सागर माथा से
कंचन जंगा के शिखर बैठ मैंने देखा
दायें बायें
धूसर विराट
भारत माँ का भुज युग प्रसार
है शिरा जाल सी सींच रही
गिरिषुता जिसे हिम काट -काट ।
पग तल घेरे योजन हजार
कीर्तन रत सागर महाकार
माँ के चरणों को चूम -चूम
मंजीर झाँझ झंझा झंकार । ।
हे विपुल रूप हे महाप्राण
हे कालजयी हे सहसनाम
शतकोटि स्वरों को स्वीकारो
अर्चना -दीप्ति सुरभित प्रणाम ।
माँ क्षमा करो उन भ्रमित पतित संतानों को
पीली माया के बस होकर जो बिके विदेशी टोलों में
निज जननी का करनें जो बैठे अंग -भंग
माला के मनके बदल दिये हथगोलों में
माँ क्षमा करो उन क्रूर कुचाली संतों को
जो ह्त्या करने पूजा घर में जाते हैं
जो लाशों की दीवाल बैठ ऊँचें बनते
जो मुँह में राम बगल में छूरी लाते हैं
इतिहास नहीं जाना उन अन्ध मसीहों नें
जो धर्म कौम का अर्थ राष्ट्र बतलाते हैं हैं
वे जान नहीं पाये सावन के श्यामल घन
मणिपुर से लेकर सिन्धु देश तक जाते हैं
इतिहास नहीं जाना उन दस्यु लुटेरों नें
जो शरण माँगते आज शत्रु की बाहों में
है ईशु रो रहा फूट -फूट ज्योतिर्मग में
हाँ बाल ,वृद्ध ,वनिता की ह्त्या राहों में ।
जो भटक गये हैं अन्ध बन्द गलियारों में
लेकर विवेक की किरण वहाँ पर जाना है
है घृणा नहीं संस्कृति का मूलाधार यहाँ
नानक ,कबीर का प्यार उन्हें पहुचाना है ।
गूँजी रवीन्द्र की बाणी मेरे कानोँ में
सामासिक स्वर ले लहर उठी उल्लसित बीन
सब घुले -मिले 'हेथाय आर्य 'हेथा अनार्य
सब एक हुये 'हे थाय 'द्राविणो चीन ।
इकबाल गवाही है ,अब तक हस्ती की धाक हमारी है ।
सब लुंज -पुंज हो गये मिश्र ,यूनान ,रोम ,
अपनें नाम पर जो चमक रहे हैं सरस नखत
उनसे घिर कर द्युतिमान हुआ भारती सोम ।
यह धरती विपुला है इसमें हर पत्र पुष्प
हँस ,लहर ,सरस निर्विघ्न चिरन्जी होता है
माँ गंगा से नभ -गंगा तक हर हिन्दी नित
सोते जगते बस प्यार बीज ही बोता है
विघटन का दर्शन थोथा है ,हिँसा डाइन हत्यारी है ।
माटी के पूतो उठो विगत ललकार रहा
देखो कॉलिंग से बोल रहा है फिर अशोक
बापू का दर्शन फिर से हमें पुकार रहा ।
'होकर अनेक भी एक अमर संस्कृति धारा '
है गूँज रही जगजयी जवाहर की वाणी
यह भगत सिंह मरदाना फाँसी झूल रहा
इतिहास नया रच गयी यहाँ झांसी रानी
यह छुआ -छूत यह जाति -पाँति यह वर्ग भेद
यह तंग दायरों में उलझा काला जाला
है गुफा- मनुज के चिन्ह छोड़ वासी केंचुल
सबको निसर्ग नें एक मृत्तिका में ढाला
हम हिन्दू ,मुस्लिम ,पारसीक
हम सिक्ख ,यहूदी ,ईसाई
यह भेद -भाव में आते हैं
पहले हम सब हिन्दी भाई
जीवन्त राष्ट्र की पुष्ट जड़ें
गहरी मिट्टी में जाती हैं
शाखें ,पल्लव ,कोपल ,कलगी
हो भिन्न रूप लहराती हैं
हम कल की उपज नहीं साथी
इतिहास हमारा अनुचर है
कांक्षा- विहीन हम कर्म निरत
सदद्धर्म हमारा सहचर है
गौरी शंकर है भाल ,विंध्य कटि -तट प्रदेश
हम सहस रूप ,हम लक्ष वेष
हम आदि सभ्यता के श्रष्टा
हम आगत के द्रष्टा विशेष
हम महाकाब्य ,हम जाति-मुक्त
हम सर्व -धर्म समभाव देश
मानव भविष्य के सूत्र- धार
है कालजयी गाँधी विचार
सवन्ति ला रही अणु -संध्या
माँ की रज से माथा संवार
कंचन जंगा के शिखर बैठ मैंने देखा
दायें बायें। ...................
कंचन जंगा के शिखर बैठ मैंने देखा
दायें बायें
धूसर विराट
भारत माँ का भुज युग प्रसार
है शिरा जाल सी सींच रही
गिरिषुता जिसे हिम काट -काट ।
पग तल घेरे योजन हजार
कीर्तन रत सागर महाकार
माँ के चरणों को चूम -चूम
मंजीर झाँझ झंझा झंकार । ।
हे विपुल रूप हे महाप्राण
हे कालजयी हे सहसनाम
शतकोटि स्वरों को स्वीकारो
अर्चना -दीप्ति सुरभित प्रणाम ।
माँ क्षमा करो उन भ्रमित पतित संतानों को
पीली माया के बस होकर जो बिके विदेशी टोलों में
निज जननी का करनें जो बैठे अंग -भंग
माला के मनके बदल दिये हथगोलों में
माँ क्षमा करो उन क्रूर कुचाली संतों को
जो ह्त्या करने पूजा घर में जाते हैं
जो लाशों की दीवाल बैठ ऊँचें बनते
जो मुँह में राम बगल में छूरी लाते हैं
इतिहास नहीं जाना उन अन्ध मसीहों नें
जो धर्म कौम का अर्थ राष्ट्र बतलाते हैं हैं
वे जान नहीं पाये सावन के श्यामल घन
मणिपुर से लेकर सिन्धु देश तक जाते हैं
इतिहास नहीं जाना उन दस्यु लुटेरों नें
जो शरण माँगते आज शत्रु की बाहों में
है ईशु रो रहा फूट -फूट ज्योतिर्मग में
हाँ बाल ,वृद्ध ,वनिता की ह्त्या राहों में ।
जो भटक गये हैं अन्ध बन्द गलियारों में
लेकर विवेक की किरण वहाँ पर जाना है
है घृणा नहीं संस्कृति का मूलाधार यहाँ
नानक ,कबीर का प्यार उन्हें पहुचाना है ।
गूँजी रवीन्द्र की बाणी मेरे कानोँ में
सामासिक स्वर ले लहर उठी उल्लसित बीन
सब घुले -मिले 'हेथाय आर्य 'हेथा अनार्य
सब एक हुये 'हे थाय 'द्राविणो चीन ।
इकबाल गवाही है ,अब तक हस्ती की धाक हमारी है ।
सब लुंज -पुंज हो गये मिश्र ,यूनान ,रोम ,
अपनें नाम पर जो चमक रहे हैं सरस नखत
उनसे घिर कर द्युतिमान हुआ भारती सोम ।
यह धरती विपुला है इसमें हर पत्र पुष्प
हँस ,लहर ,सरस निर्विघ्न चिरन्जी होता है
माँ गंगा से नभ -गंगा तक हर हिन्दी नित
सोते जगते बस प्यार बीज ही बोता है
विघटन का दर्शन थोथा है ,हिँसा डाइन हत्यारी है ।
माटी के पूतो उठो विगत ललकार रहा
देखो कॉलिंग से बोल रहा है फिर अशोक
बापू का दर्शन फिर से हमें पुकार रहा ।
'होकर अनेक भी एक अमर संस्कृति धारा '
है गूँज रही जगजयी जवाहर की वाणी
यह भगत सिंह मरदाना फाँसी झूल रहा
इतिहास नया रच गयी यहाँ झांसी रानी
यह छुआ -छूत यह जाति -पाँति यह वर्ग भेद
यह तंग दायरों में उलझा काला जाला
है गुफा- मनुज के चिन्ह छोड़ वासी केंचुल
सबको निसर्ग नें एक मृत्तिका में ढाला
हम हिन्दू ,मुस्लिम ,पारसीक
हम सिक्ख ,यहूदी ,ईसाई
यह भेद -भाव में आते हैं
पहले हम सब हिन्दी भाई
जीवन्त राष्ट्र की पुष्ट जड़ें
गहरी मिट्टी में जाती हैं
शाखें ,पल्लव ,कोपल ,कलगी
हो भिन्न रूप लहराती हैं
हम कल की उपज नहीं साथी
इतिहास हमारा अनुचर है
कांक्षा- विहीन हम कर्म निरत
सदद्धर्म हमारा सहचर है
गौरी शंकर है भाल ,विंध्य कटि -तट प्रदेश
हम सहस रूप ,हम लक्ष वेष
हम आदि सभ्यता के श्रष्टा
हम आगत के द्रष्टा विशेष
हम महाकाब्य ,हम जाति-मुक्त
हम सर्व -धर्म समभाव देश
मानव भविष्य के सूत्र- धार
है कालजयी गाँधी विचार
सवन्ति ला रही अणु -संध्या
माँ की रज से माथा संवार
कंचन जंगा के शिखर बैठ मैंने देखा
दायें बायें। ...................