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समता का जयघोष

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समता का जयघोष
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शाम का धुँधलका
खण्डित चेतन प्रवाह
उतरी है शीत लहर
सिकुड़े तन सिकुड़े मन
कार्य ठप्प ,रुद्ध द्वार
जड़ता जगी ,थकित प्यार
बोला एक नारी स्वर
यह आकाश वाणी है
पूर्व कम्बोडिया में
फिर से हुयी राज्य- क्रान्ति
भारत की नीति पर
सदा ही रही विश्व -शान्ति
 और यही मार्ग
ले आयेगा समाधान
लाल चीन ,पाकिस्तान
हिंसा में भटके हैं
लक्ष्य से दूर
गलियारों में अटके हैं
उत्तर भारत में शीत लहर आयी है
मौत की उदासी सभी शहरों पर छाई है
भारत की राजधानी
धर्म -नगर दिल्ली में
पन्द्रह व्यक्ति मर गये
निपट -अभागे थे
नगर -निगम के
उन रेन बसेरों में
सारी रात नंगें तन
सिसक सिहर जागे थे
बीती शताब्दियाँ
बीत गये युग -काल
मरते रहे भारत के
सिहर सिहर यों ही लाल
हर वर्ष शीत की लहर
यों ही आती है
मौत का कहर
सब ओर छोड़ जाती है
हर वर्ष मरते
पशु ,पक्षी ,श्वान
बे घर
बे सहारे इन्सान
सह अस्तित्व शायद यही
सर्वात्म वाद है
यही ठोस सत्य है
शेष सब प्रवाद है
कितना सहयोग है
पशुओं में ,पक्षियों में
साथ -साथ जीते हैं
साथ- साथ मरते हैं
शास्त्र ही प्रमाण -वाक्य
छोड़ भाव-वारिधि
सदा के लिये तरते हैं ।
जनतान्त्रिक समाजवाद
स्वाधीन भारत का नया घोष
दायें का बायें का
मध्य का
मध्य से दायें का
मध्य से बायें का
नारों भरा यही जोश
इस महायात्रा के
चार चरण पूरे हुये
चांदी के महलों के
कनक -कंगूरे हुये
बेरोजगारी दुगनी हुयी
महगाई तिगुनी हुयी
शासक के इंगित पर
व्यापारी दुःशासन
खींच रहा ,जनता पांचाली
का
लज्जा चीर
कौन यह हरेगा पीर ?
मौन भीष्म
मूक द्रोण ,कृपाचार्य
नत मुख  वृहस्पति
उन्नत- मुख शुक्राचार्य
युग कृष्ण अवश
 न देख अधिक पायेगा
चक्र ही चलेगा फिर
क्षार -क्षार होगा दंम्भ
न्याय -तार दिशा -कोण
फिर से छा जायेगा
पर अभी कुछ विलम्ब है
तभी तो दंम्भ है
लज्जा- चीर लुट रहा
हाय ! कुछ शेष नहीं
निपट भिखारी हम
धन से , तन से ,मन से ।
टूट गये स्वर्ण -स्वप्न
भारतीय होना भी आज
अभिशाप है
लगता है
देव- भूमि धरती पर
बापू की ह्त्या का
टंगा हुआ शाप है
 सड़ती हैं लाशें
कफ़न -हीन
और
मांस -भक्षी गिद्ध शासक
हैं आत्म तुष्ट
कोई पैमाना लो
कोई तराजू लो
पहले से पाओगे
कहीं अधिक हष्ट -पुष्ट
भारत की राजधानी
अब भी रंग -मस्त है
गोरी पिंडलियों की थिरकन
अभी चलती है
रूप की सुराही सिरहाने
सजा रखी है
यौवन की मदिरा
नेत्र -प्याली में ढलती है
हर रोज किसी
विवश बहन का
कम्पित तन
फालों की खुन -खुन पर
बिकता है हर रोज
थुल -थुल हाथ
अस्मत -सौदागर का
उठ रहे कच्चे
उरोजों पर टिकता है
हर रोज नयी युक्ति
हर रोज नयी चाल
बीते आज साठ साल
ओ अन्ध ,पथ भ्रष्ट यौवन
छोड़ अब अन्धी राह
ऐन्द्रिक- बदलाव मात्र
तेरा छलावा है
आत्म -सर्वनाश का
मधु मिश्रित विष -पात्र ,
किसी विष कन्या के
अधरों का बुलावा है
अपनी दिशा को एक गति दें
अपनी कर्मण्यता को
दे दें सार्थकता
अपने वचन को विश्वास का बल दें
वाणी को दे दें
एक नयी अर्थवत्ता ।
कब तक बिकेगी
माँ ,बहन और पत्नी
कब तक क्षुधातुर लाल
लक्ष -लक्ष तड़पेंगे
शीत से ठिठुरती इन जीवित लाशों को
कब तक भयावह गिद्ध
निर्विघ्न हडपेंगें
भारत के युवको चुनौती स्वीकार करो
आओ ,मुझे अपनी आस्था का
बल दो
वीर्यवान स्वरों का सरगम दो
अविलम्ब
छिछली भावुकता को गहरा
एक तल दो
बज्र -पाणि बज्र मुष्ठि
श्रम की सार्थकता से गूंजेगा
यौवन का समवेत उद्घोष
उभरेंगे अँकुर
फिर पनपेगी पौध नयी
गूंजेगी जमती पर
समता का जयघोष ।






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