"वन्दे मातरम् " !
सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम
शस्यश्यामलं मातरम् |
शुभ्र ज्योत्स्ना -पुलकित यामिनीम ,
फुल्लकुसुमित -द्रुमदल शोभिनीम
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम
सुखदां ,वरदां मातरम ||
वन्दे मातरम-----------------
सन 1882 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय नें अपनें ऐतिहासिक उपन्यास 'आनन्द मठ 'में कालजयी शब्द- संगीत विभूषित मातृ वन्दना का यह राष्ट्र गीत समावेशित किया था | बंगाल में मुसलमानों का नवाबी शासन उस समय पतन का एक ऐसा घिनौना रूप ले चुका था जिसकी सड़ांध भारत की सांस्कृतिक चेतना को म्रृतप्राय कर चुकी थी | मृत प्राय चेतना में नवजीवन का संचार करनें के लिये संजीवनी कहाँ से लायी जाय | इसके लिये समुद्र पार से अमित्र राष्ट्रों के संरक्षण में पल रही सुषेणी अन्तर द्रष्टि की आवश्यकता आ पड़ी थी | मुसलमानी अत्याचार से मुर्मूष राष्ट्रीय चेतना को नयी स्फूर्ति देनें के लिये बंकिम चन्द्र नें योरोपीय उपचार की आवश्यकता को तात्कालिक समाधान के रूप में स्वीकार कर लिया | यहां पर 'एन साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका 'में रमेश चन्द्र दत्त द्वारा लिखित एक प्रबन्ध का कुछ अंश उद्धधृत करना समीचीन लगता है | 'आनन्द मठ 'में निहित मूल भावना को स्पष्ट करते हुये रमेश चन्द्र दत्त नें लिखा -" The general moral of the " Anand Math ,"then , is that British rule and British education are to be accepted as the only alternative to mussulman oppression , a moral which Bankim Chandra developed also in his " Dharmatattwa," an elaborate religious treatise in which he explained his views as to the changes necessary in the moral and religious condition of his fellow countrymen before they could hope to compete on equal terms with the Britsh and Mohammadans "--------------
1882 से लेकर इस समय तक 135 वर्ष की दीर्घ यात्रा में बंगाल प्रान्त ने क्या नहीं देखा ,क्या नहीं सहा ? पर भारतीय संस्कृति की सबसे समर्थ प्रतीक के रूप में बंगाल कितनी ही बार मर -मर कर जीवित होता रहा | 1905 का विभाजन , अंग्रेजी सत्ता के लिये एक राष्ट्रीय चुनौती के रूप में पेश हुयी | अंग्रेजी शिक्षा से सम्पुष्ट हो रही भारत की राष्ट्रीय अस्मिता उभर कर एक सशक्त चुनौती के रूप में अंग्रेज अधिपत्य को ललकारनें लगी | विभाजन टला पर भयानक अकाल की विभीषका ,क्रान्ति का सूत्रपात और अन्ततः बंगाल का विभाजन पूर्वी पाकिस्तान के रूप में | नोवाखाली गांधी जी के साथ जुड़कर धार्मिक सदभाव का इतिहास बिन्दु बन गया पर जनूनी अन्ध द्रष्टि नें पूर्वी पाकिस्तान को सुनिश्चित ही कर दिया | फिर एक और मोड़ | पूर्वी पाकिस्तान का उदारवादी इस्लाम पंजाबी मूल के कट्टरपन्थी इस्लाम से अलग अपनें अस्तित्व की मांग करनें लगा | मुजीबुर्ररहमान बँगला संस्कृति के समर्थतम प्रवक्ता बन गये | उन दिनों की पढ़ी हुयी एक कविता -अकविता दिमाग में उभर आती है |
जो पृष्ठांकित रह जाय
न ओठ जिसे चूमें
जो धड़कन बन न सके
मेरी तेरी सबकी
वह शब्द शिल्प
हो गीत ,अगीत
मुक्त -बन्धित
बस चमकत्कार |
कीमती कसीदा
कुछ आँखों की सुख शोभा
कुछ रंग रंगाये ओठों की
मृत वाह वाह |
जो शेख मुजीबुर्र के शब्दों सा
लहर जाय
हर ओर छोर
झकझोरे
जन का पोर पोर
अन -अंकित भी
वह अमर शिल्प है वाणीं का |
हर गढ़न -रूप
सांचों का हर सतही उभार
गति छंद ताल
जंगल के बिखरे शिला -खण्ड
निर्जीव -व्यर्थ
पर यह सारे
आवेग धार में लुढ़क पुढ़क
बस अनायास ही
शिव -सुन्दरता के प्रतीक बन जाते हैं |
और फिर 1971 | इन्दिरा गांधी के प्रधानमन्त्रित्व काल की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि -पाकिस्तान का विभाजन ,स्वतन्त्र बँगला देश का अस्तित्व | काजी नजरूल इस्लाम और रवीन्द्रनाथ टैगोर दोनों के प्रति समान आदर भाव रखनें वाला बंगाली जनमानस एक नयी समन्वयवादी विचार धारा से नवजीवन पाने लगा | रामकृष्ण परमहंस ,विवेकानन्द ,रवीन्द्र नाथ ठाकुर ,आशुतोष मुखर्जी ,सुभाष चन्द्र बोस ,सत्य जीत रे और अमृत्य सेन वाला बंगाल आजादी के प्रारम्भिक कुछ दशकों में जनतान्त्रिक प्रक्रिया की मुक्त लहरियों में पैंगें लेता रहा | और फिर आ गया वामपंथी विचारधारा का लौह शिकंजा | बौद्धिकता के नाम पर स्वतन्त्र चिन्तन का हनन | जनतन्त्र के नाम पर आतंक की लाठीबाजी | वामपंथी राजनीतिक दलों का निहित स्वार्थ वाला संगठन पिछले चुनावों में सत्तारूढ़ होता रहा | समय का अनवरत घटनाक्रम भी कभी- कभी अवांछित तत्वों की ऐतिहासिक मदद करता रहता है | ज्योति वसु के रूप में बंगाल नें एक ऐसा नेता पाया जो वामपंथी घुटन को भी अपनी भद्र जीवन शैली और वाकपटुता से मुक्त वायु का भ्रामक रूप देनें में समर्थ रहा | बुद्ध देव भट्टाचार्य के आगमन के साथ ही घुटन का दबाव जान लेवा बन गया | प्रकाश करात नें अपनें किताबी ज्ञान के बल पर बौद्धिक आतंक का एक हौवा खड़ा कर दिया | न जानें कहाँ कहाँ से निरर्थक दलीलें तलाशी गयीं | सिंगूर और नन्दी गाँव को सर्वहारा के सुख से जोड़ा गया | नेताओं की सुविधा सम्पन्न जिन्दगी को बन्धनहीन आचरण के आदर्श के रूप में पेश किया गया | प्रत्येक गांव और गली में वामपंथी कैडर अपनी लाठियां भांजते रहे | ऊपर का नेतृत्व लोकसभा की हार और पंचायत हार को क्षणिक बबूलों के रूप में चर्चित ,व्यंजित करता रहा | दरअसल साम्यवादी विचारधारा आज विश्व के समसामयिक सन्दर्भों में बिल्कुल बेमानी हो गयी है | चीन में जो साम्यवाद है वह राष्ट्रीय पूंजीवाद का ही एक परिवर्तित रूप है | पर आश्चर्य यह है कि वामपंथी विचारधारा के स्वर्ण मेडल जीतनें वाले लेखक ,विचारक अब भी बेमानी आंकड़ों और मिथ्या अभिमान के खोखले शब्दों द्वारा आनें वाले भविष्य को अपनें नाम लिखते जा रहे हैं |
'माटी 'नहीं जानती कि दीदी का व्यक्तित्व प्रशासन की आग से गुजर कर और अधिक निखार पा पायेगा या नहीं | 'माटी 'यह भी नहीं मानती कि पश्चिमी बंगाल में अब सभी कुछ पारदर्शी और जनहिताय समर्पित हो जायेगा | 'माटी 'सदा से यह मानती रही है कि हर प्रयोग सामयिक समाधान लेकर ही आता है | सच्चा समाधान तो भारतीय दर्शन के इस मूल मन्त्र में ही निहित है कि सभी कुछ कृष्णार्पित करो | ऐसा तभी सम्भव है जब किसी राष्ट्र के अधिकाँश नागरिक उच्चतर चेतना से दीपित होकर अपनी जीवन शैली को सामूहिक कल्याण के लिये बदलनें का व्रत ले लें | अभी तक ऐसी परिस्थितियां नजर नहीं आतीं | ममता जी में भी न जानें कितनें वैचारिक विरोधाभाष दिखायी पड़ते हैं पर आनें वाला पश्चिमी बंगाल का राजनैतिक परिवर्तन 'माटी 'के पाठकों में एक नयी आशा का संचार करेगा ऐसा विश्वास करनें का धोड़ा बहुत आधार दिखायी पड़ता है | 'माटी 'का संपादक यह मानता है कि आदर्श नर -नारी के लिये, सम्पूर्ण विकसित व्यक्तित्व के लिये किसी बाहरी शासन व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं रहती | उसकी आन्तरिक शक्ति ही उसे निग्रह देती है ओर ऊर्ध्व लक्ष्यों के लिये गतिमान करती है | ऐसा स्वर्ण विहान कब होगा 'माटी 'नहीं जानती | भारत के अतीत में ऐसे कुछ काल खण्डों का वर्णन अवश्य मिलता है | पर बहुत से इतिहासकार उन कालखण्डों की सच्चायी को नकारते हैं | इसमें हताशा की कोई बात नहीं है | जो हो चुका है उसका होना तो सम्भव ही है पर जो नहीं हो चुका है उसका होना भी असंम्भव नहीं है | गगन के पार सितारों के किसी रजत राहों पर अपनी लाठी हाँथ में लेकर घुटनों तक धोती समेटे हुये बापू की वत्सल आँखें भारत में होनें वाले परिवर्तनों पर अवश्य लगी होंगीं | क्या पता समय के संचरण में वह गति और लय कब आ जाय जब बापू के होठों पर एक मुस्कराहट खिल उठे | गुरुदेव का बंगाल ,कौन जानें ,शायद उन्हें भानें लगे |
सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम
शस्यश्यामलं मातरम् |
शुभ्र ज्योत्स्ना -पुलकित यामिनीम ,
फुल्लकुसुमित -द्रुमदल शोभिनीम
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम
सुखदां ,वरदां मातरम ||
वन्दे मातरम-----------------
सन 1882 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय नें अपनें ऐतिहासिक उपन्यास 'आनन्द मठ 'में कालजयी शब्द- संगीत विभूषित मातृ वन्दना का यह राष्ट्र गीत समावेशित किया था | बंगाल में मुसलमानों का नवाबी शासन उस समय पतन का एक ऐसा घिनौना रूप ले चुका था जिसकी सड़ांध भारत की सांस्कृतिक चेतना को म्रृतप्राय कर चुकी थी | मृत प्राय चेतना में नवजीवन का संचार करनें के लिये संजीवनी कहाँ से लायी जाय | इसके लिये समुद्र पार से अमित्र राष्ट्रों के संरक्षण में पल रही सुषेणी अन्तर द्रष्टि की आवश्यकता आ पड़ी थी | मुसलमानी अत्याचार से मुर्मूष राष्ट्रीय चेतना को नयी स्फूर्ति देनें के लिये बंकिम चन्द्र नें योरोपीय उपचार की आवश्यकता को तात्कालिक समाधान के रूप में स्वीकार कर लिया | यहां पर 'एन साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका 'में रमेश चन्द्र दत्त द्वारा लिखित एक प्रबन्ध का कुछ अंश उद्धधृत करना समीचीन लगता है | 'आनन्द मठ 'में निहित मूल भावना को स्पष्ट करते हुये रमेश चन्द्र दत्त नें लिखा -" The general moral of the " Anand Math ,"then , is that British rule and British education are to be accepted as the only alternative to mussulman oppression , a moral which Bankim Chandra developed also in his " Dharmatattwa," an elaborate religious treatise in which he explained his views as to the changes necessary in the moral and religious condition of his fellow countrymen before they could hope to compete on equal terms with the Britsh and Mohammadans "--------------
1882 से लेकर इस समय तक 135 वर्ष की दीर्घ यात्रा में बंगाल प्रान्त ने क्या नहीं देखा ,क्या नहीं सहा ? पर भारतीय संस्कृति की सबसे समर्थ प्रतीक के रूप में बंगाल कितनी ही बार मर -मर कर जीवित होता रहा | 1905 का विभाजन , अंग्रेजी सत्ता के लिये एक राष्ट्रीय चुनौती के रूप में पेश हुयी | अंग्रेजी शिक्षा से सम्पुष्ट हो रही भारत की राष्ट्रीय अस्मिता उभर कर एक सशक्त चुनौती के रूप में अंग्रेज अधिपत्य को ललकारनें लगी | विभाजन टला पर भयानक अकाल की विभीषका ,क्रान्ति का सूत्रपात और अन्ततः बंगाल का विभाजन पूर्वी पाकिस्तान के रूप में | नोवाखाली गांधी जी के साथ जुड़कर धार्मिक सदभाव का इतिहास बिन्दु बन गया पर जनूनी अन्ध द्रष्टि नें पूर्वी पाकिस्तान को सुनिश्चित ही कर दिया | फिर एक और मोड़ | पूर्वी पाकिस्तान का उदारवादी इस्लाम पंजाबी मूल के कट्टरपन्थी इस्लाम से अलग अपनें अस्तित्व की मांग करनें लगा | मुजीबुर्ररहमान बँगला संस्कृति के समर्थतम प्रवक्ता बन गये | उन दिनों की पढ़ी हुयी एक कविता -अकविता दिमाग में उभर आती है |
जो पृष्ठांकित रह जाय
न ओठ जिसे चूमें
जो धड़कन बन न सके
मेरी तेरी सबकी
वह शब्द शिल्प
हो गीत ,अगीत
मुक्त -बन्धित
बस चमकत्कार |
कीमती कसीदा
कुछ आँखों की सुख शोभा
कुछ रंग रंगाये ओठों की
मृत वाह वाह |
जो शेख मुजीबुर्र के शब्दों सा
लहर जाय
हर ओर छोर
झकझोरे
जन का पोर पोर
अन -अंकित भी
वह अमर शिल्प है वाणीं का |
हर गढ़न -रूप
सांचों का हर सतही उभार
गति छंद ताल
जंगल के बिखरे शिला -खण्ड
निर्जीव -व्यर्थ
पर यह सारे
आवेग धार में लुढ़क पुढ़क
बस अनायास ही
शिव -सुन्दरता के प्रतीक बन जाते हैं |
और फिर 1971 | इन्दिरा गांधी के प्रधानमन्त्रित्व काल की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि -पाकिस्तान का विभाजन ,स्वतन्त्र बँगला देश का अस्तित्व | काजी नजरूल इस्लाम और रवीन्द्रनाथ टैगोर दोनों के प्रति समान आदर भाव रखनें वाला बंगाली जनमानस एक नयी समन्वयवादी विचार धारा से नवजीवन पाने लगा | रामकृष्ण परमहंस ,विवेकानन्द ,रवीन्द्र नाथ ठाकुर ,आशुतोष मुखर्जी ,सुभाष चन्द्र बोस ,सत्य जीत रे और अमृत्य सेन वाला बंगाल आजादी के प्रारम्भिक कुछ दशकों में जनतान्त्रिक प्रक्रिया की मुक्त लहरियों में पैंगें लेता रहा | और फिर आ गया वामपंथी विचारधारा का लौह शिकंजा | बौद्धिकता के नाम पर स्वतन्त्र चिन्तन का हनन | जनतन्त्र के नाम पर आतंक की लाठीबाजी | वामपंथी राजनीतिक दलों का निहित स्वार्थ वाला संगठन पिछले चुनावों में सत्तारूढ़ होता रहा | समय का अनवरत घटनाक्रम भी कभी- कभी अवांछित तत्वों की ऐतिहासिक मदद करता रहता है | ज्योति वसु के रूप में बंगाल नें एक ऐसा नेता पाया जो वामपंथी घुटन को भी अपनी भद्र जीवन शैली और वाकपटुता से मुक्त वायु का भ्रामक रूप देनें में समर्थ रहा | बुद्ध देव भट्टाचार्य के आगमन के साथ ही घुटन का दबाव जान लेवा बन गया | प्रकाश करात नें अपनें किताबी ज्ञान के बल पर बौद्धिक आतंक का एक हौवा खड़ा कर दिया | न जानें कहाँ कहाँ से निरर्थक दलीलें तलाशी गयीं | सिंगूर और नन्दी गाँव को सर्वहारा के सुख से जोड़ा गया | नेताओं की सुविधा सम्पन्न जिन्दगी को बन्धनहीन आचरण के आदर्श के रूप में पेश किया गया | प्रत्येक गांव और गली में वामपंथी कैडर अपनी लाठियां भांजते रहे | ऊपर का नेतृत्व लोकसभा की हार और पंचायत हार को क्षणिक बबूलों के रूप में चर्चित ,व्यंजित करता रहा | दरअसल साम्यवादी विचारधारा आज विश्व के समसामयिक सन्दर्भों में बिल्कुल बेमानी हो गयी है | चीन में जो साम्यवाद है वह राष्ट्रीय पूंजीवाद का ही एक परिवर्तित रूप है | पर आश्चर्य यह है कि वामपंथी विचारधारा के स्वर्ण मेडल जीतनें वाले लेखक ,विचारक अब भी बेमानी आंकड़ों और मिथ्या अभिमान के खोखले शब्दों द्वारा आनें वाले भविष्य को अपनें नाम लिखते जा रहे हैं |
'माटी 'नहीं जानती कि दीदी का व्यक्तित्व प्रशासन की आग से गुजर कर और अधिक निखार पा पायेगा या नहीं | 'माटी 'यह भी नहीं मानती कि पश्चिमी बंगाल में अब सभी कुछ पारदर्शी और जनहिताय समर्पित हो जायेगा | 'माटी 'सदा से यह मानती रही है कि हर प्रयोग सामयिक समाधान लेकर ही आता है | सच्चा समाधान तो भारतीय दर्शन के इस मूल मन्त्र में ही निहित है कि सभी कुछ कृष्णार्पित करो | ऐसा तभी सम्भव है जब किसी राष्ट्र के अधिकाँश नागरिक उच्चतर चेतना से दीपित होकर अपनी जीवन शैली को सामूहिक कल्याण के लिये बदलनें का व्रत ले लें | अभी तक ऐसी परिस्थितियां नजर नहीं आतीं | ममता जी में भी न जानें कितनें वैचारिक विरोधाभाष दिखायी पड़ते हैं पर आनें वाला पश्चिमी बंगाल का राजनैतिक परिवर्तन 'माटी 'के पाठकों में एक नयी आशा का संचार करेगा ऐसा विश्वास करनें का धोड़ा बहुत आधार दिखायी पड़ता है | 'माटी 'का संपादक यह मानता है कि आदर्श नर -नारी के लिये, सम्पूर्ण विकसित व्यक्तित्व के लिये किसी बाहरी शासन व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं रहती | उसकी आन्तरिक शक्ति ही उसे निग्रह देती है ओर ऊर्ध्व लक्ष्यों के लिये गतिमान करती है | ऐसा स्वर्ण विहान कब होगा 'माटी 'नहीं जानती | भारत के अतीत में ऐसे कुछ काल खण्डों का वर्णन अवश्य मिलता है | पर बहुत से इतिहासकार उन कालखण्डों की सच्चायी को नकारते हैं | इसमें हताशा की कोई बात नहीं है | जो हो चुका है उसका होना तो सम्भव ही है पर जो नहीं हो चुका है उसका होना भी असंम्भव नहीं है | गगन के पार सितारों के किसी रजत राहों पर अपनी लाठी हाँथ में लेकर घुटनों तक धोती समेटे हुये बापू की वत्सल आँखें भारत में होनें वाले परिवर्तनों पर अवश्य लगी होंगीं | क्या पता समय के संचरण में वह गति और लय कब आ जाय जब बापू के होठों पर एक मुस्कराहट खिल उठे | गुरुदेव का बंगाल ,कौन जानें ,शायद उन्हें भानें लगे |