व्यक्ति का सामर्थ्य असीमित नहीं होता । सामर्थ्य की सीमा रेखायें सम सामयिक जीवन मूल्यों से घिरी बंधी रहती हैं। काल की चिरन्तन परिवर्तन चुनौती भी सामर्थ्य को ढलाव की ओर मोडनें लगती है । व्यक्ति और समूह दोनों ही सन्दर्भों में ऐसा होता देखा गया है । इतिहास के पन्नों में उदाहरण टटोलने की अपेक्षा आधुनिक जीवन से ही सशक्त मिसालें पेश की जा सकती हैं । हममें से जो पचास वर्ष से ऊपर के हैं वे जिन क्रिकेट खिलाड़ियों को महान मानते थे वे सब के सब अब द्रष्टा ,आलोचक या सलाहकार बन गये हैं । केवल क्रिकेट क्या कौन सा ऐसा गेम है जहाँ विश्व चर्चित प्रतिभायें अब मात्र खेल इतिहास से परिचय दिखाने के लिये चर्चित होती हैं टेनिस को ही लें राडलेवर , अगासी स्टेफी और नौरतिलोवा अब यदा -कदा ही चर्चा का विषय बनते हैं । कुछ खेलों में तो प्रतिभायें इतनी शीघ्रता के साथ निकल कर आ रही हैं कि पाँच वर्ष में ही शीर्षस्थ पर बैठे नायक और नायिकायें फिसल कर नीची सीढी पर आ जाते हैं । भारोत्तोलक मल्लेश्वरी अब कहीं चर्चित होती नहीं दिखतीं । और पी ० टी ० उषा भी कोच के नाते ही छपती रहती हैं । ललित कलाओं के क्षेत्र में तो जाने माने सारे नाम इतिहास का विषय बन गये हैं । केदार नाथ की कविताओं का अँग्रेजी अनुवाद हो जाय तो कुछ चर्चा हो जाती है । गोविन्द मिश्र के उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद हो जाय तो उसपर एकाध लेख छप जाता है । पर अब यह सब पुराने पड़ चुके हैं । नये की भूख आज इतनी तीब्र हो गयी है कि हम कलाओं और साहित्य के क्षेत्र में भी हर वर्ष कुछ नया देखना चाहते हैं । हमारा पहिनावा -उढावा भी परिवर्तन के द्रुतिगामी मार्ग से गुजर रहा है । ओवरकोट तो अब कहीं देखने को ही नहीं मिलता । हाँ पर्मल वस्त्र जरूर कुछ तेजी पकड़ रहे हैं । स्त्रियों की केश राशि की सजावट और बनावट इतनें अजीबोगरीब रूप ले चुकी है कि उसमें शायद किसी परिवर्तन की गुंजाइश ही नहीं है । पर परिवर्तन करने वाले ताबड़तोड़ परिवर्तन करते जा रहे हैं । बॉलीवुड तो इस बचकानी तलाश के लिये किशोर और किशोरियों के लिये क्रेज बन गया है । दरअसल तेजी से बदलती हुयी टेक्नालाजी हर पहली टेक्नालॉजी को एक दो वर्ष में लंगड़ा कर देती है । प्रकृति का परिवर्तन इतनी तेजी से नहीं होता उसमें एक गति है ,लय है ,ताल है । ऋतुओं का अपना विधान है । सूरज ,चाँद और ,सितारों का अपना नियमित चक्र है । यह ठीक है कि सुदूर तारावलियों में और आकाश गँगा की वीथियों में निरन्तर परिवर्तन चलता रहता है पर यह परिवर्तन धरती के हम मरण शील नर -नारियों को दिखायी नहीं पड़ता । हम तो प्रकृति के नियमबद्ध परिवर्तन को ही अनुभव के दायरे में ला पाते हैं शायद इसीलिये अत्यन्त द्रुतगामी परिवर्तन भारतीय संस्कृति में सराहना नहीं पा सका है । लम्बी अवधि में होने वाला परिवर्तन ही अधिक टिकाऊ होता है और लम्बे समय तक चलता है । मौसमी वनस्पतियाँ शीघ्र ही पीताभ होकर नष्ट हो जाती हैं । हाँ जब कोई परम्परा रूढ़ हो जाती है और एक लम्बी अवधि तक परिवर्तन की प्रक्रिया से नहीं गुजरती तो उसके प्रति जनसाधारण के मन में उपेक्षा का भाव उठ आना स्वाभाविक ही है ।
आइये अब सामाजिक क्रियाकलापों और रीतिरिवाजों पर कुछ चर्चा कर लें । महाकाव्य काल से लेकर उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों तक सती प्रथा के लिये भारतीय संस्कृति में सहिष्णुता का भाव था । उसे अनिवार्य न माना जाकर भी उसे अनुचित नहीं माना जाता था । फिर अब विश्व के अन्य देशों से गुजरने वाली वायु हमारे चिन्तन कक्षों में प्रवेश हुयी तो इस प्रथा को निन्दनीय समझा जाने लगा किसी भी प्रथा की समाप्ति कुछ व्यक्तियों के प्रयासों से नहीं होती । यदि उस प्रथा में जीवन को गति देने के तत्व शेष हों । पर जब कोई प्रथा निर्जीव हो उठती है तब कुछेक व्यक्तियों के प्रयास सामूहिक प्रयास में बदल जाते हैं । और प्रथा बदल देने का श्रेय कुछ व्यक्तयों को मिल जाता है । गहरी समझ से देखें तो बदलते समय की मांग ही किसी सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण होती है । नारी से सम्बन्धित इसी प्रकार अन्य प्रथायें जैसे भ्रूण ह्त्या ,दहेज़ , पत्नी पीड़न और दासत्व आरोपण सभी में परिवर्तन की गहरी सम्भावनायें उभरकर सामनें आ गयी हैं । विकासवादी कहते हैं कि पौधों पेड़ों ,पशुओं ,की नस्लें न जानें किस प्रक्रिया से अचानक परिवर्तित होती दिखाई पड़ती हैं । कभी विकास की ओर और कभी अविकास की ओर । पर अधुनातन खोजों नें यह सिद्ध किया है कि प्रकृति का यह अचानक दिखाई पड़ने वाला यह म्यूटेशन भी एक लम्बी सतत परिवर्तन प्रक्रिया का ही चरम परिणाम होता है । भ्रूण ह्त्या ,दहेज़ ,पत्नी पीड़न और दासत्व आरोपण भी आने वाले कल में इतिहास के कूड़े कचरे में फेंक दिये जायेंगें । अर्थशास्त्री निरन्तर यह कहते रहते हैं कि इकनॉमिक फ्रीडम के बिना और हर किस्म की स्वतन्त्रता बेमानी हो जाती है । इकनॉमिक फ्रीडम का अर्थ है व्यक्ति को जीवन यापन के मुख्य उपादान सहज ही जुटा लेनें की क्षमता । सीधे शब्दों में इसका मतलब यह है कि हर व्यक्ति को आय के इतनें कानूनी साधन सुलभ हों कि वह मूलभूत सुविधाये जुटाकर चिन्ता मुक्त जीवन जी सके । दार्शनिक अर्थों में कोई चिन्ता मुक्त हो ही नहीं सकता पर दरिद्रता मिट जाने से सामाजिक सुख का दायरा तो निश्चय ही बढ़ जायेगा । शायद इसीलिये महात्मा गांधी नें दरिद्र नारायण की सेवा की पुकार लगाई थी । संपादक के नाते मैं भी 'माटी 'में कुछ नये परिवर्तन लाना चाहूँगा पर जैसा कि मैं कह चुका हूँ परिवर्तन की सीमायें हैं और यह सीमायें परिस्थितियों से जन्मती ,बनती और बिगड़ती हैं । आप सब जानते हैं कि समर्थ व्यक्ति अपनें जुझारूपन से परिस्थितियों को बदल देते हैं । अस्सी रुपये की क्लर्की से प्रारम्भ करके धीरू भाई अम्बानी नें आर्थिक साम्राज्य का बेजोड़ विस्तार फैला दिया । प्रारम्भिक सारी असफलताओं के बावजूद जार्ज बर्नाडसाह अंग्रेजी के सबसे समर्थ आयरिश नाटककार हुये और उन्होंने साहित्यकार की मर्यादा को व नोबेल पुरुष्कार ठुकराकर और अधिक गरिमा मण्डित कर दिया । हमारे अपनें साहित्य से भी न जाने कितनी ऐसी मिसालें खोजी जा सकती हैं पर मैं असाधारण प्रतिभा का दावा नहीं करता । न लेखन के क्षेत्र में ,न चिन्तन के क्षेत्र में ,न प्रबन्धन के क्षेत्र में हाँ यह दावा कर सकने योग्य अपनें को मानता हूँ कि परिवर्तन के द्वारा पत्रिका को और अधिक सुपाठ्य बनानें का प्रयास सतत जारी रहेगा । छपने वाले लेख ,कहानियाँ संस्मरण और राजनीतिक चर्चायें आपको जीवन की समस्याओं पर गहरायी से सोचने के लिये झकझोरती रहेंगीं । सभी रचनाएँ जो 'माटी 'संपादक के पास आती हैं अपनें में कुछ न कुछ गुणवत्ता रखती हैं पर पत्रिका के आकार को हम वहीं तक सीमित कर पाते हैं जहाँ तक हमारा वित्तीय सामर्थ्य हमारी सहायता करता है । मैं जानता हूँ कि यदि 'माटी 'अंग्रेजी में छपती और इसके लेख और रचनाएँ अंग्रेजी में अनूदित होतीं तो इसका आर्थिक आधार काफी सुद्रढ़ हो जाता । हिन्दी भाषा -भाषी जन आज भी आर्थिक दुर्बलता से ग्रसित हैं और शायद जो पान ,तम्बाकू या दोहरा खाकर अच्छी खासी रकम स्वास्थ्य को हानि पहुंचने में लगाते हैं उन्हें भी प्रिन्ट मीडिया के लिये पैसा देना अच्छा नहीं लगता । अखबार पढ़ना तो मध्यम वर्ग की मजबूरी बन गयी है क्योंकि ह्त्या ,बलात्कार ,और जघन्य राजनीतिक तिकड़में अखबारी सुर्ख़ियों का मुख्य विषय होती हैं । पर हमारा संकल्प है पंक से सुवास तक आपको पहुँचाना ,कूप मंडूपता से आपको निकाल कर पर्वतीय ऊँचाइयों और सागरीय गहराइयों की झलक देना , जनूनी अंधवाद से उठाकर वैज्ञानिक धर्म निरपेक्षता तक पहुँचाना यानि सच्चे अर्थों में आपको धार्मिक बनाना । हम आपसे यही सहयोग मांगते हैं कि हमारे इस संकल्प को दृढ़तर करनें में अपनें विश्वास का बल हमें प्रदान करें । हर प्रगति कभी -कभी विराम की माँग करती है । पर विराम के बाद आरोहण की गति अधिक द्रुति हो जाती है । निश्चय ही 'माटी 'जीवन्तता के नये पादप पुष्प आप तक पहुंचायेगी ।
आइये अब सामाजिक क्रियाकलापों और रीतिरिवाजों पर कुछ चर्चा कर लें । महाकाव्य काल से लेकर उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों तक सती प्रथा के लिये भारतीय संस्कृति में सहिष्णुता का भाव था । उसे अनिवार्य न माना जाकर भी उसे अनुचित नहीं माना जाता था । फिर अब विश्व के अन्य देशों से गुजरने वाली वायु हमारे चिन्तन कक्षों में प्रवेश हुयी तो इस प्रथा को निन्दनीय समझा जाने लगा किसी भी प्रथा की समाप्ति कुछ व्यक्तियों के प्रयासों से नहीं होती । यदि उस प्रथा में जीवन को गति देने के तत्व शेष हों । पर जब कोई प्रथा निर्जीव हो उठती है तब कुछेक व्यक्तियों के प्रयास सामूहिक प्रयास में बदल जाते हैं । और प्रथा बदल देने का श्रेय कुछ व्यक्तयों को मिल जाता है । गहरी समझ से देखें तो बदलते समय की मांग ही किसी सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण होती है । नारी से सम्बन्धित इसी प्रकार अन्य प्रथायें जैसे भ्रूण ह्त्या ,दहेज़ , पत्नी पीड़न और दासत्व आरोपण सभी में परिवर्तन की गहरी सम्भावनायें उभरकर सामनें आ गयी हैं । विकासवादी कहते हैं कि पौधों पेड़ों ,पशुओं ,की नस्लें न जानें किस प्रक्रिया से अचानक परिवर्तित होती दिखाई पड़ती हैं । कभी विकास की ओर और कभी अविकास की ओर । पर अधुनातन खोजों नें यह सिद्ध किया है कि प्रकृति का यह अचानक दिखाई पड़ने वाला यह म्यूटेशन भी एक लम्बी सतत परिवर्तन प्रक्रिया का ही चरम परिणाम होता है । भ्रूण ह्त्या ,दहेज़ ,पत्नी पीड़न और दासत्व आरोपण भी आने वाले कल में इतिहास के कूड़े कचरे में फेंक दिये जायेंगें । अर्थशास्त्री निरन्तर यह कहते रहते हैं कि इकनॉमिक फ्रीडम के बिना और हर किस्म की स्वतन्त्रता बेमानी हो जाती है । इकनॉमिक फ्रीडम का अर्थ है व्यक्ति को जीवन यापन के मुख्य उपादान सहज ही जुटा लेनें की क्षमता । सीधे शब्दों में इसका मतलब यह है कि हर व्यक्ति को आय के इतनें कानूनी साधन सुलभ हों कि वह मूलभूत सुविधाये जुटाकर चिन्ता मुक्त जीवन जी सके । दार्शनिक अर्थों में कोई चिन्ता मुक्त हो ही नहीं सकता पर दरिद्रता मिट जाने से सामाजिक सुख का दायरा तो निश्चय ही बढ़ जायेगा । शायद इसीलिये महात्मा गांधी नें दरिद्र नारायण की सेवा की पुकार लगाई थी । संपादक के नाते मैं भी 'माटी 'में कुछ नये परिवर्तन लाना चाहूँगा पर जैसा कि मैं कह चुका हूँ परिवर्तन की सीमायें हैं और यह सीमायें परिस्थितियों से जन्मती ,बनती और बिगड़ती हैं । आप सब जानते हैं कि समर्थ व्यक्ति अपनें जुझारूपन से परिस्थितियों को बदल देते हैं । अस्सी रुपये की क्लर्की से प्रारम्भ करके धीरू भाई अम्बानी नें आर्थिक साम्राज्य का बेजोड़ विस्तार फैला दिया । प्रारम्भिक सारी असफलताओं के बावजूद जार्ज बर्नाडसाह अंग्रेजी के सबसे समर्थ आयरिश नाटककार हुये और उन्होंने साहित्यकार की मर्यादा को व नोबेल पुरुष्कार ठुकराकर और अधिक गरिमा मण्डित कर दिया । हमारे अपनें साहित्य से भी न जाने कितनी ऐसी मिसालें खोजी जा सकती हैं पर मैं असाधारण प्रतिभा का दावा नहीं करता । न लेखन के क्षेत्र में ,न चिन्तन के क्षेत्र में ,न प्रबन्धन के क्षेत्र में हाँ यह दावा कर सकने योग्य अपनें को मानता हूँ कि परिवर्तन के द्वारा पत्रिका को और अधिक सुपाठ्य बनानें का प्रयास सतत जारी रहेगा । छपने वाले लेख ,कहानियाँ संस्मरण और राजनीतिक चर्चायें आपको जीवन की समस्याओं पर गहरायी से सोचने के लिये झकझोरती रहेंगीं । सभी रचनाएँ जो 'माटी 'संपादक के पास आती हैं अपनें में कुछ न कुछ गुणवत्ता रखती हैं पर पत्रिका के आकार को हम वहीं तक सीमित कर पाते हैं जहाँ तक हमारा वित्तीय सामर्थ्य हमारी सहायता करता है । मैं जानता हूँ कि यदि 'माटी 'अंग्रेजी में छपती और इसके लेख और रचनाएँ अंग्रेजी में अनूदित होतीं तो इसका आर्थिक आधार काफी सुद्रढ़ हो जाता । हिन्दी भाषा -भाषी जन आज भी आर्थिक दुर्बलता से ग्रसित हैं और शायद जो पान ,तम्बाकू या दोहरा खाकर अच्छी खासी रकम स्वास्थ्य को हानि पहुंचने में लगाते हैं उन्हें भी प्रिन्ट मीडिया के लिये पैसा देना अच्छा नहीं लगता । अखबार पढ़ना तो मध्यम वर्ग की मजबूरी बन गयी है क्योंकि ह्त्या ,बलात्कार ,और जघन्य राजनीतिक तिकड़में अखबारी सुर्ख़ियों का मुख्य विषय होती हैं । पर हमारा संकल्प है पंक से सुवास तक आपको पहुँचाना ,कूप मंडूपता से आपको निकाल कर पर्वतीय ऊँचाइयों और सागरीय गहराइयों की झलक देना , जनूनी अंधवाद से उठाकर वैज्ञानिक धर्म निरपेक्षता तक पहुँचाना यानि सच्चे अर्थों में आपको धार्मिक बनाना । हम आपसे यही सहयोग मांगते हैं कि हमारे इस संकल्प को दृढ़तर करनें में अपनें विश्वास का बल हमें प्रदान करें । हर प्रगति कभी -कभी विराम की माँग करती है । पर विराम के बाद आरोहण की गति अधिक द्रुति हो जाती है । निश्चय ही 'माटी 'जीवन्तता के नये पादप पुष्प आप तक पहुंचायेगी ।