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                             योरोपीय सभ्यता प्राचीन यूनानी सभ्यता को अपनें आदि स्रोत के रूप में स्वीकार करती है | निः सन्देह ईसा पूर्व यूनान में विश्व की कुछ महानतम प्रतिभायें देखने को मिलती हैं | सुकरात ,प्लेटो (अफलातून )और अरिस्टोटल (अरस्तू ) का नाम तो शिक्षित समुदाय में सर्व विदित ही है पर बुद्धि परक मीमांसा का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां प्राचीन यूनानी प्रतिभा नें अपनी अमिट छाप न छोड़ी हो | इसी प्राचीन यूनान में स्पार्टा के नगर राज्य में मानव शरीर की प्राकृतिक विषमताओं से लड़नें की आन्तरिक क्षमता को मापनें का एक अदभुत प्रयोग किया था | ऐसा माना जाता है कि स्पार्टा नगर राज्य में जन्म लेनें वाला प्रत्येक शिशु नगर के छोर पर स्थित एक विशाल समतल प्रस्तर पर निर्वस्त्र छोड़ दिया जाता था | दिन रात के चौबीस घण्टे उसे अकेले चीखते ,चिल्लाते ,धूप , छाँह ,प्रकाश ,अन्धकार और कृमि कीटों से उलझते -सुलझते बितानें पड़ते थे | आंधी आ जाय या मूसलाधार वर्षा उसे आठ पहर ममता रहित उस चट्टान पर निर्वस्त्र काटनें ही होते थे | इस दौरान यदि प्रकृति उसका जीवन समाप्त कर दे तो स्पार्टा का प्रशासन उसे मातृ भूमि की माटी में अर्पित कर देता था और यदि वह बच जाय तो उसका हर प्रकार से लालन -पालन कर उसे स्पार्टा नगर राज्य का समर्थ चट्टानी पेशियों वाला जागरूक नागरिक बनाया जाता था | प्राचीन इतिहास के मनीषी पाठक जिन्होनें विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का गहनतम अध्ययन किया है जानते ही हैं कि स्पार्टा नगर राज्य और एथेन्स के नगर राज्य में बहुत लम्बे समय तक संघर्ष की स्थिति रही थी और अन्ततः अपनी सारी समृद्धि ,वैभव और ज्ञान विपुलता के बावजूद स्पार्टा का पलड़ा भारी रहा था | हमें स्वीकार करना ही होगा कि मरुथल की छाती फोड़कर निकलनें वाला जीवन्त अंकुर किसी सिंचाई की मांग नहीं करता | व्यक्ति का आन्तरिक सामर्थ्य जिसमें शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का कांचनमाणि संयोग शामिल है उसे जीवन संग्राम में अपराजेय योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित करती है | काया का बाह्य आकार अन्तर की विशालता का प्रतीक नहीं होता | शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता किन्हीं उन आन्तरिक शक्तियों से प्रतिचालित होती है जिन्हें मानव के वरण -अवरण की प्रक्रिया के द्वारा लाखों -लाख वर्षों में पाया है | बौद्धिक कुशाग्रता और जिसे हम प्राण शक्तियां प्राणवत्ता के रूप में जानते हैं वो भी चयन -अचयन की लाखों वर्षों की दीर्घ प्रक्रिया से गुजर कर आयी है | हर श्रेष्ठ मानव सभ्यता प्राचीन या अर्वाचीन इसी विरासत में पायी असाधारण आन्तरिक क्षमता का प्रस्फुटन -पल्लवन का काम करती है | पोषण ,सिंचन और संरक्षण पा कर भी कुछ लता ,पादप -तरु थोड़ा बहुत बढ़कर सीमित विकास को समेटे विलुप्त होनें की सनातन प्रक्रिया का अंश बन जाते हैं |  और कुछ हैं जिन्हें ओक ,बरगद और देवदार बनना होता है | शताब्दियाँ उनको छूकर निकल जाती हैं और वे सिर तानें खड़े रहते हैं पर आकार की विशालता ही श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है | राग पेशियों की द्रढ़ता प्रभावित अवश्य करती है पर सनातन नहीं होती | कुछ पैरों से निरन्तर दलित ,मलिन होनें वाली वनस्पति प्रजातियां भी हैं जो काल की कठोर छाती पर अपनीं कील ठोंककर अजेय खड़ी हैं | विनम्र घास और सदाबहारी निरपात और प्रान्तीय लतायें इसी श्रेणीं में आती हैं | सनातन धर्म वाले सनातन भारत का यही सन्देश है कि आन्तरिक ऊर्जा ,दैवी स्फुरण ,प्रज्ञा -पारमिता या समाधिस्थ संचालित जीवन ही काल को जीतकर अकाल पुरुष तक ले जाता है |
                                    व्यक्ति का चाहना या न चाहना निर्मम प्रकृति के विस्मयकारी या अबाधित गतिमयता में कोई परिवर्तन ला पाता है इस पर मुझे सन्देह है पर चाहना का यदि कोई सकारात्मक प्रभाव होता है तो मैं चाहूंगा कि 'माटी 'अपनी अमरता अपनें कलेवर में समेट लेनें वाली मन्त्र -पूत सामग्री से सिंचित करे | निर्वात दीप शिखा की भांति प्रकाश पुंजों की श्रष्टि ही उसके साधन बनें और साध्य भी | आकाश गंगा की तारावलियाँ और ज्योतित पथ उसे अमरत्व का ऊर्ध्वगामी पथ दिखायें | इसी कामना के साथ | 

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