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बीसवीं सदी के अन्त तक ..........

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                                     बीसवीं सदी के अन्त तक ऐसा माना जाता जा रहा है कि मानव जीवन की सफलता में सच्चायी और ईमानदारी का सबसे बड़ा योगदान होता है । हमारा विश्वास था कि इक्कीसवीं सदी के प्रारंम्भ होते ही यह दोनों गुण विश्व में सभ्यता का स्थायी आधार बन जायेंगें  । हो सकता है कि मेरा ऐसा सोचना मानव इतिहास की एक सार्थकता बन जाय । पर न जाने क्यों मेरा यह विश्वास लड़खड़ाने लगा है । मुझे ऐसा लगता है कि आडम्बर का लबादा ओढ़कर ही आज के युग में सफलता के सोपान जीते जा सकते हैं । मैं जब चिन्तन के क्षणों में अपने अन्तर चक्षुओं से आज की दुनिया का अवलोकन करता हूँ तो मुझे अपने चारो ओर बौद्धिकता के नाम पर ढोंग ,पाखण्ड ,और मिथ्या आचरण का आत्मजाल ही दिखायी पड़ता है । भारतीय संस्कृति में सन्त  की व्याख्या भाषा के श्रेष्ठतम मानकों में भी व्यंजित नहीं  पाती थी । पर आज क्या आशाराम बापू ,क्या रामपाल सभी सन्त परम्परा का जघन्यतम रूप प्रस्तुत करते दिखायी पड़ते हैं । सम्पादक और गहन विचारक राष्ट्र धर्मिता के धुधुवाहक होते हैं । पर आज तरुण तेजपाल और नोबेल विजेता पचौरी वासना के दुर्गन्ध जाल में सिमटे हुये हैं । राजनीतिज्ञ मानव विकास के कर्णधार होते हैं शायद भारत के अतिरिक्त अन्य   देशों में ऐसा हो भी पर भारत में क्या ओम प्रकाश चौटाला, क्या लालू यादव ,क्या डी ० पी ० यादव ,क्या क्या सारधा काण्ड के दोगले सूत्रधार सभी के सब प्रवंचना का लबादा ओढ़कर विकास की दुहायी दे रहे हैं । काले धन पर चिल्लाने वाले कानून की जटिलता का उल्लेख कर रहे हैं और दरिद्र नारायण की बात करने वाले धन की अपार महिमा में चालीसा लिखने लगे हैं । सहसा विश्वास नहीं होता कि प्रगति का सच्चा अर्थ क्या है ? ऊपर की ओर उठना या अधोगामी होना । शक्ति और ज्ञान में तो रावण ,कंस और जरासंध भी अपना सानी नहीं रखते थे । पर भारत ने कभी उन्हें आदर्श नहीं माना क्योंकि वे स्वयं के अभिमान से ऊपर उठकर समस्त मानव कल्याण के लिये अपने को कभी समर्पित नहीं  कर सके । मैं जानता हूँ कि मेरी द्रष्टि सम्पूर्ण नहीं है और शायद वो अपने आस -पास के वातावरण को समग्रता से समेट नहीं पाती।  पर द्रष्टि के अधूरेपन के बावजूद मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि आज के अधिकाँश समाचारपत्र रुपये के तराजू पर तौले जा रहे हैं । मीडिया का काम सत्य को उजागर करना है न कि सत्य को हास्यास्पद दलीलों द्वारा विखण्डित करना जब मीडिया किसी विशिष्ट अवधारणा के प्रति प्रतिबद्धित हो जाता है तो वह एक बाजारू वस्तु बन जाता है । भारत का प्रोफेसनल क्लास भी अराजकता को न केवल बढ़ावा दे रहा है वरन उसमें सक्रिय सहयोग भी प्रदान कर रहा है । क़ानून के संरक्षक वकीलों को ही लीजिये उनके धरने ,प्रदर्शन ,आपसी मार -पीट कलह ,गोलीबारी सभी कुछ क़ानून को गहरे गड्ढे में दफना रही है । डाक्टरों को धरती पर ईश्वर के प्रतिरूप में सम्मानित किया जाता था पर हो सकता है कि  लोग मुझे इस बात के लिये प्रतिगामी कहें कि मैं डाक्टरों को आज सभ्य डाकुओं से अधिक कहने के लिये अन्तर शक्ति नहीं पा रहा हूँ । मोबाइल और इन्टरनेट की क्रान्ति ने संसार को एक गाँव में अवश्य बदल दिया है पर यह गाँव भी धीरे -धीरे अपराध की पृष्ठभूमि में बेजोड़ होता जा रहा है । भारत में नारी को नर से दो मात्रायें देकर महिमामण्डित किया था पर अब नारी नर के मुकाबले में ही खड़े होकर बराबरी की माँग कर रही है । उसके माँ होने का गौरव उसे सदैव पुरुष से बड़ा बनाता था पर अब वह इस गौरव को छोड़कर कार्पोरेट दुनिया की हेरा -फेरी में सम्मान की अधिकारिणी बनना चाहती है । हो सकता है मेरा यह कथन अति आधुनिक नारी  चेतना को चोट पहुचावे पर मेरा मन उसकी महत्ता को उसके  सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व से जोड़कर देखने का अभ्यासी हो चुका है । करोड़ों और अरबों में खेलने वाली बाजारू माडलें और सौन्दर्य की नारियाँ भारत की सांस्कृतिक आत्मा को प्रभावित नहीं करतीं । हाँ उनकी ओर ललक भरी निगाह लगाकर तालियाँ बजाने वाला एक वर्ग अवश्य तैय्यार हो गया है । और बिका हुआ मीडिया बिना खूबसूरत चेहरों और झूठे -सच्चे साँकेतिक और अश्लील विज्ञापनों के बिना चल ही नहीं सकता । चारो ओर तुमुल कोलाहल है ऐसे में आन्तरिक श्रद्धा की तलाश  कौन करे । प्रसाद जी श्रद्धा के लिये एक अमर पँक्ति लिख गये वह पँक्ति आज केवल कुछ संस्कारी पुरुषों को ही प्रभावित करती है । खरीद -फरोख्त का बाजार उस पँक्ति को केवल मनोरंजन का साधन मानता है । "तुमुल कोलाहल कलह में ,मैं ह्रदय की बात रे मन ।"आज कौन ह्रदय की बात सुनता है । अब तो चिकित्सा विज्ञान यह भी दावा करने लगा है कि बनावटी ह्रदय का आरोपण सफल हो चुका है और निकट भविष्य में बनावटी ह्रदय की धडकनें ही मानव जाति का भविष्य बनायेंगीं । शादी का साज आत्मा के स्वरों से सजता था पर अब उसमें प्रदर्शन और पाखण्ड के स्वर मुखर हो गये हैं । समाचार पत्रों की सुर्खियाँ पाखण्डों का पालागन करती हैं और प्रदशर्नों का रंग -बिरंगा प्रतिरोपण । भारत के संस्कारी नर और नारी बेबस होकर असहायता का जीवन जीते जा रहे हैं । पर उस जीवन में स्पन्दन की तीब्रता नहीं रही है । प्रेम कहानियाँ मिथ्याचार का कौतूहल सँजोकर अपरिपक्व मस्तिष्कों को भ्रमित कर रही हैं । कदाचार का वर्तुल चक्र प्रकाश के क्षीण विम्ब को घेरता जा रहा है । प्रकृति भी शायद इसी मानवीय स्खलन का प्रतिरूप बनती जा रही है । पश्चिमी विक्षोभ भारतीय संस्कृति के अवदात और वैतुल्य भरे नीतिशास्त्र को अवरोधित कर रहा है । और भौगोलिक धरातल पर पश्चिमी विक्षोभ से  भारत की कृषि प्रणाली क्षुधित हो चुकी है । और न जाने कितने संक्रामक रोग पलते -पनपते जा रहे हैं । "माटी 'मैला आँचल के बावन दास की भाँति कदाचार की वाहिका वाहन प्रणाली के आगे छाती खोलकर खड़ी है । उसे पूरा ज्ञान है कि उसे कुचल दिया जायेगा पर फिर भी कोई न कोई चिथरिया पीर का दर्जा तो देगा ही । तो आइये हम और आप एक छोटा पर आदर्श समर्पित जीवन जीने के लिये चिथरिया पीर बन जाने को तैयार रहें । हिम्मत है तो आप भी 'माटी 'के सहभागी बन सकते हैं । अन्यथा बाजार की खरीद -फरोख्त तो आपको मुबारक होती ही रहेगी । 

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