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Article 3

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                         ......................................कुछ वर्षों बाद दीक्षान्त समारोह हो जाने पर श्रीकृष्ण सुदामा से विदायी मांगते हुये मथुरा की ओर प्रस्थान करने से पहले कहते हुये सुने जाते हैं मित्र सुदामा तुम एक चरित्रवान ब्राम्हण के पुत्र हो और मेरे गुरु भाई हो । संकोच मत  करना हम क्षत्रिय लोग तो सदैव से ब्राम्हणों का आदर करते हैं और उन्हें आदर्श मानते हैं । तुम्हीं ने तो उस बरसात की शाम को यह  कहा था  .   कि तुम ब्राम्हण हो कभी झूठ नहीं बोलते । मेरे सबसे प्रिय  गुरुभाई तुम्हारी स्मृति मेरे ह्रदय में सदैव छायी रहेगी कौन जाने भविष्य की गर्त में क्या छिपा है । आवश्यकता पड़े तो अपने इस मित्र से मिल लेना या बुला लेना ।
                     लगभग 15 वर्ष का अन्तराल । कंस वध और मथुरा पर कंस के पिता महाराजा उग्रसेन का राज्याभिषेक । उग्रसेन का स्वर्गारोहण,  श्रीकृष्ण द्वारा मथुरा का      राज्य संचालन । जरासंध का प्रबल आक्रमण । कृष्ण की कूटनीतिक चतुरता । चक्रधारी कृष्ण से रणछोर बन जाना । द्वारिका को नयी राजधानी के रूप में स्थापित करना । वैभव शाली द्वारिका सारे आर्यावर्त में अपनी समृद्धि और ऐश्वर्य के लिये विख्यात ।                     
               सुदामा के पिता की मृत्यु के बाद पवित्र ,तपस्वी जीवन जीने का व्रत । जीवन की मूलभूत सुविधाओं का अभाव । अपनी पत्नी से आचार्य सन्दीपन के गुरुकुल में अपने गुरुभाई श्रीकृष्ण से  गहरी   मित्रता की चर्चा। नगर के वैष्णव गायक ,गायिकाओं द्वारा वासुदेव कृष्ण की अद्द्भुत नगरी द्वारिकापुरी के ऐश्वर्य का गायन । सुदामा की पत्नी सुमेधा का श्रीकृष्ण के पास पति को जाने के लिये आग्रहशील होना । सुदामा के स्वाभिमान पर एक गहरी चोट । अपने ब्राम्हणत्व पर अभिमान । अपने ज्ञान और चरित्र पर अभिमान । अपने द्वारा चलाये गये छोटे से गुरुकुल से जो भी उपार्जित हो सके उसी के सहारे जीवन नैय्या चलाने की अभिलाषा । पत्नी द्वारा घर की  उस गरीबी का जिक्र जो दरिद्रता के स्तर तक जा पहुँची है । घर में शीतकाल में ओढ़ने के लिये सोढ नहीं । खाना बनाने के और खाना सहेजने के शुद्ध स्वच्छ बर्तनों का अभाव । पूरे पेट खाने के लिये मोटे अन्न का भी अभाव । फिर प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के पास जाने का अतिरिक्त आग्रह । यहाँ नरोत्तमदास की ह्रदय द्रावक आठ पंक्तियाँ बिना उद्धत किये मन नहीं मानता ।
                                    "कोदो  सवाँ जुडतों भरि पेट
                                      तो न चाहती दधि दूध मिठौती
                                      शीत व्यतीत भयो शिशियवत ही
                                       हौं हठती पै तुम्हें न हठौती
                                      जो जनितिव न हितु हरि सौ
                                      तो मैं काहै को द्वारिका पेल पठौती
                                      या घर से कबहूँ न गयो प्रिय
                                      टूटो तवा और फूटी कठौती ।"
                आज 2016 के रविवार 1 मई के इसदिन नरोत्तम दास की यह पंक्तियाँ हिदुस्तान के करोणों दीन -हीन जनों के घरों की वास्तविक स्थित चित्रित करती हैं । द्वारिका धीश चक्रधारी श्रीकृष्ण के काल से लेकर आज तक का इतना लम्बा काल प्रवाह अपनी सारी तथाकथित प्रगतियों की गाथा समेट कर भी भारत की गरीबी को बहा कर नहीं ले जा पाया  है । क्या यह हमारी राज व्यवस्था का दोष है या भगवान का प्रकोप ?
                                          तो विवश सुदामा को द्वारिकापुरी की ओर जाना पड़ता है । जहाँ आज द्वारिकाधीश का मन्दिर है वहां से कुछ दूर वेत द्वारिका में सुदामा और श्रीकृष्ण का मिलन हुआ था । वेत द्वारिका तक पहुँचने के लिये अब हमें थोड़ा सा समुद्री जल मार्ग स्टीमर से तय करना पड़ता है पर उस काल में वेत द्वारिका तक पहुँचने  का निश्चय ही कोई स्थलीय मार्ग होगा । चमत्कृत कर देने वाले भब्य और विशाल राजभवन के द्वार पर सुदामा भौचक्के से खड़े हो जाते हैं । । उनकी सुलक्षणा ब्राम्हण पत्नी सुमेधा जानती थी कि किसी मित्र के घर जाते समय साथ में कुछ खाने -पीने की वस्तु भेंट के लिये ले जाना एक शकुन होता है अब  चूँकि घर में और कुछ था ही नहीं इसलिये उन्होंने कुछ टूटे हुये चावल एक साफ़ पुराने कपडे की पोटली बना कर बाँध दिये  थे । सम्भवतः सुमेधा भगवान श्रीकृष्ण की दिब्य शक्तियों से परिचित रही होगी  और उन्हें देवावतार के रूप में लेती होगी । पोटली को बगल में दबाये पुराने घिसे कटि वस्त्र पहने सिर पर बिना पगड़ी और पैरों में बिना जूता सुदामा द्वारिकाधीश के महल के द्वार पर खड़े हैं, शरीर के ऊर्ध्व भाग पर  सम्भवतः कोई पुराना  छिद्र भरा आवरण डाल रखा हो । रात्रि जागरण करने वाले भक्त गवैये प्रभावशाली स्वर लहरी में सुदामा श्रीकृष्ण मिलन गाथा वायु लहरियों पर तरंगायित करते हैं ।
                  "अरे द्वारपालों , कन्हैया से कह दो
                     कि द्वारे सुदामा गरीब आ गया है ।"
                 और कवि नरोत्तमदास ने तो जो सवैया सुदामा के दैन्य का वर्णन करने के लिये लिखा है वह हिन्दी साहित्य की एक चिर प्रकाशवान मणि है । आप सब ने पढ़ तो रखा ही होगा । पर आइये एक बार फिर उन अविस्मरणीय पंक्तियों पर दृष्टिपात कर लें ।
                       "शीश पगा न झगा तन में
                        प्रभु जाने को आहि बसै केहि ग्रामा
                        धोती फटी सी लटी दुपटी
                        अरु पाँय उपानहु की नहिं सामा
                        द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक
                        रहै चकि सो वसुधा अभिरामा
                        पूछत दीन दयाल को धाम
                        वतावत आपन नाम सुदामा ।"  
               और इसके बाद जो घटित हुआ वह मिलन का पवित्र ह्रदय द्रावक जो दृश्य उपस्थित हुआ वह तो वैष्ण्व भक्तों के लिये स्वर्ग और अपवर्ग दोनों की झाँकी एक साथ प्रस्तुत करता है । प्रेमाश्रुओं की गंगा बाह निकली । संकुचित सुदामा तन्दुल कणों की पोटली बगल में छिपाने लगे । द्वारिकाधीश के घर में टूटे तन्दुल कणों की पुराने कपडे की पोटली में बंधीं भेंट उन्हें अपनी संकोच से झुकी आँखें उठाने ही नहीं देती थी । पर चक्रधारी तो कौतकी है हीं झपट कर पोटली खींच ली बोले पूज्या भाभी की दी हुयी भेंट क्यों छिपा रहे हो ? मुट्ठी भर कर तन्दुल कणों को मुँह में डाल लिया । आह , ऐसा स्वाद तो ब्रम्हाण्ड के किसी और खाद्य और पेय वस्तु में नहीं पाया । (क्रमशः )
               
        

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