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Article 9

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                                            वर्तमान की परिभाषा करना इसलिये दुष्कर ही नहीं वरन असाध्य हो जाता है क्योंकि परिभाषा को कहते कहते वर्तमान अतीत हो जाता है और भविष्य की ओर पैंगें बढ़ा देता है | समय को एक अबाध निरन्तर प्रवहमान कालधारा के रूप में लेनें वाले चिन्तक अब इस बात पर एक मत होते दिखायी पड़  रहे हैं कि सनातन कुछ भी नहीं होता ,मात्र कालधारा की अनवरता ही सनातन है | यहां पर एक प्रश्न उठता है कि यदि कुछ भी सनातन नहीं है तो फिर विश्व का मानव समुदाय अपनी क्षेत्रीय ,जातीय , नस्लीय या तथाकथित सांस्कृतिक विशेषता की निरन्तरता बनाये रखनें के लिये इतना आग्रहशील क्यों रहता है | विश्व में अब तक अधिकतर महा नर संहारों की विभीषता के पीछे व्यक्ति समूहों की श्रेष्ठता की भावना ही रही है | श्रेष्ठता की यह भावना धार्मिक ,सांस्कृतिक और नस्लीय माया रूपों में उभर कर न जानें कितनें लुभावनें नांच ईजाद करती रही है | रक्त की होलियां खेलकर किसी भी परम्परा की सनातनता का दावा करनें वालों को नयी दार्शनिक , वैज्ञानिक और तकनीकी क्रान्तियों के बीच चिन्तन के नये बीज अपनानें होंगें | रूढ़ धर्मिता का एक सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि मानव का जीवन अभिछिन्न काल प्रवाह में बिन्दु के लक्षांश जैसा भी नहीं है | शतायु होनें की मानव जीवन संम्भावनायें अभी तक सम्भवतः एक प्रतिशत का आंकड़ा भी अभी तक पार नहीं कर पायी है | प्रकृति का अबाधित खेल लक्ष्य कोटि -कोटि संवत्सरों से चल रहा है | यह खेल काल की गणना से पहले भी चल रहा था और जब  मानव नें काल के मापांक खोजे तब तक उसका दौर इतना लम्बा चल चुका था कि मापांक उसकी बाहरी परिधि को भी छूने में असमर्थ सिद्ध हुये | एक ही जीवन काल में अस्सी के ऊपर का व्यक्ति जो सोचता है और जिन मूल्य बोधों से संचालित होता है वे मूल्य बोध साठ वर्ष के व्यक्ति से भिन्न होते हैं | सठियायी सोच चालीस से भिन्न होती है और चालीसा सोच तरुणायी के आगमन में सर्वथा भिन्न पीताभ झलक लिये दिखलायी पड़ती है | जब मानव के एक लघु जीवन कल में ही सनातनता का मिथक इतना विखण्डित हो जाता है तब उसे सनातनता की आधारहीन चारणींय गाथायें मानव आविर्भाव  सन्दर्भ में सर्वदा हास्यास्पद लगती हैं इसलिये 'माटी  'चिन्तन के धरातल पर सतत गतिशील वर्तमान को उजागर करनें का प्रयास करती है | 'माटी  'के पाठकों मेँ अधिसंख्य ऐसे लोग हैं जिनका अध्ययन न केवल विशाल है बल्कि इतना सामासिक भी है कि वह उन्हें हर पूर्वाग्रहों से मुक्त कर दे | ऐसे अधीत पाठक अतार्किक भावनावेष में आकर किसी भी जनूनी विचारधारा में घेरे बांधें नहीं जा सकते | उनमें चिन्तन की इतनी स्वतन्त्रता होती है कि वर्तमान की तात्कालिक व्याख्या कर सके और युगीन परिस्थतियों के अनुरूप सामाजिक ,राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर अपना स्वस्थ्य स्थान सुनिश्चित कर लें | सच तो यह है कि विशुद्ध रूप में जनतन्त्र की कल्पना व्यक्ति को विचार के धरातल पर अबंन्धित  स्वतन्त्रता प्रदान करती है पर आचरण के धरातल पर उसे अपनें आस -पास की सामाजिकता और विश्व मानवता से जोड़ने का सन्देश देती है | व्यक्ति स्वातंत्र्य और सामाजिक समरसता का आदर्श समन्वय ही जनतन्त्र को सच्ची शक्ति प्रदान कर सकता है |
                     पिछली लगभग आधी शताब्दी में मानव स्वतन्त्रता के नाम पर यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका विश्व में अपना झण्डा फहरा रहा है | सारा संसार अमरीका में मिली हुयी वैयक्तिक, सामाजिक और राजनीतिक स्वतन्त्रता की चर्चा करता रहता है और उसे आदर्श के रूप में स्वीकारता दिखायी पड़ता है | पर अमरीका की चका चौंध करनें वाली सामाजिक संरचना बहुराष्ट्रीय व्यापारिक घरानों की सहयोगिता और प्रतिस्पर्धा के कारण संम्भव हुयी जान पड़ती है | सहयोगिता इस अर्थ में कि राष्ट्र हित के लिये सभी मिलकर विश्व के अन्य राष्ट्रों का दोहन करें और प्रतिस्पर्धा इस अर्थ में कि इस दोहन में जो जितना सफल हो वह उतनी ही बड़ी प्रशंसा का अधिकारी बनें | वारेन वैफेट और बिल गेट्स की दानशीलता भी विश्व को चमत्कृत करनें के लिये है और भारत के कुछ खरबपतियों को अमरीका चरित्र की ऊँचाइयों के मुकाबले उनके बौनापन साबित करनें की राजनीतक चाल है | फिर भी चूंकि भारत सदैव से त्याग और दानशीलता का प्रशंसक रहा है इसलिये 'माटी  'उन्हें उनके सुकृत्यों के लिये साधुवाद देती है | आप जानते ही हैं कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री पद पर दुबारा सिंहासनस्थ हुए थे तो वित्त मन्त्री चयन के लिये जो नाम आये थे उनमें मान्टेक सिंह अहलूवालिया का नाम अमरीका की द्रष्टि में प्राथमिकता की प्रथम श्रेणीं पर था पर जब कांग्रेस पार्टी के आन्तरिक दबाव के कारण प्रणव दा इस पद को पा गये तो हेनरी क्लिन्टन नें यह जानना चाहा था कि हिन्दुस्तान का कौन सा  कार्पोरेट ग्रुप उन्हें स्पान्सर कर रहा है | हम यह इसलिये लिख रहे हैं कि अमरीका में इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि बिना कारपोरेट ग्रुप के समर्थन या सहारे के कोई भी व्यक्ति वित्तीय प्रबन्धन की ऊंचीं मंजिलें छू सकता है | भारत में फिलहाल अभी यह स्थिति अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है | इसका मुख्य कारण भारत की विशाल जनता और उसका  एक बहुत बड़ा  प्रतिशत हृदय द्रावक गरीबी है | चूंकि भारत के चुनाव काफी माइनों में स्वतन्त्र हैं इसलिये कारपोरेट घरानें उन चुनावों को आंशिक रूप से ही प्रभावित कर सकते हैं | 'माटी  'यह नहीं चाहती कि भारत में भी वह दिन आ जाय जब चुनाव प्रक्रिया और मन्त्री पद केवल कारपोरेट घरानों का खिलवाड़ बनकर रह जाय | नीरा राडिया के नाम से जो लोग परिचित हैं वे जानते ही हैं कि भारत में भी कारपोरेट घरानें किस प्रकार राजनीति को अपनी कठपुतली बनानें का प्रयास कर रहे हैं | यह सच है कि आज के विश्व समाज में धन कुबेरों नें  धर्मराजों को गद्दी से उतार कर नजर कैद कर रखा है और उनसे यदा -कदा फतवा और शास्त्र वाक्य दुहरवा कर अपना स्वार्थ साधनें का नाटक सजा रखा है पर काल की अनवरत धारा न जानें कितनें ऐसे बुलबुले अपनें में बनाती बिगाड़ती रहती है | भारत की आधुनिक गंदली राजनीति भी इसी निरन्तर गतिशील प्रक्रिया का एक खोखला उफान है | शीघ्र ही वह अतीत की विस्मृत भरी गोद में विलुप्त हो जायेगा | अभी तक यह संम्भव नहीं हो सका है कि विश्व का बहुसंख्यक मानव समाज सौ वर्षों तक या उससे अधिक स्वस्थ्य जीवन जी सके | अविकसित देशों में तो एक बहुत बड़ा प्रतिशत आधी शताब्दी भी पार नहीं कर पाता इसलिये यह संम्भव नहीं है कि चिन्तन का अत्याधुनिकता और सतत परिवर्तन की मानसिकता को विश्वव्यापी बनाया जा सके | पर तरुणायी की परिभाषा पर हमें एक बार पुनः विचार करना होगा | इसे आयु से न जोड़कर हमें चिन्तन की समग्रता और श्रजनशील नव्यता से जोड़कर देखना होगा | ऐसा करने पर हम पायेंगें कि अस्सी से ऊपर के कुछ व्यक्ति भी उन नवयुवकों से अपेक्षाकृत अधिक तरुण हैं जिनका जीवन दर्शन तीस के आस -पास ही रुग्ण हो जाता है | राजनीति नीतिशास्त्र का अध्याय नहीं है क्योंकि उसमें कूटिनीति भी शामिल है | सत्ता का सर्वथा त्याग भगवान् श्री राम भी नहीं कर सके थे क्योंकि जनमत नें  उन्हें अन्त में इस बात के लिये विवश कर दिया कि वे न्याय राज्य की स्थापना करें इसलिये राजनीतिक पार्टियां काल के  प्रभाव में बदलते जनमत के द्वारा सत्ता के गलियारों में निकलती -घुसती रहेंगीं | इस लुभावनें खेल के भी अपनें रोमांचक क्षण होते हैं | 'माटी  'के पाठक उनका आनन्द लें | पर जीवन की समग्रता में वे अपनें अतीत के लिये अपनें वर्तमान के कर्म का विसर्जन न  करें और सदैव ध्यान रखें कि भविष्य व्यक्ति के स्तर पर उसके वर्तमान का ही परिवर्धित रूप होता है | प्रकृति कुछ अनहोनी कर दे तो मनुष्य विवश हो जाता है | जापान की अजेयता सुनामी का प्रहार नहीं झेल पाती | भारत के धर्मानुशाषित विदेह राजों की सन्तानें अब भ्रष्टाचार की स्वर्ण पैंगें लगाकर केवल देह के लिये ही जी रही हैं | पर इसे  भी अनवरत काल की एक छलनामयी झाल कहें | 'माटी  'नींव की खुदायी में लगी है | नीँव का निर्माण कैश्योर्य पार कर तरुणायी की ओर  बढ़ रही पीढ़ी के द्वारा होना है | हम बड़े -बूढ़ों को कुछ समझदारी दिखानी होगी | हमें अपनी स्वर्ग की ललक छोड़नी होगी | हमें भारती की दो पंक्तियाँ गुनगुनाते रहना चाहिये |
                                             "अभी तो पड़ी है धरा अनबनी
                                                अभी स्वर्ग की नींव का क्या पता |"

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