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सूत जी बात को आगे बढ़ाते हुए बोले ,"पहले दिन की रामलीला अच्छे ढंग से अभिनीत हुयी | दशरथ के आश्रम पर सज्जन सिंह जी के पिता सन के सफ़ेद बाल लगाकर बैठे | मुझे विश्वामित्र के रूप में पेश किया गया | रमाकान्त के पिता गुरु वशिष्ठ के रूप में उपस्थित हुये | पीले कपड़ों का कुर्ता और सन के सफ़ेद बाल आसानी से उपलब्ध थे ही | सज्जन के पिता ने दशरथ का  बहुत अच्छा अभिनय किया |  राम लक्ष्मण को अपने से अलग होने की बात सुनते ही उनकी आँखों में आंसू आ गये | गाँव के सभी नर -नारी प्रभावित हुये | भक्ति का सीधा असर भोले -भाले ग्रामीणों के हृदय पर पड़ता है | मातायें ,बहनें तो भावुक होती ही हैं पुत्र वियोग के डर  से उमड़ते आंसुओं ने उनकी आँखों में भी आंसू ला दिये | पर मुझे   विश्वामित्र के रूप में द्रढ़ तो रहना  ही था | मुझे न तो राज्य चाहिये था न हाथी ,घोड़े न मणि माणिक क्योंकि मैं जान गया था कि निश्चरों का विनाश श्री राम ही कर सकते हैं | और अनुज श्री लक्ष्मण के साथ होने पर उनके गौरव में वृद्धि होगी और उनके दैवी कार्य में समयोचित सहायता मिलेगी | गोसाईं जी की इस पंक्ति को मैं बराबर अपने ध्यान में रखे हुये था ,"गाधि तनै मन चिन्ता व्यापी ,हरि बिनु मिटै न निशिचर पापी |"मेरे अभिनय में भावुकता का अभाव था इसलिये शायद वह अधिक प्रभावी न बन सका | वशिष्ठ जी के कहने पर चक्रवर्ती सम्राट दशरथ को मेरी मांग स्वीकार करनी पडी | गुरु वशिष्ठ ने भी अपना रोल बहुत अच्छी तरह निभाया | रमाकान्त के पिता रामायण का अच्छा ज्ञान रखते थे उन्होंने अयोध्या नरेश को समझाया कि जगत के कल्याण के लिये अपने सुख का बलिदान कर देना चाहिये | आंसू बहाते हुये महाराज ने आखिर राम ,लक्ष्मण को अपने पास बुलाया | परदे के पीछे से माताओं के आंसू भीगी पुकार सुनायी पडी हाय न जानें कहाँ  हमारे हृदय के टुकड़ों को भेजा जा रहा है | कुंजरपुर की कुछ स्त्रियों को यह वाक्य सिखा दिया गया था | पर परदे के पीछे से बारह वर्षीय सन्तू और लगभग उतनी ही उम्र का चिन्टू ,राम और लक्ष्मण बनकर विश्वामित्र जी के पास उपस्थित हुये  तुलसीदास जी की रामायण में शायद इसकी चर्चा नहीं की गयी है पर रमाकान्त और सज्जन सिंह ने एक नया दृश्य जोड़ा था | जब सन्तू और चिन्टू परदे के पीछे से बाहर निकल कर आये तो उनके गले में मोती की माला और बाँहों पर रत्नों के बाजूबन्द लगे थे उनके कपडे भी राजसी ठाठ के थे | उनके बालों की सज्जा भी अलंकृत ढंग से की गयी थी | | यह बनावटी मूंगे और बाजूबन्द तथा कपडे रमा और सज्जन ने कैसे इकठ्ठे किये ये तो वही जानते होंगें पर मुझे अत्यन्त खुशी हुयी कि कुंजरपुर में भी नयी प्रतिभाएं उभर रही हैं जो समय के साथ महाकाव्यीय गाथाओं को नया रूप देती जा रही हैं | मैं तो विश्वामित्र के रूप में इस द्रश्य के लिए पहले से ही प्रस्तुत था | राम और लक्ष्मण ने गुरु वशिष्ठ को प्रणाम करने के बाद मुझे प्रणाम किया और फिर उसके बाद दशरथ जी को | अयोध्या नरेश दशरथ जी ने अपने तखत से उतर कर जिस तख़्त के के एक स्टूल पर मैं बैठा था उसके पास आये और राम और लक्ष्मण का हाँथ दायें और बायें हाँथ में पकड़वा दिया और कहा हे मुनि श्रेष्ठ ,हे वीर श्रेष्ठ, हे विश्व विजयी ,हे विश्वामित्र मैं अपने इन दोनों पुत्रों को आपकी शरण में देता हूँ | हे मुनि श्रेष्ठ ,इन्हें महामानव बनाने का उत्तरदायित्व अब तुम्हारा है | इसके बाद महाराज दशरथ मुझे प्रणाम कर अपने तख़्त पर चले गए | कहना न होगा कि तख़्त पर एक चादर बिछाकर और धान के पयाल का एक टीला सा बनाकर एक सिंहासन का रूप दिया गया था | मैनें अब राम और लक्ष्मण से कहा वत्स जाओ अपनी माताओं का चरण स्पर्श कर उनसे विदा मांगों और कहो कि मुनि विश्वामित्र उन्हें यह बचन देते हैं कि दोनों राजकुमार अपार यश कमाकर उनके पास सकुशल वापस आयेंगें | साथ ही अपने इन राजसी वस्त्रों और आभूषणों का परित्याग करो ,अलंकृत बालों को ऊपर की तरफ संवार कर वीर भेषी जूड़ा बांधों फिर हाँथ में धनुष -बाण लेकर मेरे पास आओ | यथा समय मैं तुम्हें दिव्य अस्त्र -शस्त्रों से सुसज्जित कर दूंगा | राम और लक्ष्मण परदे के पीछे चले गए | वशिष्ठ जी उठकर विश्वामित्र के पास आये और दोनों ने एक दूसरे को प्रणाम किया | विश्वामित्र जी ने विदा देने को कहा | पर्दा डाल दिया गया और भजन स्तुति के साथ पहले दिन का राम लीला मन्चन समाप्त हुआ |  आस -पास के गावों में कुछेक घण्टों के बाद यह खबर फ़ैल गयी कि कुंजरपुर की रामलीला तो एक निराली रामलीला है और वैसी रामलीला तो बड़े -बड़े शहरों में भी नहीं होती | अगले दिन ताड़का वध होना था | अब एक समस्या आ खड़ी हुयी | हमनें अन्य पात्रों का चयन तो कर लिया था पर उस समय यह ख्याल ही नहीं किया था कि ताड़का का अभिनय कौन करेगा | दिमाग में शायद यह बात इसलिए न आयी हो कि ताड़का का पार्ट महत्वपूर्ण न लगा हो और सोचा गया होगा कि किसी को भी इसके लिए काले कपडे पहना कर खड़ा कर दिया जायेगा पर अब सवाल यह था कि दूसरे दिन की राम लीला को कम से कम दो घण्टे तक तो चलाया ही जाय | इसके लिए विश्वामित्र के साथ श्री राम ,लक्ष्मण का भीषण वन के बीच से गुजरना और राक्षसों के भीषण अत्याचार की कहानी बताना तो था ही पर इसका प्रमुख आकर्षण ताड़का वध था | अब यदि ताड़का वध बिना किसी संवाद के करा दिया जाता तो उसका अपेक्षित प्रभाव दर्शकों के हृदयों पर नहीं पड़ता | इसलिए ताड़का द्वारा कुछ संवाद बोले जानें थे जिनमें से अधिकाँश का उत्तर लक्ष्मण जी को देना था और सर छोड़ने से पहले एकाध बात राम जी को भी कहनी थी | रमाकांत और सज्जन सिंह ने मुझसे परामर्श कर कुछ डायलॉग बना तो लिए थे पर वे डायलॉग ताड़का का पार्ट अदा करने वाला गाँव का अपढ़ पासी घसीटा याद भी कर पायेगा या नहीं इस पर सन्देह था | ताड़ी पियक्कङ घसीटा को इसलिए चुनना पड़ा क्योंकि इस रोल के लिए और कोई तैय्यार नहीं था और फिर वह छः फुटा अधेड़ तो था ही जिसकी फटी हुयी भयानक आवाज नर -नारी का मिला जुला स्वर लगती थी | डायलॉग में एक वाक्य यह भी था ,"रबड़ के पुतलो ,हम तुम्हें कच्चा चबा जायेंगें ,हमनें न जानें कितने जूड़ा  धारियों का खून पिया है | "इसके उत्तर में लक्ष्मण जी कहते हैं ,"नीच राक्षसी तू औरत होकर भी महात्माओं का खून पीती है ,तू माँ भगवती से नहीं डरती |"इस वाक्य के उत्तर में ताड़का को कहना था कौन माँ भगवती ? मैं माँ भगवती को हर रोज मूसल से कूटती हूँ | और यह कहकर दनादन कई मूसल जमीन पर मारने थे | सज्जन सिंह ने एक मूसल अपने घर से लाकर घसीटे को दे दिया था जो वह अपने काले चोंगे में छिपाये था | (क्रमशः )

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