछ बोले नहीं | झांसी आ रही है और मुझे लेने के लिये वहां दस बीस जवान प्लेटफार्म पर खड़े होंगें | मोनिका की माँ अभी नीन्द में है उसे जगाना होगा | बोलो क्या कहते हो ?
                              मैं कुछ कहनें ही जा रहा था कि इसी बीच मोनिका की माँ नें शरीर की हल्की हलचल के साथ अपनीं अलसायी आँखें खोल दीं | लाल -लाल डोरे पड़ी वे आँखें कितनी मादक थीं | ब्रिगेडियर साहब उन आँखों की मादकता में यदि डूब जाते हों तो इसमें उनका क्या दोष है | वे तो एक मिलेट्री आफीसर थे कोई सुजान तो थे नहीं इसलिये रसलीन के इस दोहे के पूरे  अर्थ से   परिचित नहीं थे |
                    "अनियारे दीरघ नयन , किती न तरनि समान
                       वे नयना औरे कछु ,जेहि बस होत सुजान || "
                                               तोपों की गड़गड़ाहट और टैंकों की खड़खड़ाहट सुननें के बाद बंगले पर आकर उन मादक नैनों का मतवालापन उन्हें बहिस्ता में पहुंचा देता हो तो इसके लिये वे क्या करें | मुझे ऐसा लगा -पर शायद ये सच न हो -कि मोनिका की माँ सचमुच सो नहीं रही थी बल्कि सोनें का बहाना कर रही थी | उसनें शायद मेरी सारी बातों को जो मैनें मोनिका से की थीं या जो ब्रिगेडियर साहब से हुयीं थीं सुन लिया था | मुझे लगा कि उसकी उन खुली आँखों में मेरे लिये एक अनकहा निर्देश है कि मैं ब्रिगेडियर हरमेन्दर सिंह के प्रश्न का उत्तर न दूँ , उन आँखों का निर्देश मैं कैसे टाल सकता था | फिर सोचता हूँ मैं उत्तर देता भी   तो उत्तर की तलाश गुरुग्रन्थ साहब में संग्रहित सन्त वाणियों में ही करता | मोनिका की माँ उठ बैठी और ऊपर देखकर बोली मोनी पापा पानी की बोतल देना | काले कजरारे मेघ जैसे बालों से घिरा उसका चन्द्रमुख पूरे कूपे में एक नयी दीप्ति फैला गया |
(क्रमशः )

Article 2

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गतांक से आगे -
                                       ट्रेन की गति धीमी होनें लगी थी | पहिये पटरियां बदल रहे हैं | इससे यह आभाष हो रहा था कि स्टेशन आने वाला है | दस पन्द्रह मिनट का यह सानिध्य कुछ और स्मरणीयं कैसे बन गया इसे शब्द बद्ध करना कठिन सा लग रहा है | सोचता हूँ कि जीवन की ढलान की राह पर चल पड़ने के बाद भी नारी की सम्मोहक शक्ति यदि सजक से सजक व्यक्ति को यदि अपनें में बाँध लेती है तो फिर तरुणायी की ओर बढ़ते हुये उन नवयुवकों को दोष कैसे दिया जाय जो नारी सहचर्य का सुख पाने के लिये सिंहासन छोड़ने को तत्पर हो जाते हैं | उमर की बढ़ती हुयी तरंगों पर मानव शरीर की किन ग्रन्थियों से कौन -कौन से जैविक श्राव निकलकर लम्बी उछालें लगाते हैं | इस पर न जानें कितनी खोजें हो चुकी हैं और होती रहेंगीं | काम ग्रन्थियों की सक्रियता को लेकर आज अधिकारी शोध कर्ताओं में यह मान्यता होती जा रही है कि हम सबका चिन्तन कहीं न कहीं हारमोनल सिकरेशन से प्रभावित होता है | वंश परम्परा से पाये गये जीन्स भी मन की वृत्तियों को शशक्त रूप से प्रभावित करती हैं | हठ योगियों की साधना का समय तो अब रहा नहीं और तर्क के तीरों नें सयंम की सार्थकता को भी छेद -छेद कर निष्प्राण कर दिया है | फिर भला उभरती तरुणायी पर अभियोग लगाकर उसे मध्य कालीन सन्त परम्परा के कठघरे में कैसे खड़ा किया जाये ? कबीर जैसा महाज्ञानी जब नारी के संम्बन्ध में जब यह लिखते हैं , "नारी की झाई परत ,अन्धा होत भुजंग | कबिरा तिनकी कहा गति नित नारी संग || "
                               तो हारवर्ड , स्टेनफोर्ड , दिल्ली या बम्बई विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाला नवयुवक भौचक्का रह जाता है | उसनें जो पढ़ा है उसमें तो नारी सुख जीवन उपलब्धि का एक पैमाना है और सहवास की वर्जना एक बेतुकी अवैज्ञानिक धारणां है | विचारों का यह विरोधाभाष हमारे पारिवारिक जीवन को कितनी विभाजक टक्करें दे रहा है इसका आंकलन समर्थ साहित्यकारों के लिये भी संम्भव नहीं हो पाया है | और इससे कि पहले गाड़ी स्टेशन पहुँचती ब्रिगेडियर हरमेन्दर सिंह की स्वरूपा पत्नी की आकृति मेरे विचारों को कितनी शीघ्रता से समय की पटरियों पर खींच कर पीछे ले जा रही है | कुछ ऐसी ही आकृति या इससे भी अधिक प्रभावशाली छवि ही तो थी शकुन्तला का रोल अदा करनें वाली छात्रा अभिनेत्री प्रियम्बदा की | मोनिका की माँ सच्ची तरुणायी से आगे बढ़ चुकी है  पर प्रियम्बदा तो अभी उससे पहले दौर में ही थी | और फिर बेचारा दुष्यन्त चाह कर भी उसके मायक जाल से कैसे निकल सकता था | सोचता हूँ जब राकेश को इस बात का पूरा ज्ञान था कि उसके पिता की आर्थिक स्थिति इतनी सबल नहीं है कि वह किसी के जन्म दिन पर उपहार में कोई स्वर्णाभूषण प्रदान कर दे तो फिर उसनें ऐसा क्यों किया ? और इसके लिये उसे और उसके परिवार को कितनी मानसिक यन्त्रणा से गुजरना पड़ा | मैं नहीं जानता कि मेरे कालेज के अंग्रेजी विभागाध्यक्ष प्रो ० खैराती लाल बजाज अब कहाँ और कैसे हैं यदि बैकुण्ठ लोक में उनका निर्गमन नही हुआ है तो निश्चय ही वो मानव जीवन की अन्तिम अनुमानित सीमा को छूने वाले होंगें पर यह उन्हीं का स्नेह और उन्हीं का जीवन ज्ञान था जिसनें मुझे सन्तुलित ढंग से मुझे घटना पर विचार करने के लिये प्रेरित किया था | कैप्टन जबर सिंह की पुत्री राज्य की अन्तर्विश्वविद्यालीय नाटक प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाली युवा अभिनेत्री अपनें जीवन के 18 वर्ष पूरे कर उन्नीसवीं में प्रवेश कर रही थी | राकेश मंच पर हंसी -हंसी में उससे कहता रहता था कि वह कभी उन्नीस की तो होगी ही  नहीं क्योंकि वह तो सदैव ही सबसे बीस रही है | और वह खिलखिलाकर हंस देती थी जैसे रजत घण्टियों का मन्द द्रुत सधा हुआ गुंजन | सभी युवा कलाकारों नें प्रियम्बदा के जन्मदिवस पर कौन सी निराली भेंट दी जाय इस पर सोच -विचार करनें में कई रातों की नींदें गँवा दीं | कुछ ऐसा दिया जाये जो औरों से इतना अलग हो और इतना विशिष्ट हो कि प्रियम्बदा के मन पर उसकी अमिट छाप पड़ जाय | अब मंच का बहुचर्चित नायक चिन्तन के भंवर जाल से कैसे बच पाता | बाइस के आस -पास का राकेश अपनी लम्बी काया और , गौर वर्ण और नुकीली मूछ लेकर जब दुष्यन्त के रोल में उतरा था तो शकुन्तला की सारी सहेलियों के दिल बल्लियों उछलने लगे थे | पर उपहार देना मंच पर किया जाने वाला अभिनय तो था नहीं जो दे दिया सो दे दिया | और राकेश के पास अपनी पूंजी थी ही क्या ? रेडियो स्टेशन पर  नाटकों में यदा -कदा बुलाये जाने पर उसे कुछ मानदेय मिल जाता होगा | और इसे ही उसनें संग्रहित करके रख छोड़ा होगा | उस रात भीषण गर्मी थी और ग्यारह बजनें वाले थे | मैं मकान की छत पर मसहरी लगाकर अकेला सोने चला जाता  था | नीचे के कमरों और खुले बरामदे में कब , कौन और कहाँ सोया इसकी व्यवस्था और देख रेख राकेश की माँ के हाँथ  में थी | ग्यारह बजे के करीब मुझे प्यास लगी और मैं सुराही से पानी लेने के लिये उठा तभी मुझे नीचे से कुछ आवाज सुनायी पड़ी जीने के दरवाजे पर मैनें खड़े होकर पूछा कि कौन आया है तो अपर्णा की माँ नें बताया कि राकेश को प्रियम्बदा अपनी गाड़ी से अभी -अभी छोड़कर गयी है | कल प्रियम्बदा का जन्म दिवस है और शाम को पार्टी है | राकेश को इसी संम्बन्ध में आनें में देर हो गयी है | मैनें फिर से अपनें को तखत पर बिछी दरी पर डाल दिया और कब नींद नें आकर मुझे अपनें घेरे में ले लिया इसका पता न कर पाया | अभ्यास के अनुसार प्रातः ही मेरी नींद खुली | नीचे आया तो देखा कि कहीं कोई गड़बड़ है | अपर्णा माँ के बगल में बैठी थी और उसकी माँ उसके भाइयों से कुछ पूंछतांछ कर रही थी | मैनें पूछा कि क्या बात है तो उसनें कहा कि कोई बात नहीं तुम तैय्यार हो जाओ मैं नाश्ता बनाती हूँ | बच्चों को भी पढ़ने जाना है | राकेश आज कुछ देर से जायेगा क्योंकि शाम को पार्टी है और उसे लौटकर आनें में काफी रात हो जायेगी | अपर्णा भी जाना चाहती है पर वह कहता है कि अपर्णा और किसी के साथ जाय | नहा धोकर और तैय्यार होकर जब मैं नाश्ते के लिये मेज पर बैठा तो अपर्णा और उससे छोटा और उससे बड़ा भाई तीनों ही कालेज जा चुके थे | राकेश शायद पार्टी के कारण आज शायद यूनिवर्सिटी नहीं जा रहा था और घर पर ही था | मेरे नाश्ता करनें तक राकेश की माँ नें मुझे कोई बात नहीं बतायी जब मैं उठने को हुआ तो उसने कहा देखो गुस्सा मत करना मुझे लगता है कि राकेश नें एक बड़ी गलती की है | मैनें कहा-"खुलकर बताओ क्या बात है ?"उसनें कहा , मेरे सिर की कसम खाओ गुस्सा तो नहीं करोगे | मैनें कहा ,बात तो बताओ  ठीक है गुस्सा नहीं हूँगा |
                                           उसने कहा अपर्णा बोली कि मैं प्रियम्बदा के बर्थडे पार्टी में जाऊँगी मुझे उपहार के लिये कुछ खरीदना है कुछ रुपये मेरे पास हैं कुछ तुम दे दो | मैनें कहा मेरे पास एक नकली मोतियों की माला पड़ी है जिसे जब  मैं तेरे पापा के साथ रामेश्वरम गयी थी तब खरीदा था | देखनें में असली मोती लगते हैं | यह कहकर मैनें अपना बाक्स के भीतर रखा हुआ जेवरों वाला बिब्बा निकाला और माला निकालकर अपर्णां को दे दी | अपर्णा चली गयी | मुझे लगा कि डिब्बे में रखे हुये जेवरों में एक बार पुनः ठीक से देखकर फिर से रख दूँ पर मुझे लगा कि कहीं कुछ  गड़बड़ी है | ध्यान से सोचा तो लगा कि एक अंगूठी जिसमें तुम कहते थे कि हीरे का नग लगा  है और जिसे तुमनें राकेश के जन्म के बाद गिफ्ट में दिया था डिब्बे से नदारत है बड़ा ताज्जुब है कि अंगूठी कहाँ गयी | कीमती तो वह थी ही पर तुम्हारे प्यार की निशानी के रूप में वह मेरे लिये अमूल्य थी | वे तीनों तो कालेज चले गये मैनें राकेश से पूछा तो उसका चेहरा फक्क हो गया पर वह कहता है कि उसे अंगूठी के बारे में कुछ पता नहीं | वह कहता है कि उसे हीरे के बनी कनी की अंगूठी के बारे में कैसे पता होता | उसके सामनेँ कभी जेवरों का डिब्बा तो खोला ही नहीं गया | अपर्णां से पूछो वही जानती होगी जेवरों की बातें | मेरा मन कहता है कि मेरी बेटी अपर्णां मुझे बिना बताये कोई भी जेवर छू  नहीं सकती | यह काम राकेश का लगता है | पर उसनें ऐसा क्यों किया ?
                                           यह  सब सुनकर मैं अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा | मुझे विश्वास हो गया कि प्रियम्बदा को भेंट देनें के लिये राकेश नें ही चुपके से माँ के जेवर के बक्से से अंगूठी को निकाला है | राकेश जानें को तैय्यार हो चुका था और मुझे भी देर हो रही थी | पर मैनें सोचा  सच्चायी तक पहुँच ही लेना चाहिये | मैनें कहा राकेश इधर आओ सकपकाया सा राकेश मेरे कमरे में आया और सामनें बैठी माँ को देखकर घबरा सा गया | मैनें कहा राकेश क्या तुमनें अपनी माँ की अंगूठी निकाली है | उसनें कहा  पिताजी अपर्णां से पूछो मुझे पता नहीं | मैनें कहा मैं अपर्णां को जानता हूँ और तुमको भी जानता हूँ ,तुमको और भी अच्छी तरह कि तुम भी पुरुष हो | सच बोलनें का साहस नहीं कर पाये | मुझे तुम पर शर्म आती है | जाओ घर से निकल जाओ मुझे अपना मुंह मत दिखाना | बिना कुछ कहे अपनी माँ के पैर छूकर राकेश घर से निकल गया | जाते -जाते सीढ़ियों पर जब उसकी माँ नें पूछा कहाँ जा रहे हो तो उसनें रोती आवाज में कहा स्टेशन से दिल्ली और फिर वहां से बम्बई | अब इस घर में मेरा क्या यह कहकर वह चला गया | अपर्णा की माँ रोने लगी और बोली क्या पता अंगूठी अपर्णां नें ही कभी ले ली हो | तुम तो आग बबूला हो जाते हो ज़रा सी बात पर जवान लड़के को घर से निकाल दिया | हाय  मैनें यह क्या किया ? तुम्हें तो बताना ही नहीं चाहिये था ,वह फूट -फूट कर रोने लगी और दौड़कर छज्जे पर खड़ी होकर सड़क पर जाते राकेश को देखनें लगी पर तब तक राकेश काफी आगे बढ़ गया था | मैं चुपचाप अपनें अध्यापन कार्य के लिये चल पड़ा | बी. ए. के अन्तिम वर्ष में शैक्सपियर का नाटक Twelth Night पाठ्यक्रम में था उस दिन कोर्ट रूम का वह द्रश्य मुझे पढ़ाना था जिसमें नाटक की हीरोइन Olivia अपनी मानवीय कृपा और करुणा सम्बन्धी विश्व चर्चित पंक्तिया कहती है , " The quality of mercy is not strained." मन को गहरी शान्ति प्रदान करने वाली मानवीय संवेदना से भरी ये पंक्तियाँ  भी मेरे उत्तेजित  मन को शान्त न कर सकीं | अगला पीरियड  Vacant था | मैं अपनें आदरणीय अग्रज विभागाध्यक्ष प्रो ० खैराती लाल बजाज के बगल में जा बैठा वे मुझसे आयु में लगभग पन्द्रह वर्ष बड़े थे और सेवा निवृत्ति की ओर बढ़ रहे थे | मैं गुमसुम बैठा था | उन्होंने कहा अवस्थी क्या बात है उदास क्यों हो ? "Is something wrong with you? "क्या कोई फेमिली प्राबलम है | प्रो ० बजाज को मैं अपनें गुरुतुल्य समझता था और उनसे  मैनें कभी कुछ छिपाया न था | मैनें उन्हें सब कुछ बता दिया | उन्होंने कहा अवस्थी ," You should have  not lost your temper ."जिन्दगी में अंगूठियां आती -जाती रहती हैं | बच्चे फिर नहीं आते | मेरी बात मानों तो स्टेशन जाओ दो तीन मिनट का ही तो रास्ता है | दिल्ली जानें वाली गाड़ी अक्सर लेट आती है और अभी तक राकेश स्टेशन पर ही बैठा होगा | जाओ उससे कहो कि उसके घर न जानें पर उसकी माँ जीवित न रह पायेगी | उनके आग्रह नें और मेरे सन्तुलित मष्तिष्क नें मुझे नये सिरे से सोचनें पर विवश किया मैं झपट कर पुल पर से होता हुआ स्टेशन जा पहुंचा | मैं कहा करता था कि कालेज का स्टेशन के नजदीक होना अच्छा नहीं होता पर उस दिन मुझे लगा कि यह भगवान का शुक्र ही है कि मेरा कालेज स्टेशन के नजदीक ही है | राकेश एक बेन्च पर न जानें किस विचार लोक में खोया हुआ बैठा हुआ था | और भी ढेर सारे यात्री इधर -उधर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे पर अपनी बेन्च पर वह अकेला ही बैठा था | मुझे पास आता देखकर वह उठखड़ा हुआ उसनें मेरे पैर छूकर अपनी जेब से एक छोटी डिबिया निकाली और उसे मेरी ओर बढ़ाते हुये कहा पिताजी , यह अंगूठी है माँ को दे दीजियेगा पर अब मैं घर वापस नहीं जाऊँगा | मैनें कहा बेटे मुझे जल्दी बूढ़ा करना चाहते हो ? Go home and tell your mother  कि पिताजी नें कहा है कि यह अंगूठी उनकी तरफ से प्रियम्बदा को उसके जन्म दिवस पर भेंट में दी जायेगी | वह अपर्णा की तरह उनकी बेटी भी तो है | यह कहकर तुरन्त मुड़कर मैं कालेज की ओर चल पड़ा यह कहते हुये कि मुझे पीरियड मीट करना है | मैं जानता था कि यदि मैं अधिक रुका तो हम दोनों भावुक हो उठेंगें और प्लेटफार्म पर बैठे यात्रियों के लिये यह एक अजीब नजारा होगा | मुझे विश्वास था कि जब मैं लौटकर घर जाऊँगा तो राकेश घर पर ही होगा और ऐसा ही हुआ पर अंगूठी के कहानी अभी यहीं पर समाप्त नहीं होती है उससे संम्बन्धित अत्यन्त रोचक प्रसंग को वर्णित करना अभी शेष है |
                                    मैनें सोचा घर जाकर मैं राकेश को बोलूंगा कि वह प्रियम्बदा को यह कहकर अंगूठी भेंट करे कि यह उसकी अपनी खरीद है | और यदि प्रियम्बदा अंगूठी की कलात्मक बनावट की तारीफ़ करती है तो वह लौटकर अपनी माँ को बतावे ताकि उसकी माँ दो एक दशक पीछे लौटकर अपनी युवा स्मृतियों को फिर से दुलार ,पुचकार सके | मुझे गिरजा शंकर माथुर की कुछ काव्य पंक्तियाँ झकझोरनें लगीं | हम साहित्य के प्राध्यापकों की यही तो मुसीबत है | मेरा मन अंगूठी से हटकर चूड़ी के टुकड़े पर जा टिका -
                                        "दूज कोर से उस टुकड़े पर
                                           तिरने लगी तुम्हारी सज्जित तस्वीरें,
                                            सेज सुनहली ,
                                           कसे हुये बन्धन में चूड़ी का झर  जाना ,
                                            निकल गयी सपनें जैसी वे मीठी रातें
                                            याद दिलानें रहा ,
                                            यह -छोटा सा टुकड़ा | "
(क्रमशः )

                                       

Article 1

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गतांक से आगे -

                                                 कब आज कल बन जाता है और कैसे रात में शब्द शून्य पैरों पर चलकर कल  आज बन जाता है इसका पता ही नहीं चलता | विगत और आगत वर्तमान के ही परिवर्तित रूप हैं पर जीना तो वर्तमान में ही होता है | बूढ़ा काल -पुरुष प्रकृति के बदलते रूपों की बैसाखियों पर चलता हुआ यात्रा की थकान मिटाकर क्षण भर रूककर भी कहीं विश्राम नहीं करता उसके चरणों की पदचाप हमें तब तक दिखायी नहीं पड़ती जब तक उसकी स्पष्ट झलक नर -नारी काया में स्पष्ट परिलक्षित नहीं होती | मिलन  और रूठन की पुरानी यादें मन को गुदगुदी से भरती तो अवश्य हैं पर जीवन निर्वहन के लिये प्रणयेतर प्रयासों की आवश्यकता होती है | मेरी कनपटियों के आस -पास चांदी की लकीरें खिंचने लगी थीं और अपर्णा के माँ की केशराशि Saly vksj papper का अनोखा समिश्रण पेश करनें लगी थी | कालेज के अंग्रेजी विभाग के 11 प्राध्यापकों में मैं वरीयता की द्रष्टि से छठे स्थान पर था | आज वार्धक्य की तटस्थता नें मुझे वह द्रष्टि दे दी है जिसके कारण मैं सत्य और सत्य के मिथ्या भाष में थोड़ा बहुत अन्तर करना जान गया हूँ पर उस समय मुझे लगा कि प्रवक्ता होनें के बजाय विभागाध्यक्ष होकर शायद मैं कुछ अतिरिक्त सम्मान का पात्र बन जाऊँगा | पर कालेज में तो मेरे आगे पांच विद्वानों की पंक्ति थी और एन.सी. सी. के अनुशासन नें मुझे यही सिखाया था कि व्यवस्था को लांघ कर तोड़ देना किसी भी संस्था या संगठन के हित में नहीं होता | उस समय तक सभी प्रवक्ता एक ही वेतन क्रम में नियुक्त हुआ करते थे और वरिष्ठतम प्राध्यापक को विभागाध्यक्ष के रूप में सम्मानित किया जाता था | पर अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग नें ( U.G. C. )  नें जो वेतनमान प्रस्तावित किये थे उसमें विभागाध्यक्ष का एक अतिरिक्त कैडर जोड़ा गया था और उसका ग्रेड प्रवक्ता ग्रेड से कुछ अधिक रखा गया था | उस पद के लिये 10  वर्ष के कम  से कम अध्यापन अनुभव की अनिवार्यता  थी | साथ ही वह सभी मान्यतायें पूरी करनी होती थीं जो प्रवक्ता होनें के लिये सुनिश्चित की गयी थीं | मन के भीतर कहीं यह इच्छा जग उठी थी कि पास -पड़ोस के किसी महाविद्यालय  में यदि विभागाध्यक्ष पद के लिये कोई नियुक्ति आमन्त्रित की जाय तो उसके लिये एक अप्लीकेशन डाल देनें में कोई खराबी नहीं है यद्यपि हम सभी हल्की फुल्की बात चीत में यह कहते रहते थे कि हम यह कालेज छोड़कर कहीं नहीं जायेंगें क्योंकि इस कालेज में सभी कुछ है | सम्मान है , समय पर वेतन है ,पुस्तकों से खचाखच भरा पुस्तकालय है , अत्यन्त सुन्दर हाल है , लम्बे -चौड़े क्रीड़ास्थल हैं , तरुण ताल है और आँखों में बस जाने वाली कालेज बिल्डिंग की साज -सज्जा है | पर अन्तर मन में किसके क्या था कौन जानता है | आखिरकार किसी की योग्यता का सही मापदण्ड तभी निर्धारित हो पाता है जब उसे किसी अन्य कालेज से सम्मानजनक नियुक्ति पत्र मिले | यों तो कालेज के स्टाफ रूम में अंग्रेजी और हिन्दी के सभी समाचार पत्र पड़े रहते थे पर अंग्रेजी के दो प्रमुख अखबार में घर पर ही मंगाता था | एक दिन मैनें पाया कि दिल्ली के निकट राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्तर्गत एक कालेज नें अंग्रेजी विभागाध्यक्ष के लिये आवेदन पत्र मांगे हैं | वह स्थान जहां कालेज स्थापित था अपेक्षाकृत छोटा था और वहां पहुंचने के लिये वह सब सुविधायें नहीं थीं जो बड़े राजमार्गों पर होती हैं | दिल्ली सहारनपुर मार्ग पर स्थित अन्तर्राष्ट्रीय बस अड्डे से लगभग 20 किलो मीटर दूर एक छोटे शहर में स्थित यह कालेज अभी तक अपनें में विज्ञान संकाय नहीं जोड़ सका था हाँ उसमें मानवकीय और कॉमर्स की स्नातक कक्षायें चल रही थीं और अंग्रेजी में परास्नातक कक्षाओं को चलने के प्रयत्न चल रहे थे | आशा थी कि अगले सत्र में अनुमति मिल जायेगी और एम. ए. के क्लासेज खोल दिये जांयेंगें | मैनें  हाँथ से अप्लीकेशन लिखी और टाइप करानें की जरूरत नहीं समझी | हम सब जानते ही हैं कि उस समय तक भारत में कम्प्यूटर की चर्चा भी नहीं हुयी थी | अप्लीकेशन डालकर में भूल गया कि मैनें कोई अप्लीकेशन डाली है | मैं जानता था कि न जानें कितनें एप्लीकैंट होंगें और फिर अभी तक मेरी Doctoral थीसिस भी तो कम्प्लीट नहीं हुयी थी हाँ इतना अवश्य था कि अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में परास्नातक स्तर पर मेरे प्राप्तांक आकर्षक थे | और उन्हें यदि चयनकर्ता प्रमाण मान कर चले तो मैं विद्वानों की मण्डली में शामिल किया जा सकता हूँ | कम  से दोनों भाषाओं की मण्डली में | लगभग दो महीने का समय गुजर गया और मुझे लगा कि सत्र की शुरुआत हो जानें के कारण कोई न कोई नियुक्ति कर ली गयी होगी पर एक दोपहर बाद जब मैं घर लौट कर आया तो मैनें हिन्दी में अत्यन्त सुन्दर अक्षरों में लिखा हुआ एक साक्षात्कार पत्र मेज पर रखा पाया | अपर्णां की माँ नें बताया कि डाकिया इसे लेटर बॉक्स में डाल गया था और वहां से निकालकर  पढ़ा है और मेज पर रख दिया है | बोली ,"  साक्षात्कार के लिये बुलाया है जाओगे !"मैनें कहा ,  "जैसा बताओ कहो तो चला जाऊँ नहीं तो ठीक ही चल रहा है | "उन्होंने कहा जैसा ठीक समझो कर लो | वैसे अगर उन्होंने ले लिया तो यहां बच्चों की पढ़ाई लिखाई में कुछ उलट फेर करना पड़ेगा | मैनें कहा अभी हम लोगों नें यहाँ मकान तो बनवाया नहीं है | जैनियों का एक स्थानक जो उनके मुनियों के ठहरनें के लिये सुरक्षित है हमें रहनें के लिये मिल गया है | थोड़ा बहुत किराया हम अहिंसा परमो धर्मा : के प्रचार प्रसार के लिये दे देते हैं | सोचता हूँ इंटरव्यूह में हो ही आऊं | कम  से कम  मुझे अपनी औकात का पता तो लग जायेगा | उन्होंने मेरी ओर हँसते हुये देखा और कहा , "तुम अगर गये तो अवश्य ही ले लिये जाओगे | हाँ ज्वाइन करना या न करना हमारे हाँथ में होगा तब फिर से बातचीत कर लेंगें | और इस प्रकार मेरा साक्षात्कार में जाना सुनिश्चित  हो गया | "हालांकि मैं जानता था कि अपर्णा की माँ मुझपर आवश्यकता से अधिक गर्व कर रही है |
                                            संयोग की ही बात है कि गाड़ी के जिस डिब्बे में मैं बैठा था उसी में  दिल्ली से जाने वाले तीन और प्रत्याशी भी आ उपस्थित हुये | उनमें दो महिलायें थीं और एक पुरुष | कहना न होगा कि मैं ट्रेन के सुपीरियर क्लास में था और संम्भवतः इसी कारण मिलनें का यह संयोग आ बन पड़ा | लगभग पौन घण्टे के सफर में थोड़ी सी ही बातचीत हो सकी | मेरा परिचय पानें के बाद उन्होंने बताया कि वे कहाँ पर अध्यापन कर रहे हैं | और उनकी क्या शैक्षणिक योग्यतायें हैं | मुझे लगा कि सुबोधनी चटर्जी मुझसे अधिक क्वालीफाइड है क्योंकि उनके पास डाक्टरेट है और वह गाजियाबाद के किसी कालेज में प्रवक्ता हैं पर दिल्ली अपनें हसबैण्ड के साथ रहती हैं जहां उनके पति केन्द्रीय विभाग में अण्डर सेक्रेटरी हैं | सौभाग्यवश कहिये या कालेज प्रबन्धकों  की सूझ बूझ कहिये बी. ए.  फ़ाइनल कक्षा के दो विद्यार्थी हम चारो को स्टेशन पर मिल गये जो हमें स्टेशन से लगभग 1 किलोमीटर स्थित कालेज परिसर में पहुंचाकर वापस हो गये | परिसर में पहुंचकर जब मैं उस कक्ष की ओर बढ़ा जहां सभी प्रत्याशियों की व्यवस्था थी तो मैनें पाया कि दस और बारह के आस -पास और भी प्रत्याशी वहां उपस्थित थे पन्द्रह सोलह के इस ग्रुप में किसके हाँथ बाजी लगती है इसका फैसला साक्षात्कार लेने वालों के विवेक पर होना था | मैं अपनी तरफ से यह मान बैठा था कि सुबोधनी चटर्जी ही बाजी मारेंगीं क्योंकि एक तो उनके पास डॉक्टरेट है दूसरे उनके पति Under Secretary हैं | बातचीत में भी उनकी बंगाली अंग्रेजी रसगुल्ले वाली गोलाई का अन्दाज लिये हुये चलती थी | दो मिनट के लिये बाहर निकलकर कालेज बिल्डिंग का जायजा लिया | परिसर तो काफी बड़ा था पर अभी 2 ब्लाक ही बन कर तैयार हो पाये थे | रख रखाव अच्छा था और दीख पड़ता था कि भविष्य में प्रगति की संम्भावनायें हैं | थोड़ी देर बाद एक चपरासी के साथ आफिस सुपरिटेण्डेन्ट साहब कमरे में आये | उनके हाँथ में प्रत्याशियों की एक लिस्ट थी | सभी नाम वर्णमाला क्रम के अनुसार लिखे गये  थे | चूंकि मेरा नाम वी से शुरू होता है इसलिये मैं सबसे नीचे नाम से एक सीढ़ी ऊंचाई पर था | मेरे से नीचे जिन प्राध्यापक महोदय का नाम था वे थे यादवेन्द्र सिंह शायद वे दिल्ली के रामजस कालेज में थे | न जानें क्यों वे इस साक्षात्कार में उपस्थित नहीं हो सके थे | इस प्रकार सबसे निचली सीढ़ी पर मुझे ही बैठनें का अवसर मिल गया था | पंक्ति के  सबसे निचले स्तर पर बैठनें या खड़े होनें के लाभ भी हैं और हानियाँ भी | सबसे बड़ी हानि तो यह है कि इंटरव्यूह लेने वाले सवाल पूछते पूछते और उत्तर सुनते सुनते ऊब जाते हैं और अन्तिम कन्डीडेट को थोड़ा बहुत पूछ पाछ कर रफा दफा कर देना चाहते हैं पर एक लाभ यह भी है कि अन्त में साक्षात्कार पर बुलाये जाने वाले प्रत्याशी को पहले गये प्रत्याशियों से काफी कुछ सुननें को मिल जाता है और वह कुछ प्रश्नों के उत्तर सुनियोजित करनें का मौक़ा पा जाता है | पर छोड़िये इन बातों को यह तो इंटरव्यूह से पहले की शाब्दिक खींचा तानी है | हम प्राध्यापकों की आदत ही यह होती है कि बात से बात निकालते हैं | और हर परिस्थिति या घटना की बुद्धि परक व्याख्या करनें में लग जाते हैं | अब जिसको लगना है उसको तो लगना ही है चाहे वह ऊपर खड़ा हो चाहे बीच में चाहे सबसे नीचे | मैं तो सिर्फ सुबोधनी चटर्जी के बुलावा क्रम से अवगत होना चाहता था | वे नम्बर तीन पर स्थित थीं | मयंक चतुर्वेदी और पंकज चढ्ढा के बाद | मैं सोचता था कि उनका इंटरव्यूह हो जानें के बाद उनकी भावभंगिमा से उनकी सफलता का आभाष मिल जायेगा और तब मेरा अन्त तक बैठे रहना उचित नहीं होगा | स्टेशन से वापसी की गाड़ी 6. 37  पर चलती थी | इसलिये 6  बजे से पहले ही कालेज परिसर से निकलना होगा | आखिर एक किलोमीटर का फासला भी तो पैदल तय करना है |
                              मैं जनता था कि इंटरव्यूह में कम से कम  चार व्यक्ति तो होंगें ही | कालेज मैनेजिंग कमेटी के प्रधान , विश्वविद्यालय का एक सब्जेक्ट एक्सपर्ट ,कालेज के प्राचार्य और कोई एक सरकारी पदाधिकारी | इसके अतिरिक्त एकाध और व्यक्ति जोड़े जा सकते थे | कालेज को सरकारी अनुदान मिल रहा था और इसके लिये आवश्यक था कि जो भी नियुक्त हो वह सर्वसम्मति से की जाय | बातों ही बातों में मुझे पता लग गया था कि श्री डाल चन्द्र शर्मा कालेज मैनेजिंग कमेटी के प्रधान हैं और वे इस क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित राजनीतिक नेता हैं | संम्भवतः किसी भी फैसले में उनकी सम्मति ही अन्तिम मानी जायेगी | कुछ देर बाद मयंक चतुर्वेदी की पुकार हुयी | अन्दर क्या हुआ कौन जानें | कुछ सवाल जवाब तो हुये ही होंगें पर जब चतुर्वेदी जी बाहर आये तो कुछ टूटे -टूटे से लगे | कुछ प्रत्याशियों नें उनसे पूछा कि अन्दर कौन कौन से प्रश्न पूछे गये | तो उन्होंने उखड़े स्वर में जवाब दिया अरे यार कुछ नहीं सिर्फ दिखावा है | उन्होंने  Appointment तो पहले ही कर लिया है | और यह कहकर अपना झोला उठाकर चले गये | अब बारी आयी पंकज चढ्ढा की | लगभग पन्द्रह मिनट तक वे अन्दर रहे मैं बैठा-बैठा सोच रहा था कि यदि इंटरव्यूह में इतना लम्बा  समय लगता रहा तो आज लौटकर वापस जाना नहीं हो सकेगा | बस सुबोधनी चटर्जी के बाद मैं और इन्तजार नहीं करूंगा | पंकज चढ्ढा नें पूछे जानें पर बताया कि डालचन्द्र जी उनसे हिन्दी को उच्च शिक्षा का माध्यम क्यों न बनाया जाय पर बातचीत करना चाहते थे | पर उन्होंने कहा कि वे अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं और उनसे अंग्रेजी साहित्य में प्रश्न किये जानें चाहिये | उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो या अंग्रेजी इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं है | वे अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं और उन्हें अंग्रेजी में ही पढ़ना-- पढ़ाना और लिखना लिखाना है | डाल चन्द्र जी नें उनसे पुछा कि क्या वे घर पर बच्चों से भी अंग्रेजी में ही बात करते हैं तो उन्होंने तैश में आकर जवाब दिया कि इस बात से उन्हें क्या लेना -देना है यह उनका व्यक्तिगत मामला है | डाल चन्द्र जी नें मुस्करा कर कहा , " Well said ."  चढ्ढा जी ने बताया कि उन्हें पूर्ण विश्वास है कि उनका नाम रिकमेन्ड हो जायेगा | मुझे लगा कि क्या सुबोधनी जी बाजी हार जायेंगीं ? नहीं नहीं ऐसा कैसे हो सकता है ? सुबोधनी जी का इंटरव्यूह कमाल का इंटरव्यूह होगा | और उनके नाम की विजय ध्वजा ही लहराती दिखायी पड़ेगी | अब पुकार आयी सुबोधनी चटर्जी | सुबोधनी जी नें मगर की खाल वाला अपना हैण्ड बैग उठाया और विश्वास भरे कदमों से इन्टरव्यूह कक्ष में चली गयीं | अरे यह क्या ? मैनें घड़ी देखी पन्द्रह मिनट बीत गये | बीस मिनट Oh God लगभग बाइस मिनट बाद सुबोधनी जी बाहर आयीं | मेरी तरफ देखकर मुस्करायीं | उन्हें वापस नहीं जाना था क्योंकि उनके पति नें किसी सरकारी गेस्ट हाउस में उनके ठहरनें की व्यवस्था कर दी थी | गाड़ी ,ड्राइवर और उसमें बैठा एक चपरासी उन्हें लेने आ गया था | शायद वह Appointment Letter लेकर ही जानें की सोच रही थीं और Appointment Letter उन्हें इंटरव्यूह समाप्ति के बाद ही मिल सकता था | आखिरकार कागजी कार्यवाही तो पूरी करनी ही होती है भले ही कोई चीज पहले से ही सुनियोजित क्यों न कर ली गयी हो | जाते जाते मैनें सुबोधनी जी से पूछा कि उनसे साहित्य संम्बन्धी क्या प्रश्न किये गये तो उन्होंने बताया कि मुझसे यह पूछा गया कि डा. हरवंश राय बच्चन नें अंग्रेजी कवि W.Yeats  पर जो शोध प्रबन्ध लिखा है उसके संम्बन्ध में आप कुछ जानती हैं | वे बोलीं कि हरवंश राय का नाम तो उन्होंने सुना  है वो भी किसी सिनेमायी सन्दर्भ में पर उनका कोई शोध प्रबन्ध भी है या वे अनुवादक , कवि  और लेखक भी हैं इस विषय पर वह कुछ नहीं जानतीं | हाँ बंगाली लेखक शरद चन्द्र चटर्जी से वे प्रभावित हैं | और जो बंगाली साहित्य में नहीं वह  हिन्दुस्तान के किसी भी साहित्य में नहीं है | हम बंगाली ही अंग्रेजी को भी हिन्दुस्तान में जीवित रखे हैं | बाकी किसी को टूटी फूटी अंग्रेजी आती हो तो आती हो | इतना कहकर वह दंभ्भ भरी मुस्कराहट के साथ वे गाड़ी में बैठ गयीं और खर्र की आवाज के साथ गाड़ी परिसर से बाहर हो गयी | मैं और मेरे साथ बैठे बैठे तीन और लोग स्टेशन की ओर जानें का मन बनाकर उठ चले थे | पता नहीं अन्दर बैठे डाल चन्द्र शर्मा  नें चपरासी को बुलाकर कुछ पूछा और यह जानकर कि कुछ लोग देर हो जानें की वजह से वापस दिल्ली की ओर जा रहे हैं वे बाहर आ गये और कक्ष में बैठे प्रत्याशियों से उन्होनें कहा कि वे जल्दी न करें | कालेज में एक अतिथि गृह है और जो लोग रुकना चाहेंगें उनके खान पान और शयन की पूरी व्यवस्था कालेज में होगी | उन्होंने यह भी कहा कि वे स्वतन्त्रता सेनानी हैं | गांधी जी के आश्रम में रह चुके हैं | इन्टरव्यूह में पूरा न्याय किया जायेगा | उल्टी सीधी अफवाहों से आप लोग विचलित न हों | उनके सौम्य व्यक्तित्व नें अब बारह के करीब बैठे प्रत्याशियों पर गहरा प्रभाव डाला | हम सब अपनें स्थानों पर बैठ गये | डाल चन्द्र जी नें साक्षात्कार लिये जानें वाले कमरे में चेयरमैन की कुर्सी पर जा विराजे | चौथे नम्बर की पुकार हुयी | अबकी बार समय पांच सात मिनट से अधिक नहीं लगा | क्रम चलता रहा | शाम को छै बजनें को आ गये | चौदहवें नम्बर पर थीं शशिबाला वत्स वे मेरठ डिवीजन के ही किसी कालेज में प्राध्यापिका थीं | पहले यह कालेज इण्टर कालेज था | पिछले चार पांच वर्षों में इसे डिग्री कालेज के रूप में ऊंचा उठाया गया था | उन्होंने आवेदन पत्र तो डाल दिया था  पर चूंकि उनका डिग्री क्लासेस का अध्यापन अनुभव दस वर्ष से कम का था इसलिये  वे नियुक्ति की Essential Conditions पूरा नहीं करती थीं | यद्यपि वे योग्य थीं पर मैं जानता था कि मांगें गये अनुभव के अभाव में उन्हें दो चार मिनट के भीतर ही बाहर आना होगा | पर यह दो चार मिनट भी मेरे लिये भारी पड़ रहे थे | परीक्षा कैसी  भी हो छोटी या बड़ी कुछ देर के लिये मन में चिन्ता की लहरें तो उठा ही देती है | तभी तो कुरान  में प्रार्थना की गयी है ,"ये खुदा मुझे इम्तहान में मत डाल | "पर इम्तहान से तो गुजरना ही होगा | | भारतीय परम्परा में तो अग्नि परीक्षा के बिना शत -प्रतिशत सोना भी खरा नहीं माना जाता | शायद इसीलिये भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए. जी. पे. अबुल कलाम की जीवनी के हिन्दी अनुवाद को अग्नि परीक्षा शीर्षक से अभिहित किया गया है | आज दशकों के अन्तराल के बाद मैं इस साक्षात्कार में पूछे गये प्रश्नों और दिये गये उत्तरों को पूरी तरह स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ | लगभग सात आठ वर्ष पहले मैनें जेट  पम्प मेँ पानी की निर्वाध निकासी के लिये एक मशीन लगवायी थी | अभी तक वह ठीक ठाक काम देती रही है | पर अब कुछ महीनों से मैं यह देख रहा हूँ कि वह चलते -चलते बीच में रुक जाती है और कुछ देर बाद फिर चल निकलती है | ऐसा पानी की कमी के कारण है या उसके भीतरी कलपुर्जों में बुढ़ापा आ जानें के कारण है इसका फैसला किसी कुशल मिस्त्री को ही बुलाकर करवाना पड़ेगा | कुछ ऐसा ही हाल इन दिनों मेरी मष्तिष्क की तन्त्रिकाओं में चल रहा है | बात करते करते मैं किसी चिर परिचित नाम को भूल जाता हूँ और फिर थोड़ी देर के बाद नाम उभर कर स्मृति पटल पर आ जाता है | घटनाओं का क्रम कई बार सिलसिलेबार मानचित्र प्रस्तुत न करके न जानें व्यक्तिक्रम और विपर्यय उपस्थित कर देता है | संध्या को जो बातें दिमाग से लुप्त हो जाती हैं ऊषा काल में वह अत्यन्त शशक्त रूप में स्मृति के पन्नों पर लिख दी जाती हैं | शायद यह सब स्वाभाविक है | शायद इस प्रक्रिया से जीवन का रक्षा तन्त्र मुझे लम्बे समय तक मानसिक अपंगता से बचाये रखेगा | पर जब स्मृतियों को संजोकर शब्द बद्ध करने  चला हूँ तो उन्हें एक पठनीय सूत्र में तो करना  ही होगा | आज की प्रशासनिक व्यवस्था के अध्यापन कार्य कोई मूल्यवान सामाजिक स्वीकृति नहीं पा रहे हैं पर तीन दशक पहले अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष का पद पढ़े लिखों के बीच थोड़ा -बहुत गौरव प्रदान करता था | मेरे नाम की पुकार आयी तब तक पूरा कक्ष  प्रत्याशियों से खाली हो चुका था | कोई देख भांप न रहा हो तो मनुष्य अपनें सहज स्वभाव में आ जाता है | मैं आश्वस्त हुआ कि जब मैं साक्षात्कार कक्ष से वापस आऊंगा तो मेरी जय-पराजय के विषय में कोई प्रश्न पूछनें वाला नहीं होगा | मैं सामने जा खड़ा हुआ | कुर्सी पर बैठे चेयरमैन डाल चन्द्र शर्मा नें कहा बैठ जाइये | मैनें धन्यबाद किया और सामनें मेज के दूसरी ओर पड़ी कुर्सी पर बैठ गया | प्राचार्य महोदय नें पूछा , " Your Name."मैनें उत्तर दिया , "Sir ,you have my resume in your hand and one copy before the chairman. "प्राचार्य महोदय नें फिर अगला प्रश्न नहीं पूछा | उन्होंने मेरे Bio-data में लिखे गये सभी तथ्यों को इन्टरव्यूह बोर्ड के मेम्बरों को पढ़ कर सुना  दिया | अब सब्जेक्ट एक्सपर्ट डा. ब्रम्हानन्द मोहन्ती नें मुझसे अंग्रेजी साहित्य के कवियों , नाटककारों कथाकारों और निबन्धकारों पर प्रश्न न पूछकर महर्षि अरविन्द द्वारा रचित अंग्रेजी के बहुचर्चित महाकाव्य सावित्री पर प्रश्न करनें शुरू कर दिये संम्भवतः डा. मोहन्ती नें अपनी डॉक्टरेट की उपाधि अरविन्द की काव्य शिल्प पर काम करके ही प्राप्त की होगी | और इसलिये यही सहज लगा कि वे सावित्री महाकाव्य पर मेरे ज्ञान की परीक्षा लें | मैं डा. मोहन्ती को सावित्री ,सत्यवान की अमर कथा के प्रतीतात्मक पहलुओं पर कुछ बताना चाहता था पर इससे पहले ही डालचन्द्र जी नें बीच में एक प्रश्न कर दिया दरअसल उन्होंने मोहन्ती साहब से ही कहा देखिये अभी हमारे यहां बी. ए. के अन्तिम वर्ष के विद्यार्थी अंग्रेजी कविता की व्याख्या हिन्दी के  माध्यम से करवाना चाहते हैं | अंग्रेजी की व्याख्या उनकी पूरी पकड़ में नहीं आती | फिर सावित्री महाकाव्य के प्रतीतात्मक अर्थ अगर यह प्राध्यापक महोदय पूरी तरह से बता भी दें और आप सन्तुष्ट हो जांय तब भी हमें इनकी योग्यता की परख हमारे यहाँ लगने वाली कक्षाओं के औसत विद्यार्थियों के सन्दर्भ में करनी होगी | और यह कहकर उन्होनें जो प्रश्न पूछे मुझे अत्यन्त रुचिकर और ज्ञान वर्धक लगे | उनका पहला प्रश्न था , "  What is your mother Tongue?"मैनें कहा , "मेरी मातृ भाषा हिन्दी है | "उन्होंने पूछा ,  "आपनें अंग्रेजी में जवाब क्यों नहीं दिया ?"मैनें उत्तर दिया अपनी मातृभाषा को मैं अपनी मातृभाषा के माध्यम से ही बताना चाहता था | हाँ यदि आप चाहते हों तो आप प्रश्न पूछिये मैं अंग्रेजी में ही उत्तर दूंगा | वे हंस पड़े | उन्होंने कहा तुमनें तुलसीदास की रामायण पढ़ी है | मैंने हाँ में उत्तर दिया | उन्होंने एक चौपाई सुनायी - "उमा दास जोसित की नाईं ,सबै नचावत राम गुसाईं |"बोले पहले इसका सरल हिन्दी में अर्थ बताओ | फिर उसका अंग्रेजी अनुवाद कर समझाओ | यह मानकर चलना कि तुम्हारे आगे बी. ए. सेकेंडियर का क्लास बैठा है और विद्यार्थियों के पास हिन्दी और अंग्रेजी भाषा दोनों ही विषय हैं | मैं जान गया कि परीक्षा की सच्ची घड़ी आ गयी है | धनुषधारी दशरथ के राम को मन ही मन प्रणाम कर मैनें अपनें आत्मविश्वास को सुद्रढ़ किया अब चूकना नहीं होगा | दिल्ली के महान सम्राठ के शब्दभेदी बाण कौशल के संम्बन्ध में कही गयीं पंक्तियाँ मन में उभर आयीं | "चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण ,ता ऊपर सुल्तान है मत चूको चौहान | "  अब तो लक्ष्य को भेदना ही है | कहाँ बचकर जायेगी अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष की कुर्सी | डा. सुबोधनी चटर्जी सारी कोशिश के बावजूद कोई व्यवधान खड़ा न कर पायेगीं | मैनें हिन्दी में प्रारम्भ किया अध्यक्ष जी कैलाश शिखर पर अवस्थित त्रिकालेश्वर धूजटी त्रिलोचन भगवान् शंकर अपनीं सहधर्मिणीं जगतमाता उमा को संम्बोधित करते हुये कहते हैं--------------

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गतांक से आगे -

                                                    हम सब यह दंभ्भ पालते रहते हैं कि हम घटनाओं के नियामक हैं पर चल और अचल प्रकृति में जो भी घटित हो रहा है वह श्रष्टि रचना में निहित मूल कारणों से ही संचालित है | श्रष्टि के नियामक आदि श्रष्टा जिन्हें हम राम के नाम से अभिहित करते हैं वही घटनाओं के सूत्रधार हैं ,वही घटनाओं के नियामक हैं और वही घटनाओं को लक्षित अन्त की ओर ले जाते हैं | जैसे कठपुतलियों का खेल दिखाने वाला काष्ठ  बाजीगर कठपुतलियों को जिस प्रकार से चाहे उस प्रकार  की भंगिमा देकर नाच नचाता रहता है |वैसे ही ब्रम्हाण्ड की सारी व्यवस्था और संयोजना आदि श्रष्टा और  परम नियन्ता प्रभु राम के हांथों से संचालित होती है यानि उनकी इच्छा के आधीन है | फिर मैनें अंग्रेजी में कहा, " All of us harbour the arrogance that we are the doers and controllers of social events and happenings.  This is the absolutly baseless and misleading. The fact is that nothing moves in this world without the will of the supreme power'Rama'. The director of wooden doors keeps the springs in his hands and makes the doors dance as he desires.The whole universe is nothing but a play thing of the supreme creator. Human beings should snun their ego and surrounder to the will of supreme God Rama. Chairman Dal chandra Sharma चुपचाप सुनते रहे और फिर बोले , "क्या  आपकी यह व्याख्या कर्म की महत्ता को नहीं नकारती ? क्या व्यक्ति का प्रयास निरर्थक ही जाता है | यदि सभी कुछ पूर्व निर्धारित है तो फिर साधना या प्रयत्न का महत्त्व ही क्या रह जाता है ? "मैनें कहा सर आपनें चौपाई का अर्थ और अनुवाद पूछा था उससे ध्वनित होने वाली दार्शनिक उत्पत्तियों की जानकारी नहीं चाही थी | दार्शनिक स्तर पर इस चौपाई की व्याख्या एक दूसरे स्तर पर की जायेगी | कर्म का अपना महत्व है पर कर्म करने की चेतना सामाजिक मूल्य बोधों से प्राप्त होती है और यह सामाजिक मूल्यबोध समय के साथ बदलते रहते हैं | जो कल के समाज में सत्य था जैसे वर्ण व्यवस्था वह आज त्याज्य है | गृह परित्याग विगत में जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि थी आज उसे संघर्ष से पलायन के रूप में लिया जाता है | नारी को नर से हीन मानना अभी आधी शताब्दी पहले तक एक सामान्य सामाजिक स्वीकृति थी पर आज हम उसे एक हीन स्तर की चेतना मानते हैं | ये सब कैसे होता है | व्यक्तियों का आन्तरिक विकास होता रहता है | चेतना ऊँचे सोपानों पर चढ़ती जा रही है | प्रकृति भी मानवीय और ब्रम्हाण्डीय कारणों से अपना रूप रंग बदल रही है | यह सब इसीलिये घटित हो रहा है क्योंकि ब्रम्हाण्ड का आदि श्रष्टा कहीं न कहीं नियमन और संयोजन करता जान पड़ता है | आप आदि सृष्टा को  राम कहकर न पुकारें तो उसे स्वचालित ब्रम्हाण्डीय शक्तियों के रूप में निरूपित कर सकते हैं | इस द्रष्टि से अपार और अबाध प्रकृति तत्वों का मानवीयकरण किया जा सकता है | श्री राम तो ब्रम्हाण्ड के कण -कण में रम रहे हैं  और इसीलिये हम हिन्दू धर्मावलम्बी उन्हें आदि शक्ति और परम नियामक के रूप में पूजते हैं | महाकवि तुलसी की इस पंक्ति में कर्म के प्रति कोई नकारात्मक भाव बोध नहीं है सिर्फ दंम्भ छोड़कर कर्म को फलाफल के लिये नियामक की इच्छा पर छोड़ देने की बात कही गयी है |
                           डा. मोहन्ती नें इतना सब सुननें के बाद यह जानना चाहा कि क्या अंग्रेजी साहित्य में भी इस प्रकार की अभिव्यक्ति के गयी है | मैनें विनम्रता पूर्वक उनसे निवेदन किया कि विश्व की किसी भी भाषा के   साहित्य में मनुष्य के प्रयत्न को सर्वोपरि नहीं बताया गया है | यूनानी और रोमन साहित्य से अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं | और अंग्रेजी में तो ऐसे कथनों की भरमार ही है | महाकवि और महान नाटककार शैक्सपियर की इन प्रसिद्ध पंक्तियों को कौन नहीं जनता | , " As files of Wanton boys we are to the whims of God . "यहां हम सबको कठपुतलियों जैसे नचा देने की बात कही गयी है और जीवन की निरर्थकता का भाव तो अंग्रेजी साहित्य के श्रेष्ठतम रचनाकारों की  प्रत्येक कृति में झलकता दिखायी पड़ता है | कथाकार हार्डी तो दुख की सदा छायी रहने वाली बदली में सुख को एक क्षणिक कौंध के रूप में ही देखते हैं और नोबेल पुरुष्कार पाए हुये महाकवि टी. एस. ईलियट तो अपनी जिन्दगी के खोखलेपन से ऊबे हुये से लगते हैं | तभी तो उन्होंने लिखा है - "Alas! I had measurred my life in calfee spoons . "और भी बहुत सी बातें होती रहीं पर अब यह इंटरव्यूह न रहकर एक प्रकार से पारस्परिक आदर भरा समन्वयवादी विचार धाराओं का समन्वय सा बन गया  था | शायद एक कारण यह भी रहा हो कि और कोई कन्डीडेट इन्टरव्यूह के लिये नहीं था और मेरे उत्तरों ने उन्हें कहीं अन्तर में झांककर जीवन के गहरे प्रश्नों  के समाधान की ओर उन्मुख कर दिया था | | अंत में डालचन्द्र जी नें मुझसे पूछा कि मैनें अपनें Resume में अपनें  N . C .C . मेँ कैप्टन होनें की बात लिखी है | और चाहा है कि यदि मैं नियुक्त होता हूँ तो मुझे यहां भी N . C . C .Officer की जिम्मेदारी सौंपी जाय | मैनेँ कहा कि एन  . सी  . सी  . तो अब 1962 के युद्ध के बाद बी. ए. के हर छात्र के लिये अनिवार्य बना दी गयी है | यदि आपके यहाँ इतनी संख्या हो कि जो मौजूदा N .C . C . आफीसर हों उन्हें बिना हानि पहुंचाये मैं सैन्य संचालन के इस महत कार्य से जुड़ सकूं तो मुझे इसमें प्रसन्नता ही होगी | अभी तक मुझसे कालेज के प्राचार्य डा. मोहन्ती और मैनेजिंग कमेटी के प्रधान डाल चन्द्र शर्मा नें ही प्रश्न किये थे और उत्तर मांगे थे | अब एक चौथे सज्जन जो उन सब माननीय सदस्यों के बीच बैठे थे उन्होंने मुझसे कुछ अजीब सा प्रश्न किया बाद में मुझे पता चला कि वे मैनेजिंग कमेटी के वाइस प्रेसीडेन्ट हैं और शहर में उनकी मिठाई की कई दुकानें हैं | एक दुकान दिल्ली में भी है और वे लाल छिद्दम्मी मल के नाम से जाने जाते हैं | वे अधिक पढ़े -लिखे नहीं थे | संम्भवतः वे हाई स्कूल रहे होंगें | पर व्यापार के द्वारा और अपनी मिलनसारिता के कारण उन्होंने काफी धन कमा लिया था और वे मेंनिजिंग कमेटी के वाइस प्रेसीडेन्ट चुन लिये गये थे | वे डालचन्द्र जी के परम मित्र थे और उन्हीं की इच्छा से इन्टरव्यूह कमेटी में बुलाये गये थे | उनका लड़का शायद कालेज में पढ़ रहा था हुए एन  . सी. सी. का कैडिट था | उन्होंने मुझसे पूछा कि एन.सी.सी. को National Cadet Corps क्यों कहते हैं | उन्होनें आगे कहा कि Corps का मतलब तो डेडवाडी होता है | मैं मन ही मन हंसा और जान गया कि वे सज्जन अंग्रेजी भाषा से ज्यादा परिचित नहीं हैं | मैनें उन्हें बताया यद्यपि लिखनें में Corps लिखा जाता है पर उच्चारण में इसे कोर बोलते हैं | अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये मैनें सबकी जानी मानी इस बात को कई उदाहरण देकर समझाया कि अंग्रेजी में बहुत  से शब्द ऐसे हैं जिसके उच्चारण और स्पेलिंग में फर्क है | शुद्ध उच्चारण के लिये काफी मेहनत करनी पड़ती है | हिन्दी की प्रकृति दूसरे किस्म की है उसमें जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है | अन्त में मैनेँ कहा शायद आप अन्जान बनकर मेरी परीक्षा ले रहे थे | जिस Corps शब्द का मतलब Dead Body से होता है उसकी स्पेलिंग में एस के बाद ई लगा होता है | Corpse वे हंसकर चुप रह गये और मुझे लगा कि मैं इम्तहान  में पास हो गया | अब बोर्ड के चेयरमैन डालचन्द्र जी नें मेरे परिवार के संम्बन्ध में कुछ बातें जाननी चाहीं कितनें बच्चे हैं , कहाँ पढ़ते हैं ,पत्नी कितनी पढ़ी -लिखी है , जन्म स्थान किस राज्य में है ,किस जिले में है , आदि आदि | मैनें उन्हें परिवार संम्बन्धी सभी बातों से अवगत करा दिया | अब उन्होंने अन्तिम बात कही | ज्वाइन करनें में कितना समय  लोगे ? अभी तक पूछे गये सारे प्रश्नों के उत्तर मुझे सहज लगे थे पर चेयरमैन सर के इस प्रश्न नें मुझे उलझा दिया | मुझे याद आ गया कि चलते समय अपर्णां की माँ नें मुझसे कहा था कि Appointment Letter तो ले आना पर ज्वाइन करनें से पहले हम फिर से गहरायी के साथ सोच -विचार करेंगें | चेयरमैन साहब से मेरा यह कहना कि ज्वाइन करनें के विषय में अभी पूरा मन नहीं बना सका हूँ मुझे उचित नहीं लगा और मैनें उन्हें यह कहकर आश्वस्त किया मैं शीघ्र से शीघ्र आने का प्रयत्न करूंगा | उन्होंने कहा कि देखो प्रो०  अवस्थी हम तुम्हें अपनें परिवार का अंग बनानें जा रहे हैं | 15 -20  दिन में तुम्हें ज्वाइन करना ही होगा | एक महीनें से अधिक इन्तजार नहीं किया जा सकता क्योंकि कक्षायें प्रारंम्भ हो चुकी  हैं और डिपार्टमेन्ट को एक अनुभवी विद्वान प्रो०  की जरूरत है | डिपार्टमेन्ट के तीनों प्रवक्ता अभी दो तीन साल का अनुभव ही कर पाये हैं | हमारे पास प्रो ० भारद्वाज थे लेकिन वे पिछली मार्च को सेवा निवृत्त हो गये  हैं यदि आप वेतन के संम्बन्ध में कोई बात कहना चाहते हों तो हम उसपर भी विचार करेंगें पर आपको एक मास के अन्दर ज्वाइन तो करना ही होगा | मैनें कहा , "शर्मा जी आप इस संस्था के चेयरमैन तो हैं ही मैं आपको अपनें अग्रज के तुल्य मानता हूँ | आपके कहनें के अनुसार मैं एक मास के भीतर ही ज्वाइन करना चाहूंगा पर एक बार मुझे अपनें कालेज के सहयोगियों और संचालकों से मिलनें का मौक़ा दें | चेयर मैन साहब मैं जिस कालेज में था उसकी विशालता और उपलब्धियों से पूरी तरह परिचित थे | यह जानते थे कि उस कालेज की तुलना में उनके कालेज की शुरुआत बहुत छोटे स्तर की है पर उनका आत्मविश्वास , उनकी सामाजिक शाख ,और उनकी राजनीतिक पहुँच इस छोटी शुरुआत को एक बहुत बड़ी शिक्षा संस्था के रूप में परिवर्तित करने की क्षमता रखती थी | हम सब उठकर प्राचार्य महोदय के कक्ष में चाय पानी के लिये मिल बैठे अब मुझे कालेज के एक वरिष्ठ और सम्मानित सदस्य के रूप में मान्यता मिल गयी थी | शर्मा जी नें कहा कि अभी तक उनके कालेज का पत्र व्यवहार हिन्दी में ही होता है इसलिये हिन्दी में ही सुन्दर हस्त लिखित नियुक्ति पत्र मुझे दिया जा सकेगा | मैनें हंसकर कहा , "यह तो मेरे लिये गौरव की बात है अंग्रेजी का अध्यापक भले ही हूँ पर मातृ भाषा का गौरव तो निराला ही होता है | बातों ही बातों में प्रधान जी ने बताया कि इस इन्टरव्यूह में यदि मैं न आया होता तो डा ० सुबोधनी चटर्जी का लिया जाना सुनिश्चित था | उनके पति नें मन्त्री स्तर तक अपनी पहुँच बना रखी है | पर मेरे ऊपर सर्वसम्मति बन जानें के बाद अब उनके लिये जानें का प्रश्न ही नहीं उठता | डा ०  सुबोधनी चटर्जी के लिये इस इन्टरव्यूह में मेरा आना शुभ साबित नहीं हो सका | इसके लिये मेरे मन में हल्का सा संकोच उठ खड़ा हुआ मैनें सोचा क्या पता किन्हीं कारणों से मैं ज्वाइन न कर सकूं तो सुबोधनी चटर्जी को कालेज में आनें का सुअवसर मिल जायेगा और शायद यह कालेज के हित में हो | उस रात कालेज के गेस्ट रूम में मैं अतिथि के रूप में रहा अंग्रेजी विभाग के तीनों प्राध्यापक सुषुमा शुक्ला , रवीन्द्र वर्मा और सुखदेव बंसल देर शाम तक मेरे साथ बैठकर बात चीत करते रहे | बधाई देने के साथ -साथ उनका यह भी आग्रह रहा कि शीघ्र ही आकर कालेज ज्वाइन कर लूँ |
                                    अगली सुबह पहली गाड़ी से घर वापस आ गया | हिन्दी में सुन्दर अक्षरों में लिखा हुआ नियुक्ति पत्र मेरे पास था ही  | अपर्णा की मां नें उसे पढ़ा ,मुस्करायी और मुझे बधाई दी और बोली अब क्या इरादा है ? मैनें कहा जैसा बताओ वैसा करूँ | अभी तक कालेज के मैनेजमेन्ट से यह बात छिपी है | वैसे क़ानून मुझे उनकी स्वीकृति लेकर ही अप्लीकेशन डालनी चाहिए थी पर अब तो नियुक्ति पत्र हाँथ में है और देखता हूँ कि मुझे छुट्टी देनें के लिये मैनेजमेन्ट प्रस्तुत होता है या रिजिगनेशन देकर आनें को कहता है | अपर्णा की माँ ने कहा इतनी सारी गृहस्थी और चार चार जवान हो रहे बच्चों को लेकर अब हम कहाँ घूमते फिरेंगे | इसी शहर में मौक़ा देखकर जमीन खरीदो , मकान बनवाओ और बच्चों की शादी व्याह करो | वहां भी पढ़ाना है और यहां भी पढ़ाना है | मौक़ा मिला तो यहां भी अध्यक्ष बन जाओगे और क्या पता उससे भी आगे पहुँच जाओ | सभी तुम्हारी तारीफ़ करते हैं | मेरा मन भी लग गया है | मैनें कहा अच्छा सोचेंगें | कालेज पहुंचकर मैनें सबसे पहले अपनें प्राचार्य डा. पाठक को विश्वास में लिया | वे मुझे सम्मान भाव से देखते थे  और उनके व्यवहार में किसी भी आरोपित बड़प्पन का भाव नहीं होता था | उन्होंने कहा , "देखो अवस्थी जहां तक मैं समझता हूँ , मैनेजमेन्ट तुम्हें जानें नहीं देगा | रह गयी बात ग्रेड की तो उस पर विचार क्या जा सकता है | तुम्हें अगला इन्क्रीमेन्ट देकर जो पे स्केल तुम्हें अध्यक्ष के नाते मिलेगा वही पे स्केल यहां भी दिया जा सकता है | "मैनें कहा ऐसा करने से मेरे ऊपर के एक दो सीनियर भाई अपनें को छोटा महसूस करेंगें क्योंकि उनका वेतन मेरे से कम हो जायेगा | उन्होंने कहा  देखो हम कोशिश करते हैं कि तुम्हारे कुछ सीनियर्स को भी अगले इन्क्रीमेन्ट लगनें के समय से ऊँचे ग्रेड में  प्रवेश कर लिया जाय | तुम्हारे तीन वरिष्ठ साथी तीन या चार साल में सेवा निवृत्त हो जायेंगें और बाकी दो 6 -7  साल में , तुम्हारी सेवानिवृत्ति में अभी 10 -12  वर्ष हैं | तुम अध्यक्ष तो बनोगे ही कालेज के वरिष्ठतम प्राध्यापक भी होंगे और क्या पता इन्टरव्यूह के माध्यम से तुमसे अप्लीकेशन डलवाकर तुम्हें सेवाकाल के अन्तिम वर्षों में प्राचार्य भी बना दिया जाय | मैं मैनेजमेन्ट के विश्वास में हूँ और तुम्हारे संम्बन्ध में उनकी  धारणां एक अत्यन्त श्रेष्ठ अध्यापक और चरित्रवान नागरिक की है | मैनें प्रिन्सिपल साहब से कहा कि अराजकीय कालेज के मैनेजमेन्ट की चुनाव प्रक्रिया कई बार आपसी तनाव पैदा कर देती है | प्रिय अप्रिय हो जाते हैं और नालायक योग्य मान लिये जाते हैं | मुझे एक सुअवसर मिल रहा है | आगे की आगे देखी जायेगी | इस समय तो आपके आशीर्वाद की मांग है | मैं अपना स्तीफा आप के माध्यम से प्रधान जी के पास भेजता हूँ कृपया मुझे इसी महीनें के भीतर रिलीव करवा दें | माह के अन्त तक मुझे वहां ज्वाइन करना है | रिजिगनेशन मैनें जेब में लिखकर रख छोड़ा था | प्रिन्सिपल साहब को देने के बाद मैनें उनसे आग्रह किया कि वे प्रधान जी से उसी शाम को मिलकर मेरे संम्बन्ध में लिये गये निर्णय से मुझे अवगत करा दें अति कृपा होगी | नमस्कार करके मैं स्टाफ रूम में आ गया | मैनें अपनें किसी कुलीग से अभी तक अपनें स्तीफे की चर्चा नहीं की थी | मैं चाहता था कि मैनेजमेन्ट के निर्णय से अवगत हो जानें के बाद ही मैं बात को आगे बढ़ाऊं |
                              रात्रि के आठ बजे कालेज का पुराना और मेरा  बहुत नजदीकी चपरासी रामकृष्ण दरवाजे पर आ हाजिर हुआ | उसनें कहा मैनेजमेन्ट कमेटी के दफ्तर में प्रधान जी साथ चार पांच बड़े -बड़े सदस्य बैठे हुये हैं | प्रिन्सिपल साहब भी वहीं हैं | आपको तुरन्त बुलाया है | मैं रिक्शा लेकर आया हूँ | नीचे खड़ा है | कपड़े डाल लीजिये और चलिये | प्रबन्ध कारिणीं कक्ष में मेरी प्रतीक्षा हो रही थी | प्रधान जी नें कहा , "अवस्थी जी हमारे कालेज में क्या कमी है | जो इसे छोड़कर जा रहे हो | तुम्हें वहां पर सीनियर ग्रेड मिल रहा है ठीक है हम तुम्हारे अगले इन्क्रीमेन्ट के साथ जो इसी महीनें ड्यू है सीनियर ग्रेड दे देंगें | मैनें कहा प्रधान जी आप सब मेरा इतना सम्मान कर रहे हैं इसलिये मैं नतमस्तक हूँ पर कहीं ऐसा न हो कि मुझे ग्रेड दे देनें से हमारे साथी अध्यापकों में हाट वर्निंग  हो जाय | आप तो जानते ही हैं कि कोई भी अपने को दूसरे से छोटा नहीं नहीं मानता और जो मेरे सीनियर हैं उन्हें तो बुरा लगना ही चाहिये | अब मैनेजर साहब बोले , "बुरा लगना चाहिये तो लगे उन्हें ग्रेड लेना हो तो वे भी Appointment लेकर स्तीफा देकर दिखावें | मैं चुप रहा तब  प्रधान जी नें समझौते की बात कही , "अवस्थी जी हम कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगें | हमारा कालेज जबतक साठ वर्ष के नहीं हो जाओगे जानें नहीं देगा | वहां तुम्हें जो कुछ मिलेगा हम तुम्हें उससे पचास रुपये अधिक देंगें | "मैनें कहा , "आप सब इस नगर के अत्यन्त प्रतिष्ठित नागरिक हैं | अधिक पैसा आप दें या न दें ,अपनें जो सम्मान दिया है वह अमूल्य है | "प्रधान जी स्तीफा मेरी ओर बढ़ाते हुये कहा इसे ले जाओ और उस कालेज को लिख दो कि उन्होंने जिस किसी को नम्बर दो पर रखा हो उसे बुलाकर ज्वाइन करवा लें |"मैं उठा उन सबको आदर पूर्वक प्रणाम किया और बाहर आ गया | मेरे पीछे प्रिन्सिपल  साहब भी आ गये और बोले , "अरे अवस्थी चलो कोठी पर चलते हैं ,चाय का एक -एक कप लेंगें |"प्रिन्सिपल  साहब की कोठी कालेज परिसर में ही थी और उनके साथ ड्राइंग रूम में जा बैठा | क्या बातें हुयीं इनका विवरण यहां अनावश्यक होगा पर इतना सुनिश्चित हो गया कि मुझे और कहीं नहीं जाना है | हाँ कौन जनता है आने वाले कल में कहीं और कोई ऊंचा स्थान मिल जाय तो जानें की बात सोची जायेगी | घर लौटते वाक् करते समय सोचनें लगा कि अपर्णां ग्रेजुएट हो गयी है प्रथम श्रेणीं के आस -पास ही स्कोर कर पायी है | उसे विश्वविद्यालय में अंग्रेजी में दाखिला दिलाना होगा | देखो कल डा ० तुलसीराम से मिलते हैं | नम्बरों के आधार पर एडमिशन मिल जायेगा या फिर और कोई रास्ता खोजना होगा | अपर्णां का सर्कल भी  बढ़ता जा रहा है मुझे लग रहा है कि वह कोई मेधावी युवाओं को अपनी और आकर्षित कर रही है कंकड़ों के बीच किसी अनगढ़ हीरे की तलाश करनी होगी | पर कहीं ऐसा तो नहीं कि अपर्णां नें पहले से ही कोई अनगढ़ हीरा चुन लिया हो | जो होगा , जो आयेगा उसका स्वागत है | और मार्ग ही क्या है |
(क्रमशः )

Article 4

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गतांक से आगे -

                                               आत्मज्ञानी कहते हैं अपनें को जानना ही सबसे बड़ा ज्ञान है |  'अहं ब्रम्हास्मि  "में तो कुछ दंम्भ उमड़ता हुआ दिखायी पड़ता है पर ' know thy self 'में विनम्रता के साथ अन्तर निरीक्षण का भाव छिपा हुआ है | व्यक्ति कई बार स्वयं नहीं जान पाता है कि वह कोई काम क्यों कर रहा है | शायद मैं भी जब राजधानी क्षेत्र के उस कालेज में साक्षात्कार के लिये गया तो मैं अपनें अन्तरमन में छिपी उस अज्ञात प्रेरणा से परिचित नहीं था जो मुझे साक्षात्कार तक खींच कर ले गयी थी | आज मैं जानता हूँ कि शायद मैं जिस कालेज में था उसे छोड़ना नहीं चाहता था पर कहीं मेरे अन्तर मन  में यह चाह छिपी थी कि मुझे औरों से बढ़कर एक विशेष पहचान मिले | यह चाह  साक्षात्कार द्वारा नियुक्ति पत्र पाकर , रिजिगनेशन देकर और परिणाम स्वरूप मैनेजमेन्ट से मान्यता पाकर पूरी हुयी | मेरे सामान्य जीवन की यह एक लघु घटना है पर महानायक भी कई बार यह बात नहीं जानते कि उनके किसी महत कार्य के पीछे अन्तस चेतन में छिपी कौन सी मूल प्रेरणां काम कर रही है | मेरे एक साथी मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर डा ० प्रमिला पाल कई बार कह उठती थीं कि दशरथ पुत्र राम का लंका विजय का अभियान केवल सीता को अपनें पास लाने का ही अभियान नहीं था | उसमें कहीं एक प्रेरणां और काम कर रही थी | वह प्रेरणां थी जन समुदाय के समक्ष इस ठोस प्रमाण को प्रस्तुत करनें की कि उनके मन में राज्य के सिंहासन पर बैठनें की कोई इच्छा नहीं है | चित्रकूट में जावाल नें राम को राजी करने के लिये जो तर्क दिये थे वे तर्क जन सामान्य के समझ के अनुकूल ही थे | महापुरुष राम जानते थे कि सामान्य जन शायद अब भी यह सोचता हो कि श्री राम के भीतर हो सकता है सिंहासन पर बैठनें की कोई इच्छा दब -छिप कर बैठी हो | एक अत्यन्त वैभवशाली राज्य को विजित कर और उसे सम्पूर्ण तटस्थता के साथ अपनें मित्र को सौंप देना इस बात का सबसे ठोस प्रमाण था कि सत्ता सुख की लेश मात्र भावना भी मर्यादा पुरुषोत्तम के मन में नहीं है हाँ यदि समस्त मानव कल्याण के लिये सम्मिलित और सामूहिक जनभावना उन्हें कोई चुनौती भरा उत्तरदायित्व देती है तो उसको स्वीकार करना सच्चा पुरुषार्थ ही होगा | तो अध्ययन अध्यापन का कार्य साफ़ सुथरी पटरियों पर फिर से दौड़ पड़ा पर अब सबसे छोटे पुत्र को छोड़कर उनसे बड़े तीनों आत्म -अंश वयस्क हो गये थे | | बड़े राकेश की नाटकीय उपलब्धियां उसको घेर कर रहस्य भरी रोमांसों की श्रष्टि कर रही थीं पर इसी बीच पुत्री अपर्णां के संम्बन्ध में भी कुछ युवाओं से परिचय घनिष्ठता की बात सुननें में आयी | पुरुष होनें और पिता होनें का गौरव पा जानें के बाद मैं यह जानता हूँ कि यौवन के द्वार पर पहुँच जानें वाली आकर्षित युवतियां मनगढंत चर्चा का विषय बनाकर रोमान्टिक मनोविनोद की सृष्टि करती रहती हैं | कई बार मैनें न केवल पढ़ा है बल्कि अपनें अनुभव के दायरे में भी यह पाया है कि कि पुरुष हंसमुख मिलनसार और आधुनिक जीवन मूल्यों से सम्पन्न युवतियों के सहज मित्र व्यवहार को भी रोमान्टिक चश्में से देखनें लगते हैं | प्रकृति नें नारी के माध्यम से सृष्टि विस्तार की जो योजना बनायी थी उसको हजारों वर्षों की मानव सभ्यता नें न जानें कितनी चमकदार और समाजोपयोगी परतें चढ़ाकर नारी जीवन की सहजता को नाटकीय विम्बों से भरपूर कर दिया है | सन्तानोत्पत्ति के लिये मिलन का प्यार भले ही उसकी सबसे उद्दाम प्रकृति हो पर भाई के प्रति उसका प्यार भी कम तीब्र नहीं कहा जा सकता पर पति के परिवार में देवर या अन्य संम्बन्धी जैसे नन्दोई आदि इनसे भी उसे गहरे रागात्मक संम्बन्ध जोड़ने होते हैं | भारतीय संस्कृति में सहस्त्रों वर्षों की अपनी गौरव पूर्ण यात्रा में प्यार को विविध स्तरों पर जीनें की यह कला भारतीय नारी को भलीभांति सिखा दी है | कहा जा सकता है कि दूध के  पहले घूँट के साथ ही भारत में जन्मी कन्या बड़ी होकर नारी के रूप में विभिन्न स्तरों पर मर्यादित ढंग से जीकर नारी जीवन को एक अतिरिक्त सार्थकता प्रदान करती है | पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध हमें कुछ देर के लिये छलावे की दुनिया में भले ही ले जाये  पर सत्य यह है कि भारतीय जीवन पद्धति में ढला नारी आचरण ही मानव सभ्यता को एक टिकाऊ नींव दे सकता है | यही कारण है कि अंग्रेजी के दैनिक अखबारों में निरन्तर यह खबरें छपती रहती हैं ,कि विदेश में बसे हुये भारतीय मूल के नागरिक अपनें बच्चों को विदेशी संस्कृति के असामाजिक यौनाचारों से दूर रखना चाहते हैं | और यह तो सर्वविदित ही है कि बड़े बूढ़े अपनें बच्चों के लिये बहुओं की तलाश में भारत की गलियों की ख़ाक छानते रहते हैं | तो मेरे हठ के कारण अपर्णां को एम. ए. अंग्रेजी में एडमीशन लेनें को राजी होना पड़ा | उसनें अपनी माँ से कहा था कि पहले वह बी. एड. करना चाहेगी | और फिर किसी सामाजिक विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएट होनें की बात सोचेगी | उसकी माँ को भी अंग्रेजी से कभी कोई लगाव नहीं रहा था | यह दूसरी बात है सुनते -सुनते वह बातचीत में वह अंग्रेजी के कुछ उल्टे -सीधे शब्द प्रयोग करने लगी थी | प्रारंम्भ में अपर्णां ने बताया कि शैक्सपियर के नाटकों की अंग्रेजी उसे समझ में नहीं आ रही है |  और तो और उनके ड्रामा ओथैलो में Moor का उच्चारण कोई मूर करता है और  कोई मुअर | मैनें उसे कभी यह नहीं बताया कि कौन सा उच्चारण ठीक है | बाद में उसनें स्वयं ही जान लिया कि सही उच्चारण कौन होना चाहिये | मेरे घर पर  बड़े पुत्र राकेश के कुछ मित्र भी कई बार आ जाया करते थे | इसी मित्र मण्डली में एक युवक डा. प्रशान्त शुक्ला भी शामिल था | उसके पिता या कोई निकट सम्बन्धी हरियाणा राज्य के पलवल नगर के एक कालेज में अध्यापक थे | प्रशान्त नें  बी. ए. एम. एस. किया था पर उसकी अभिरुचि साहित्य में भी थी और नाटकों में भी वह थोड़ी बहुत पैठ रखता था | उसनें शायद एकाध हरियाणवी फिल्म में कोई छोटा -मोटा रोल भी किया था | बी.  ए.एम. एस. के कुछ और विद्यार्थी भी मेरे यहाँ आनें जानें लगे थे क्योंकि उन्हें पढानें वाले दो डाक्टर जो पति -पत्नी थे हमारे घर के सामनें एक अच्छा मकान किराये पर लेकर रह रहे थे | प्रशान्त शुक्ला की मित्र मण्डली में एक और पंजाबी नवयुवक शामिल हो गया था | जिसनें कुछ ही दिन पहले अपनी Internship पूरी करके बी. ए. एम. एस. की डिग्री ली थी | यह एक मेधावी और स्वरूपवान छात्र था पर संम्भवतः उचित Parental Supervision न पानें के कारण नर -नारी के प्यार के गहरे अर्थों से अपरिचित था |इस नवयुवक का नाम था रमेश अलवाधी | डा ० अलवाधी की एक चचेरी बहिन अपर्णां के साथ एम. ए. अंग्रेजी के प्रथम वर्ष में सहपाठिनी थी | वह भी कभी -कभी अपर्णां के साथ घर पर आ जाती थी | डा. प्रशान्त शुक्ला नें एक दिन मुझसे नवयुवक डा. रमेश अलवाधी की मदद करनें को कहा | मैनें पूछा कि उसे किस मदद की आवश्यकता है तो उसनें बताया कि वो आपके इस मुहल्ले के आसपास ही किसी अच्छी सिचवेशन में दो कमरे लेकर अपना क्लीनिक खोलना चाहता है | वह मेरा मित्र है और मैं जानता  हूँ कि वह चरित्रवान लड़का है | यहीं मेन सड़क पर देवेन्द्र सिंह चौहान का मकान है उनके आगे के दोनों कमरों में पहले डा. अत्री अपना क्लीनिक चलाते थे पर उन्हें अब सरकारी नौकरी मिल गयी और वे दोनों कमरे खाली पड़े हैं | चौहान साहब कहते हैं कि वे कमरे तो किराये पर दे देंगें पर किसी प्रतिष्ठित आदमी से जो डा. यहां आयेगा उसके चरित्र की गारन्टी दिला दें मैनें चौहान जी से पूछा था वे कहते थे कि अवस्थी जी यदि कह दें तो मैं दोनों कमरे किराये पर दे दूंगा | बड़े मौके की जगह है साथ ही आप पास में हैं कोई जरूरत पड़ जाये तो रमेश अलवाधी सदैव आपकी सेवा को तत्पर रहेगा | रमेश और उसकी चचेरी बहन को मैनें बड़े बेटे और अपर्णां के साथ एकाध बार देखा था | मुझे लगा कि जिस नवयुवक नें अच्छे अंकों में बी. ए. एम. एस. पास किया है उसका आचरण तो ठीक होगा ही और मैनें चौहान साहब से कहकर वे कमरे डा. रमेश अलवाधी को दिलवा दिये | उसका काम चल निकला उसनें अपनें साथ एक सहायक भी जोड़ लिया | मुहल्ले भर में उसकी तारीफ़ होनें लगी | शहर के अन्य भागों  से भी मरीज उसके पास इलाज के लिये आनें लगे | इधर रमेश की चचेरी बहन कामना और अपर्णां काफी घुलमिल गयीं | कामना शायद बड़े बेटे राकेश की नाटक मण्डली में सम्मिलित यूनिवर्सिटी की छात्राओं को भी जानती थी और उनसे मिलती -जुलती रहती थी | अपर्णां कई बार कामना के साथ रमेश की क्लीनिक में भी हो आती थी घर में यदि अपर्णा की माँ को कोई छोटी -मोटी तकलीफ हो जाती थी तो सूचना पाकर रमेश तुरन्त हाजिर हो जाता था और उपचार में लग जाता था और इसप्रकार वह धीरे -धीरे घर का ही सदस्य माना जानें लगा | राकेश से छोटे मेरे पुत्र नें ग्रेजुएशन के बाद ला करनें का मन लिया था और वह अब एल. एल. बी. के दूसरे वर्ष में था |  वह वेट लिफ्टिंग और बॉक्सिंग में कई इनाम हासिल कर चुका था | मैनें सोचा कि ला करने के बाद वह Judiciryमें जानें की बात सोचेगा | पर जिन मित्रों में वह रहता था वे सब भारतीय सेना में कमीशन के इच्छुक थे | इसलिये धीरे -धीरे उसनें भी शार्ट सर्विस कमीशन में जानें का मन बना लिया था | मैनें उससे यह कह रखा था कि एल. एल. बी.का कोर्स पूरा होनें के बाद ही कमीशन की लिखित परीक्षा दे | मैं सोचता था कि ला ग्रेजुएट होनें के बाद आगे बढ़ने के कुछ और रास्ते भी खुल सकते हैं | रमेश मनीषा के इस बाक्सर भाई की बड़ी तारीफ़ करता था और कहता था कि उसके आगे बढनें की बहुत संम्भावनायें है | लगभग एक वर्ष पूरा होनें को आ गया | मनीषा नें इम्तहान दे दिया पर उसनें बताया कि उसका एक पेपर अच्छा नहीं हुआ है पर क्या पता उसमें री एपियर आ जाये  | शायद मई या जून में यह इम्तहान समाप्त हुये होंगें | इम्तहान समाप्त होनें के दिन रमेश की बहन कल्पना भी अपर्णां के साथ घर पर आयी | वह काफी देर घर पर रही और शाम को दोनों शापिंग के लिये बाजार में निकल गयी हों , हो सकता है वहां उन्होंने जीभ स्वाद के लिये कडुआ -मीठा खाया पिया हो क्योंकि उसी रात को अपर्णां को ज्वर हो आया |
(क्रमशः )

Article 3

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गतांक से आगे -

                                      इम्तहान की पूरी थकावट और फिर पकौड़े , दही , भल्ले और गोल -गप्पे | एक दो दिन उसनें कोई दवा नहीं ली और बहाना करती रही कि वह बिल्कुल ठीक है | तीसरे दिन मैनें उसके कमरे में उसे उदास पड़े हुये देखा तो मैनें पूछा कि क्या बात है | उसनें कहा, "कुछ नहीं ठीक हूँ | थोड़ा आराम कर रही हूँ | थकावट सी है |"मैनें उसके सिर पर हाँथ रखा तो पाया कि माथा जल रहा है | कलाई पकड़ कर नब्ज देखी तो जान गया कि बहुत तेज बुखार है | मैनें कहा कि मैं दूसरे कमरे में बैठा हूँ | कपड़े  बदल ले | चल मेरे साथ अभी राकेश का क्लीनिक खुला होगा | लगता है कुछ इन्फेक्शन है | ठुनकी भी आ रही है शायद इन्जेक्शन लेना होगा | मेरी बात मानकर अपर्णां मेरे साथ क्लीनिक पहुँची | रमेश दो तीन मरीजों को अपनी जगह बैठा छोड़कर मुझे और अपर्णां को अन्दर के कमरे में ले गया | हाल चाल पूछा ,आला लगाकर धड़कन देखी , टैम्परेचर लिया और कहा कोई बात नहीं है | मैं इन्जेक्शन दे देता हूँ और तीन दिन की दवा भी चौथे दिन अपर्णां आकर मुझे  बता जायेगी और शायद तब तक ठीक ही हो जाये  | मैं निश्चिन्त होकर अपर्णां के साथ लौट आया | एक बार तो बुखार कुछ उतरा हुआ सा लगा पर रात्रि के दस ग्यारह बजे फिर बढ़ गया | अपर्णा दवा खाती रही कभी बुखार कम  हो जाता कभी बढ़ जाता | तीन दिन बीत गये | मैं चिन्ता में पड़ गया | किसी जरूरी काम से मुझे कालेज जाना था इसलिये मैनें अपर्णां की मां से कहा कि राकेश के साथ इसे रमेश के क्लीनिक पर भेज देना | दस बजे के आस -पास क्लीनिक खुलता है | भूल मत जाना शायद एकाध इन्जेक्शन और लेना होगा | कालेज से  बारह बजे मैनें घर पर फोन किया और अपर्णां की माँ से पूछा कि अपर्णां क्लीनिक गयी या नहीं तो अपर्णां की  माँ ने बताया कि राकेश के दोस्त आ गये थे और उनके साथ वह कहीं चला गया है कहता था अपर्णां   अकेली चली जायेगी पर वह अकेली जानें को राजी नहीं होती | मैनें कहा अपर्णां को फोन पर बुलाओ | अपर्णां फोन पर आयी और उसनें टूटी सी आवाज में कहा हाँ पिताजी मैं अपर्णां हूँ | मैनें उससे कहा , "बेटे क्या बात है तुम क्लीनिक क्यों नहीं गयीं | "राकेश तुम्हारे साथ न भी हो तो क्या रमेश भी घर का लड़का है तुम्हारे भाई जैसा है | तुम एम.ए. अंग्रेजी में पढ़ती हो और वह एक डाक्टर है | जाओ तुरन्त क्लीनिक में जाओ क्योंकि क्लीनिक बन्द होनें का समय होनें वाला है | मैनें फोन रख दिया जानता था कि अपर्णां अब जायेगी ही | उस दिन कालेज में किसी होने वाले समारोह के संम्बन्ध  में   मीटिंग बुलायी गयी थी | मैं काफी लेट घर पहुंचा | लगभग चार बजे होंगें अपर्णां की माँ नें घर में घुसते ही मुझसे  कहा   कि अपर्णां अपनें कमरे में पडी है और रो रही है | मैनें कहा क्या बात है ? क्या तबियत ज्यादा खराब हो गयी और मैं उन्हीं कपड़ों में अपर्णां के कमरे में पहुँच गया | वह उठकर बैठ गयी और रोने लगी | मेरे पीछे -पीछे उसकी माँ भी आयी और उसके पास पड़ी चारपायी पर बैठ गयी मैं सामनें पड़ी कुर्सी पर बैठ गया | मैनें फिर कहा  अपर्णां बोलो  रोती क्यों हो ? मैं बताती  हूँ अपर्णां क्यों रो रही है | तुम्हें दुनिया की कोई समझ नहीं है ,तुम सबको अपनी ही तरह साफ़ -सुथरा समझते हो | सिनेमा नें आजकल के इन नये लौंडों को बिगाड़ दिया है | जब अपर्णां गयी तो क्लीनिक बन्द होनें को था रमेश का सहयोगी भी चला गया था | रमेश नें कहा बुखार नहीं उतरा और उसनें अपर्णां का हाँथ पकड़ कर देखा और कहा तेज बुखार है अन्दर चलो इन्जेक्शन लगाना होगा | अपर्णां नें कहा लो  मैं बांह की आस्तीन उठाती हूँ यहीं इन्जेक्शन लगा दो उसनें कहा नहीं पूरे असर के लिये बड़ा इन्जेक्शन लगाना पड़ेगा ,अन्दर चलो | अपर्णां अन्दर के कमरे में गयी तो तो उसनें बाहर के कमरे का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया | फिर वह भीतर के कमरे में आया और बोला , "अपर्णां मैं तुमसे  प्यार करता हूँ | मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ | तुम हाँ कर दो तो मैं तुम्हारे पापा से बात करूँ | अपर्णां गुस्से से फूट पड़ी उसनें कहा बेशर्म नीच भाई होकर इस प्रकार की गन्दी बात करता है | रमेश नें कहा अच्छा बुरा मत मानों | मैं पूरे असर के लिये जांघ में इन्जेक्शन लगाऊंगा ,सलवार हटानी पड़ेगी | अपर्णां नीचे उतर आयी और कमरे में रखा हुआ एक गुलदान उसके मुंह पर उठाकर  मार दिया फिर झपट कर बाहर वाले कमरे में आयी | बन्द सिटकनी खोली और सड़क पर से भागकर घर आ गयी | "
                              अपर्णां की माँ नें आगे कहा , "इस हरामजादे को कुत्तों से नुचवाऊंगी | राकेश को घर आ जानें दो | "मैं स्थिति की गंभ्भीरता को भांप गया | मैं जान गया कि डा ० रमेश नें एक दांव खेला था अगर अपर्णां उसकी चाल में फंस जाती तो जीवन भर के लिये आत्मग्लानि उसका पीछा नहीं छोड़ती | 'शाबाश अपर्णां 'मैनें मन ही मन कहा और फिर अपर्णां की माँ से बोला , "इस बात का जिकर तीनों भाइयों से मत करना | "उसनें कहा क्यों भाई किसलिये होते हैं ? हरामजादे की बोटी -बोटी कटवा दूंगीं | मैनें कहा , "देवी खून -खराबे से काम नहीं बनेगा | इस मामले को मुझपर छोड़ो देखो मैं इसको कैसे रफा -दफा करता हूँ | "
                              मैं जानता था कि रमेश हो सकता है कुछ दिन के लिये शहर छोड़कर बाहर चला जाये | वह डर रहा होगा कि अगर अपर्णां के भाइयों को कहीं  पता चला तो वह कहीं का नहीं रहेगा | मैनें तुरन्त ही एक फैसला करने का कारगर प्लान तैय्यार किया | मैनें फोन उठाकर कालेज को रिंग अप किया तो कुछ घण्टियों के बाद चपरासी राम कृष्ण की आवाज आयी | उसनें कहा सब दफ्तर से जा चुके हैं | मैं अब दफ्तर बन्द कर घर की ओर चलनें वाला था | | मैनें कहा देखो रामकृष्ण मुझे एक बहुत जरूरी काम है तुम घर न जाकर सीधे मेरे घर पर आ जाओ | मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है |
                                    जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ चपरासी रामकृष्ण एक बहुत समझदार और विश्वसनीय व्यक्ति था | प्रौढ़ अवस्था में भी वह किसी भी तरुण से अधिक तेजी से काम करनें की क्षमता रखता था | उसके आते ही मैनें उसको डा. प्रशान्त शुक्ला की क्लीनिक का पता दिया और कहा कि प्रशान्त क्लीनिक के  ही ऊपर वाली मंजिल  में रहता है |   उससे तुरन्त कहो कि मैनें उसे बुलाया है और वह साथ में रमेश अलवाधी को भी पकड़ कर लाये | बात बहुत गंभ्भीर है वरना पुलिस दरवाजे पर पहुँच जायेगी | बिजली की तेजी से रामकृष्ण अपनी साइकिल पर चढ़कर प्रशान्त शुक्ला के पास जा पहुंचा | हुआ यों कि रमेश अलवाधी भी प्रशान्त के पास ही बैठा था और शायद उसे अपनी की हुयी गलती के बारे में बता चुका था | रामकृष्ण का सन्देश पाते ही प्रशान्त और रमेश साथ -साथ रिक्शे पर बैठकर दरवाजे पर आ गये | अन्दर आते ही अलवाधी मेरे पैरों पर गिर पड़ा मैनें प्रशान्त को उसे उठानें के लिये कहा | फिर मैनें प्रशान्त से पूछा इसनें तुम्हें सब कुछ बता दिया है | प्रशान्त नें कहा हाँ सर और इसनें यह भी कहा है कि जूते मार -मार कर उसके सिर के बाल उड़ा दिये जांये तो भी इसकी गल्ती का प्रायश्चित नहीं होगा | मैनें कहा प्रशान्त तुम्हारे ऊपर विश्वास करके ही रमेश को मैनें घर के सदस्य के रूप में मान लिया था | अब तुम्हीं इस बात का फैसला करो कि क्या किया जाये | अभी तक अपर्णां के भाइयों को इस घटना का पता नहीं है | मैं चाहूंगा कि उन्हें पता न चले और यह घटना यहीं समाप्त हो जाये | प्रशान्त नें कहा सर आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दे दें इसे स्वीकार है | मैनें कहा इसका मेडिकल रजिस्ट्रेशन पुलिस में एक रिपोर्ट दर्ज कराते ही समाप्त हो जायेगा | जीवन भर प्रेक्टिस नहीं कर पायेगा | सडकों पर डिग्री के बावजूद मारा -मारा फिरेगा और घर में भी व्यभिचारी होनें के कारण घुस नहीं सकेगा पर मैं ऐसा नहीं चाहता यह एक अच्छा डाक्टर है इसके परिवार में भी अपराध की कोई कथा नहीं है न जानें कैसे यह अपना संयम खो बैठा | मेरे इतना कहते ही रमेश अलवाधी फूट -फूट कर रो पड़ा फिर मेरे पैरों पर गिर पड़ा और बोला सर मेरे सिर पर जूते मारिये मैं तो कुत्ते से भी गया बीता हूँ | कुत्ता भी अपनें पराये को जानता है | हे भगवान् यह मैनें क्या किया ?

                       मैनें कहा प्रशान्त मैं न तो यह खबर बच्चों तक पहुंचने दूंगा न पुलिस में इसकी खबर और किसी को भी  नहीं हो पायेगी मैं एक कागज और कलम देता हूँ और जो बोलता  जाता  हूँ लिखता जाये मेज पर पड़े रजिस्टर में | मैनें बोलना और रमेश नें लिखना शुरू किया | अंग्रेजी की दो एक गल्तियां तो रमेश से हो गयीं पर बाकी जो कुछ मैनें कहा सभी उसनें उसी प्रकार लिख दिया | उसके हाँथ से लिखा हुआ उसके अपराध का वह स्वीकृति पत्र Confession अब तक मेरे पास सुरक्षित है | मैनें उससे कहा था कि जिस दिन उसके आचरण के विषय में छोटी -मोटी शिकायत भी सुननें को मिली तो उसी दिन उसका यह Confession सिविल सर्जन के द्वारा Board of Aurvedic Medicine में भेज दिया जायेगा और उसका Registration कैन्सिल हो जायेगा | फिर मैनें प्रशान्त से कहा कि अब तुम रमेश को ले जा सकते हो पर उसनें कहा नहीं जब तक मैं अपनी बहिन के पैरों पर गिरकर माफी नहीं मांग लेता और वह मुझे माफ़ नहीं कर देती तब तक मैं अपनें को इन्सान कहलानें का हकदार नहीं हूँगा | सर आप मेरी माता जी और बहिन जी को यहां ड्राइंग रूम में बुला लीजिये | मैनें आवाज दी तो अपर्णां की माँ आ गयी  और   सोफे पर बैठ गयी | अलवाधी उनके पैरों पर लोट गया और रोनें लगा बोला माताजी अपनें इस पापी बेटे को क्षमा कर दो |
                             भारतीय स्त्रियां अपराध पर क्रोध करना भी जानती हैं और प्रायश्चित करने वाले को क्षमा कर देना भी उनके स्वभाव में सहज रूप से निहित है | अपर्णां की माँ नें उसके सिर पर हाँथ रखकर कहा उठ बेटे हमनें अपनी और अपर्णां की ओर से माफ़ किया | आगे अपनें मां बाप के नाम को फिर कभी बदनाम न करना |
                           रमेश अब भी बैठा था आखिर अपर्णां की माँ नें अपर्णां को बुलाया | वह आयी और माँ के पास बैठ गयी | अपर्णां के पैरों पर सिर रखकर रमेश ने कहा आप मेरी छोटी बहन हैं | मैं कसम खाकर कहता हूँ कि आख़िरी सांस तक आपके सम्मान की रक्षा करूँगां | आप सचमुच ही एक ऊँचें खानदान की बेटी हैं | मुझे क्षमा करो अपर्णां ,अपर्णां कुछ नहीं बोली हाँ उसकी माँ नें कहा रमेश उठो | गिरकर ही आदमी उंचाई की ओर उठना सीखता है | हम तुम्हें अब भी अपर्णां का भाई  ही मान कर चलते रहेंगें |
                         रमेश नें कहा माता जी मैं कल सुबह अहमदाबाद जा रहा हूँ | वहां मेरे मामा जी  एक क्लीनिक चलाते हैं | मैं उन्हीं के साथ बैठूंगा |इस क्लीनिक का सब हिसाब -किताब मैनें कर दिया है | आज शाम तक दोनों कमरे खाली हो जायेंगें | यदि कभी कुछ बन सका और अपर्णा मुझे अपना भाई माननें में कोई हेठी न समझे तो मैं मातृ चरणों में आकर सिर नवाऊँगा | यह कहकर वह उठ खड़ा हुआ | मुझे लगा कि शायद हमारे इस निर्णय से एक भटका हुआ अच्छा डाक्टर फिर से समाज सेवा के मार्ग में लग जायेगा | पर अभी तो घटनाओं का क्रम शुरू ही हुआ था | लग रहा था एक के बाद एक कोई न कोई रोमान्टिक प्रसंग अपनी उलझनें लेकर हमारे सामनें आता ही रहेगा | शाम को सात बजे के करीब कैप्टन जबर सिंह की गाड़ी दरवाजे के आगे रुकी और दो नायिकाओं के साथ नायक राकेश नें गृह द्वार से प्रवेश किया | छत पर बाहरी गलियारे से मैनें एक लुकी -छिपी झांकी ली और कमरे में आकर दीवान पर लेट गया | क्या कोई नया शगूफा खिलनें वाला है | पहला वार तो अपर्णां की माँ को झेलनें दो फिर आगे की तय्यारी के लिये यदि मेरी पुकार होगी तो सोचा जायेगा |
( क्रमशः )                

Article 2

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गतांक से आगे -

                                               उर्वशी -पुरुखा , मेनका  ,विश्वामित्र ,आख्यानों की श्रंखला में रूप जीवा नारियाँ प्रणव को जीवन भर का बोझ नहीं बनातीं | ऐसी ही आख्याकिकायें घृताची , तिलोत्तमा और त्वरित छटा आदि रूप जीवावों  के साथ जोड़ दी गयी हैं | आज भी हॉलीवुड , वालीवुड , टॉलीवुड और मालीवुड की तारिकाओं के साथ ऐसी ही कहानियां रोमांस और सतरंगी चूनर ओढ़कर जुड़ी रहती हैं | भ्रष्टाचार की तरह यौनाचार का विषाणु भी ऊपर से नीचे की ओर फैलता चला जाता है | कहते हैं देवलोक में रोमांस की अवधारणां पाप पुण्यं से मुक्त होकर एक निराले आनन्द के रूप में सदैव प्रभावित होती रहती है | इस परम आनन्द की अनुभूति किसी सामाजिक बन्धन में नहीं बंधती | यह तो सर्वथा मुक्त तरंगायित वायु लहरियों की भांति जीवन के कण -कण को स्पन्दित करती रहती है | कुछ ऐसा ही तो हो रहा है मेरे पुत्रों और पुत्री के साथ | पर क्या ऐसा मेरे साथ भी हुआ था , पर क्या ऐसा सभी के साथ होता है | सभी के साथ होता हो या न होता हो पर मेरे जीवन में तो ऐसा हुआ ही था | कहीं ऐसा तो नहीं कि जीन्स के द्वारा रोमान्स का यह रोग मेरे बच्चों तक उतर आया है | पर इन बच्चों की माँ तो सर्वथा अनरोमान्टिक है | घिसी -पिटी परम्परा से पाये एक पुरुष के अतिरिक्त उसनें और किसी पुरुष के रोमान्टिक सहचर्य का परिचय ही नहीं किया | फिर उसके जीन्स बच्चों तक क्यों नहीं पहुंचें | हाँ अपर्णां में तो उनकी कुछ झलक मिलती है | हाय , कहाँ गये वे कच्ची तरुणायी के दिन जब किसी रूपवान किशोरी का सानिध्य पुलक की एक अनूठी अनुभूति नस नस में भर देता था | कई बार तो उम्र का अन्तर भी रोमान्स की आग को मन्द नहीं करता | मानव शरीर विकास के अध्येता यह कहते सुने जाते हैं कि 15 -16 और 35 -36 के बीच की उमर उछाभ आवेग की उमर होती है और इस दौरान दो चार वर्ष की उम्र का अन्तर कोई मायनें नहीं रखता | 18 -19  का नवयुवक और 21 -22  की तरुणीं उसी सखा भाव से मिलते हैं जिस प्रकार 21 -22  का तरुण और 18 -19  की तरुणीं | पश्चिमी देशों में तो ऐसे तरुण युग्मों का रोमांस अनचाहे बच्चे के भारी भरकम बोझ को उठानें के लिये वहां की सरकारों को बाध्य कर रहा है | भारत में अभी तक इसको सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली है पर फिजा का रंग बदलता दिखायी पड़ रहा है | मन की गति अबाध होनें के साथ अबूझ भी है | तभी तो मैं काम चेतना की दार्शनिक गहरायी में उलझनें लगा हूँ | स्मृति पटल पर एक  कौंध भरी नारी छवि क्यों उभरकर आनें लगी है | आधी शताब्दी से भी अधिक पीछे मुड़कर  भागता मन अश्व  क्यों नहीं रुक  पा रहा है ? इसे किस विश्रामस्थल तक जाना है | अरे हाँ , यह तो दरिया गंज की वह सकरी गली है जहां पर मैं किसी को अंग्रेजी पढानें जाता था | नहीं जनता कि कामनी कहाँ और कैसे है ? कौन जानें वह है भी या नहीं ? पर मैं तो अभी भाव वारिधि में फंस ही रहा हूँ | छह दशकों से ऊपर के इस अन्तराल में कितनें मधुर और कसैले अनुभवों के बीच से गुजरा हूँ उसका क्रम बद्ध लेखा -जोखा भी तो मस्तिष्क की तान्त्रिकायें स्मृति पटल पर उभार नहीं रही हैं | जीवन में सब कुछ निरर्थक सा होता जा रहा है | महाकवि निराला की पंक्तियाँ उभरकर चेतना के किसी स्तर पर ध्वनित हो रही हैं |
                                    "आम की यह डाल जो सूखी दिखी
                                       अब नहीं आते यहाँ पिक या शिखी
                                      पंक्ति में वह हूँ लिखी
                                      अर्थ जिसका  अब नहीं  कुछ रह गया है
                                      स्नेह निर्झर बह गया है | "
            कामनी के पिता एल. आई. सी. के एजेन्ट थे अपनें अथक परिश्रम से उन्होंने अच्छा खासा धन अर्जित कर लिया था | एल. आई. सी. की तरफ से आने वाले कई ऊँचे ऑफर उन्होंने इसलिये रिजेक्ट कर दिये थे क्योंकि बड़े लोगों के बीच उनकी पहुंच से उन्हें इतनें क्लाइन्ट मिल जाते थे जिनसे उन्हें अच्छी से अच्छी नौकरी से अधिक की आमदनी हो रही थी | अपनी कार्य व्यस्तता के बीच उनके पास इतना समय न था कि वे कामनी के साथ बैठते |  माँ सरल सीधी गृहणीं थीं | कामनी का छोटा भाई अभी आठवीं में पढ़ रहा था | कामनी के पिता अरविन्द शुक्ला नें अपनें एक साथी जो दिल्ली कालेज में प्राध्यापक थे से एक ऐसे विद्यार्थी शिक्षक की मांग की थी जो हाई स्कूल पास कर इन्टर ज्वाइन करनें वाली कामिनी को अंग्रेजी  , समाजशास्त्र , हिन्दी और भूगोल का अच्छा ज्ञान करवाये | बी. ए. के अन्तिम वर्ष में पहुँच जानें के कारण और अपनी कक्षा में श्रेष्ठतम माना जानें के कारण कालेज के प्राध्यापक मुझे पहचाननें लगे थे | मेरे रहन सहन से और कुर्ता -धोती के पहनावे से वे जान गये थे कि मैं संम्पन्न परिवार से नहीं आया हूँ | अरविन्द शुक्ला के प्राध्यापक मित्र नें उन्हें मेरा नाम सुझाया | मुझे अपनें द्वारा अर्जित आर्थिक आधार की आवश्यकता तो थी ही अतः कामनी का छात्र अध्यापक बनना मुझे अरुचिकर नहीं लगा | आखिर बी. ए. के अन्तिम वर्ष का टापर विद्यार्थी ग्यारहवीं बारहवीं क्लास की सामान्य बुद्धि वाली लड़की को पढानें के योग्य तो था ही | तरुणायीं के द्वार पर खड़ा होनें के कारण मैं यह जाननें लगा था कि शरीर गठन की श्रेष्ठता का दिमाग की श्रेष्ठता से कोई सीधा  संम्बन्ध नहीं होता है | हाई  स्कूल में सेकेण्ड क्लास पाने वाली कामिनी को देखकर मुझे पहली बार कैश्योर्य के द्वार से गुजरते नारी सौन्दर्य के अपार आकर्षण का अनुभव हुआ | प्रकृति जिसे देती है दोनों हाँथों  लुटाती है | 16 -17  वर्ष की कामिनी में मुझे रत्नावली की छवि दिखायी पड़ने लगी |  पर नियम बद्ध मेरा संयमित जीवन आकर्षण के इस प्रहार को झेलनें में पूरी तरह समर्थ था | विषयों का ज्ञान तो मुझे था ही और भाषा कुशलता के कारण मेरी समझानें की क्षमता भी साधारण स्तर से ऊपर की थी | एक महीनें से कम समय में ही कामिनी नें मुझे सच्चे पथ प्रदर्शक के रूप में स्वीकार कर लिया | कुछ महीनों बाद ग्यारहवीं की फाइनल एक्जामिनेशन में कामिनी अपनी क्लास में सर्वश्रेष्ठ छात्रा के रूप में उभर कर आयी | उसके रूप की श्रेष्ठता और उसके मस्तिष्क के परिष्कार दोनों ने मिलकर मणिंकांचन का संयोग प्रस्तुत कर दिया | इन्टरमीडिएट फाइनल का विद्यार्थी बनकर उसके मन में पढ़ायी- लिखायी की ऊंचाई को Extra coricular activities में भाग लेकर और अधिक अलंकृत करनें का विचार उभर आया | कुछ ही महीनों में उसे कई कॉलेजों की Debate प्रतियोगिताओं में पहला इनाम मिला साथ ही क्लासिकल Songs भी उसे भानें लगे | अब क्या था कामिनी की ओर सभी की आँखें लग गयीं | मेरे भीतर भी एक गर्व का भाव जग पड़ा | अब मैं प्रथम श्रेणीं का स्नातक बन चुका था और पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए Anthropology की ओर झुक रहा था | मुझे एक पब्लिशिंग फर्म से शाम के समय दो घण्टे काम करनें का ऑफर मिला |फर्म नें अच्छे खासे पैसे देनें की बात कही और मुझे लगा कि यदि मैं कामिनी को पढानें न भी जाऊँ तो भी मेरा काम चल जायेगा | पर न जानें क्यों मैं मन ही मन कामिनी के साथ बैठकर पढ़ाई की बात चीत करनें वाले एक घण्टे को अपनें उस समय के जीवन का सबसे आनन्द दायक कालखण्ड माननें लगा था | कामिनी नें कभी किसी भी दिन अपनें हाव भाव से यह बात स्पष्ट नहीं की थी | कि वो मुझे अंग्रेजी और समाजशास्त्र के अध्यापक के अतिरिक्त और कुछ भी समझती है | और मैं था भी क्या कुछ पैसों में ट्यूशन पढ़ाने वाले एक छात्र अध्यापक के अलावा ? पर फिर भी मैं भीतर ही भीतर अपनें अहंकार में डूबा था और सोचता था कि मैं असाधारण हूँ और कामिनी मेरे व्यक्तित्व से प्रभावित है | पर जब पब्लिशिंग हाउस से आये हुये ऑफर को और अधिक आकर्षक बनाकर मेरे सामनें लाया गया तो मैनें सुनिश्चित कर लिया कि अब दरियागंज की उस गली से विदायी का समय आ गया है | कामिनी के फाइनल एक्जामिनेशन होनें वाले थे और मुझे विश्वास था कि वह अपनी कक्षा में टाप करेगी और शायद मैरिट लिस्ट में भी आ जाय | यही समय था जब  मुझे उसके माता और पिता से अलविदा मांग लेनी चाहिये | मैं जानता था कि उसके पिता लगभग शाम को आठ बजे घर में  आते हैं इसलिये उस शाम 6  बजे के बजाय 7. 30 के आस -पास दरियागंज के उस ऊपर वाले कमरे में पहुंचा जो कामिनी का स्टडी रूम था | ऐसा लगता है कि काफी देर इन्तजार करनें के बाद कामिनी अपनी माँ के पास चली गयी थी क्योंकि मेज पर कापीं किताबें तो पड़ी थीं पर कामिनी उपस्थित नहीं थी | छोटे भाई नें मेरे आनें की खबर उस तक पहुंचायी और वह चलकर पढ़ने के लिये कमरे में आ बैठी | उसनें मुझे प्रश्न वाचक आँखों  से देखकर यह जानना चाहा कि मैं देर से क्यों आया हूँ | पर मैनें उससे उसके पिता जी के आनें की बात पूछी तो उसनें बताया कि वह आनें ही वाले हैं | मैनें उससे कहा कि मुझे उनसे एक आवश्यक बात कहनी है | कामिनी नें फिर अपनी बड़ी -बड़ी आँखों की पलकें मेरी ओर उठाकर देखा जैसे वह जानना चाहती हो कि पिता जी से क्या बात करनी है | कह नहीं सकता कि मेरा यह सोचना ठीक है या केवल अनुमान मात्र कि कामिनी जान गयी कि मैं अब उसे पढानें नहीं आऊंगा | यद्यपि मैनें इस विषय में विदा के उस अन्तिम दिन तक किसी से भी कोई बातचीत नहीं की थी | कामिनी के पिता जी के आते ही मैनें उनसे मिलना चाहा | उन्होनें मुझे ड्राइंग रूम में बुलाया और कहा , "बेटे क्या बात है | "मैनें उन्हें प्रणाम किया और कहा कि कुछ ही दिनों में कामिनी के इम्तहान होनें वाले हैं | उसकी तैय्यारी पूरी हो चुकी है और अब मैं शाम के समय एक अच्छा काम पा गया हूँ | आज मैं आप से और माता जी से विदा मांगनें आया हूँ | हाँ जाते जाते मैं इतनी बात अवश्य कहना चाहता हूँ कि आगे अब कामिनी को किसी शिक्षक की आवश्यकता ही नहीं है उसकी प्रतिभा उसे स्वयं ही मार्ग दिखा देगी | पिता जी ने कामिनी को ड्राइंग रूम में बुलाया उसकी माँ भी वहां आ गयी | उन दोनों नें मुझसे आग्रह किया कि मैं उनके यहां आता रहूँ और बी. ए. में भी कामिनी को गाइडेन्स देता रहूँ पर मेरे सिर पर न जानें कैसा भूत सवार था कि मैनें उनसे यह कहकर विदा चाही कि अब मैं उनके घर पर न आ सकूंगा | बड़ा होनें के नाते मैनें अपनी शुभकामनायें कामिनी को दीं और उसके माता पिता को प्रणाम कर सीढ़िया उतर कर बाहर आ गया | कुछ देर सड़क पर चलनें के बाद मैं पार्क की ओर बढ़ा और एकान्त स्थल की तलाश कर वहां बैठ गया | न जानें कौन सी गहरी हूक मेरे अन्तर में उठी और मुझे लगा कि मै अपनें जीवन का एक दुर्लभ अवसर खो बैठा हूँ | | मुझको ऐसा लगा कि मैनें कहीं न कहीं कामिनी के अन्तरमन को चोट पहुंचायी है शायद वह अपनें को अपमानित महसूस कर रही है | अब वह बड़ी हो गयी है और मुझे उसके माता पिता से विदा मांगनें के पहले उससे भी बात कर लेनी चाहिये थी | आखिर डेढ़ वर्ष का हमारा अध्ययन अध्यापन का साथ दोनों के लिये कई अर्थों में अत्यन्त लाभदायक रहा था | पर अब तो जो होना था हो चुका | पोस्ट ग्रेजुएशन की चुनौती तो मेरे सामनें थी | ही साथ ही परिवार की कुछ और जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी थी | सोचा कोई रेगुलर काम मिला तो कर लूंगा | उच्च शिक्षा का चक्र यदि कुछ देर के लिये टूटता है तो उसे आगे चलकर स्थिति संम्भल जानें के बाद पुनः गतिमान कर लिया जायेगा | आत्म प्रबोध के साहस का भाव मन में जगाया और कामिनी के शिक्षक के नाते उसके साथ बिताये घण्टें धीरे धीरे समय की धूल  चढ़ाकर धुंधले पड़ते गये | संयोग कहें या भाग्योदय कुछ ही महीनों बाद मुझे कलकत्ता की एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में प्रबन्धक के रूप में चयनित कर लिया गया और दिन के बाद महीनें और महीनों के बाद वर्ष बीतते चले गये | दो ढाई वर्ष बाद शायद जून के महीनें में जब मैं कम्पनी के दफ्तर में कुछ समय निकालकर अखबार देखनें में लगा था तो मेरी निगाह अखबार में छपे कुछ छाया चित्रों पर पड़ी | ये चित्र उन विद्यार्थियों के थे जिन्होनें दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय की बी. ए. परीक्षा में उच्चतम स्थान प्राप्त किये थे | मुझे लगा कि मैरिट में दूसरा स्थान पानें वाली जिस छात्रा का चित्र छपा है वह कामिनी ही है पर अभी तक यह एक अनुमान मात्र ही था क्योंकि जो चित्र मेरी स्मृति में उभर रहा था वह चित्र इस छपे चित्र से कुछ भिन्न था | हो सकता है कि ढाई वर्ष के समय नें कामिनी के नख शिख में कुछ परिवर्तन ला दिया हो | पर दिल्ली यूनिवर्सिटी में तो अत्यन्त प्रतिभावान छात्र -छात्रायें होती हैं उनके बीच इतने ऊचें स्थान पर पहुंचना क्या कामिनी के लिये संम्भव हो पाया होगा | सोच विचार में दिमाग उलझता रहा और बात आयी गयी हो गयी | शरद ऋतु की एक शाम जब मैं कम्पनी के आफिस से उतरकर फुटपाथ पर खड़े होकर टैक्सी के रुकनें का इन्तजार कर रहा था  तो मुझे टूर पर आयी एक बस में बैठी छात्राओं के बीच कामिनी की झलक मिली | मुझे लगा शायद भ्रम ही हो , कि  कामिनी नें मुझे देख लिया और प्रणाम करनें के लिये दोनों हाँथ जोड़े तेजी से जाती हुयी टूरिस्ट बस में मैं इससे अधिक कुछ न देख सका | अगले दिन 11 बजे सुबह के आस पास जब मैं अपनें प्रबन्धक वाले कमरे में बैठा हुआ था और कम्पनी के कुछ छोटे अधिकारियों से बात कर रहा था तो चपरासी नें मुझे बताया कि दो लड़कियां मुझसे मिलनें का इन्तजार कर रही हैं |
( क्रमशः )

                                  

Article 1

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तांक से आगे -

                                             कम्पनी से संम्बन्धित कुछ मामलों पर मैनें उन विभाग  अधिकारियों से बात की और फिर उन्हें विदा किया | मैनें चपरासी को कह दिया था कि ज्यों ही साहब लोग बाहर चले जांय लड़कियों को अन्दर भेज देना | मैं जान गया कि कामिनी नें कल शाम मुझे नीचे खड़ा देखकर कम्पनी का पता नोट कर लिया होगा और आज अपनें किसी फ्रैंड के साथ मुझसे मिलनें चली आयी है | हँसते हुये कामिनी नें अपनी फ्रैंड के साथ कमरे में प्रवेश किया | मैनें बगल में पड़े सोफे पर बैठनें का इशारा किया पर वह और उसकी सहेली मेरे सामनें पड़ी हुयी कुर्सियों पर बैठ गयीं | कामिनी बोली मास्टर  जी आपनें बिना बताये दिल्ली छोड़ दी | वर्षों बीत गये वे अध्यापक भी जो आपके अत्यन्त  नजदीक थे आपका पता नहीं जानते थे | पापा नें आपसे मिलनें की बड़ी कोशिश की पर जब अता -पता ही नहीं तो क्या करते | फिर अपनी फ्रैंड की ओर देखकर कहा यह शिवानी है | हम दोनों Anthropology में एम. ए. कर रहे हैं | इसका फर्स्ट क्लास तो है ही साथ ही क्लासिकल संगीत में गोल्ड मैडल भी मिला है | मैनें शिवानी की ओर बड़े भाई की  वत्सल द्रश्य से देखा और कहा तुम दोनों को अभी बहुत आगे जाना है | फिर मैनें कहा , "कामिनी तुम्हारा चित्र अखबार में छपा था | तुमनें तो कमाल कर दिया | दिल्ली के बी. ए. परीक्षा की मैरिट लिस्ट में दूसरा स्थान पा लेना कितनी बड़ी बात है अपनें परिवार के साथ -साथ तुमनें मेरा सिर भी ऊंचा किया है | आप लोगों का टूर कहाँ जा रहा है | शिवानी बोली हमें दार्जलिंग जाना है दिन भर ठहर कर अगले दिन सन राइज देखेंगें | कहते हैं निकलते हुये सूरज में कंचन जंगा और उसके आस -पास की धवल प्रस्तर मीनारें तथा नीचे घाटी में फैला प्रकृति का अपार हरित वैभव अपनी छटा में इन्द्रलोक को भी मात कर देता है कहते हैं प्रकृति का ऐसा अदभुत द्रश्य संसार में कहीं नहीं है तभी तो अमरीका ,फ्रांस,  इंग्लैण्ड और अन्य योरोपीय देशों के नव विवाहित दम्पति अपनें पर्यटन में दार्जलिंग की पहाड़ी उठानों पर खड़ा होकर सन राइज देखनें का प्रोग्राम अनिवार्य रूप से शामिल करते हैं | फिर वहां से काठमान्डू जाना है | पशुपति नाथ को तो माथा नवाना ही है | साथ ही बुद्ध धर्म के काल चक्र वाले पवित्र पूजा स्थलों पर भी अपनें आदर सुमन अर्पित करनें है | बड़ा मजा आयेगा , मास्टर जी आप भी चलें | डा. सलोनी शर्मा हमारी इन्चार्ज हैं | कामिनी नें उनसे आप की चर्चा की थी बोलीं आपके मास्टर साहब यदि चाहें तो हम उन्हें अपनें टूर में ले सकते हैं| मैनें हँसते हुये कहा अरे शिवानी तू तो अभी से लेक्चरर लग गयी | कितना प्रभावशाली लेक्चर दे लेती है फिर मैनें कामिनी की और देखकर कहा कामिनी तुम तो अब और भी अधिक आकर्षक व्यक्तित्व पा गयी हो | किसी अजनबी को तुम्हें देखकर फिर और कहीं आँखें हटानें का मन ही नहीं करता होगा | एक हल्की लाली कामिनी के कपोलों पर दौड़ गयी | उसनें कहा मास्टर जी आपनें मेरे पढ़ाते समय मेरे रूप की कभी तारीफ़ नहीं की | मुझे हर्ष है कि आज आपनें मुझसे एक मुक्त युवक के रूप में बात की है | मास्टरी का चोंगा पहनकर भारी भरकम बातें ही की जा सकती हैं | फिर उसनें मुस्करा कर पूछा कि मैनें एम. ए. न करके क्या कुछ आगे किया है | मैनें उसे बताया कि नौकरी के कारण मैं रेगुलर एम. बी. ए. तो नहीं कर सका हूँ पर पत्राचार के द्वारा मैनें एम. बी. ए. की डिग्री हासिल कर ली है | और वहां भी न जानें क्यों मुझे टाप पर ही  रख दिया गया | हांलांकि मैं अपनें को इस योग्य नहीं  समझता | प्रबन्धक के रूप में कम्पनी मेरे काम से बहुत खुश है | दक्षिण भारत में भी कम्पनी अपनें पैर पसारना चाहती है | चेन्नई को केन्द्र बनाया जा रहा है | सुननें में आया है कि मुझे वहां पूरे अधिकार देकर कम्पनी के प्रतिनिधि के रूप में भेजा जायेगा | और कामिनी तुमसे तो मैं पढ़ाते समय कहा ही करता था कि भविष्य की आशा और निराशायें तो मन का एक खेलमात्र ही होती हैं | सत्य तो वर्तमान ही है | तुम दोनों के साथ बैठकर जो सुखद अनुभूति मैं अनुभव कर रहा हूँ वह अभी चन्द लम्हों में स्मृति शेष रह जायेगी | कामिनी बोली मास्टर जी आपकी दार्शनिकता अभी तक नहीं गयी | पिता जी आपसे मिलनें को बहुत उत्सुक थे एक वादा करिये चेन्नई जानें से पहले आप पिताजी से आकर मिल लीजिये और आप वहां न जाना चाहें तो पिता जी को अपनें पास बुलाइयेगा | उन्हें आप से एक बहुत जरूरी बात करनी है | बोलिये बचन देते हैं या नहीं | मैनें कहा कामिनी तुम्हारी बात कौन टाल सकता है | कामिनी शिवानी के साथ उठ खड़ी हुयी फिर दोनों हाँथ जोड़कर कहा , "हम दोनों का प्रणाम स्वीकार करें गुरुदेव | "यह कहते हुये वे दोनों हंसकर दफ्तर के बाहर निकल गयीं | कामिनी का वह प्रणाम मेरी चेतना की अगम्य गहराइयों में आज तक न जानें कहाँ छुपा  पड़ा है | आधी शताब्दी से ऊपर हो जानें के बाद भी उसके जुड़े हुये दोनों हाँथ ,उसकी सलज्ज मुखाकृति , उसकी नीची झुकी कमल जैसी आँखें ,बिजली की कौंध की भांति मेरे मन में चमक भरती रहती हैं | घटनाओं पर किसी का वश नहीं है | मनुष्यों के निर्णय घास -फूस की तरह घटनाओं की आकस्मिक तूफ़ान में उड़ जाते हैं | कामिनी मेरे जीवन में नहीं आ पायी पर उसकी जगह जो आया उसनें मुझे कभी   इतना कुछ दिया है कि कामिनी अब मेरे लिये एक अमूर्त ,अविस्मरणीय , जीवन स्पन्दन के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह पायी है | पर मैं तो अभी हूँ -काया के कटघरे में घिरा एक बन्दी प्राणतत्व ,पर वो अभी बन्दी है या आकाश गंगाओं की तारिकाओं में विहर रही  है कौन जानें ?
                                  हाँ उसके पिता मुझसे एक जरूरी बात करना चाहते थे | पर प्रियम्बदा के पिता कैप्टन जबर सिंह क्या मेरे प्रथम जन्मा पुत्र राकेश से कुछ जरूरी बात करना चाहेंगें | समाचार पत्र तो मुझे यही बताते हैं कि कि दिल्ली में लगे राजधानी क्षेत्र में न जानें कितनी आत्महत्यायें , कितनें आनर किलिंग्स और कितनें ग्राम्य निष्कासन जाति , गोत्र और पूजा पद्धतियों के विरोध को लेकर होते रहते हैं | रोमांस भी मानव विकास में एक अदभुत शक्ति बनकर निखरा है | प्राणों की बलि देकर अपनें प्रिय को पा लेनें का साहस एक ऐसे आनन्द की श्रष्टि करता है जिसकी तुलना में संसार के सारे सुख तुच्छ हो जाते हैं | अब प्रियम्बदा यदि शकुन्तला बनकर दुष्यन्त की आराधना करती है या मालविका बनकर कालिदास को आराध्य मानती है तो छोटी छोटी सीमाओं में वहां हमारे बचकानें वाद -विवाद उसमें बाधा क्यों डालें | पर मेरी सोच क्या समाज के बहुसंख्य परम्परा पीड़ित विवेकहीन समूहों से टक्कर ले सकेगी | क्या प्रियम्बदा में कामिनी की समझ और हिम्मत है ? क्या प्रियम्बदा सिनेमायी चकाचौंध की उपज तो नहीं है ? क्या प्रियम्बदा के आकर्षक रूप रंग में भारतीय नारी का चारित्रिक साहस ,त्याग , शील और विवेक अन्तर के किसी कोनें में संरक्षित है | इसका निर्णय मैं क्यों करूँ ? मेरा कर्तव्य तो इतना ही है कि मैं जिन आदर्शों की पैरवी करता रहा हूँ उन पर अविचलित रूप से खड़ा रहूँ | पर अकेले राकेश का ही झगड़ा ही तो नहीं है | सुननें में आया है कि उससे छोटा सन्दीप भी क्लासिकल म्यूजिक में नाम कमानें वाली किसी प्रमिला में घिरनें बंधने लगा है जो सिविल अस्पताल में कार्यरत लेडी डा. विनीता कत्याल की पुत्री है | कितनें मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी ? कृत संकल्पित होता हूँ व्यक्ति स्वतन्त्रता की प्रत्येक मुहिम में भाग लूंगा | कृत संकल्प होता हूँ पाखण्ड और  मिथ्याभिमान की हर परत उघाड़ कर रख दूंगा | कृत संकल्प होता हूँ हृदय की पवित्रता और आचरण की शुद्धता ही मुझे अपनें खेमें में बाँध सकेगी | कृत संकल्प होता हूँ कि नये मानव मूल्यों के निर्माण के लिये मेरा जीवन , जीवन की हर सांस ,साँस का हर आरोह -अवरोह खाद बननें का काम करेगा |
                                      पर चारवार कृत संकल्पित होकर भी क्या मैं इतना मानसिक अनुशासन अर्जित कर सका हूँ कि एक गहरी नींद ले लूँ | अरे गहरी नींद क्या अगर झपकियाँ आती हैं तो वे भी न जानें बीते बचपन के कितनें खण्ड चित्रों को मुदे नयनों के समक्ष प्रस्तुत करती है | इन दिनों न जानें क्यों अर्धचेतन में उठी लहरें अर्धशुशुप्त अवस्था में मुझे अपनें गाँव की गलियों की ओर ले जाती हैं | जहां की धूल नें मेरे बचपन का श्रृंगार किया था | देखें आज तंद्रालस में स्मृति का कौन सा छोर खुलता है ?
(क्रमशः )

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तांक से आगे -

                                             कम्पनी से संम्बन्धित कुछ मामलों पर मैनें उन विभाग  अधिकारियों से बात की और फिर उन्हें विदा किया | मैनें चपरासी को कह दिया था कि ज्यों ही साहब लोग बाहर चले जांय लड़कियों को अन्दर भेज देना | मैं जान गया कि कामिनी नें कल शाम मुझे नीचे खड़ा देखकर कम्पनी का पता नोट कर लिया होगा और आज अपनें किसी फ्रैंड के साथ मुझसे मिलनें चली आयी है | हँसते हुये कामिनी नें अपनी फ्रैंड के साथ कमरे में प्रवेश किया | मैनें बगल में पड़े सोफे पर बैठनें का इशारा किया पर वह और उसकी सहेली मेरे सामनें पड़ी हुयी कुर्सियों पर बैठ गयीं | कामिनी बोली मास्टर  जी आपनें बिना बताये दिल्ली छोड़ दी | वर्षों बीत गये वे अध्यापक भी जो आपके अत्यन्त  नजदीक थे आपका पता नहीं जानते थे | पापा नें आपसे मिलनें की बड़ी कोशिश की पर जब अता -पता ही नहीं तो क्या करते | फिर अपनी फ्रैंड की ओर देखकर कहा यह शिवानी है | हम दोनों Anthropology में एम. ए. कर रहे हैं | इसका फर्स्ट क्लास तो है ही साथ ही क्लासिकल संगीत में गोल्ड मैडल भी मिला है | मैनें शिवानी की ओर बड़े भाई की  वत्सल द्रश्य से देखा और कहा तुम दोनों को अभी बहुत आगे जाना है | फिर मैनें कहा , "कामिनी तुम्हारा चित्र अखबार में छपा था | तुमनें तो कमाल कर दिया | दिल्ली के बी. ए. परीक्षा की मैरिट लिस्ट में दूसरा स्थान पा लेना कितनी बड़ी बात है अपनें परिवार के साथ -साथ तुमनें मेरा सिर भी ऊंचा किया है | आप लोगों का टूर कहाँ जा रहा है | शिवानी बोली हमें दार्जलिंग जाना है दिन भर ठहर कर अगले दिन सन राइज देखेंगें | कहते हैं निकलते हुये सूरज में कंचन जंगा और उसके आस -पास की धवल प्रस्तर मीनारें तथा नीचे घाटी में फैला प्रकृति का अपार हरित वैभव अपनी छटा में इन्द्रलोक को भी मात कर देता है कहते हैं प्रकृति का ऐसा अदभुत द्रश्य संसार में कहीं नहीं है तभी तो अमरीका ,फ्रांस,  इंग्लैण्ड और अन्य योरोपीय देशों के नव विवाहित दम्पति अपनें पर्यटन में दार्जलिंग की पहाड़ी उठानों पर खड़ा होकर सन राइज देखनें का प्रोग्राम अनिवार्य रूप से शामिल करते हैं | फिर वहां से काठमान्डू जाना है | पशुपति नाथ को तो माथा नवाना ही है | साथ ही बुद्ध धर्म के काल चक्र वाले पवित्र पूजा स्थलों पर भी अपनें आदर सुमन अर्पित करनें है | बड़ा मजा आयेगा , मास्टर जी आप भी चलें | डा. सलोनी शर्मा हमारी इन्चार्ज हैं | कामिनी नें उनसे आप की चर्चा की थी बोलीं आपके मास्टर साहब यदि चाहें तो हम उन्हें अपनें टूर में ले सकते हैं| मैनें हँसते हुये कहा अरे शिवानी तू तो अभी से लेक्चरर लग गयी | कितना प्रभावशाली लेक्चर दे लेती है फिर मैनें कामिनी की और देखकर कहा कामिनी तुम तो अब और भी अधिक आकर्षक व्यक्तित्व पा गयी हो | किसी अजनबी को तुम्हें देखकर फिर और कहीं आँखें हटानें का मन ही नहीं करता होगा | एक हल्की लाली कामिनी के कपोलों पर दौड़ गयी | उसनें कहा मास्टर जी आपनें मेरे पढ़ाते समय मेरे रूप की कभी तारीफ़ नहीं की | मुझे हर्ष है कि आज आपनें मुझसे एक मुक्त युवक के रूप में बात की है | मास्टरी का चोंगा पहनकर भारी भरकम बातें ही की जा सकती हैं | फिर उसनें मुस्करा कर पूछा कि मैनें एम. ए. न करके क्या कुछ आगे किया है | मैनें उसे बताया कि नौकरी के कारण मैं रेगुलर एम. बी. ए. तो नहीं कर सका हूँ पर पत्राचार के द्वारा मैनें एम. बी. ए. की डिग्री हासिल कर ली है | और वहां भी न जानें क्यों मुझे टाप पर ही  रख दिया गया | हांलांकि मैं अपनें को इस योग्य नहीं  समझता | प्रबन्धक के रूप में कम्पनी मेरे काम से बहुत खुश है | दक्षिण भारत में भी कम्पनी अपनें पैर पसारना चाहती है | चेन्नई को केन्द्र बनाया जा रहा है | सुननें में आया है कि मुझे वहां पूरे अधिकार देकर कम्पनी के प्रतिनिधि के रूप में भेजा जायेगा | और कामिनी तुमसे तो मैं पढ़ाते समय कहा ही करता था कि भविष्य की आशा और निराशायें तो मन का एक खेलमात्र ही होती हैं | सत्य तो वर्तमान ही है | तुम दोनों के साथ बैठकर जो सुखद अनुभूति मैं अनुभव कर रहा हूँ वह अभी चन्द लम्हों में स्मृति शेष रह जायेगी | कामिनी बोली मास्टर जी आपकी दार्शनिकता अभी तक नहीं गयी | पिता जी आपसे मिलनें को बहुत उत्सुक थे एक वादा करिये चेन्नई जानें से पहले आप पिताजी से आकर मिल लीजिये और आप वहां न जाना चाहें तो पिता जी को अपनें पास बुलाइयेगा | उन्हें आप से एक बहुत जरूरी बात करनी है | बोलिये बचन देते हैं या नहीं | मैनें कहा कामिनी तुम्हारी बात कौन टाल सकता है | कामिनी शिवानी के साथ उठ खड़ी हुयी फिर दोनों हाँथ जोड़कर कहा , "हम दोनों का प्रणाम स्वीकार करें गुरुदेव | "यह कहते हुये वे दोनों हंसकर दफ्तर के बाहर निकल गयीं | कामिनी का वह प्रणाम मेरी चेतना की अगम्य गहराइयों में आज तक न जानें कहाँ छुपा  पड़ा है | आधी शताब्दी से ऊपर हो जानें के बाद भी उसके जुड़े हुये दोनों हाँथ ,उसकी सलज्ज मुखाकृति , उसकी नीची झुकी कमल जैसी आँखें ,बिजली की कौंध की भांति मेरे मन में चमक भरती रहती हैं | घटनाओं पर किसी का वश नहीं है | मनुष्यों के निर्णय घास -फूस की तरह घटनाओं की आकस्मिक तूफ़ान में उड़ जाते हैं | कामिनी मेरे जीवन में नहीं आ पायी पर उसकी जगह जो आया उसनें मुझे कभी   इतना कुछ दिया है कि कामिनी अब मेरे लिये एक अमूर्त ,अविस्मरणीय , जीवन स्पन्दन के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह पायी है | पर मैं तो अभी हूँ -काया के कटघरे में घिरा एक बन्दी प्राणतत्व ,पर वो अभी बन्दी है या आकाश गंगाओं की तारिकाओं में विहर रही  है कौन जानें ?
                                  हाँ उसके पिता मुझसे एक जरूरी बात करना चाहते थे | पर प्रियम्बदा के पिता कैप्टन जबर सिंह क्या मेरे प्रथम जन्मा पुत्र राकेश से कुछ जरूरी बात करना चाहेंगें | समाचार पत्र तो मुझे यही बताते हैं कि कि दिल्ली में लगे राजधानी क्षेत्र में न जानें कितनी आत्महत्यायें , कितनें आनर किलिंग्स और कितनें ग्राम्य निष्कासन जाति , गोत्र और पूजा पद्धतियों के विरोध को लेकर होते रहते हैं | रोमांस भी मानव विकास में एक अदभुत शक्ति बनकर निखरा है | प्राणों की बलि देकर अपनें प्रिय को पा लेनें का साहस एक ऐसे आनन्द की श्रष्टि करता है जिसकी तुलना में संसार के सारे सुख तुच्छ हो जाते हैं | अब प्रियम्बदा यदि शकुन्तला बनकर दुष्यन्त की आराधना करती है या मालविका बनकर कालिदास को आराध्य मानती है तो छोटी छोटी सीमाओं में वहां हमारे बचकानें वाद -विवाद उसमें बाधा क्यों डालें | पर मेरी सोच क्या समाज के बहुसंख्य परम्परा पीड़ित विवेकहीन समूहों से टक्कर ले सकेगी | क्या प्रियम्बदा में कामिनी की समझ और हिम्मत है ? क्या प्रियम्बदा सिनेमायी चकाचौंध की उपज तो नहीं है ? क्या प्रियम्बदा के आकर्षक रूप रंग में भारतीय नारी का चारित्रिक साहस ,त्याग , शील और विवेक अन्तर के किसी कोनें में संरक्षित है | इसका निर्णय मैं क्यों करूँ ? मेरा कर्तव्य तो इतना ही है कि मैं जिन आदर्शों की पैरवी करता रहा हूँ उन पर अविचलित रूप से खड़ा रहूँ | पर अकेले राकेश का ही झगड़ा ही तो नहीं है | सुननें में आया है कि उससे छोटा सन्दीप भी क्लासिकल म्यूजिक में नाम कमानें वाली किसी प्रमिला में घिरनें बंधने लगा है जो सिविल अस्पताल में कार्यरत लेडी डा. विनीता कत्याल की पुत्री है | कितनें मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी ? कृत संकल्पित होता हूँ व्यक्ति स्वतन्त्रता की प्रत्येक मुहिम में भाग लूंगा | कृत संकल्प होता हूँ पाखण्ड और  मिथ्याभिमान की हर परत उघाड़ कर रख दूंगा | कृत संकल्प होता हूँ हृदय की पवित्रता और आचरण की शुद्धता ही मुझे अपनें खेमें में बाँध सकेगी | कृत संकल्प होता हूँ कि नये मानव मूल्यों के निर्माण के लिये मेरा जीवन , जीवन की हर सांस ,साँस का हर आरोह -अवरोह खाद बननें का काम करेगा |
                                      पर चारवार कृत संकल्पित होकर भी क्या मैं इतना मानसिक अनुशासन अर्जित कर सका हूँ कि एक गहरी नींद ले लूँ | अरे गहरी नींद क्या अगर झपकियाँ आती हैं तो वे भी न जानें बीते बचपन के कितनें खण्ड चित्रों को मुदे नयनों के समक्ष प्रस्तुत करती है | इन दिनों न जानें क्यों अर्धचेतन में उठी लहरें अर्धशुशुप्त अवस्था में मुझे अपनें गाँव की गलियों की ओर ले जाती हैं | जहां की धूल नें मेरे बचपन का श्रृंगार किया था | देखें आज तंद्रालस में स्मृति का कौन सा छोर खुलता है ?
(क्रमशः )

Article 24

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नारी मूल्याँकन 

और कि यह
प्रोफ़ेसर , पंडित ,  कलाकार , कवि
सृष्टिकार सब
जो
प्रसाद से , तुर्गनेव से
पंत , नीत्से और पिकासो से
नीचे है बात न करते
देख कहीं लेते निज पथ पर
रूपगर्विता
ऐसी रमणीं
सीख चुकी है जो
आधुनिका का पहरावा
जहां उग्र की या जोला की
कला मूर्त हो कर रह जाती
तो
चाल बदलते
चुपके चुपके मन के भीतर
हाल बदलते
कालर पर की गर्द भगाते
कंठ -लंगोटी खींच सजाते
और कहीं नेता गण हों तो
मत्थे पर की सीधी टोपी ,
कर देती जो घाव
अगर पड़ जाये किन्हीं मांसल अंगों पर ,
तिरछी करते
और
उसी दिन
कला - भवन में , ज्ञान - कक्ष में
संसद में
सर्वोदय के कल्याण -पक्ष में
भाषण देते
'  नारी पूज्य महान
भोग की नहीं वस्तु है | '
आलोक वृत्त 

वृत्त यह आलोक का तुमको समर्पित
तुम दिपो , मैं दीप्ति का दर्शक
तुम्हारे अनुगतों की पंक्ति का सीमान्त
बन कर ही सहज हूँ |
कोण की निरपेक्षता से मैं सहज ही देख लूँगा
रूप अन्तस का तुम्हारे
जो प्रभा के पुंज से मण्डित सभी को कौंधता है
किन्तु जो
व्यक्तित्व से निः सृत न होकर आवरण है
और तुमको - हाँ तुम्ही को
बोझ  बनकर रौंदता है |
शीघ्र ही -------विश्वास मुझको -------
चेतना तुमको झटक कर त्रास देगी
और आरोपित प्रभा का पुंज , विषधर सा
उठा फन यदि गरल का डंक मारे
तो उठा कर द्रष्टि अपनेँ अनुगतों की
पंक्ति के अन्तिम सिरे पर देख लेना
मैं अहं की भष्म का शीतल प्रलेपन
दे तुम्हें विष -मुक्ति दूँगा ----- और
फिर से पंक्ति के अन्तिम सिरे पर जा
प्रतीक्षा -रत रहूँगा
कब स्वयं दो डग उठा तुम पास मेरे आ सकोगी |

निर्णय की बेला 

युग भार तुम्हारे कन्धों पर रे तरुण आज
निर्माण हेतु संहार करो संहार करो
पत्थर पानी की आड़ी सीधी रेखायें
मानवता का इतिहास बनाती रहीं सदा
ये बड़ी बोलियाँ नेताओं की सच मानों
जीवित मानव को लाश बनाती रहीं सदा
जब सिसक सिसक दम तोड़ रहे लाखों नन्हें
बेबस ममता की भूखी निर्बल बाहों में
तब जवानी भारत की कब तक भटके
छल भरी राजनीति की निष्फल अन्धी राहों में
निर्णय की बेला आ  पहुंचीं रे तरुण आज
मर मिटनें वाला सृजन शील तुम प्यार करो
युग भार ----------------------------
जो तरुणाईं वह कहाँ लीक की मर्यादा पर चलती है
जो ज्वार किसी के काबू में कब आता है
आँधियाँ तोड़ती चलती हैं अवरोधों को
हिम -खण्ड पिघल जल धारा में बह  जाता है
कल की दुनियां उन हांथों से बन पायेगी
जो हाँथ आज का अनगढ़ महल ढहा देंगें
कल के विशाल भू खण्ड तभी बन पायेंगें
जब हिम नद मग के प्रस्तर खण्ड बहा देंगें
इतिहास चुनौती लिये खड़ा दोराहे पर
नर नाहर बन ओ युवक उसे स्वीकार करो
युग भार ----------------------------------
फिर चाँद किसी का बन न जाय कल उपनिवेश
परसों मंगल पर कहीं न कोई हावी हो
होकर रक्तिम फिर बहे न सरिता का पानी
चाहे दजला फरात हो चाहे रावी हो
फिर प्रजातन्त्र की रक्षा का देकर नारा
घुस जाये न घर में कोई नीच दुराचारी
मदमत्त विदेशी अफसर की सगीनों से
छिद जाये न शत  शत हाय कहीं फिर नर नारी
सैरान्ध्रों की द्रावक पुकार अब व्यर्थ न हो
युग भीम उठो फिर कीचक का संहार करो
युग भार -----------------------------
-वैश्या  युग -सभ्यता 

लो उठाता हाँथ हूँ मैं
आज देने को समर्थन पौद को
जो विप्लवी है
तुम चढ़ाओगें मुझे फाँसी
चढ़ा दो
तुम सुई की नोक से तन छेद मेरा
बर्फ - सिल्ली पर लिटाकर
नाजियों पर नाज कर लो
या अंधेरे भुँइघरे में
बंद कर दो मुझे मेरी चिन्तना को
राज कर लो , और कुछ दिन ,
फिर सुलगती पेट की यह आग
आँखों से झरेगी
वैश्या युग - सभ्यता तब
ताप से जलकर मरेगी |
मुँह न जनता को दिखा पाते
बिना बन्दूक का परकोट डाले
फिर बिकी बन्दूक भी
कल जान जायेगी असलियत
जब स्वयं औलाद उसकी
काम माँगेगी
न सारा राज्य केवल ग्राम माँगेगी
मगर
सड़ती व्यवस्था का दुयोधन
दर्प की ललकार देगा
शुचिका की नोक भर धरती न देकर
गोलियों का हार देगा
तब
बिकी बन्दूक की नलियाँ मुड़ेंगीं
रूप -जीवी सभ्यता की
लिजलिजी परतें उड़ेंगीं
मैं उसी दिन की प्रतीक्षा में
 अभी तक जी रहा हूँ |


Article 24

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                                                                           हँसी -हाँसी 

             वृन्दावन के उस रासधारी  बाग़ में हमनें उस नवयुवक साधु को एकटक एक वृक्ष की डाल की ओर ताकते देखा | वह टकटकी लगाकर न जानें क्या देख देख कर मन्द मन्द मुस्करा रहा था | हमें तो वहां झुकी ,सीधी डालों के अतिरिक्त और कुछ दिखायी ही नहीं पड़ता था | जिज्ञासा वश हम घुमन्तुओं की टोली में से पण्डित पलागी राम उस उस साधु के पास गये और उसे नमस्कार किया | किसी अन्य के होने का आभाष पाकर उसकी टकटकी टूटी और उसने जय वंशीधर कहकर पण्डित पलागी  राम को नमस्कार का उत्तर दिया ,"साधु महराज टकटकी लगाकर क्या देख रहे थे ? "
"अहा ! कैसा सुन्दर द्रश्य था ?"
 हमें भी तो कुछ बताओ ?
                                आप सब संसारी मनुष्य ठहरे | मैं जो बताऊँगा उसे झूठ  न मान लें |
                                नहीं नहीं साधु महराज आपनें जो कुछ देखा है वह सच ही होगा | महात्मा जी आपका शुभ नाम क्या है ? "मुझे राधादास  कहकर बुलाते हैं | "
"आप इतने ध्यान से क्या देख रहे रहे थे ? मुझे तो कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता | "अरे भाई मैं राधा कन्हाई की जोड़ी को देख रहा था | क्या दोनों दिव्य विभूतिया  उपस्थित थीं | हाँ मजे की बात यह है कि मैं राधा कन्हाई के बीच होनें वाली सारी बातचीत सुन रहा था |"
                                  कन्हाई ने कहा ,"राधिके आओ पेंड़ की डाल पर झूल लें | उन्होंने न जानें कौन सी कला दिखायी और लम्बे होते चले गये | फिर उन्होंने हाँथ ऊँचा कर एक काफी ऊँची डाल को झुकाकर नीचा कर दिया | स्वयं डाल को पकड़े रहे और फिर राधा जी से भी  उसी डाल को अपने हांथों से पकड़ लेने को कहा | राधा जी ने सोचा कि शायद श्याम कन्हैया उनके साथ ही झूलेंगें इसलिये उन्होंने मजबूती से डाल पकड़ ली पर कन्हैया तो कन्हैया ,वे हैं वांके खिलवैय्या | उन्होंने हँस कर डाल को एक झटके के साथ छोड़ दिया | डाल 10 -12 फ़ीट ऊपर चली गयी और राधा जी अपना स्वर्ण खचित घाघरा और नक्काशीदार रेशमी चोली पहनें लटकी रहीं | डाल छोड़ दें तो नीचे 10 -12 फ़ीट की गहराई पर गिरें और लटकी रहें तो कब तक लटकी रहें | नटखट कन्हाई नीचे खड़े अपने  कमर में बंधी बाँसुरी कभी बजाते , कभी राधा की ओर देखकर मुस्कराते ,और कभी अपने कमल नयन मटकाते | मैं यह सब देख ही रहा था कि आपनें आकर टोक  दिया और पल मात्र में ही राधा और कन्हाई दोनों जानें कहाँ विलीन हो गये | आह ! अब ऐसा अदभुत स्वर्गीय द्रश्य कब देखने को मिलेगा |
                                पण्डित पलागी  राम को आगे कुछ बोलते न बना उन्हें खेद हुआ कि उनके सम्बोधन ने एक तरुण साधु की जीवित समाधि में खलल डाल दी और वह साधु भी तो राधादास कहकर अपने को राधा जी के परम भक्तों में शामिल करवा रहा है | कुछ देर बाद पण्डित पलागी  राम बोले , "भूल हो गयी राधादास जी , अच्छा अब हम चलेंगें आप फिर से उस युगल जोड़ी का स्मरण करिये शायद दर्शन हो जाँय  | "राधादास जी ने कहा ,"अब ऐसा सौभाग्य कहाँ आयेगा ,अब तो पेट की ज्वाला खाये जा रही है | "
                                   पण्डित पलागी  राम पेट की ज्वाला से भलीभांति परिचित थे कई बार होंडा- होड़ी में 100 लड्डू खा जाना उनके लिये मामूली बात थी | उन्होंने कहा राधादास  जी मेरा नाम पण्डित पलागी राम है और मैं पेट की ज्वाला से भलीभाँति परिचित हूँ | पर कहते हैं जब राधाकृष्ण के दर्शन हो जाते हैं तो पेट की ज्वाला भक्त को नहीं जलाती | उसके हृदय में भक्ति का दीप निरन्तर जलता रहता है और पेट की ज्वाला उस दीप के आगे मन्द पड़ जाती है | अब राधा दास को इस बात का जवाब देने के लिये बड़ी खींचतान करनी पडी फिर भी उन्होंने एक माकूल उत्तर दिया ,बोले , "पलागी राम जी पेट की ज्वाला ही धीरे धीरे ऊपर चढ़कर हृदय तक पहुँचती है और वहां पर लपट से बदलकर लौ बन जाती है और जब काफी लम्बे समय तक लपट से लौ बनने का काम चलता रहता है तो वह लौ राधाकृष्ण में लग जाती है | अब राधाकृष्ण के दर्शन हो जानें के कारण ही आप से परिचय का मौक़ा मिला है और पेट की ज्वाला की लौ में परिवर्तित करने का काम भी आप के द्वारा ही होना है | "
                                पण्डित पलागी राम भक्ति की लम्बी चौड़ी बातें करने में सिद्धहस्त थे पर जीवन भर उनका यह सिद्धान्त रहा था कि चमड़ी चली जाय पर दमड़ी न जाय | वे हमारी टोली में इसलिये शामिल हो गए थे कि हम बैंक के कर्मचारी खानें पीने के शौकीन  थे पर भक्ति की बातों से अधिक परिचित नहीं थे | पलागीराम जी इस कमी की पूर्ति कर रहे थे और खानें पीने में हमारे पक्के लीडर बन गये थे | टोली से अलग होकर वे युवा राधादास से उसकी टकटकी का रहस्य जानने गये थे पर अब रहस्य जानने की कीमत चुकाने के लिये उन्हें फिर से टोली में आने के अलावा और कोई चारा ही क्या था | पण्डित पलागीराम के साथ एक युवा साधु को अपने बीच  आता देखकर सलगू चपरासी जो हमारे साथ आया था शंकालु हो उठा | दरअसल बात यह थी कि पण्डित पलागीराम खानें पीने का काफी बचा सामान अपनी पूरी मात्रा में सलगू के पास नहीं पहुंचने देते थे | सलगू ने सोचा कि यह पण्डित एक और नयी बला  लेकर आ गया | खुद सेर खाता है तो यह जवान छोकरा सवा सेर खा जायेगा | मेरे पल्ले क्या पडेगा ?प्रसाद के दो इलायची दानें | उनमें क्या होता है ? कौन सी तरकीब  भिड़ायी जाय ?
                                      सलगू राम भी बाल्मीकियों की रत्नाकर  खाप का मुखिया था | तन्त्र -मन्त्र के न जानें कितने तिकड़म उन्हें आते थे | उसने महाभारत के कई किस्से कहानी इतने ध्यान से सुन रखे थे कि उन्हें वह लब्ज व  लब्ज अपनी जुबान से दोहरा देता था | पाण्डव पत्नी द्रोपदी  के अक्षय पात्र में लगे एक दो बचे खुचे अन्न के दानों को खाकर किस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण ने दुर्वासा ऋषि के हजारों शिष्यों का पेट फुला दिया था | इस कहानी को वह बार बार सुनाता रहता था अक्षय पात्र तो जब अभी तक किसी को मिला ही नहीं तो उसको कैसे मिलता पर इस घटना की नाटकीयता ने इसे पलागी  राम को सबक सिखाने के लिये प्रेरणा का काम किया |
                                             पलागीराम जी ने टोली में आते ही कहा ,"स्वामी राधादास को पेट की ज्वाला सता  रही है | राधादास जी ने राधा कन्हाई के साक्षात दर्शन किये हैं  और इन्हें पेट भर भोजन कराने का पुण्य राधा कन्हाई की कृपा से सारी टोली को मिलेगा | गौतम नरूला बोला , "बोलिये राधा दास जी ,पूड़ी सब्जी खायेंगें या दही लड्डू ? राधादास जी ने मन ही मन पूड़ी सब्जी और दही लड्डू के स्वाद का रस लेना शुरू किया | लड्डुओं का मीठापन सब्जी के चिरचिरे स्वाद पर भारी पड़ा और राधादास जी ने दही लड्डू खानें की इच्छा जाहिर की | पण्डित पलागीराम का चेहरा खिल उठा | वे भीतर ही भीतर चिन्तित थे कि कहीं ऐसा न हो कि भूख का मारा  राधादास पूड़ी सब्जी की हाँ कर बैठे | पण्डित पलागीराम गणेश जी के भक्त थे और गणेश जी को लड्डुओं का भोग ही चढ़ता है |
                                             सलगू मन हे मन जल भुन  उठा सोचा इस ढोंगी साधु और पाखण्डी पण्डित को ऐसा पाठ न पढ़ाया जो जिन्दगी भर याद रहे तो मैं बाल्मीकी ओझा नहीं |
                                                      गौतम नरूला ने सलगू से जानना चाहा कि किस हलवाई के यहां अच्छे लड्डू और शुद्ध दही मिल पाता है | सलगू को एक मौक़ा हाँथ आ गया उसने हलवाई ढेलाराम के नाम की सिफारिश कर दी | ढेलाराम की दुकान पर उसका चचेरा भाई गंगू गब्बर कढ़ाई माँजने का काम करता था | उसने मेरे से आज्ञां मानकर ढेलाराम की दुकान पर जानें की बात कही जो वहां से लगभग डेढ़ फर्लांग दूर थी | उसका कहना था कि वह पहले जाकर खबर दे दे ताकि हम सब जब वहां पहुंचें तो हर चीज ताजा तैय्यार मिले | सलगू ने ढेलाराम की दुकान में जाकर गंगू गब्बर से क्या कहा सुना उसको उन दोनों के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता हाँ दोनों की  बात में एक शब्द बार बार निकल कर आता था 'पीक'या 'पोंक '| अब सलगू खानी तम्बाकू का शौक़ीन था और गंगू गब्बर भी चुटकी भर पत्ती ओठ के नीचे दबाकर एक निराली ताकत पा जाता था | तम्बाकू खाकर पीक छोड़ना तो सभी देखते जानते हैं पर पीक के साथ कई बार 'पोंक 'शब्द का इस्तेमाल   क्यों किया जा रहा था | इस रहस्य  के लिये मिठाई बनाने और दही जमानें वाले उस्तादों से सीख लेनी होगी | लगभग 40 मिनट बाद घूमते घामतें तीर्थ प्रेमी सैलानियों की यह टोली ढेलाराम की दुकान पर आ पहुँचीं | पानी  से ठण्डी की हुयी जमीन पर लाल कैनवस चढ़ी हुयी कुर्सियां करीने से लगी थीं सामने टीन  से मढ़ी हुयी कई लम्बी मेजें पडी थीं दुकान पर  कई थालों में लड्डू लगे थे और मिट्टी के बनें पक्के दही जामों में मलाईदार दही दिखायी पड़ रहा था | नरूला बैंक की नौकरी में रहकर भी और लाखों के नोट  गिनकर भी दोहरा तम्बाकू की लत से बच गया था | सलगू ने थाल के एक कोनें से कुछ लड्डू पहले ही तम्बाकू डाले उबले पानी को छानकर बनवाये थे | उसने उनमें से एक लड्डू उठाकर नरूला को दिया ,बोला गौतम जी आप में कोई व्यसन नहीं है पहला प्रसाद आप लीजिये | नरूला ने लड्डू हाँथ में लेकर एक टुकड़ा मुंह में डाला | जीभ पर स्वाद उतर आया | कितना मुलायम मीठा और मजेदार है | दो तीन टुकड़ों में लड्डू समाप्त हो गया पर भोजन नली से नीचे उतरने के पहले ही नरूला को हिचकी आयी और फिर उसका सिर चक्कर खानें लगा | नरुला बोला भाई जी कुछ गड़बड़ है | मेरा सिर चकरा रहा है | सलगू  बोला अरे ज्यादा भूख में ऐसा ही होता है | देखिये इस दूसरे  थाल से मैं आपको लड्डू देता हूँ यह अभी अभी बनें हैं बिल्कुल ताजे हैं | दूसरे थाल से भी एक कोनें के पांच लड्डू ताम्बूल रस से सिंचित थे | नरूला ने ज्यों ही दूसरा लड्डू मुंह से होते हुये पेट तक पहुंचाया त्यों ही उसे चक्कर आ गया | वह टीन  मढ़ी मेज पर सिर रखकर घुमरी चढ़ जानें की बात करने लगा | सलगू बोला पण्डित राम जी मेरा ख्याल है किसी जिन्न  का साया इन लड्डुओं पर पड़ गया है | अभी आप कोई लड्डू न खायें मैं झाड़ -फूंक कर कुछ इन्तजाम करता हूँ | साले इस जिन्न  को कैद कर तहखानें में न डाल दिया तो मेरा नाम सलगू रत्नाकर नहीं | उसने गंगू गब्बर की ओर इशारा किया जो डमरूनुमा एक ढोलकिया लेकर और एक चाकू लेकर तथा एक लोटे में पानी लेकर पास में आकर बैठ  गया | चाकू से जमीन में लकीरें खींचकर सलगू कुछ अंट शंट बकता रहा जो कुछ उसने बका उसमें बहुत कुछ अस्पष्ट पर दो एक शब्द साफ़ समझ में आते थे | कभी गोगा पीर ,कभी मछेन्दर नाथ ,कभी गोरखनाथ और अभी काला जिन्न ,गंगू खजड़ी बजा रहा था और रह रह कर गब्बर पानी की छींटें नरूला के मुँह पर मारता जाता था | लगभग 15 मिनट के बाद नरूला के चक्कर कम होने शुरू हुये और फिर और कुछ मन्त्र सुनने  के बाद उसे लगा कि वह नार्मल हो गया है | अब क्या था सलगू की छाती फूल गयी उसके मन्त्रों ने और उसकी तान्त्रिक रेखाओं ने नरूला पर कब्जा किये जिन्न को भाग जानें पर विवश कर दिया था | अब सलगू तेजी से उठा उसने दो तीन उल्टी सीधी छलांगें लगायीं | मुँह से चिल्लाया जै भैरों ,जय काली ,कालिन्दी वाली , जय मछेन्द्र ,जय बजरंग बली ,और फिर पटक कर धरती पर एक लात मारी और फिर लात के नीचे की मिट्टी अपनी मुट्ठी में उठाकर कस कर बन्द कर ली बोला साला भागा जा रहा था जिन्न के बच्चे अब मुट्ठी से निकलकर कहाँ जायेगा | ढेलाराम हलवाई यह सब देखकर किसी दैवी आपदा के भय से शंकित हो गया | सलगू ने दूकान के पीछे जाकर हाँथ की मिट्टी हवा में छोड़ दी बोला , "जा साले फिर कभी इस दुकान की तरफ मुँह मत करना | अबकी बार आया तो सलगू कभी तुझे तहखानें के बाहर नहीं छोड़ेगा |"ढेलाराम ने आदर भाव से सलगू की ओर देखा और कहा कि यार सलगू तू तो बहुत बड़ा छुपा रुस्तम है | सलगू ने कहा ,"ढेलाराम जी इन लड्डुओं पर जिन्न की छाया पड़ गयी है | रात भर इन्हें ढक कर रखना | सबेरे यह खानें के योग्य हो जांयेंगे ,मैं कल सबेरे आपके पास आ जाऊंगा, फिर उसने पण्डित पलागी राम की ओर देख कर कहा कि यदि आप लोग बहुत भूखे हैं तो आगे की दुकान में सब्जी रोटी का इन्तजाम किया जा सकता है | राधादास ने कहा सलगू जी आपनें जिन्न को किस तन्त्र के बल पर मुट्ठी में बन्द कर लिया था ? सलगू बोला राधादास जी आपनें किस तन्त्र के बल पर स्वर्ण खचित लहँगा पहनें और नक्काशी कढ़ी रेशमी चोली पहनें राधा जी को पेंड़ की डाल पर झूलते देख लिया था | पण्डित पलागीराम बोले कुछ बात समझ में नहीं आयी लड्डू के थालों पर जिन्न की छाया कैसे पड  गयी ? सलगू ने कहा कि इसका रहस्य तो गँगू गब्बर जानता है | गँगू गब्बर ने चूना  लगाकर हंथेली  पर अँगूठे से तम्बाकू मली फिर अँगूठा उठाकर हथेली से पहली हथेली पर  फ़ट्ट फ़ट्ट की फिर तैय्यार तम्बाकू को सबकी ओर बढ़ाते हुये कहा थोड़ी थोड़ी होंठों के बीच दबा लीजिये | जब पीक आये तब थूक देना | मिर्जापुरी तम्बाकू है | माँ विन्ध्यवासिनी की शक्ति इसमें छिपी है | जिन्न तो क्या जिन्न का बाप भी इन लड्डुओं पर छाँह नहीं डाल सकता यह कहकर उसने दुकान के दाहिनें कोनें पर एक पीक निकाली फिर बायें कोनें पर फिर उसने थाल के बीच से ढेर सारे लड्डू एक तश्तरी में भरकर सलगू को दिये और कहा कि वह इन्हें खाकर पण्डित पलागी राम को दिखाये | सलगू एक के बाद एक आधी थाल चट कर गया | खाता रहा फिर हँस हँस कर सामनें देखता और कहता दूर खड़ा है साला वो दुकान के पीछे कितना काला और लम्बा है हिम्मत हो तो आजा | दोनों थाल तुम्हारे सामने साफ़ कर दूंगा | मैं राधादास या पलागीराम नहीं हूँ | मैं भूतनाथ और भैरव नाथ का चेला मछेन्द्री सलगू हूँ | लगभग दोनों थालों से दो तिहाई लड्डू खाकर सलगू को लगा कि उसका पेट फ़ूलनें लगा है | | उसे दुर्वासा ऋषि के शिष्यों की कहानी याद आ गयी उसने मेरी ओर देखकर प्रणाम किया और कहा समदर्शी जी कल टाइम पर नहीं आ पाऊंगा ,दो घण्टे की छुट्टी मंजूर कर दीजियेगा |
                                               करता क्या न करता आखिर पण्डित पलागीराम और राधादास को सब्जी रोटी से ही सन्तोष करना पड़ा | ठीक भी तो है पण्डित और साधुओं को लड्डुओं के लालच से दूर रहकर साफ़ सुथरी सब्जी और रोटी खाकर ही जीनें की आदत डालनी चाहिये | आइये इस कहानी के अन्त में गणेश बन्दना कर लें "जय गणेश जय गणेश ,जय गणेश देवा | लड्डुअन के भोग लगे सन्त करें सेवा |"

Article 23

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                          इस वर्ष बसन्ती बयार या तो चली ही नहीं या चली तो  मात्र अल्पकाल के लिये | बयार का प्रवाह ग्रीष्म की झुलसन में द्रुति गति से परिवर्तित होता गया | शीत  और ग्रीष्म दोनों में ही अतिशयताः की अनापेक्षित उड़ानें देखने को मिलीं | लगता है दो अतियों के बीच का सन्तुलन तन्त्र ढीला पड़ता जा रहा है | ऐसा तो नहीं कि प्रकृति का कोई सचेतक तत्व मानव जाति को पूर्व  सूचना दे रहा हो कि वह अतियों के बीच सन्तुलन के सन्धि स्थलों की तलाश करे | विश्व के महानतम गणितज्ञ और भौतिकी विद प्रोफ़ेसर Stephen Hawking ने यह स्वीकारा है कि ब्रम्हाण्ड में अन्यत्र और कहीं भी सचल जीवन गति मान हो पर उन्होंने यह भी कहा है कि यह जीवन सम्भवतः छोटे मोटे कृमि कीटों या एक दो कोशीय प्राणियों का ही होगा | दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि समस्त ब्रम्हाण्ड में मानव जाति की अदभुत सृष्टि का श्रेय केवल धरती नाम के सौर ग्रह को ही जाता है | मानव की यह निराली सृष्टि इसीलिये उसे अपनें अस्तित्व की सार्थकता के प्रति निराले ढंग से सोचने के लिये बाध्य करती है | मानव का अभ्युदय यदि निरर्थकता की एक कड़ी मात्र है तो प्रकृति का यह निरर्थक खिलवाड़ किस आनन्द की श्रष्टि के लिये किया जा रहा है ?और यदि मानव विकास की दैवी सम्भावनाओं का कोई भविष्य है तो उसका अन्तिम गन्तव्य अपनी परिपूर्णतः में कहाँ तक ले जाता है | | इन प्रश्नों की अबूझता ही इन्हें नये -नये रहस्यों  से मण्डित करती है और रहस्यों का रोमांस संसार के और किसी भी रोमांस से अधिक रोमांचकारी होता है | जो स्पष्ट है ,जो जान लिया गया है वो जान लेने के बाद तुरन्त वासी होने लगता है | जान लेने की सम्पूर्णतः हमें बौद्धिक सन्तोष भले  दे दे उसमें एक प्रकार की मानसिक स्थिरता जो भी परिलक्षित होती रहती है | एक ऐसी स्थिरता जो हमें नया जानने की जोखिम से दूर रखती है और इस प्रकार प्रगति की धारा स्थिरता के समतल से चलकर अगति की खाइयों में जा गिरती है | ब्रम्हाण्ड का विस्तार शायद इसीलिये इतना असीमित है ताकि मनुष्य के जिज्ञासु मन को निरन्तर उद्वेलित रखा जाय | असीमित आकाश गंगायें ,असीमित तारावलियाँ ,असीमित ग्रह -उपग्रह ,असीमित प्रकाश पुंज | इन सबका चिन्तन ही रहस्यों का रहस्य है और इसीलिये तो श्रष्टि के श्रष्टा की कल्पना भी रहस्य का ही एक शतसहस्र रंगी जाल है | मुक्ति का अपना आनन्द है | तो माया का अपना आनन्द भले ही ठगनी माया हमें ठग रही हो पर ये ठगा जाना भी कितना सुहावना लगता है | कभी -कभी हम भीतर से चाहते हैं कि कोई हमें लुभावनें मन से ठगे और उस मोहक  ठगन में ही हमें स्पन्दित जिन्दगी का एहसास होता है | मुक्ति और माया दोनों के बीच सामान्य नर -नारी का जीवन संग्राम किसी उपेक्षा की वस्तु नहीं है |  कि संग्राम में ही कालजयी उपलब्धियां प्राप्त होती हैं | भारतीय काव्यशास्त्र में वर्षों की कल्पना मनोवेगों के रंग बिरंगे प्रवाह को सूत्रात्मक ढंग से समझनें का एक प्रयास ही तो है | 'माटी 'की कुछ रचनायें गम्भीर दार्शनिकता के बोझ से दबी रहती हैं और उनका पूरा आनन्द उच्च शिक्षित और संस्कारित पाठक ही ले पाते हैं | कुछ रचनाओं में सामाजिक अन्तर भेदों को उजागर कर उनकी ऐतिहासिक और वैज्ञानिक व्याख्यायें प्रस्तुत होती हैं | उन्हें समझनें के लिये भी एक सुसंगत तर्कपूर्ण द्रष्टिकोण अपनानें की आवश्यकता होती है | कुछ रचनायें हल्की -फुल्की अनुभूतियों को दीप्त कर मन के लिए सन्तुलन की सामग्री प्रस्तुत  करती हैं | कविताओं में कुछ व्यंग्यिकायें हल्का -फुल्का हास्य समेटे होती हैं पर कुछ कटाक्षिकायें फूहड़ चोट करती हुयी दिखायी पड़ती हैं | जीवन में यह सब कुछ होता ही रहता है | धर्म  एक ओर समाज के महामूल्यों को धारण करने की सामर्थ्य रखता है तो दूसरी ओर पाखण्ड का बाना भी पहन सकता है  इसीप्रकार नीतिशास्त्र भी कुतर्की के हाँथ में पड़कर अपनी छवि मलीन कर लेता है | हम चाहेंगें कि हल्का -फुल्का हास्य  जो कटाक्ष और कटूक्तियों से मुक्त हो 'माटी 'में सम्मानीय  स्थान पा सके | हम दूसरोँ पर हँसते हैं दूसरे हम पर हँसते हैं पर हम कभी अपने आप पर हँस लें तो कैसा रहे ? यह हँसी पागलपन की हंसी न हो बल्कि संज्ञानता की हंसी हो | कबीर की हंसी को भला कौन अपने जीवन में स्वीकार नहीं करेगा |
                       "मोंहि सुनि -सुनि आवत हाँसी
                          जल विच मीन पियासी | "
और देखिये
                        "दोष पराये देखि के चला हसन्त हसन्त
                          आपन चित्त न गाइये जाको आदि न अन्त | "
                                             तो   आइये  हम सार्थक ढंग से अपनें आप पर हँसना सीखें | भारतीय काव्यशास्त्र के मनीषी भलीभांति इस बात से परिचित थे कि गम्भीर चिन्तन का बोझ और जीवन की अनिवार्य विषमतायें हास्य का पुट पाकर ही सहनीय बन सकती हैं | इसीलिये उन्होंने नाटकों में विदूषक को एक अनिवार्य अंग के रूप में समावेषित किया और अंग्रेजी के महानतम नाटककार शैक्सपियर के नाटकों के सम्बन्ध में कहे गये इस वाक्य से कौन शिक्षित व्यक्ति परिचित नहीं है ?
                      " Fools of Shakespere  are wiser then the wisest of us."
                       द्वेष रहित मुक्ता राशि जैसी धवल हँसी जो किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य न बनाकर मानव विसंगतियों पर आधारित हो | जब हम यह कहते हैं कि  We are all human तब इस कहने का यही मतलब होता है कि मानव स्वभाव के निर्मित में बहुत कुछ ऐसा है जो विषंगतियों से भरा है | और जिसपर विश्लेषण की टार्च लाइट डाल  कर   सहज हास्य का आधार जुटाया जा सकता है | 'माटी 'के लेखकों  से इस प्रकार की रचनायें प्रार्थनीय हैं | अपनी पूरी ऊँचाई के बावजूद अभी तक निर्वाधि गगन प्रस्तार का एक लघुखण्ड भी मानव की पकड़ में नहीं आया है | क़ुतुब मीनार की ऊँचाई को पार करते हुये दिल्ली में बना म्यूनिसपिल्टी का नया भवन 112 मीटर ऊँचा है | दुबई में बनी हुयी नयी इमारतें 100 मंजिलों की ऊँचाई ले चुकी हैं  पर मुस्कराहट बिखेरते सितारों के कारण मानव की इन छुद्र उपलब्धियों की हंसी ही उड़ाते रहते हैं | 'माटी 'का प्रकाशन भी उत्कर्षता की नयी ऊँचाइयों को छूने का एक प्रयास था और है पर हमें अपनी क्षुद्रता का अहसास भी है  और यह अहसास ही हमारे इस निश्चय को और द्रढ़ करता है कि हमनें जो सोचा था और जो सोचते हैं उसे पाकर रहेंगे | प्रशंसा और निन्दा दोनों को समान  भाव से स्वीकार करते हुये हम अपने संकल्पित मार्ग पर बढ़ रहे हैं | कल तकनीक की नयी विधायें छपे शब्दों को कितना पछाड़ पायेंगी यह तो भविष्य ही बतायेगा पर शब्दों के सामर्थ्य से मानव क्रान्तियों का उदभव और परिपोषण हुआ है और होता रहेगा | रह -रह कर लड़कपन में पढ़ी विश्वम्भर नाथ शर्मा की कहानी उसने कहा था के यह शब्द मेरे मन में उभर कर आते रहते हैं |
                           "उद्यमी उठ सिगड़ी में कोयले डाल "चेतना की दीप्ति प्रज्ज्वलित करने के लिये 'माटी 'सिगड़ी में कोयले डाल रही है | उद्यम ही हमारे वश में है | यही तो गीता का मूल सन्देश है और भारतीय होने का गौरव भी है | 

Article 22

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कटार की मार सी वेधक अभिव्यक्ति ,माटी की सोंधी नशीली सुवास ,गाँव की गलियों और नगर के प्रशस्थ पथों पर चलता -फिरता अट्ठारहवीं शताब्दी से बाइसवीं सदी  तक का भारत ,बेवाक राजनीतिक विवेचन , अनूठी कहानी शिल्प ,ज्वलन्त समस्या निरूपण ,अधुनातन जीवन दर्शन ,अतीत की पुनर्व्याख्या तारापथ की कुहेलिकायें ,सभी कुछ माटी में :-

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                  विगत 12 वर्षों से निकल रही  ज्ञान -विज्ञान प्रसार ,सांस्कृतिक उद्बोधन ,वैश्विक चिन्तना एवं सृजनात्मक साहित्य के प्रति समर्पित साहित्यिक मासिक पत्रिका  'माटी 'एवं माटी सप्तपाणि  (साप्ताहिक समाचार पत्र ) को सभी स्थानों पर सम्पादकीय ,विज्ञापन ,प्रसार विभाग आदि के लिये प्रतिनिधियों एवं अधिकारियों की आवश्यकता है | अतः इच्छुक साथीगण पूर्ण विवरण फोटो सहित -Post Box No.191 GPO Kanpur पर  भेजें या matiinternational@gmail.com पर मेल करें | 
                         

Article 21

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                    'ऊँट किस करवट बैठेगा 'इसे सुनिश्चित रूप से जान लेना बहुत कठिन होता है | 23 मई 2019  के पहले कुछ ऐसी ही अनिश्चितता भारतीय राजनीति के सम्बन्ध में दिखाई पड़ रही थी | पर 24 मई को भारत की राजनीति ने एक निर्णायक करवट बदल ली | अब न तो कोई शक है और न कोई शुगह | पर आने वाले अच्छे दिन अभी शायद काफी लम्बा इन्तजार करवायेंगें | फिर अच्छाई की अपनी परिभाषा होती है | अपनी मान्यता होती है और समाज के विभिन्न तपकों में उसकी अपनी विशिष्ट पहचान होती है | सम्पूर्ण रूप से सब कुछ अच्छा है ऐसा कहा जाना कल्पना के स्वप्न लोक की श्रष्टि करता है | हाँ बुराई और अच्छाई सामूहिक विस्तार के सन्दर्भ में देखी -पारखी जा सकती है | भारत आशावान है | नयी पीढ़ी उत्साह से लबालब भरपूर है | ऐसा लग रहा है कि जीवन मूल्यों में कोई सुखद परिवर्तन आने वाला है | विगत में कई बार स्वप्न लोकों की श्रष्टि हुयी है पर यथार्थ के धरातल पर कोई भी स्वप्नलोक अवतरित नहीं हो सका है | पर विश्व के सभी धर्मग्रन्थ और महापुरुष यह सलाह देते हैं कि मानव को सदैव आशावान होना चाहिये | अबकी बार ऐसा लग रहा है  कि शब्दों के स्वप्न खोखले न रहकर कोई ठोस श्रष्टि कर  पायेंगें | प्रयासों की ईमानदारी पर नयी पीढ़ी में एक नया विश्वास जग उठा है और सम्भावना यही है कि इस विश्वास के परिणाम सुखद ही होंगें | यहां पर एक दूसरा प्रश्न उठ खड़ा होता है क्या भारत की तरुणायी स्थायी जीवन मूल्यों के लिये समर्पित होने को पूरी तरह प्रस्तुत है | शत -प्रतिशत न सही पर अधिसंख्य तरुण पीढ़ी यदि जीवन में सदाचार का व्रत ले तो पहाड़ को काटकर सुरंग बनायी जा सकती है | यदि हमें अपना व्यक्तिगत स्वार्थ साधनें के लिए परिवर्तन की आकांक्षा है तो ऐसी आकांक्षा मानव मूल्यों से रहित मानी जायेगी | सत्ता परिवर्तन को अपने निजी सुख से जोड़ना एक संकुचित मानसिकता का प्रतीक है | ऐसी व्यवस्था जो समग्र रूप से भारत के सवा अरब लोगों को भौतिक ,मानसिक और नैतिक परिवर्तन की ओर मोड़ सके उसके लिये हमें व्यक्तिगत स्वार्थ साधना से ऊपर उठना होगा | उदाहरण के लिये बेकारी की समस्या को लीजिये यदि हम अयोग्य होकर भी अपने से योग्य व्यक्तियों को राजनीतिक दुलत्ती के  द्वारा पीछे खदेड़ कर नौकरी पाना चाहते हैं तो हम भारत के राष्ट्रभक्त नागरिक नहीं कहे जा सकते हाँ हमें इस बात के लिये मर मिटने को तैय्यार रहना चाहिये कि चयन का आधार पात्र के व्यक्तिगत का समग्र आंकलन हो और इस समग्रता में न केवल उसका शैक्षिक ,मौखिक और शारीरिक समापन हो वरन उसके नैतिक , आध्यात्मिक और राष्ट्रीय संकल्प शक्ति का भी समायोजन किया जाय | इसी प्रकार हमारी आर्थिक नीति एकांगी न होकर बहुमुखी और बहु आयामी हो जो व्यक्ति या कार्पोरेट घरानें पूरी ईमानदारी के साथ भारत की कर व्यवस्था से  अनुबन्धित होकर अपनी गुणवत्ता से आगे बढ़ रहे हैं उनसे हमें कोई द्वेष नहीं होना चाहिये | पर राष्ट्र की उदार व्यवस्था से अर्जित आवश्यकता से अतिरिक्त धन कम सुविधा पाने वाले वंचित समाज के हित  में निवेशित किया जाय यह कोई असम्भव कल्पना नहीं है | भारत के इतिहास में कई बार सफल और निष्ठावान शासन तन्त्र के द्वारा ऐसी उपलब्धि हासिल की जा चुकी है | बीते कल में तकनीकी सुविधाओं का इतना बड़ा अम्बार नहीं था | संचार प्रौद्योगकीय भी न के बराबर थी | इन्टरनेट ने आज पूरी दुनिया को एक गाँव बना डाला है | इसलिये हमें उत्पादन की नवीनतम तकनीकों से परिचित होना होगा और आधुनिक जीवन शैली के सार्वजनिक साधन समाज के दुर्बलतम वर्ग तक पहुंचाने होंगें | वाक् पटुता तालियां बटोर सकती है पर दिल जीतने के लिये यथार्थ की धरती पर इमारत खड़ी करनी होती है | चाल ,चरित्र और चेहरा सभी को उज्वलता की ओर खींचकर हमें अतीत की बदनुमा कहानियों से मुक्त होना पडेगा | जिस दिन घुटालों  की कहानियां इतिहास बन जायेंगी , जिस दिन अभाव  का चित्रण संपन्न वर्ग के लिये मनोरंजन न बनकर प्रेरणां बन जायेगा ,जिस दिन राजनेता सच्चे अर्थों में जन नेता बन जायेंगे उसी दिन से गान्धी जी की कल्पना का स्वराज आकार लेने लगेगा | कुछ घटनायें इतनी अप्रत्याशित रूप से घटती हैं कि उन्हें परिवर्तन की अद्रश्य शक्तियों के साथ जोड़कर देखा जा सकता है हो सकता है भारत की ऊर्जावान सांस्कृतिक विरासत आ गये राजनीतिक परिवर्तन में परिलक्षित होकर उत्कर्षता  के नये कीर्तिमान कायम कर सके | भारत के प्रत्येक युवा को विवेकानन्द के बताये हुये मार्ग पर चलकर कर्म की प्रतिष्ठात्मा करनी होगा | कोई भी प्रधान मन्त्री या कोई भी राजनेता सर्वशक्तिशाली देवदूत नहीं होता वह उन कर्मठ पीढ़ियों का अगुआ जननायक होता है जो अपना भाग्य स्वयं निर्मित करते हैं | साठोत्तरी पीढ़ी के हम वरिष्ठ नागरिक कुछ दिन और जीना चाहकर एक ऐसे भारत का निर्माण देखना चाहते हैं जिसमें आजादी के पूर्व के महापुरुषों की योजनायें और प्राथमिकतायें साकार होती दिखायी पड़ें | 'माटी 'की उर्वरा भूमि कल्प वृक्षों के बीज अपने में समोनें  के लिये आकुल है | राष्ट्र भक्ति को समर्पित कोटि -कोटि तरुणों की पीढ़ी प्रतीक्षा रत है | देखिये समय का रथ कब गतिमान होता है |



दुलत्ती दुलत्ती दुलत्ती के द्वारा 

Article 20

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                              अपरिमेय घनत्व में सम्पुजित परमाणु प्रकाश बिम्ब अपने वर्तुल चक्र  परिधि में कब और कैसे महानतम विस्फोट की ऊर्जा पल्लवित कर उठा इसे शायद कोई  नहीं जानता  भले ही ब्रम्हांडविद इसकी परस्पर विरोधी व्याख्याओं से जूझते रहे हैं | महाविस्फोट के बाद भी अकल्पनीय विस्तरण की जिस प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ उसके विषय में भी कोई निश्चित अवधारणा अभी तक ब्रम्हाण्ड विशेषज्ञों ने नहीं दे पायी है | जिस एक बात पर सभी का मतैक्य है वह है काल की गणतीय परिधि से बाहर कालातीत परिभ्रमण प्रक्रिया में काल का प्रवेश | ब्रम्हाण्ड विस्फोट के साथ ही उसका विस्तारीकरण और उस विस्तारीकरण के साथ ही  समय की परिगणना का प्रारम्भ ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय  के प्रोफ़ेसर हॉकिन्स कालगणना की शुरुआत ब्रम्हाण्डीय विस्फोट के साथ जोड़कर देखते हैं | पर यह गणना भी संख्याओं में बंध  नहीं पाती उसे प्रतीकात्मक रूप से प्रकाश वर्षों में बांधा जाता  है | विज्ञ पाठकों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि ग्रहो और सितारों की दूरी प्रकाश वर्षों में भी नापी नहीं जा सकती | काल के इस अनन्त विस्तार में अरबों ,करोणों और लाखों वर्षों की दौड़ का भी कोई महत्त्व नहीं होता | पर मानव जीवन अपनी उत्पत्ति के  साथ ही अपने विनाश की अवधि का मापदण्ड भी लेकर आया था इसलिये मानव जीवन की कालगणना में एक वर्ष का महत्व भी चर्चा का विषय बन जाता है | भारतीय जनतन्त्र में केन्द्र में सत्ता परिवर्तन का समय संवैधानिक आधार पर पांच वर्ष के बाद आता है पर संवैधानिक आधार क्षतिग्रस्त हो जानें पर पांच वर्ष के पहले भी अस्थिरता का आभाष होने लगता है | इन मापदण्डों को आधार मानकर हम इस बात से आश्वस्त हो जाते हैं कि हमनें सभी संकटों से जूझकर '  माटी 'को  बारह वर्षों तक निरन्तर गतिमान रखा है  और अब भी हमारे निश्चय की द्रढ़ता अखण्ड रूप से हमें उद्दीपन भरा शक्ति आसव पिलाती रहती है | 
                                   इन बारह वर्षों में जिन प्रबुद्ध ,लब्ध प्रतिष्ठ और बाजारू संस्कृति से मुक्त कृतिकारों , आलोचकों ,विम्बघरों और नाभिकीय कल्पना पंखों पर आदर्श आरोहण में रत चिन्तकों और पाठकों ने हमें सहयोग दिया है उनका मैं धन्यवाद तो करता ही हूँ साथ ही अपना मान और मुखर नमन भी उन्हें समर्पित करता हूँ | मैं तो अपने में छिगुनी का बल भी नहीं पाता पर छिगुनी में यदि पवन पुत्र की कृपा द्रष्टि हो जाय तो उनकी ऊर्जा के अवतरण से वह मुझको भी उठा सकती है | 'माटी  'की निरन्तरता का श्रेय मुझको न जाकर उन सहस्त्रों सहयोगियों को जाता है जिनका समर्थन मुझ जैसे अकिंचन को मिला | मुझ पर चोट करने वाले उनकी सामूहिक ललकार को झेल नहीं सके और उनके बल पर मैं अपने मिशन पर बढ़ता चल रहा हूँ | स्वस्थ्य आलोचना  तो मेरे लिये गले का हार है ही पर कटूक्तियों की कंटक माला भी मेरे द्वारा उपेक्षित नहीं होगी | आखिर शिव का साधक गरल को कंठ धर कर नीलाभ शुषंमाँ में बदल देता है | '  माटी 'आपसे आशीर्वाद पाकर अपने सामर्थ्य को शताधिक रूप से विस्तारित करना चाहती है | सम्भावित सुझाव भी  प्रकाशन की अधिकार सीमा में आयेंगें | 
                        कृपया अपनी सम्मतियाँ ,शुभाशीष और उत्कर्ष की प्रेरणादायी सूक्तियाँ हमें प्रेषित कर कृतार्थ करें | 

Article 19

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                     '  माटी 'के बारह वर्ष पूरे हो गये | छपे शब्दों की नग्न बाजारी दौड़ में भारतीय तहजीब की सुसंस्कृत वेष भूषा पहनकर 'माटी 'ने दौड़ से बाहर करने वालों को एक चुनौती भरी ललकार लगायी है | 'माटी 'न केवल जीवित है बल्कि उसकी जीवन्तता में निरन्तर निखार आ रहा है | सुधी पाठक स्वयं जानते हैं कि छपायी और साज -सज्जा के स्तर पर 'माटी 'भले ही सामान्य स्तर पर खड़ी हो पर जहां तक उसके भीतर समाहित रचनात्मक तत्वों का प्रश्न है उसका स्थान हिन्दी  की साहित्यिक पत्रिकाओं में सर्वोच्च श्रेणी में ही आता है | साज -सज्जा और छपायी वित्तीय विपुलता की मांग करते हैं और  'माटी 'का पाठक  मध्य वर्गीय प्रबुद्ध नागरिक है जो स्वस्थ्य पठनीय विचार सम्पदा के लिये अपनी सीमित कमाई से बहुत अधिक राशि नहीं निकाल पाता | पूंजी जुटाने के लिये अस्मिता का सौदा करना 'माटी 'को सदैव नामंजूर रहा है  और रहेगा | प्रारम्भिक लड़खड़ाहट के बावजूद हमारे डगों  में विश्वास भरी त्वरा शक्ति आती जा रही है और शीघ्र ही हमारा प्रसार हिंदी भाषा -भाषी अन्तर -प्रान्तीय आयाम छूने  लगेगा | इस बीच भारत के राजनीतिक क्षितिज पर नवजागरण की सुहावन लालिमा दिखायी पड़ने लगी है | ऐसा लगाने लगा है कि एक समग्र 
 राष्ट्रीय द्रष्टि फिर से उभर कर क्षेत्रीय विखण्डता से टक्कर लेने को सजग हो उठी है | यह उभार स्वागत के योग्य है | क्योंकि अखण्ड राष्ट्रीय विचार पीठिका पर खड़े होकर ही हम भूगोल की वर्तुल सीमाओं को अपने आगोश में ले पायेंगें | जाग्रति का एक सबसे प्रबल पक्ष है भारत की अजेय तरुणायी का लोक रंजक और जन  कल्याणकारी राजनीतिक परिद्रश्य में सशक्त योगदान | 'माटी 'तो चाहती ही है कि भारत की उर्वरा भूमि  में लाखों  हँसते लहराते लाल राष्ट्र को फिर से संसार की श्रेष्ठतम कर्मभूमि और स्वस्थ्य भोगभूमि बनाने के लिये आगे आयें | | संभवतः धुंधलके को और अधिक साफ़ होने में अभी थोड़ी बहुत देर है पर ऐसा आभाष अवश्य हो रहा है कि तमस  की कालिमा छटने  लगी है | हमें सावधान होकर यह देखना होगा कि Sensex की उछालें हमारे लिये आर्थिक प्रगति का प्रतीक न बन जायें | दरिद्रता मानव जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप  है और हिंदी भाषा -भाषी प्रदेशों का एक काफी बड़ा हिस्सा दरिद्रता की चपेट में है | इस वर्ग को दरिद्रता की श्रेणीं से निकालकर सहनीय गरीबी के उपेक्षणनीय क्षेत्र में लाकर खड़ा करने के लिये भी बहुत अधिक इच्छाशक्ति और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासनिक व्यवस्था की आवश्यकता है | हम यह मानकर चलते हैं कि चालीस  और पचास वर्ष के बीच चलने वाले परिपक्व तरुणों के द्वारा भारत की राजनीति ऐसा कुछ असरदार कर दिखायेगी जो दरिद्रता का कलंक धो पोंछकर साफ़ करने में सफल हो सकेगी { निकट भविष्य में भारत की आर्थिक प्रगति और न जानें कितने अम्बानी ,टाटा और सुनील मित्तल को उभारकर विश्व के सबसे धनी उद्योगपतियों की श्रेणीं में स्थान दिला देगी | हम चाहेंगें कि केन्द्र का अक्षय कोष निरन्तर उन जरूरतमन्दों के लिये खुला रहे जो शताब्दियों से आर्थिक व्यवस्था के  हाशिये पर खड़े रहे हैं | अकबर के प्रसिद्द सभासद अब्दुल रहीम खानखाना जो महाभारत के कुन्ती पुत्र कर्ण  की भाँति अपने दान के लिये प्रसिद्द थे का एक दोहा हमें याद आता है | "देन हार कोहु और है ,भेजत है दिन रैन ,लोग भरम हम पर करैं ,ताते नीचे रेन |"
                           'माटी 'चाहती है कि सरकारें आत्म श्लाधा से ऊपर उठकर नीचे नैन करके वंचित सनुदाय की सेवा में निष्ठापूर्वक लग जानें का ब्रत लें |  

Article 18

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                                          वैष्णव जन  तो तैनें कहिये जो पीर पराई जाने  
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             नरसी मेहता की यह गुजराती भजन पंक्ति गाँधी जी को बहुत प्रिय थी | हर व्यक्ति महान नहीं होता ,क्योंकि बहुत कम व्यक्ति ही ऐसे होते हैं जो स्वार्थ की भावना से ऊपर उठकर जीते  हैं | इस श्रेणी के महापुरूषों को हम उँगलियों की पोरों पर गिन  सकते हैं | 
            प्रश्न इन महापुरुषों की महानता का नहीं प्रश्न इस बात का है कि  हम इन्हें महान मानते क्यों हैं ?यूँ तो बहुत सीधी सी बात है कि प्रत्येक वो  व्यक्ति  जो अपने दुखों की परवाह न करते हुए ,दुसरे के दुखों को समझता वा उन्हें दूर करने का भरसक प्रयत्न करता है ,महान कहलाता है | महानता की कसौटी मात्र दौलत ही नहीं | ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जिनके पास दौलत के नाम पर फूटी कौड़ी तक नहीं होती ,पर दिल का धन इतना अधिक होता है कि सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में बाँट देने के बाद भी ख़त्म नहीं होता | 
           अगर कसौटी को सामने रखकर मैं महापुरुषों की विवेचना करने लगूँ तो सत्यता अनायास ही सामने आ जायेगी | महात्मा बुद्ध व महावीर स्वामी को मात्र इसलिये महान नहीं कहा जाता कि उन्होंने राज -पाट त्याग दिया था ,बल्कि इसलिये महान कहा जाता है कि उन्होंने हर प्रकार के कष्ट सहकर मानव जाति को इन कष्टों से छुटकारा पाने का रास्ता दिखाया | 
            अशोक महान इसलिये महान नहीं था कि उसने भारत पर एक  छत्र राज्य  किया ,बल्कि इसलिये महान था कि उसने अपनी प्रजा के दुखों को दूर करने की यथासम्भव कोशिश की | महात्मा गान्धी को  वैष्णव जन  इसलिये मानते हैं कि उन्होंने पीर परायी न केवल समझी बल्कि उसे दूर करने का भी भरसक प्रयत्न किया | मदर टेरेसा को लोग इसलिये नहीं पूजते कि वे नोबेल पुरस्कार  विजेता हैं  , बल्कि उनके उस आत्मिक भाव के कारण पूजते हैं , जो वे उन कोढ़ियों व लाचारों के प्रति रखती थीं , जिनके मिलने की कल्पना मात्र से आम व्यक्ति घबरानें लगता है | 
             क्या भामाशाह का नाम भारतीय इतिहास में सिर्फ इसलिये इज्जत से नहीं लिया जाता कि उसने अपने सुखों को तिलांजलि देते हुये अपने देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिये सम्पूर्ण धन -दौलत की कुर्बानी कर दी | क्या स्वामी दयानन्द ,स्वामी विवेकानन्द व राजा राम मोहन राय जैसे अनेकों व्यक्ति सिर्फ इसलिये महान थे कि वे विद्वान थे ,नहीं ,वरन वो इसलिए महान थे कि उन्होंने अपनी विद्व्ता का प्रयोग आम जनता के पीर हरण के लिये किया | 
               क्या हम  भूल सकते हैं सुकरात का हँसते -हँसते जहर के प्याले को पी जाना | क्या हमें याद नहीं ईसा का सूली पर चढ़ जाना | क्या हम भूल सकते हैं भगत सिंह व चन्द्रशेखर की कुर्बानी | नहीं ,क्योंकि ये वो व्यक्ति थे जिन्होनें अपनी सम्पूर्ण जिन्दगी मानव जाति के पीर हरण के लिये त्याग दी | महापुरुष वही होता है जो दूसरों के रुदन को हंसी में ,दुःख को सुख में बदल दे | 
               कैसी विडम्ब्ना  है कि हम गान्धी जी के निर्धारित सिद्धान्त 'वैष्णव जन तो तैनें   कहिये जो पीर परायी  जानें  'को भूल चुके हैं | | आज के युग में हम महानता पाना नहीं बल्कि खरीदना चाहते हैं | लेकिन बड़प्पन बिकता नहीं ,बल्कि सारी जिन्दगी के अथक प्रयत्नों के बाद मिलता है | नीरज का एक आक्रोश भरा गीत 'मैं देख रहा हूँ ,भूख उग रही , गलियों और  बाजारों में , मैं देख रहा हूँ बेकारी ,कफ़न मजारों में ,  खुद मिट जाऊँगा , या  यह सब सामान बदलकर छोडूंगा , मैं मानव तो क्या मानव को भगवान् में बदलकर छोडूंगा | "मेरा मानना है कि व्यक्ति की महानता उसके मानवजाति के लिये किये गये कार्यों में है | 
                 अन्त में मैं यह कहना चाहूंगा कि महात्मा गान्धी के आदर्श के ध्येय को सामने रखकर हमें एक ऐसे राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करना चाहिये जो सिर्फ हमारे देश को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व को महानता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सके | 

                               
      
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