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माया महाठगनी मैं जानी

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मेरे घर से सटी उस छत पर
एक टिटहरी बैठ उड़ जाती है
टें टें , टिटिर टिटिर
उड़ उड़ चिल्लाती है
उडती है ,बैठती है
उड़ उड़ बैठ जाती है
 किसको बुलाती है ?

कभी उत्तर से या कभी दक्षिण से
कभी कभी पूरब से
कभी कभी पश्चिम से
एक और टिटहरी उड़ आ जाती है ।
शायद टिटहरा हो
टाँगें कुछ लम्बी  हैं
पंख फुदकाता है
जाने जानें क्या बतियाता है ?
दोनों फिर उड़ते हैं
चक्कर लगाते हैं
कभी धीरे कभी जोर
टी टी टिटियाते हैं ।
 फिर बैठ जाते हैं
एक के पीछे एक
लम्बी छत पर चक्कर लगाते हैं
नाचते हैं ,गाते हैं
चोचें लड़ाते हैं
जानें क्या बतियाते हैं ।
 मेरा मूढ़ बूढा मन
 मचल मचल जाता है
लम्बी छलांगें लगाता है
विगत दिनों की ओर
जब हर शाम, हर भोर
मेरा कोई मन चोर
मुझको बुलाता था
कुछ बतियाने को
चोंचें लड़ानें को ।
छि:छि: रे मूढ़ मन
कर ले तू गीता  -पाठ
दो दशक हो गये
बीते साठ ।
ओठों पर आ गयी सन्तों की वाणी
'माया महाठगनी मैं जानी '

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