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श्यामली आँचल 

हर सुबह प्रतिज्ञा करता हूँ अब वीतराग बन जाऊँगा
हर शाम श्यामली आँचल में फिर याद तुम्हारी आती है
कितना चाहा मन - मधुप विरागी बन जाये
मन की लहरों का कोई और किनारा हो
माटी की मटियाली राहों को छोड़ बढ़ूँ
मंजिल मेरी भी नील गगन का तारा हो
जो प्यास रूप - मदिरा पर पलती रहती है
वह प्यास सृष्टि - जिज्ञासा बनकर ढल जाये
जो सांस वक्ष के सरगम पर स्वर भरती है
वह सांस प्राण की पीड़ा बन कर पल जाये
जो द्रष्टि उभारों के सौष्ठव से खेल रही
वह द्रष्टि दीप्त हो युग का सत्य दिखा जाये
जो वक्ष पिया  के आतुर अंग सम्हाल रहा
वह वक्ष कठिन हो यौवन - धर्म सिखा  जाये
जो चाह देह की  बाता छू छू जलती है
वह चाह उमग  कर इश्क - हकीकी बन जाये
जो राह तुम्हारे द्वारे आकर रुकती है
वह राह पसरकर आसमान तक तन जाये
पर द्वार तुम्हारे पहुँच कदम रुक जाते हैं
साँसों में केशों की सुगन्ध बस जाती है
हर सुबह प्रतिज्ञा करता हूँ ------------------
माना कि ऊर्ध्वगामी राहें कुछ विरले ही चल पाते हैं
हर एक जन्म अमरत्व नहीं बन पाता है
हर प्रीती मिलन के द्वार नहीं पहुँचा करती
हर सत्य कला का तत्व नहीं बन पाता है
हर भाव  चाह  कर भी कब कविता बन पाया
हर कली कहाँ यौवन पाकर मुस्काती है
हर एक संदेशा मुखर नहीं होता माना
हर पवन - लहर कब बनी पिया की पाती है
फिर भी प्रयास का दर्शन था मैनें सोचा
कुछ दूर लक्ष्य की ओर मुझे ले जायेगा
उद्दातीकरण प्रक्रिया के परिमल से मिल
आध्यात्म्य समीरण की सुगन्ध दे जायेगा
पर हर प्रयास बाँहों के बन्धन में जकड़ा
जाने कब से है सिसक सिसक दम तोड़ रहा
हठ योग पड़ा है औंधाये मुँह देहरी पर
वेदान्त बिचारा रच रच जूड़ा जोड़ रहा
लाखों लहरों पर तिरा सत्य इतना पाया
हर लहर पिया के पैर चूमनें आती है



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