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एक मात्र सत्य

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कल तक
इन वाणों  की नोकों से
सहस्त्र -सहस्त्र शत्रु -सिर
छेदे थे
कल तक
इस धनु  प्रत्यंचा से
खींच शर
लाखों लक्ष्य भेदे थे
कितना अभिमान था
अप्रतिम ,अपराजित होने का
मिथ्या दंभ्भ ढोने का ।
शरों की नोकें आज भोंडी हैं
धनु की प्रत्यंचा अलसायी है
लक्ष्य की खोज में लगी
 बूढ़ी आँखों पर 
बदली सी छायी है ।
गोपियाँ लुट रहीं
विनत नेत्र कुंती पुत्र हारे हैं
गीता के गवैया से
दूर हो
निपट बेसहारे हैं ।
दस -सिर ने
काल को पाटी बाँध
एक भ्रम पाला था
प्रकृति ने उसे किसी ,
अमिट अविनश्वर
साँचे में ढाला था
दस सिर धूल में डोले थे
वेदों का सार तत्व बोले थे
सभी कुछ असत्य है
काल का कालातीत
अनवरत ,अप्रतिहत प्रवाह ही
एक मात्र सत्य है ॥ 

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