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    यह उस युग की बात है जब जिसे हम आज इतिहास के नाम से जानते हैं उसका प्रारम्भ भी नहीं हुआ था।  स्मृति में बहुत पहले की सहेजी महाकाब्यों में समावेशित  धुंधले पुराकाल की कथायें अब स्पष्ट रूप से उभरने में आना कानी करनें लगी हैं।  कहाँ पढ़ा था कि किसी डाल  में अस्सी हजार वालखिल्य ऋषि लटके हुये थे और जब गरुण जी उस पर बैठ गये तब वह डाल टूट गयी पर गरुण जी नें उसे अपने पंजों में पकडे रखा और यत्न पूर्वक ऋषियों को ब्यथा पहुचाये बिना किसी सुरम्य पर्वतीय वादी उतार दिया। कुछ बड़ा होने पर जब पाश्चात्य विद्वानों का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा तो उन्होंने वालखिल्य को Hair Splitter कह कर सम्बोधित किया इस अनुवाद नें हमें एक नयी सूझ दी। हो सकता है यह वालखिल्य ऋषि बाल की खाल निकालने वाले तार्किक रहे हों। इन ऋषियों नें किसी एक वन्य प्रान्तर में अपने प्रचार को दार्शनिक शब्दों में ढालकर वहां के वनवासियों  तक पहुँचा दिया हों । उनके अनुयायियों की संख्या हजारों तक पहुँच गयी हो ।  वैनतेय गरुण जब इस वन प्रान्तर में वैष्णव धर्म के सन्देश वाहक बन कर पहुँचे तो उन्होंने वैदिक आस्था पर कुतर्क करने वाले इन वालखिल्यों को किसी दूर पर्वतीय उपत्यका में जाने को विवश कर दिया हो ।  हाँ ऐसा उन्होंने अहिंसक ढंग से अपने दर्शन की कुतर्कता पर अजेयता सिद्ध करके किया होगा। हो सकता है मेरा यह अनुमान केवल बौद्धिक विलास हो । पर बौद्धिक विलास में जो गगनचुम्बी पैंगें लगती हैं उनका सतांश भी तो ऐन्द्रिक विलास में नहीं होता । तो मैं बात कर रहा था किसी बहुत दूर कालावधि के गहन कुहासे से छन  कर आते हुये मानव के मस्तिष्क विकास की। द्विपदीय मानव चतुष्पदीय  और बहुपदीय स्रष्टि के शत सहस्त्र प्राणियों से अपने अस्तित्त्व को सुरक्षित करने के लिये संघर्षरत था । प्रत्येक क्षण जीवन मरण के बीच झूलता था। प्रत्येक रात्रि आने वाली नींद मृत्यु की पुकार सुनकर आँखों -आँखों में कट जाती थी। पर मृत्यु को हथेली पर लिए साहसी नव युवकों की टोलियाँ सहस्त्रों वर्षों तक नग्न अवस्था में और तत्पश्चात अर्ध नग्न अवस्था में दूर -दूर तक फैले लता, वृक्ष आच्छादित भयावह कटानों से युक्त विविध वनचरों ,जलचरों से भरे भूमिखंडों में विचरण किया करती थी । आगे के दो पैर ऋजुता पायी काया के कारण हाथ बनकर स्वतन्त्र परिचालन के लिए मुक्त हो गए थे और दो मुक्त हाथों की स्वतन्त्र परिचालन क्रिया आने वाली सहस्त्राब्दियों में मानव को प्रकृति का सार्व भौम साम्राज्य बनाने जा रही थी ।        
                    ऐसी ही एक टोली में तेजस्वी युवकों ,युवतियों के बीच सूर्य दीप्ति  से भरा  ओजस्वी मुख और लम्बी पुष्ठ  काया लिये एक नवयुवक जंगल प्रान्तर में विचरण कर रहा था। सम्बोधन के लिये हम इस नवयुवक को विद्युत पाद कहकर पुकारेंगें। 'माटी 'के अतीत अन्वेषी पाठक जानते ही हैं  कि हमारा यह दिया गया नाम केवल सुविधा के लिये है क्योंकि जिस काल की यह बात है उस समय तक भाषा का कोई सुनिश्चित रूप स्थिर नहीं हो सका था।  टोली में घूमते हुये विद्युत पाद ने देखा कि जब घन झुण्डों के धवल श्याम हस्थी आकाश में मडराते थे और सूंड उठाकर चिघ्घाड़ते थे तो उनके गज दंतों की चमक इतनी कौंध भर देती थी कि सभी जीवित प्राणी भयातुर हो काँप उठते थे। विद्युत पाद नें आदिम मानव मस्तिष्क की चिन्तन तंत्रिकाओं पर दबाव डाल  कर सोचना प्रारम्भ किया। मेघीय गजों का यह गर्जन और कौंध शायद जंगल में घूमने वाले हस्थियों की चिघ्घार और बाहर निकले लम्बे दाँतों की सफेदी से भिन्न है। इस चमक में कुछ रहस्य है। ऐसा लगता है कि कोई आदि शक्ति सब कुछ जला देने वाली जादुई चिंन्गारियों का खेल दिखाती चलती है। अगर यह चिनगारियाँ हमारी टोली को मिल जायँ तो सभी वन्य पशु हमसे भय खाने लगेंगे और हम वन्य प्रान्तर के विजेता बन कर इससे उपार्जित होने वाली सभी सामिग्री के अधिकारी हो जायेंगे । भूमि भी हमारी ,वृक्ष भी हमारे ,लताएँ भी हमारी ,जलाशय भी हमारे ,और प्रस्तरीय प्रस्तार भी हमारे। दुर्गम हिंसक पशु और भूमिगत सरीसृप हमारे पास भी नहीं आ सकेंगे। कितना सुखद होगा वह जीवन। हमारी टोली आस -पास की सभी टोलियों से श्रेष्ठ हो जायेगी। पर ऐसा कैसे हो ?उसने सोचा कि इसके लिये आँख बन्द कर गहरा चिन्तन किया जाय।
                                    कुछ दिन विद्युतपाद का चिन्तन चलता रहा। उसके मस्तिष्क में आदि शक्ति के कौन -कौन से नाम उभरे कोई नहीं जानता। कौन सी रूपाक्रतियाँ आयीं कोई नहीं जानता पर हाँ इतना अवश्य है कि उसकी टोली की कई नवयुवतियाँ और नवयुवक चिन्तन के समय उसके मुख पर उभर आने वाले प्रकाश से प्रभावित होने लगे। उन्हें लगा कि यह प्रकाश    मेघमालाओं से झरने वाली चिन्गारियों से छन कर उसके पास आया है। और फिर एक शाम प्रबल अंधड़ का प्रवाह चल निकला सारा वन्य प्रान्तर वायु से हिल -हिल कर न जाने कितने अजीबो गरीब स्वर निकालने लगा ,पशु पक्षी भी किसी आने वाली दैवीय आपत्ति का  अहसास पाकर इधर -उधर छिपने लगे।फ़िर शीतलता आयी और फिर उड़ती -उतराती ,इठलाती -बलखाती मेघ मालायें नील गगन को आच्छादित करने लगीं । अन्धकार बढ़ता गया विद्युतपाद एक वट  वृक्ष के नीचे बैठ कर चिन्तन में डूबा था।अर्ध रात्रि के आसपास एक भयानक गड़गड़ाहट की आवाज हुई लगा जैसे सैकड़ों वृक्ष उखड गए हों या फिर दूर की  पहाड़ी उखड़ कर हवा में उड़ रही हो। और फिर विद्युतपाद से केवल १ ५ -२ ० डग की दूरी पर आँखों को बन्द कर देने वाली सूर्य की दीप्ति से अधिक चमकीली चिन्गारियों की एक लपक धरती में धंसती दिखायी पड़ी। कुछ ही क्षण में वह लपक उलटकर मेघमालाओं में तिरोहित हो गयी।विद्युत पाद ने देखा कि आस -पास चारो ओर अग्नि की प्रभात कालीन सूर्य जैसी लाल -लाल लपटें उठ रहीं हैं। सभी कुछ काला हो रहा था। चारो ओर पशु -पक्षियों के झुलसे हुये शरीर पड़े थे । कितने हर्ष की बात थी कि उसकी टोली इस समय एक दूर सुरक्षित गुफा में आराम कर रही थी। वह स्वयं काफी दूर चलकर इस विशाल वृक्ष के नीचे चिन्तन करने के लिये  आ गया था। विद्युतपाद नें ऊपर निगाह उठायी तो उसे लगा कि आधा वट वृक्ष झुलस चुका है और उसके नीचे की डालों में मेघ मालाओं से गिरी आग पसरती जा रही है। कितना आश्चर्य था कि विद्युतपाद इस आघात से बच गया था। क्या आदि शक्ति नें उसे आसमान से फेंककर चिन्गारियों की यह धरोहर उसे सौंप दी है ?अचानक विद्युतपाद को लगा कि वट वृक्ष गिरने वाला है ,उसने सिरे पर जल रही  एक लम्बी डाली को उठा लिया और तेजी के साथ गुफा की ओर दौड़ चला। रास्ते में यदि कोई जीवित खुंखार जानवर था तो भी  उसे कोई डर न था क्योंकि वह जानता था कि आदि शक्ति ने उसे एक ताकत दे दी है। अब वह सचमुच ही विद्युतपाद हो गया था।अग्नि की शलाका उसके हाथ में थी पर समस्या थी कि इस अग्नि को सदा कैसे जलाये रखा जाय ? माना कि चारो ओर घने जंगल थे । माना कि जलने की प्रचुर सामग्री थी पर अपनी बस्ती में एक स्थान पर निरन्तर इस अग्नि को जलाये रखना होगा तभी हिंसक पशुओं ,सरी - श्रपों और हड्डियां कपा देने वाली शीत से रक्षा हो सकेगी। पर उपल वृष्टि और अति वृष्टि से इसे बचाकर कैसे रखा जाय ?चलें देखेंगे अभी तो सुभागा और अपाला को यह निर्देश देने होंगे कि उनका काम निरन्तर इस अग्नि को जलाये रखना है।  कम से कम एक लौ तो  सदैव जलती ही रहे फिर उसी एक ज्वाला से अनेक ज्वालायें उत्पन्न कर ली जायेंगी। ज्वालादेवी अपने प्राथमिक रूप में आदि मानव की विचार धारा में प्रवेश कर गयी और निरन्तर लव लगाये रखने की परम्परा नें भी अपना एक स्थायी पूजा विधान बना लिया।  विद्युतपाद अब अपनी टोली का नायक था और यह टोली धीरे -धीरे आसपास की अन्य टोलियों को भी लौ बांटती रही पर अब सुभागा विद्युतपाद के अधिक नजदीक आती गयी और दोनों के सम्मोहक प्राकृतिक मिलन नें जिस शिशु को जन्म दिया उसका नाम पड़ा अग्निपाद।  शैशव से ही अग्निपाद गहरे चिन्तन का धनी लगने लगा  था । सुभागा और विद्युतपाद शैशव से कैश्योर्य की  ओर बढ़ते हुए अग्निपाद की ओर देखकर कहा करते थे कि निश्चय ही एक दिन उनका पुत्र मानव इतिहास का अमर पुरुष बनेगा। काल कितनी तेजी से गुजरता है इसका एहसास हमें तब हो पाता  है जब हमारी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और हम वृद्ध हो जाते हैं। विद्युतपाद और सुभागा अब ढलान पर थे और अग्निपाद तरुणाई की चट्टान पर। वट  वृक्षों की छाया में बैठ कर चिंतन करनें के बजाय वह दूर दूर भिन्न -भिन्न रंग की विस्तृत पहाड़ियों पर चढ़कर किसी चट्टान के नीचे बैठता और चिन्तन करता। अग्नि को निरन्तर जलाये रखना अब एक समस्या बन गयी थी। टोली जब एक स्थान से  दूसरे  स्थान पर जाती तो किसी न किसी को निरन्तर जलती डाली को हाथ में लेकर चलना होता। आस -पास की टोलियों से एकाध बार यह सुनने मे भी आने लगा कि आग को जलाये रखना इतना आवश्यक हो गया था कि यदि किसी की असावधानी से आग बुझ जाय तो उसे टोली से खदेड़ कर जंगली जानवरों का ग्रास बना दिया जाता था। अग्नि हीन टोली को फिर किसी अग्नियुक्त टोली से आग की भीख मागनी पड़ती थी और यह उस टोली के लिये अत्यन्त अपमान का क्षण होता था। एक दिन अग्निपाद काफी दूर चला गया। एक पहाड़ी के पत्थर छोटी -छोटी चमकदार बिन्दियों से भरे बड़े सुन्दर लग रहे थे वह ऊपर तक चढ़ता चला गया वह ऊँचाई पर बैठने ही वाला था कि उसके पैर की टकराहट से लुढकता-पुढकता एक पत्थर नीचे पत्थरों पर जा गिरा। आग की एक कौंध चमक कर बुझ गयी। अग्निपाद को लगा कि शायद उसे कोई भ्रम हुआ है। पर नहीं -नहीं यह शुभ नहीं था तो क्या किसी ख़ास किस्म के पत्थर अपने में आग छिपाये हैं ? अग्निपाद नें एक बड़ा सा पत्थर हाथ में उठाकर पूरी ताकत से पास दूसरे पत्थर पर दे मारा। चिन्गारियों की कौंध फ़ैल गयी । अग्निपाद नें आग्नेय पत्थरों की रगड़ से  अग्नि उत्पन्न करने की तकनीक का अभ्यास करना शुरू किया। विद्युतपाद और सुभागा अपने इस पुत्र की महान उपलब्धि से अत्यन्त प्रसन्न हुये पर अब धर्म ने अपना सुनिश्चित स्वरूप स्थित करना शुरू कर दिया था। यज्ञों की परम्परा केवल अग्नि को जलाये रखने के लिये ही नहीं थी। यज्ञ के माध्यम से देवताओं और पितरों को तृप्त करने की दार्शनिक धारणा जन्म लेने लगी थी। पीढियां पर पीढियां गुजरती गयीं । समय का कारवाँ गुबार उड़ाता चला गया। चन्दन की लकडियाँ अग्नि में जलने से सुगन्ध का सम्मोहक वातावरण बनने लगा पर क्या चन्दन की शीतलता में भी अग्नि का निवास हो सकता है इस दिशा में अग्निपाद की परम्परा में जन्मीं प्रतिभाशाली सन्तानें सोचने लगीं और इसी परम्परा में एक महान अन्वेषक दृढ वती और कालजयी पुरुष नें जन्म लिया जिन्हें जमदग्नि के नाम से जाना जाता है।  पत्थरों से आगे बढ़कर लकड़ियों ,अस्थियों से होते हुये ताम्र युग के शुरुवात हो चुकी थी। ताम्र से बने आयुध पाकर कुछ टोलियों के सरदार स्वच्छन्द होने लगे थे। नियम टूट रहे थे । पवित्र मर्यादायें टूटती जा रही थीं । काष्ठ घर्षण के द्वारा चन्दन की रगड़ के द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की तकनीक खोजने वाले जमदग्नि जैसे मनीषी स्वच्छन्द अतिचारियों से जिन्हें राजा के नाम से   अभिहित किया जाने लगा था अपने को अपमानित महसूस कर रहे थे। जमदग्नि नें अपने पुत्र परशुराम को शस्त्र और शास्त्र मनन और चिन्तन सभी में अपने युग का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता बनाकर उन्हें दूर अन्तर उपलब्धि का मार्ग खोजने के लिये प्रस्थानित  कर दिया था । परशुधर की माँ रेणुका अपनी बढ़ती उम्र में भी अपने नारी सौंदर्य और शालीन आचरण के लिये निकट के सभी उपनिवेशों में चर्चित हो रहीं थी। हजारों भुजायें फैलाये अनाचार पवित्रता के प्रवल प्रवाह को स्तम्भित कर रहा था। इतिहास के पर्दे के  पीछे  ऐसा कुछ घटित होना था जो मानव चिन्तन को एक नया मोड़ दे और ऐश्वर्य या शक्ति को इन्द्रिय सुख से न जोड़कर मानव कल्याण की ओर उन्मुख करे।  अतीत की इन रहस्य भरी कोहिलिकाओं में 'माटी 'आपको बाद में विचरण करायेगी ।                                                                                                                                                                                                            

    यह उस युग की बात है जब जिसे हम आज इतिहास के नाम से जानते हैं उसका प्रारम्भ भी नहीं हुआ था।  स्मृति में बहुत पहले की सहेजी महाकाब्यों में समावेशित  धुंधले पुराकाल की कथायें अब स्पष्ट रूप से उभरने में आना कानी करनें लगी हैं।  कहाँ पढ़ा था कि किसी डाल  में अस्सी हजार वालखिल्य ऋषि लटके हुये थे और जब गरुण जी उस पर बैठ गये तब वह डाल टूट गयी पर गरुण जी नें उसे अपने पंजों में पकडे रखा और यत्न पूर्वक ऋषियों को ब्यथा पहुचाये बिना किसी सुरम्य पर्वतीय वादी उतार दिया। कुछ बड़ा होने पर जब पाश्चात्य विद्वानों का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा तो उन्होंने वालखिल्य को Hair Splitter कह कर सम्बोधित किया इस अनुवाद नें हमें एक नयी सूझ दी। हो सकता है यह वालखिल्य ऋषि बाल की खाल निकालने वाले तार्किक रहे हों। इन ऋषियों नें किसी एक वन्य प्रान्तर में अपने प्रचार को दार्शनिक शब्दों में ढालकर वहां के वनवासियों  तक पहुँचा दिया हों । उनके अनुयायियों की संख्या हजारों तक पहुँच गयी हो ।  वैनतेय गरुण जब इस वन प्रान्तर में वैष्णव धर्म के सन्देश वाहक बन कर पहुँचे तो उन्होंने वैदिक आस्था पर कुतर्क करने वाले इन वालखिल्यों को किसी दूर पर्वतीय उपत्यका में जाने को विवश कर दिया हो ।  हाँ ऐसा उन्होंने अहिंसक ढंग से अपने दर्शन की कुतर्कता पर अजेयता सिद्ध करके किया होगा। हो सकता है मेरा यह अनुमान केवल बौद्धिक विलास हो । पर बौद्धिक विलास में जो गगनचुम्बी पैंगें लगती हैं उनका सतांश भी तो ऐन्द्रिक विलास में नहीं होता । तो मैं बात कर रहा था किसी बहुत दूर कालावधि के गहन कुहासे से छन  कर आते हुये मानव के मस्तिष्क विकास की। द्विपदीय मानव चतुष्पदीय  और बहुपदीय स्रष्टि के शत सहस्त्र प्राणियों से अपने अस्तित्त्व को सुरक्षित करने के लिये संघर्षरत था । प्रत्येक क्षण जीवन मरण के बीच झूलता था। प्रत्येक रात्रि आने वाली नींद मृत्यु की पुकार सुनकर आँखों -आँखों में कट जाती थी। पर मृत्यु को हथेली पर लिए साहसी नव युवकों की टोलियाँ सहस्त्रों वर्षों तक नग्न अवस्था में और तत्पश्चात अर्ध नग्न अवस्था में दूर -दूर तक फैले लता, वृक्ष आच्छादित भयावह कटानों से युक्त विविध वनचरों ,जलचरों से भरे भूमिखंडों में विचरण किया करती थी । आगे के दो पैर ऋजुता पायी काया के कारण हाथ बनकर स्वतन्त्र परिचालन के लिए मुक्त हो गए थे और दो मुक्त हाथों की स्वतन्त्र परिचालन क्रिया आने वाली सहस्त्राब्दियों में मानव को प्रकृति का सार्व भौम साम्राज्य बनाने जा रही थी ।        
                    ऐसी ही एक टोली में तेजस्वी युवकों ,युवतियों के बीच सूर्य दीप्ति  से भरा  ओजस्वी मुख और लम्बी पुष्ठ  काया लिये एक नवयुवक जंगल प्रान्तर में विचरण कर रहा था। सम्बोधन के लिये हम इस नवयुवक को विद्युत पाद कहकर पुकारेंगें। 'माटी 'के अतीत अन्वेषी पाठक जानते ही हैं  कि हमारा यह दिया गया नाम केवल सुविधा के लिये है क्योंकि जिस काल की यह बात है उस समय तक भाषा का कोई सुनिश्चित रूप स्थिर नहीं हो सका था।  टोली में घूमते हुये विद्युत पाद ने देखा कि जब घन झुण्डों के धवल श्याम हस्थी आकाश में मडराते थे और सूंड उठाकर चिघ्घाड़ते थे तो उनके गज दंतों की चमक इतनी कौंध भर देती थी कि सभी जीवित प्राणी भयातुर हो काँप उठते थे। विद्युत पाद नें आदिम मानव मस्तिष्क की चिन्तन तंत्रिकाओं पर दबाव डाल  कर सोचना प्रारम्भ किया। मेघीय गजों का यह गर्जन और कौंध शायद जंगल में घूमने वाले हस्थियों की चिघ्घार और बाहर निकले लम्बे दाँतों की सफेदी से भिन्न है। इस चमक में कुछ रहस्य है। ऐसा लगता है कि कोई आदि शक्ति सब कुछ जला देने वाली जादुई चिंन्गारियों का खेल दिखाती चलती है। अगर यह चिनगारियाँ हमारी टोली को मिल जायँ तो सभी वन्य पशु हमसे भय खाने लगेंगे और हम वन्य प्रान्तर के विजेता बन कर इससे उपार्जित होने वाली सभी सामिग्री के अधिकारी हो जायेंगे । भूमि भी हमारी ,वृक्ष भी हमारे ,लताएँ भी हमारी ,जलाशय भी हमारे ,और प्रस्तरीय प्रस्तार भी हमारे। दुर्गम हिंसक पशु और भूमिगत सरीसृप हमारे पास भी नहीं आ सकेंगे। कितना सुखद होगा वह जीवन। हमारी टोली आस -पास की सभी टोलियों से श्रेष्ठ हो जायेगी। पर ऐसा कैसे हो ?उसने सोचा कि इसके लिये आँख बन्द कर गहरा चिन्तन किया जाय।
                                    कुछ दिन विद्युतपाद का चिन्तन चलता रहा। उसके मस्तिष्क में आदि शक्ति के कौन -कौन से नाम उभरे कोई नहीं जानता। कौन सी रूपाक्रतियाँ आयीं कोई नहीं जानता पर हाँ इतना अवश्य है कि उसकी टोली की कई नवयुवतियाँ और नवयुवक चिन्तन के समय उसके मुख पर उभर आने वाले प्रकाश से प्रभावित होने लगे। उन्हें लगा कि यह प्रकाश    मेघमालाओं से झरने वाली चिन्गारियों से छन कर उसके पास आया है। और फिर एक शाम प्रबल अंधड़ का प्रवाह चल निकला सारा वन्य प्रान्तर वायु से हिल -हिल कर न जाने कितने अजीबो गरीब स्वर निकालने लगा ,पशु पक्षी भी किसी आने वाली दैवीय आपत्ति का  अहसास पाकर इधर -उधर छिपने लगे।फ़िर शीतलता आयी और फिर उड़ती -उतराती ,इठलाती -बलखाती मेघ मालायें नील गगन को आच्छादित करने लगीं । अन्धकार बढ़ता गया विद्युतपाद एक वट  वृक्ष के नीचे बैठ कर चिन्तन में डूबा था।अर्ध रात्रि के आसपास एक भयानक गड़गड़ाहट की आवाज हुई लगा जैसे सैकड़ों वृक्ष उखड गए हों या फिर दूर की  पहाड़ी उखड़ कर हवा में उड़ रही हो। और फिर विद्युतपाद से केवल १ ५ -२ ० डग की दूरी पर आँखों को बन्द कर देने वाली सूर्य की दीप्ति से अधिक चमकीली चिन्गारियों की एक लपक धरती में धंसती दिखायी पड़ी। कुछ ही क्षण में वह लपक उलटकर मेघमालाओं में तिरोहित हो गयी।विद्युत पाद ने देखा कि आस -पास चारो ओर अग्नि की प्रभात कालीन सूर्य जैसी लाल -लाल लपटें उठ रहीं हैं। सभी कुछ काला हो रहा था। चारो ओर पशु -पक्षियों के झुलसे हुये शरीर पड़े थे । कितने हर्ष की बात थी कि उसकी टोली इस समय एक दूर सुरक्षित गुफा में आराम कर रही थी। वह स्वयं काफी दूर चलकर इस विशाल वृक्ष के नीचे चिन्तन करने के लिये  आ गया था। विद्युतपाद नें ऊपर निगाह उठायी तो उसे लगा कि आधा वट वृक्ष झुलस चुका है और उसके नीचे की डालों में मेघ मालाओं से गिरी आग पसरती जा रही है। कितना आश्चर्य था कि विद्युतपाद इस आघात से बच गया था। क्या आदि शक्ति नें उसे आसमान से फेंककर चिन्गारियों की यह धरोहर उसे सौंप दी है ?अचानक विद्युतपाद को लगा कि वट वृक्ष गिरने वाला है ,उसने सिरे पर जल रही  एक लम्बी डाली को उठा लिया और तेजी के साथ गुफा की ओर दौड़ चला। रास्ते में यदि कोई जीवित खुंखार जानवर था तो भी  उसे कोई डर न था क्योंकि वह जानता था कि आदि शक्ति ने उसे एक ताकत दे दी है। अब वह सचमुच ही विद्युतपाद हो गया था।अग्नि की शलाका उसके हाथ में थी पर समस्या थी कि इस अग्नि को सदा कैसे जलाये रखा जाय ? माना कि चारो ओर घने जंगल थे । माना कि जलने की प्रचुर सामग्री थी पर अपनी बस्ती में एक स्थान पर निरन्तर इस अग्नि को जलाये रखना होगा तभी हिंसक पशुओं ,सरी - श्रपों और हड्डियां कपा देने वाली शीत से रक्षा हो सकेगी। पर उपल वृष्टि और अति वृष्टि से इसे बचाकर कैसे रखा जाय ?चलें देखेंगे अभी तो सुभागा और अपाला को यह निर्देश देने होंगे कि उनका काम निरन्तर इस अग्नि को जलाये रखना है।  कम से कम एक लौ तो  सदैव जलती ही रहे फिर उसी एक ज्वाला से अनेक ज्वालायें उत्पन्न कर ली जायेंगी। ज्वालादेवी अपने प्राथमिक रूप में आदि मानव की विचार धारा में प्रवेश कर गयी और निरन्तर लव लगाये रखने की परम्परा नें भी अपना एक स्थायी पूजा विधान बना लिया।  विद्युतपाद अब अपनी टोली का नायक था और यह टोली धीरे -धीरे आसपास की अन्य टोलियों को भी लौ बांटती रही पर अब सुभागा विद्युतपाद के अधिक नजदीक आती गयी और दोनों के सम्मोहक प्राकृतिक मिलन नें जिस शिशु को जन्म दिया उसका नाम पड़ा अग्निपाद।  शैशव से ही अग्निपाद गहरे चिन्तन का धनी लगने लगा  था । सुभागा और विद्युतपाद शैशव से कैश्योर्य की  ओर बढ़ते हुए अग्निपाद की ओर देखकर कहा करते थे कि निश्चय ही एक दिन उनका पुत्र मानव इतिहास का अमर पुरुष बनेगा। काल कितनी तेजी से गुजरता है इसका एहसास हमें तब हो पाता  है जब हमारी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और हम वृद्ध हो जाते हैं। विद्युतपाद और सुभागा अब ढलान पर थे और अग्निपाद तरुणाई की चट्टान पर। वट  वृक्षों की छाया में बैठ कर चिंतन करनें के बजाय वह दूर दूर भिन्न -भिन्न रंग की विस्तृत पहाड़ियों पर चढ़कर किसी चट्टान के नीचे बैठता और चिन्तन करता। अग्नि को निरन्तर जलाये रखना अब एक समस्या बन गयी थी। टोली जब एक स्थान से  दूसरे  स्थान पर जाती तो किसी न किसी को निरन्तर जलती डाली को हाथ में लेकर चलना होता। आस -पास की टोलियों से एकाध बार यह सुनने मे भी आने लगा कि आग को जलाये रखना इतना आवश्यक हो गया था कि यदि किसी की असावधानी से आग बुझ जाय तो उसे टोली से खदेड़ कर जंगली जानवरों का ग्रास बना दिया जाता था। अग्नि हीन टोली को फिर किसी अग्नियुक्त टोली से आग की भीख मागनी पड़ती थी और यह उस टोली के लिये अत्यन्त अपमान का क्षण होता था। एक दिन अग्निपाद काफी दूर चला गया। एक पहाड़ी के पत्थर छोटी -छोटी चमकदार बिन्दियों से भरे बड़े सुन्दर लग रहे थे वह ऊपर तक चढ़ता चला गया वह ऊँचाई पर बैठने ही वाला था कि उसके पैर की टकराहट से लुढकता-पुढकता एक पत्थर नीचे पत्थरों पर जा गिरा। आग की एक कौंध चमक कर बुझ गयी। अग्निपाद को लगा कि शायद उसे कोई भ्रम हुआ है। पर नहीं -नहीं यह शुभ नहीं था तो क्या किसी ख़ास किस्म के पत्थर अपने में आग छिपाये हैं ? अग्निपाद नें एक बड़ा सा पत्थर हाथ में उठाकर पूरी ताकत से पास दूसरे पत्थर पर दे मारा। चिन्गारियों की कौंध फ़ैल गयी । अग्निपाद नें आग्नेय पत्थरों की रगड़ से  अग्नि उत्पन्न करने की तकनीक का अभ्यास करना शुरू किया। विद्युतपाद और सुभागा अपने इस पुत्र की महान उपलब्धि से अत्यन्त प्रसन्न हुये पर अब धर्म ने अपना सुनिश्चित स्वरूप स्थित करना शुरू कर दिया था। यज्ञों की परम्परा केवल अग्नि को जलाये रखने के लिये ही नहीं थी। यज्ञ के माध्यम से देवताओं और पितरों को तृप्त करने की दार्शनिक धारणा जन्म लेने लगी थी। पीढियां पर पीढियां गुजरती गयीं । समय का कारवाँ गुबार उड़ाता चला गया। चन्दन की लकडियाँ अग्नि में जलने से सुगन्ध का सम्मोहक वातावरण बनने लगा पर क्या चन्दन की शीतलता में भी अग्नि का निवास हो सकता है इस दिशा में अग्निपाद की परम्परा में जन्मीं प्रतिभाशाली सन्तानें सोचने लगीं और इसी परम्परा में एक महान अन्वेषक दृढ वती और कालजयी पुरुष नें जन्म लिया जिन्हें जमदग्नि के नाम से जाना जाता है।  पत्थरों से आगे बढ़कर लकड़ियों ,अस्थियों से होते हुये ताम्र युग के शुरुवात हो चुकी थी। ताम्र से बने आयुध पाकर कुछ टोलियों के सरदार स्वच्छन्द होने लगे थे। नियम टूट रहे थे । पवित्र मर्यादायें टूटती जा रही थीं । काष्ठ घर्षण के द्वारा चन्दन की रगड़ के द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की तकनीक खोजने वाले जमदग्नि जैसे मनीषी स्वच्छन्द अतिचारियों से जिन्हें राजा के नाम से   अभिहित किया जाने लगा था अपने को अपमानित महसूस कर रहे थे। जमदग्नि नें अपने पुत्र परशुराम को शस्त्र और शास्त्र मनन और चिन्तन सभी में अपने युग का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता बनाकर उन्हें दूर अन्तर उपलब्धि का मार्ग खोजने के लिये प्रस्थानित  कर दिया था । परशुधर की माँ रेणुका अपनी बढ़ती उम्र में भी अपने नारी सौंदर्य और शालीन आचरण के लिये निकट के सभी उपनिवेशों में चर्चित हो रहीं थी। हजारों भुजायें फैलाये अनाचार पवित्रता के प्रवल प्रवाह को स्तम्भित कर रहा था। इतिहास के पर्दे के  पीछे  ऐसा कुछ घटित होना था जो मानव चिन्तन को एक नया मोड़ दे और ऐश्वर्य या शक्ति को इन्द्रिय सुख से न जोड़कर मानव कल्याण की ओर उन्मुख करे।  अतीत की इन रहस्य भरी कोहिलिकाओं में 'माटी 'आपको बाद में विचरण करायेगी ।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      

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