आप सभी जानते हैं कि एक अरब बीस करोड़ भारतीयों के लिये 'आधार 'नाम की एक योजना काम कर रही है । अंग्रेजी में इस योजना को ' Unique Identification of India 'के नाम से जाना जाता है और इस योजना का संचालन साफ्टवेयर के महान दिग्गज नन्दन नीलकेनी की देख -रेख में हो रहा है । इस योजना के अन्तर्गत हर भारतीय को एक पहचान पत्र मिल जायेगा जिसमें अन्य विवरणों के अतिरिक्त उसकी उँगलियों और आँख की पुतलियों की छवियाँ भी होंगीं जो उसे सबसे अलग निराले होनें की पहचान के रूप में पेश की जा सकेंगीं । जब आप मकान बनाते हैं तो साँचें में ढली हुयी जिन ईंटों का आप इस्तेमाल करते हैं वे एक सी होती हैं या लगभग एक सी होती हैं । यहाँ लगभग शब्द का प्रयोग इसलिये किया जा रहा है कि यदि अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ विश्लेषण किया जाय तो ईंटों में भी एक ढाँचें में ढलने पर भी कुछ छोटी -मोटी भिन्नता पायी जा सकती है । ईंटों की समानरूपता भवन निर्माण में एक रूपता और सहूलियत ला देती है ऐसा इसलिए है क्योंकि ईंटों में चेतन शक्ति नहीं है । यों तो पदार्थ में भी ऊर्जा का सुसुप्त रूप विद्यमान रहता है पर चेतन न होनें के कारण उसकी भिन्नता उजागर नहीं हो पाती । मानव जाति के साथ यह भिन्नता ही उसकी अलग पहचान है । हम सभी अपनी माँ के पेट से जन्में हैं। शास्त्रों में कई बार महापुरुषों को 'अयोनिजा 'कहकर पुकारा गया है । इसका अर्थ यह है कि उनका जन्म प्रकृति से सहज मार्ग सी न होकर ईश्वरीय कृपा के फलस्वरूप हुआ था । पर हम सभी जो सहज प्रकृति की उपज हैं वह अपनें आकार -प्रकार ,रूप -रंग में तो भिन्न हैं हीं अपनी बुद्धि और स्वभाव में तो अपार विषमतायें छिपाये हुये हैं । Identical Twine भी अपनें स्वभाव में विषम कोणों पर खड़े दिखायी पड़ते हैं लगता है प्रकृति दोहरा कर भी अपनें को दोहराती नहीं । प्रजाति की समरूपता होकर भी प्रत्येक यूनिट की भिन्नता उसका लक्ष्य होता है और यह भिन्नता उंगली और अंगूठे की पोरों और आँखों की पुतलियों में विशेष रूप से चिन्हित होती है । जब आधार योजना सम्पूर्ण देश में क्रियान्वित हो चुकी होगी तब पहली बार प्रभावी रूप से सरकारी राशन की दूकानों ,बैंकों ,यात्रा वाहनों और और जमीनी सौदों में हेराफेरी की गुंजाइश न के बराबर हो जायेगी । यह सब लिखनें का मूल अभिप्राय इतना ही है संसार का हर व्यक्ति अपनें में निराला है और और उसकी सोच भी निराली पहचान का एक मानसिक औजार है । जनतन्त्र की कल्पना इसी आधार पर की गयी है कि अलग- अलग सोच होते हुये भी सामूहिक हित के लिये मनुष्य की सोच कई मुद्दों पर केन्द्रीभूत हो जाती है और यदि यह केन्द्रीय सोच बहुमत का निर्माण करती है तो इस सोच को प्रशासन की जिम्म्मेदारी सौंप दी जाती है पर कोई भी सोच सर्वकालीन नहीं होती । उत्पादन के साधन और तकनीकी विशेषतायें इस सोच को परिवर्तित करते रहते हैं इसलिये अल्पसंख्यक सोच भी समय पाकर बहुसंख्यक सोच में बदल जाती है । इस प्रकार मूल्य परिवर्तन के साथ प्रशासन में भी परिवर्तन चलता रहता है । यही जनतन्त्र की शक्ति है और यही जनतन्त्र की कमजोरी है । कुछ मामले इतनें उलझे हुये होते हैं कि उनके छोटे से छोटे पक्षों को स्पष्ट करनें के लिये उच्चतम न्यायालय की शरण लेनी होती है । उदाहरण के लिये केन्द्रीय संस्थानों में ओ० वी ० सी ० यानि other backward classes को सामान्य वर्ग से 10 प्रतिशत कम अंकों पर प्रवेश का अधिकार केन्द्रीय शिक्षा संस्थानों में मिला हुआ है । अब यह दस प्रतिशत की कमी सामान्य वर्ग के लिये निर्धारित Cut off Marks से हो या सामान्य वर्ग में जो सबसे कम नम्बरों का छात्र भर्ती हो वहां से 10 प्रतिशत घटाकर गड़ना की जाय यह विवाद सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा । अन्ततः उच्चतम न्यायालय नें हाई कोर्ट के फैसले को उचित ठहराते हुये यह निर्णय दिया कि 10 प्रतिशत कमी की गड़ना सामान्य कैटागरी के लिये निर्धारित Cut off list से ही की जानी चाहिये । जिस प्रकार विद्यालयों के प्रवेश के आरक्षण का प्रावधान है उसी प्रकार सरकारी नौकरियों में भी अनुसूचित जातियों ,जनजातियों और O० B० C० के लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया है । कुछ राज्यों नें आरक्षण के भीतर भी कई श्रेणियां बनाकर आरक्षण के प्रतिशत का बटवारा किया है । उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता और बाकी 50 प्रतिशत नौकरियाँ मेरिट यानि योग्यता के आधार पर खुली रखी गयी हैं । हम इन बातों की बारीकी में उतरनें के बजाय जो कहना चाहते हैं वह यह है कि जनतन्त्र में वाद -विवाद की मर्यादित परम्परा को सदैव जीवन्त रखना चाहिये आप किसी वर्ग की बात से सहमत न हों पर उस वर्ग को अपनी बात कहनें का अधिकार तो आपको देना ही होगा । आज की विश्व राजनीति में सभ्य संसार का यह एक सर्व स्वीकृत सत्य है । इसी कारण जहां अपोजीशन पार्टी या विरोधी दल नहीं होते वहां जनतन्त्र को एक सफल प्रयोग के रूप में नहीं स्वीकारा जाता ।
अपनी सारी आर्थिक प्रगति के बावजूद चीन में विरोधी पार्टी का न होना इस बात का सबसे सशक्त प्रमाण है कि वहाँ किसी न किसी रूप में साम्यवादी तानाशाही लागू है । भले ही चीन की कम्युनिष्ट पार्टी यह दावा करती हो कि वहाँ जनतान्त्रिक चुनाव पार्टी के भीतर होते रहते हैं और एकल पार्टी का शासन होकर भी चीन एक जनतन्त्र है । पर पूरी दुनिया इसे एक प्रोपोगंडा ही मानती है । अरब देशों में आयी हुयी कुछ आधुनिक उथले -पुथलें तानाशाही के खिलाफ उठी हुयी विरोध की आवाज के द्वारा ही संभ्भव हो पायीं हैं । आप सब जानते ही हैं कि अभिताभ जी का लखनऊ में आने का एक प्रोग्राम इसलिये कैंसिल करना पड़ा था कि फिल्म आरक्षण पर यू ० पी ० सरकार नें प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । आरक्षण फिल्म में अभिताभ बच्चन नें एक महाविद्यालय के अत्यन्त निष्ठावान, निस्पच्छ और प्रभावी प्राचार्य की भूमिका निभायी है । उ ० प्र ० के अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश ,पंजाब नें भी आरक्षण फिल्म पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । अन्ततः फिल्म के निर्माता प्रकाश झा को प्रतिबन्ध उठानें के लिये उच्चतम न्यायालय जाना पड़ा । उ ० प्र ० सरकार का कहना था कि फिल्म आरक्षण में कुछ ऐसे संवाद हैं जिनसे जातीय वैमनस्यता बढ़ सकती है । शायद यही कारण आन्ध्र प्रदेश और पंजाब में भी प्रतिबन्ध के पीछे रहा है । उ ० प्र ० के वकील यू ० यू ० ललित नें न्यायालय में यह तर्क दिया कि फिल्म के प्रदर्शन से शान्ति भंग हो सकती है और इसलिये उसपर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा है । उन्होंने कहा कि यद्यपि इस फिल्म को सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन नें मजूरी दे दी है पर फिर भी इसके संवादों में कहीं कहीं आरक्षित वर्ग पर कटाक्ष की झलक है और इसलिये प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक हो गया था उच्चतम न्यायालय की दो जजों की एक बेंच नें दो महीनें से लगे इस प्रतिबन्ध को 19 अगस्त को लगे एक फैसले में उठा दिया था । न्यायमूर्ति मुकुन्द शर्मा और न्याय मूर्ति ए ० अर ० दबे नें अपनें फैसले पर कहा था कि जनतन्त्र में अभिव्यक्ति और विचार स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार मिला हुआ है उन्होंने कहा कि जनतन्त्र के सफल कार्यवाहन के लिये आवश्यक है कि परस्पर विरोधी विचारधारायें वाद -विवाद के द्वारा एक सहज स्वीकार्य सहमति बनाती चलें । आरक्षण संबन्धी प्रावधान भी काल के प्रवाह में परिवर्तन की माँग कर सकते हैं वैसे ही जैसे धर्म संहिताओं की कई पुरानी मान्यतायें हिन्दू कोड बिल में नकार दी गयी थीं । आरक्षण आज का सत्य है पर कौन जाने कल यह सत्य किस रूप में परिभाषित होनें लगे ।
'माटी 'सामयिक सन्दर्भों में आरक्षण की वैधता या अवैधता पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना चाहती क्योंकि वह काल की अन्तर तरंगों पर जो कुछ लिखा जा रहा है उससे पूरी तरह परिचित नहीं है । हाँ 'माटी 'इतना अवश्य कहती है कि कोई भी समाज Fossilized रूप में जीवित नहीं रह सकता आर्थिक दुर्बलता को जाति दुर्बलता का समानार्थी मन लेना बीते कल का या आज का सत्य हो सकता है पर आने वाले कल का भी यह सत्य रहेगा या नहीं यह कह पाना अभी संभ्भव नहीं हो पा रहा है । क्या पता जाति गड़ना के नये आंकड़ें जो संसद के आग्रह पर एकत्रित किये जाने लगे हैं सच्चायी की एक नयी तस्वीर हम सबके सामनें पेश करने लगें । रामलीला मैदान में मंच पर बैठे अन्ना हजारे नें भी यही ललकार लगायी थी कि जनतन्त्र में उन्हें अपनी बात कहनें और अपना पक्ष रखनें का पूरा जनतान्त्रिक अधिकार है और यह अधिकार वह क़ानून और व्यवस्था को तनिक भी क्षति पहुंचाये बिना मानव कल्याण के हित में प्रयोग करना चाह रहे हैं । सारी विचारधारायें मौलिक साधनों को अधिक सहज और सुविधा पूर्ण ढंग से जन साधारण को उपलब्द्ध कराकर उनके सांसारिक जीवन को अभाव ,दरिद्रता ,और गरीबी पन से मुक्त करनें के लिये होती है ।वे दिन लद गये जब ये शरीर बेमानी था और केवल परम तत्व की प्राप्ति ही लक्ष्य था । जब दरिद्रता आभूषण होती थी । , जब शरीर को कष्ट देना ही तपश्चर्या का अंग था । जब नारी सुख से वंचित रहना ही पुरुष का पुरषार्थ था और कुमार्गी ,वैश्यागामी पति की चरण रज लेना ही नारी का धर्म था । अब यह सब जब मिट गया तो जाति अहंकार को मिटने में कौन सी देरी रह गयी है ? और एक जाति अहंकार मिट जाये तो ऊँची कही जाने वाली जातियों में जन्म लेने का अभिशाप भी कुछ पीढ़ियों के पश्चाताप के बाद समाप्त करना ही होगा । 9 प्रतिशत की दर से विकसित हो रहे भविष्य का भारत विश्व राजनीति पर कौन छवि लेकर उभरेगा यह आने वाले दो- तीन दशक बतायेंगें । हम साठोत्तरी पीढी के व्यक्ति उस अनजानें, अनदेखे भविष्य के प्रति एक ललक भर संजोये हुये हैं । हम चाहेंगें कि जाति -मुक्त , वर्ण -मुक्त ,असमानता -मुक्त ,कल का भारत मानव की अपराजेय विजय यात्रा का ध्वजावाहक बनें ।
अपनी सारी आर्थिक प्रगति के बावजूद चीन में विरोधी पार्टी का न होना इस बात का सबसे सशक्त प्रमाण है कि वहाँ किसी न किसी रूप में साम्यवादी तानाशाही लागू है । भले ही चीन की कम्युनिष्ट पार्टी यह दावा करती हो कि वहाँ जनतान्त्रिक चुनाव पार्टी के भीतर होते रहते हैं और एकल पार्टी का शासन होकर भी चीन एक जनतन्त्र है । पर पूरी दुनिया इसे एक प्रोपोगंडा ही मानती है । अरब देशों में आयी हुयी कुछ आधुनिक उथले -पुथलें तानाशाही के खिलाफ उठी हुयी विरोध की आवाज के द्वारा ही संभ्भव हो पायीं हैं । आप सब जानते ही हैं कि अभिताभ जी का लखनऊ में आने का एक प्रोग्राम इसलिये कैंसिल करना पड़ा था कि फिल्म आरक्षण पर यू ० पी ० सरकार नें प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । आरक्षण फिल्म में अभिताभ बच्चन नें एक महाविद्यालय के अत्यन्त निष्ठावान, निस्पच्छ और प्रभावी प्राचार्य की भूमिका निभायी है । उ ० प्र ० के अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश ,पंजाब नें भी आरक्षण फिल्म पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । अन्ततः फिल्म के निर्माता प्रकाश झा को प्रतिबन्ध उठानें के लिये उच्चतम न्यायालय जाना पड़ा । उ ० प्र ० सरकार का कहना था कि फिल्म आरक्षण में कुछ ऐसे संवाद हैं जिनसे जातीय वैमनस्यता बढ़ सकती है । शायद यही कारण आन्ध्र प्रदेश और पंजाब में भी प्रतिबन्ध के पीछे रहा है । उ ० प्र ० के वकील यू ० यू ० ललित नें न्यायालय में यह तर्क दिया कि फिल्म के प्रदर्शन से शान्ति भंग हो सकती है और इसलिये उसपर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा है । उन्होंने कहा कि यद्यपि इस फिल्म को सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन नें मजूरी दे दी है पर फिर भी इसके संवादों में कहीं कहीं आरक्षित वर्ग पर कटाक्ष की झलक है और इसलिये प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक हो गया था उच्चतम न्यायालय की दो जजों की एक बेंच नें दो महीनें से लगे इस प्रतिबन्ध को 19 अगस्त को लगे एक फैसले में उठा दिया था । न्यायमूर्ति मुकुन्द शर्मा और न्याय मूर्ति ए ० अर ० दबे नें अपनें फैसले पर कहा था कि जनतन्त्र में अभिव्यक्ति और विचार स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार मिला हुआ है उन्होंने कहा कि जनतन्त्र के सफल कार्यवाहन के लिये आवश्यक है कि परस्पर विरोधी विचारधारायें वाद -विवाद के द्वारा एक सहज स्वीकार्य सहमति बनाती चलें । आरक्षण संबन्धी प्रावधान भी काल के प्रवाह में परिवर्तन की माँग कर सकते हैं वैसे ही जैसे धर्म संहिताओं की कई पुरानी मान्यतायें हिन्दू कोड बिल में नकार दी गयी थीं । आरक्षण आज का सत्य है पर कौन जाने कल यह सत्य किस रूप में परिभाषित होनें लगे ।
'माटी 'सामयिक सन्दर्भों में आरक्षण की वैधता या अवैधता पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना चाहती क्योंकि वह काल की अन्तर तरंगों पर जो कुछ लिखा जा रहा है उससे पूरी तरह परिचित नहीं है । हाँ 'माटी 'इतना अवश्य कहती है कि कोई भी समाज Fossilized रूप में जीवित नहीं रह सकता आर्थिक दुर्बलता को जाति दुर्बलता का समानार्थी मन लेना बीते कल का या आज का सत्य हो सकता है पर आने वाले कल का भी यह सत्य रहेगा या नहीं यह कह पाना अभी संभ्भव नहीं हो पा रहा है । क्या पता जाति गड़ना के नये आंकड़ें जो संसद के आग्रह पर एकत्रित किये जाने लगे हैं सच्चायी की एक नयी तस्वीर हम सबके सामनें पेश करने लगें । रामलीला मैदान में मंच पर बैठे अन्ना हजारे नें भी यही ललकार लगायी थी कि जनतन्त्र में उन्हें अपनी बात कहनें और अपना पक्ष रखनें का पूरा जनतान्त्रिक अधिकार है और यह अधिकार वह क़ानून और व्यवस्था को तनिक भी क्षति पहुंचाये बिना मानव कल्याण के हित में प्रयोग करना चाह रहे हैं । सारी विचारधारायें मौलिक साधनों को अधिक सहज और सुविधा पूर्ण ढंग से जन साधारण को उपलब्द्ध कराकर उनके सांसारिक जीवन को अभाव ,दरिद्रता ,और गरीबी पन से मुक्त करनें के लिये होती है ।वे दिन लद गये जब ये शरीर बेमानी था और केवल परम तत्व की प्राप्ति ही लक्ष्य था । जब दरिद्रता आभूषण होती थी । , जब शरीर को कष्ट देना ही तपश्चर्या का अंग था । जब नारी सुख से वंचित रहना ही पुरुष का पुरषार्थ था और कुमार्गी ,वैश्यागामी पति की चरण रज लेना ही नारी का धर्म था । अब यह सब जब मिट गया तो जाति अहंकार को मिटने में कौन सी देरी रह गयी है ? और एक जाति अहंकार मिट जाये तो ऊँची कही जाने वाली जातियों में जन्म लेने का अभिशाप भी कुछ पीढ़ियों के पश्चाताप के बाद समाप्त करना ही होगा । 9 प्रतिशत की दर से विकसित हो रहे भविष्य का भारत विश्व राजनीति पर कौन छवि लेकर उभरेगा यह आने वाले दो- तीन दशक बतायेंगें । हम साठोत्तरी पीढी के व्यक्ति उस अनजानें, अनदेखे भविष्य के प्रति एक ललक भर संजोये हुये हैं । हम चाहेंगें कि जाति -मुक्त , वर्ण -मुक्त ,असमानता -मुक्त ,कल का भारत मानव की अपराजेय विजय यात्रा का ध्वजावाहक बनें ।