आल्डस हग्जले जैसे विचारक और विन्स्टन चर्चिल जैसे महान राजनीतिज्ञ ऐसा मान कर चलते थे कि आजादी मिल जाने के बाद भारत थोड़े बहुत अर्से के बाद या तो एक अराजकता वादी देश बन जायेगा या फिर से छोटे -मोटे खण्डित -विखण्डित राजतन्त्रों में बदल जायेगा । पर इन बहुचर्चित भ्रमात्मक भविष्य वक्तब्यों के होते हुये भी भारत की जनतान्त्रिक परम्परा आज तक सुरक्षित चल रही है यह निश्चय ही विश्व के लिये भारत की प्राणवत्ता का सबसे ठोस और प्रामाणित सबूत है । संघीय व्यवस्था में केन्द्र और राज्य की सरकारेँ किसी एक पार्टी की राजनीति से प्रतिबद्धित नहीं हो सकतीं । प्रारम्भिक वर्षों में स्वतन्त्र भारत में लगभग एक ही पार्टी का राज्य और केन्द्र सरकारें देखने का अनुभव प्राप्त कर लिया उस समय राजनीतिक चेतना क्षेत्रीय सीमाओं से उठकर राष्ट्रीय पुनुरुत्थान की लौ जलाये हुये थीं पर एक दो पीढ़ी के अन्तराल के बाद क्षेत्रीय समस्याओँ नें विज्ञान से आहत सामाजिक परम्पराओं को अपनी ओर मोड़कर संघीय राजनीति को एक नयी दिशा प्रदान कर दी । 67 -68 वर्ष की लम्बी जनतान्त्रिक चुनावी प्रक्रिया नें क्षेत्रीय और केन्द्रीय स्तर पर न जाने कितनें अजीबो -गरीब गुल खिलायें हैं। पुराने इतिहास को उधेड़नें से और कुछ तो मिल नहीं सकता हाँ भानमती का पिटारा अवश्य खोला जा सकता है पर आज की ताजा राजनीतिक परिस्थिति में केन्द्र की सरकार भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर तीन बार आर्डिनेंस पास करनें पर मजबूर हुयी है क्योंकि राज्य सभा में उसे बहुमत हासिल नहीं हो पाता है । टकराव की इस राजनीति में राष्ट्र हित गौड़ हो गया है और एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति अपनें चरम जोश पर है । कई बार सत्ता के शीर्ष पर बैठे या पहले बैठ चुके राजनेताओं के बयानों को पढ़कर ऐसा लगने लगता है कि शायद उन्हें भाषा की शिष्टता का प्राईमरी लेबिल का ज्ञान भी नहीं है । हो सकता है बढ़ती उम्र नें मुझे कम सहनशील बना दिया हो पर मुझे लगता है कि पहले राजाओं के संघर्ष में सिर कट जाना ज्यादा अच्छा था बजाय आज के तुच्छ हास्यास्पद बयानों की काट -मार से।
जनतान्त्रिक परम्परा से पहले सत्ता की शीर्षस्थ सीढ़ी पर पहुँचनें का रास्ता राजाओं ,सामन्तों और नवाबों की सीधी लड़ाई से होता था। कुछ युद्ध तो कुछ घण्टों में ही फैसले ला देते थे । पर कुछ मुठभेड़ें लम्बें काल तक चलती थीं पर अन्त में विजय की बेदी पर कत्ले आम के खूनी पनाले बहाये जाते थे। यह सब वीभत्स और अमानवीय कृत्य इन्सानियत के पवित्र दामन पर काले धब्बे की भाँति मानव जाति के लिए सदैव शर्म की बात रहेंगें पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि आज की गाली- गलौज ,तू तू -मैं मैं ,चित्त -पट्ट ,खींचा -तानी ,और पारिवारिक लाँछन सिनेरियो का जो दृश्य चल रहा है वह कत्ले आम के मुकाबले कम घृणित दृश्य नहीं है। शायद इस लिये भी कि कत्ले आम के बाद कुछ समय की शान्ति आ जाती थी पर आज की भारतीय निन्दा आधारित जनतान्त्रिक राजनीति एक न खत्म होने वाली अटूट बेदना बन कर भारत के गौरव शाली इतिहास के न समाप्त होने वाली व्याधि के रूप में लांछित करती जा रही है । पर क्या इसका कोई इलाज है ? सम्भवत : आने वाले दस -बीस वर्षों में मुझे आशा की कोई किरण नजर नहीं आती है । बहादुरी का ढोंग भारत के न जाने कितने तथा -कथित महापुरुष हजारों वर्षों से रचते चले आये है पर पराजय की एक लम्बी गाथा हमें विरासत के रूप में मिली हुयी है । स्वतन्त्र भारत में भी छोटी -मोटी मुठभेड़ों की विजय कहानियाँ अतिरंजना के साथ महाकाब्यीय गाथायें बनायी जा रहीं हैं पर शर्मनाक पराजयों की कहानी बनावटी नक्कासी के साथ शांतिप्रियता के दुशाले में ढक कर रख दी गयी हैं। न जाने कितनी बार गान्धी ,विवेकानन्द ,अरविन्द के सन्दर्भों से कहे हुये वाक्य भारत की शांतिप्रियता के नमूनें के रूप में पेश किये जाते हैं । इसी प्रकार सेकुलरिज़म का राजनीतिक रूप हजरत मूसा ,हजरत मुहम्मद ,गौतम बुद्ध और परशुराम की जयन्तियों को अवकाश मे बदल देने से खानापूर्ति कर ली जाती है | मंच पर बोलकर या छाती ठोककर आवाज को ऊंचा करनें से अगर सेकुलरीजम आ गया होता तो शायद भारत, योरोप और अमरीका तो क्या धरती के आदि से अन्त तक सबसे बड़ा सेकुलर राज्य कहलाने लगता | हवा मे तीर चलाकर शत्रुओं को मारा नहीं जा सकता व्यवहार के धरातल पर जब तक हम मानव धर्म की स्थापना नहीं करेंगें तब तक प्रत्येक धर्म और उसमें होने वाले कर्म काण्ड अपने अनुयायियों के लिये सर्वश्रेष्ठ बनें रहेंगें भले ही वे दूसरे धर्म के लिये अपशब्दों का प्रयोग न करें पर उन्हें वे अपनें धर्म के प्रति दी जाने वाली श्रद्धा बराबर के धरातल पर दे पाने मे सदैव असमर्थ रहेंगें| हिम्मत हो तो हमें स्वीकार करना चाहिए कि सेकुलरीजम का सच्चा अर्थ इस धरती पर जन्में प्रत्येक नर -नारी को समान रूप से विकास के अवसर उपलब्ध कराना है| और धीरे -धीरे एक- दो पीढी के बाद उसे निरर्थक धार्मिक कर्म -काण्डों से मुक्त कर मानव सेवा के मूल मन्त्र से जोड़ना है | विक्टोरियन योरोप मे जब ग्रेट ब्रिटेक सत्ता आधी दुनियाँ में फ़ैली थी उस समय वहाँ धार्मिक मतभेद को मिटानें में असमर्थता का इजहार वर्गीय संघर्ष मे बदल दिया गया था सामान्य आदमी और जेंटलमैंन को दो अलग -अलग श्रेणियों मे बांटकर , जेंटलमैन को न जाने कितनें कृत्रिम पहननें -ओढ्नें,खाने -पीनें और अभिवादन प्रक्रियाओं से जोड़ दिया गया था । सम्पति का केन्द्रीयकरण सभ्यता की चमकदार चादर ओढ़कर धार्मिक मतभेदों की गोद मे बैठ कर सामाजिक वर्ग विभाजन की उपजाऊ भूमि तैय्यार करनें मे सफल हुआ था । शायद इसी कारण आदम और ईद की कहानी श्रष्टि के प्रारम्भिक विकास में सबसे ठोस और स्थायी आधार बनकर मानव जाति मे प्रचलन पा सकी थी ।
" When Adam delved and Eve span
Who was then A Gentleman" ?
आज के राजनीतिज्ञ चमचमाते शब्दों से ढकी स्वप्नों की टाफियाँ बाँटनें मे कोई कोताही नहीं कर रहें हैं । 2020 का भारत कैसा होगा ? 2030 का भारत कैसा होगा ? २०४० का भारत कैसा होगा ? और २०५० का भारत कैसा होगा ? इसको लेकर न जाने कितने विशेषज्ञ सैकड़ों ,हजारों पन्ने काले कर रहे हैं और इलेक्ट्रोनिक मीडिया हर घंटे दो घंटे मे तरंगों के नये रूप -रंग पेश कर रही है पर कल के सुनहरे संसार के लिये हम आजादी के 67-68 वर्षों का अनुभव नकारनें की इजाजत नहीं देते । गरीबी कल भी थी ,गरीबी आज भी है ,और गरीबी कल भी रहेगी । अशिक्षा कल भी थी,अशिक्षा आज भी है ,और अशिक्षा कल भी रहेगी । जय चन्द और मीर जाफर कल भी थे, आज भी हैं, और कल भी रहेंगें | यह दूसरी बात है कि अब पैकिंग की एक नयी इण्डस्ट्री कायम हो गयी है और चमकीली झिलमिलाती पन्नी के नीचे सड़ती खाद्य वस्तु स्वास्थ्य सन्जीवनीके रूप मे धड़ल्ले से बिक रही है | राज्य स्तरीय और केन्द्रीय सरकारें यदि अराजकता को रोकनें मे सफल हो जायें और क़ानून की समानता का निर्वाहण क़र सकें तो इतना ही उनके लिये कर पाना इतिहास की विभूति बन जायेगा| गरीबी ,अशिक्षा ,चरित्रहीनता ,इन्द्रिय लोलुपता ,कदाचार ,व्यभिचार और भ्रष्टाचार इनके लिये सांस्कृतिक धरातल पर प्रभारी कार्य करनें होंगें | राज्य -सत्ता यदि नैतिक पायदान पर खड़ी होकर जीवन्त और जुझारू चरित्र की अद्दभुत गरिमा से विभूषित व्यक्ति समूहों को संरक्षण प्रदान कर सके तो भारत का भविष्य 5-10 वर्षीं मे ही बदल सकता है| "माटी "इसमें बहुत अधिक सहयोग नहीं दे सकती उसके सहयोग देने की क्षमता बहुत सीमित है पर अकिन्चन का स्वार्थ हीन वस्त्र- दान ही विश्वात्मा की आँखों में सबसे पवित्र दान बन कर निखरता है | इसी कामना के साथ .........
जनतान्त्रिक परम्परा से पहले सत्ता की शीर्षस्थ सीढ़ी पर पहुँचनें का रास्ता राजाओं ,सामन्तों और नवाबों की सीधी लड़ाई से होता था। कुछ युद्ध तो कुछ घण्टों में ही फैसले ला देते थे । पर कुछ मुठभेड़ें लम्बें काल तक चलती थीं पर अन्त में विजय की बेदी पर कत्ले आम के खूनी पनाले बहाये जाते थे। यह सब वीभत्स और अमानवीय कृत्य इन्सानियत के पवित्र दामन पर काले धब्बे की भाँति मानव जाति के लिए सदैव शर्म की बात रहेंगें पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि आज की गाली- गलौज ,तू तू -मैं मैं ,चित्त -पट्ट ,खींचा -तानी ,और पारिवारिक लाँछन सिनेरियो का जो दृश्य चल रहा है वह कत्ले आम के मुकाबले कम घृणित दृश्य नहीं है। शायद इस लिये भी कि कत्ले आम के बाद कुछ समय की शान्ति आ जाती थी पर आज की भारतीय निन्दा आधारित जनतान्त्रिक राजनीति एक न खत्म होने वाली अटूट बेदना बन कर भारत के गौरव शाली इतिहास के न समाप्त होने वाली व्याधि के रूप में लांछित करती जा रही है । पर क्या इसका कोई इलाज है ? सम्भवत : आने वाले दस -बीस वर्षों में मुझे आशा की कोई किरण नजर नहीं आती है । बहादुरी का ढोंग भारत के न जाने कितने तथा -कथित महापुरुष हजारों वर्षों से रचते चले आये है पर पराजय की एक लम्बी गाथा हमें विरासत के रूप में मिली हुयी है । स्वतन्त्र भारत में भी छोटी -मोटी मुठभेड़ों की विजय कहानियाँ अतिरंजना के साथ महाकाब्यीय गाथायें बनायी जा रहीं हैं पर शर्मनाक पराजयों की कहानी बनावटी नक्कासी के साथ शांतिप्रियता के दुशाले में ढक कर रख दी गयी हैं। न जाने कितनी बार गान्धी ,विवेकानन्द ,अरविन्द के सन्दर्भों से कहे हुये वाक्य भारत की शांतिप्रियता के नमूनें के रूप में पेश किये जाते हैं । इसी प्रकार सेकुलरिज़म का राजनीतिक रूप हजरत मूसा ,हजरत मुहम्मद ,गौतम बुद्ध और परशुराम की जयन्तियों को अवकाश मे बदल देने से खानापूर्ति कर ली जाती है | मंच पर बोलकर या छाती ठोककर आवाज को ऊंचा करनें से अगर सेकुलरीजम आ गया होता तो शायद भारत, योरोप और अमरीका तो क्या धरती के आदि से अन्त तक सबसे बड़ा सेकुलर राज्य कहलाने लगता | हवा मे तीर चलाकर शत्रुओं को मारा नहीं जा सकता व्यवहार के धरातल पर जब तक हम मानव धर्म की स्थापना नहीं करेंगें तब तक प्रत्येक धर्म और उसमें होने वाले कर्म काण्ड अपने अनुयायियों के लिये सर्वश्रेष्ठ बनें रहेंगें भले ही वे दूसरे धर्म के लिये अपशब्दों का प्रयोग न करें पर उन्हें वे अपनें धर्म के प्रति दी जाने वाली श्रद्धा बराबर के धरातल पर दे पाने मे सदैव असमर्थ रहेंगें| हिम्मत हो तो हमें स्वीकार करना चाहिए कि सेकुलरीजम का सच्चा अर्थ इस धरती पर जन्में प्रत्येक नर -नारी को समान रूप से विकास के अवसर उपलब्ध कराना है| और धीरे -धीरे एक- दो पीढी के बाद उसे निरर्थक धार्मिक कर्म -काण्डों से मुक्त कर मानव सेवा के मूल मन्त्र से जोड़ना है | विक्टोरियन योरोप मे जब ग्रेट ब्रिटेक सत्ता आधी दुनियाँ में फ़ैली थी उस समय वहाँ धार्मिक मतभेद को मिटानें में असमर्थता का इजहार वर्गीय संघर्ष मे बदल दिया गया था सामान्य आदमी और जेंटलमैंन को दो अलग -अलग श्रेणियों मे बांटकर , जेंटलमैन को न जाने कितनें कृत्रिम पहननें -ओढ्नें,खाने -पीनें और अभिवादन प्रक्रियाओं से जोड़ दिया गया था । सम्पति का केन्द्रीयकरण सभ्यता की चमकदार चादर ओढ़कर धार्मिक मतभेदों की गोद मे बैठ कर सामाजिक वर्ग विभाजन की उपजाऊ भूमि तैय्यार करनें मे सफल हुआ था । शायद इसी कारण आदम और ईद की कहानी श्रष्टि के प्रारम्भिक विकास में सबसे ठोस और स्थायी आधार बनकर मानव जाति मे प्रचलन पा सकी थी ।
" When Adam delved and Eve span
Who was then A Gentleman" ?
आज के राजनीतिज्ञ चमचमाते शब्दों से ढकी स्वप्नों की टाफियाँ बाँटनें मे कोई कोताही नहीं कर रहें हैं । 2020 का भारत कैसा होगा ? 2030 का भारत कैसा होगा ? २०४० का भारत कैसा होगा ? और २०५० का भारत कैसा होगा ? इसको लेकर न जाने कितने विशेषज्ञ सैकड़ों ,हजारों पन्ने काले कर रहे हैं और इलेक्ट्रोनिक मीडिया हर घंटे दो घंटे मे तरंगों के नये रूप -रंग पेश कर रही है पर कल के सुनहरे संसार के लिये हम आजादी के 67-68 वर्षों का अनुभव नकारनें की इजाजत नहीं देते । गरीबी कल भी थी ,गरीबी आज भी है ,और गरीबी कल भी रहेगी । अशिक्षा कल भी थी,अशिक्षा आज भी है ,और अशिक्षा कल भी रहेगी । जय चन्द और मीर जाफर कल भी थे, आज भी हैं, और कल भी रहेंगें | यह दूसरी बात है कि अब पैकिंग की एक नयी इण्डस्ट्री कायम हो गयी है और चमकीली झिलमिलाती पन्नी के नीचे सड़ती खाद्य वस्तु स्वास्थ्य सन्जीवनीके रूप मे धड़ल्ले से बिक रही है | राज्य स्तरीय और केन्द्रीय सरकारें यदि अराजकता को रोकनें मे सफल हो जायें और क़ानून की समानता का निर्वाहण क़र सकें तो इतना ही उनके लिये कर पाना इतिहास की विभूति बन जायेगा| गरीबी ,अशिक्षा ,चरित्रहीनता ,इन्द्रिय लोलुपता ,कदाचार ,व्यभिचार और भ्रष्टाचार इनके लिये सांस्कृतिक धरातल पर प्रभारी कार्य करनें होंगें | राज्य -सत्ता यदि नैतिक पायदान पर खड़ी होकर जीवन्त और जुझारू चरित्र की अद्दभुत गरिमा से विभूषित व्यक्ति समूहों को संरक्षण प्रदान कर सके तो भारत का भविष्य 5-10 वर्षीं मे ही बदल सकता है| "माटी "इसमें बहुत अधिक सहयोग नहीं दे सकती उसके सहयोग देने की क्षमता बहुत सीमित है पर अकिन्चन का स्वार्थ हीन वस्त्र- दान ही विश्वात्मा की आँखों में सबसे पवित्र दान बन कर निखरता है | इसी कामना के साथ .........