धरा अवतरण हंसवाहनी का (जीवन स्मृति )
तथ्य सत्य तभी बनते हैं जब वे आत्म अनुभूति के दायरे से गुजरात हैं । संसार में जन्म और मरण की प्रक्रिया अनवरत ढंग से चलती रहती है और हम निश दिन इसके साक्षी बने रहते हैं । अधिकतर ऐसे अवसर हमारे लिये दार्शनिक प्रश्न ही उठा पाते हैं । किसी अज्ञात शक्ति के प्रति थोड़ा सा नमन भाव और अनिश्चितता की अस्थायी मनोवैज्ञानिक व्याख्या हमें ऐसे क्षणों में उलझा लेती है । पर मृत्यु जब हमारी आत्मा के किसी अभिन्न सगे सम्बन्धी को अपनें घेरे में लेती है तब तथ्य एक सत्य बन जाता है । हम दार्शनिक न बनकर विवश मनुष्य बन जाते हैं और ज्ञान अपस्थान छोड़कर आंसुओं की अर्चना माँगता है । इसी प्रकार परिवार में नये अंकुरण और दैवी योजना हमें विस्मय से अभिभूत कर प्रकृति के सनातन जीवन -धर्मिता के प्रति नमित कर देती है । समय के विषय में एक कल्पना यह है कि वह अभिशापित होनें के कारण निरन्तर गतिमान रहता है और हर्ष -विषाद के प्रति सम्पूर्णतः तटस्थ रहकर अबाधित गति से श्रष्टि को प्रवह मान करता है । हमारे लिये काल की यह अबाधित गति प्रकृति की एक चिरन्तन प्रक्रिया है जो अपनी चिरन्तनता के कारण कई बार हमारा ध्यान तक आकृष्ट नहीं कर पाती । निरन्तरता ही सहजता के रूप में दिनचर्या बनकर हमारे लिये सामान्य क्रिया -कलापों की श्रेणी में आ जाती है । पर कुछ क्षण ऐसे होते हैं जब समय की निरन्तरता व्यक्ति विशेष के लिये रुक सी जाती है और उसे जीवन इतिहास के पन्नों में खो जाना पड़ता है । निरर्थकता के लम्बे आल -जाल में सार्थकता खोजनें का यह सजग प्रयास काल की चिरन्तन गति पर व्यक्ति विशेष के लिये एक विराम चिन्ह लगा देता है ।
लगभग 06 वर्ष का एक बालक ग्रीष्म ऋतु की एक शाम के धुंधलके में अपनें साथियों के साथ खेल कूंद में लगा हुआ था । वह यह तो जानता था कि उसके घर में उसके पिता किसी बीमारी से ग्रस्त हैं और उन्हें देखने के लिये गाँव के वयोवृद्ध वैद्य लालता प्रसाद जी अग्निहोत्री सुबह -शाम घर पर आते रहते हैं पर वह अभी तक मृत्यु की भीषणता के विषय में अनिभिज्ञ था । गाँव के हमउमर बालकों के बीच वह खेल कूंद में लगा रहनें के कारण बीमारी की भीषणता का अन्दाज नहीं कर पा रहा था । सम्भवतः पाँच छः वर्ष की उम्र ऐसी होती है जब मृत्यु की वास्तविकता का एहसास बच्चे के लिये सत्य बनकर नहीं उभरता । खेल -खेल के बीच दौड़ कर आते हुये उसके एक साथी नें खबर दी कि घर में रोना -पीटना प्रारम्भ हो गया है और उसके पिता का निधन हो चुका है । एक अज्ञात भय से ग्रसित होकर जब वह दालान में इकठ्ठा भीड़ में से रास्ता पाकर अन्दर घुसा तो उसनें अपनी माँ को अपनी बड़ी बहन और दो छोटे भाइयों के बीच बैठा हुआ और आर्तनाद करते हुये पाया । वह सहम कर माँ की गोद में छिप जाने के लिये प्रयत्न करनें लगा । माँ के पास बैठी मौसी और बुआ कही जाने वाली स्त्रियों नें उसे गोद में ले लिया । उसने सुना कि वैद्यराज पिताजी को अन्तिम प्रणाम देकर जा रहे हैं । भीड़ बढ़ती ही जा रही थी । गाँव के सभी वयोवृद्ध ,तरुण और आल -बाल वहाँ एकत्र हो चुके थे । वह अपनें पिता के साथ कुछ दिनों से गाँव के स्कूल में जानें लगा था और वह जानता था कि उसके पिता गाँव के मिडिल स्कूल में अध्यापक हैं और लोग उन्हें नमस्कार करते हैं और उनके साथ होनें के कारण उसे बहुत प्यार देते हैं । और उसे यह भी पता था कि उसके पिता अपनें स्वस्थ्य सुगठित शरीर और लम्बे कद के कारण गाँव के प्रमुख पुरुषों में स्थान पा चुके थे । उनकी शिक्षा और उनका चरित्र सभी के लिये प्रशंसा की वस्तु थी । इतना सब जानते हुये भी उसे यह ज्ञान न था कि पिता की मृत्यु के कारण परिवार के जीवन में आ जाने वाला अभाव उसे भविष्य में किन संकटों और संघर्षों में डाल देगा । माँ के पास बैठी स्त्रियां उन्हें सान्त्वना दे रही थीं पर वे मृत पिता के पैरों पर अपना सर रखे अचेत सी हो गयी थीं । उसकी बड़ी बहन और दोनों छोटे भाई भयभीत मृगशावकों की भांति चुप बैठे थे । द्रश्य की करुणामयता सभी का ह्रदय हिला रही थी । 32 -33 वर्ष का एक होनहार नवयुवक जो अपने स्वरूप ,शिक्षा और आचरण के बल पर कानपुर जनपद के शिवली -ग्राम का आदर्श पुरुष बन गया था नियति के क्रूर हांथों से अपनें परिवार से छीन लिया गया । अश्रुओं की धारा और हाहाकार स्वरों के बीच भयभीत बालक फूट -फूट कर रो पड़ा और बुआ ,मौसी की बांहों से छूटकर माँ की गोद में जा बैठा । बच्चों को निकट पाकर माँ का रक्षा भाव जागृत हुआ और उन्होंने बच्चो पर अपने दुलार भरे हाथ से स्पर्श किया । यहीं से उस जीवट की कहानी का प्रारम्भ होता है जो लगभग 65 -70 वर्ष आगे चलकर इतिहास के कई नये अध्याय रच गयी । साहस की इस अदभुत विजय कथा का कुछ ज्ञान आने वाली पीढ़ियों तक पहुँच सके इसलिये 06 वर्ष के उस बालक नें जो आज वार्धक्य के द्वार पर आ पहुंचा है इस जययात्रा को अक्षर वद्ध करने का विनम्र प्रयास किया है । यही उसकी अपनी मां के प्रति श्रद्धांजलि है । आइये प्रारम्भ से ही प्रारम्भ करें ।
2 बड़े होनें पर ये सब बातें मैनें उन्ही की ज़ुबानी सुनी । उनका नामकरण पहले हंसती और बाद में हंसवती क्यों कर हुआ ,वह सब भी विस्तार से सुना । बीसवीं शताब्दी के पहले दशक के आस -पास उत्तर भारत के पांच प्रमुख ब्राम्हण समुदायों का उच्चता की द्रष्टि से भूपतियों द्वारा सम्मानित होना एक इतिहास सिद्ध बात है । ये ब्राम्हण सम्प्रदाय हैं सारस्वत ,गौड़ ,कान्यकुब्ज ,मैथिल और उड़िया । कान्यकुब्जों की ही एक शाखा सरयूपारीण जानी जाती है और कान्यकुब्जों के ही पूर्वज बंगाल में ही सम्भवतः सेन राजाओं द्वारा आमन्त्रित होकर बंग श्रेष्ठता के अधिकारी बनें । कांगड़ा और उत्तर पश्चिम के अन्य समीपवर्ती पर्वत क्षेत्रों में भी कान्यकुब्ज समुदाय फ़ैल कर विस्तृत हुआ । इसी कान्यकुब्ज समुदाय में उन्नाव जनपद के नामी गिरामी बीघापुर शुक्लों के परिवार में उनकी माँ का जन्म हुआ था । कालान्तर में ये सुकुल कानपुर जनपद के शिवली ग्राम में समृद्ध भू भागों और बगीचों के स्वामी बनकर बस गये । बड़े होनें पर उनकी माता धोबिया गोपनाथ मिसरों के घर डुंडवा (शिवली के निकट स्थित ) में ब्याही गयीं । यहां हमें स्मरण रखना होगा कि उस समय कुलीन लड़कियों का विवाह वयः सन्धि प्राप्त करते ही कर दिया जाता था । इसी मिश्र परिवार में अत्यन्त दीर्घकाल तक प्रतीक्षा करने के बाद उनका जन्म हुआ । निसंतान माता -पिता नें लम्बे अन्तराल के बाद उनका अवतरण भगवत कृपा के रूप में स्वीकार किया । जब वे दो वर्ष की थीं तो चेचक की महामारी का प्रकोप आस -पास के ग्रामों में सुरसा विस्तार के साथ फ़ैल गया । घर के घर उजड़ गये और मृत शरीरों को उठानें वाला कोई मुश्किल से मिलता था । आज चेचक का समूल उन्मूलन हो जानें के कारण हम इसकी भीषणता का का अन्दाजा नहीं लगा पाते ,पर शीतला देवी के अभिशाप के रूप में जानी जाने वाली इस महामारी नें भारतवर्ष के न जाने कितनें घर उजाड़े हैं और लाखों चेहरों पर अपनें चिन्ह अंकित किये हैं । वे भी शीतला माता के प्रकोप से ग्रसित हुयीं पर माँ की ही कृपा रही होगी जिसके कारण वे अपनें प्रभावशाली चेहरे व मुख पर कुछ चिन्ह लेकर इस प्रकोप से मुक्त हो गयीं । उनके पिता जो उनके कथनानुसार एक लम्बी कद काठी के शक्तिवान पुरुष थे और जिनके चौथे विवाह की वे अकेली कन्या थीं ,शीतला माँ के प्रकोप से बच गये पर एक वर्ष बाद ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर चले गये । उनकी पहली तीनों पत्नियाँ काफी -काफी दिनों तक उनके साथ रहकर दिवंगत हो चुकी थीं और अब अपनी चौथी पत्नी तथा दैवीय वरदान के रूप में प्राप्त अपनी एक मात्र कन्या को संसार में स्मृति के रूप में छोड़कर वे लगभग नब्बे वर्ष की आयु में परलोकगमन कर गये । पिता के निधन के बाद उनकी माता उन्हें लेकर शिवली ग्राम में अपनें भाइयों के पास आ गयीं । डोंडवा ग्राम का घर सम्बन्धियों के अधिकार में आ गया और खेत भी वहां न रहनें के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की मलकियत बन गये । माता अपनें भाई रतन लाल के साथ शिवली में बस गयीं जहाँ खेलकूँद और बचपन की गलियों से गुजर कर वो 12 वर्ष समाप्त कर 13 वें वर्ष के प्रवेश द्वार पर जा पहुंचीं मामा रतनलाल एक समृद्ध किसान थे और थोड़ा बहुत हिसाब -किताब तथा हिन्दी का अक्षर ज्ञान भी उनके पास था ,पर विज्ञान की बढ़ती प्रगति गाथा से वे बिल्कुल अपरचित थे और अपनें समय के प्रचलित निर्जीव विश्वासों और रूढ़ियों में उनकी गहरी आस्था थी । वे जीवन में इसलिये दुःखी थे क्योंकि भगवान् नें उन्हें दो कन्यायें तो दी थीं ,पर कोई पुत्र नहीं दिया था । ये दोनों कन्यायें भी विवाह के अनेक वर्षों बाद जन्मी थीं । लगभग उसी समय के आस -पास उन्होंने अपनी भांजी का पाणिग्रहण अपनें घर के ही पास एक सुयोग्य पात्र के हांथों करना निश्चित कर लिया था । अक्सर वे मेरे से कहा करती थीं कि वे मेरे पिता के योग्य नहीं थीं ,क्योंकि वे लगभग अशिक्षित और चेचक के दागों से चिन्हित एक ग्राम्य बाला थीं जबकि मेरे पिता उस समय बी ० टी ० पास कर मिडिल स्कूल के अध्यापक हो चुके थे तथा शरीर और मुख सौष्ठव की द्रष्टि से गाँव के सर्वोत्तम व्यक्तियों में मानें जाते थे । वह काल भारतीय नारियों के लिये एक अन्धकार काल ही कहा जायेगा ,क्योंकि उस समय कन्याओं को अपनें पिता की जमीन -जायदाद पर कोई हक़ प्राप्त नहीं था और पुत्रहीन होनें की स्थिति में जमीन -जायदाद के हकदार परिवार के अन्य जन हो जाते थे भले ही वे आचरण की द्रष्टि से दुश्मन कहे जाने योग्य हों । शायद यही कारण था कि उनके मामा रतनलाल पुत्र की अनुपस्थिति में आन्तरिक व्यथा का जीवन जीते रहे और अन्त में हुआ भी यही कि उनके बाग़ और लम्बी -चौड़ी खेती उनकी मृत्यु के बाद उनके दूर के भाई -भतीजों नें क़ानून के बल पर अपनें अधिकार में ले ली । इसकी बात प्रसंग आने पर की जायेगी । अभी तो हम विवाह के अनुष्ठान की प्रक्रिया से गुजरकर सुखद जीवन के उन 12 -13 वर्षों की बात करना चाहेंगें । जो उन्होंने मेरे पिता के साथ साहचर्य में काटे । धोबिया गोपनाथ मिस्रों की बेटी प्रभाकर के अवस्थियों के घर व्याही गयी थी । 18 बिस्वा की मर्यादा लेकर वे 20 बिस्वा के घर में आईं थीं । उन्हें इस बात का सदैव अभिमान रहा कि वे प्रभाकर अवस्थियों के घर की कुलवधू हैं । बड़ा होकर जब कभी मैं उनसे बीघा -बिस्वा या जात -पात की निरर्थकता की बात करता तो वे चुप हो जाती थीं । पर उनके मुंह पर सहमति का भाव नहीं आता था । दरअसल वे जिस काल में वय सन्धि छोड़कर तरुणायी के दौर में आयीं वह काल कान्यकुब्जों के बीच मिथ्या प्रदर्शन और खोखले दंभ्भ का काल था । देश के अन्य भागों में अनेक समुदायों के लोग अंग्रेजी शिक्षा पाकर प्रगतिकी नयी मन्जिलें तय कर रहे थे जबकि कान्यकुब्ज ब्राम्हणों के एक प्रतिशत से भी कम घरों में आधुनिकता को स्फुरित करने वाली वायु मुश्किल से प्रवेश कर पायी होगी । आठ कनौजी नौ चूल्हे वाली कहावत उस समय उडनखटोले पर पैंगें लगा रही थी । कुलीनता का दंभ्भ ,बीस बिस्वा होनें का अभिमान हीनता ग्रंन्थि को छिपाने के लिये एक कामयाब हथियार के रूप में स्तेमाल किया जा रहा था ।
विवाह कर आये हुये घर में उनके ससुर कालिका प्रसाद अवस्थी और उनकी सास भी उपस्थित थीं । तेरह वर्ष की एक लड़की लम्बे घूँघट और पैरों में उलझ जाने वाली धोती पहने हुये गलियों में खेलनें -दौड़नें वाली ग्राम्य कन्या का रूप छोड़कर कुलबधू बन गयी । उन दिनों एकान्त में भी पति से बात करना कुलीनता को साह्य नहीं था फिर सास -ससुर की उपस्थिति से मुक्त उल्लास के प्रदर्शन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । घर बहुत बड़ा नहीं था ,पर इतना छोटा भी नहीं कि उसमें कोई असुविधा हो । बात यह थी कि कई पीढ़ियों पहले का बहुत बड़ा घर अब बढ़ते हुये सगे और चचेरे भाइयों के बीच बंटकर बड़ा नहीं रह गया था । जिस घर में वे आयीं उसमें बीच में दीवाल डालकर बटवारे की प्रक्रिया सम्पन्न हुयी थी । दूसरी ओर उनके ससुर कालिका प्रसाद जी के छोटे भाई दरबारी लाल का परिवार रहता था । गाँव के लोग कालिका प्रसाद को मालिक और दरबारी लाल को लाट साहिब कह कर पुकारते थे । दरवाजे पर गोल चबूतरे के बीच एक बड़ा नीम का वृक्ष था और आगे काफी खुला क्षेत्र पड़ा हुआ था । इस चबूतरे को कोतवाली के रूप में जाना जाता था क्योंकि संभ्भवतः वहाँ बैठकर आस -पड़ोस के झगडे निपटाये जाते होंगें । मालिक और लाट साहिब के पिता पुत्तू अवस्थी ,अपने समय के जाने -माने वैद्य और पहलवान थे । उनकी धाक उनकी मृत्यु के एक लम्बे अरसे के बाद भी आस पास के घरों में स्वीकारी जाती थी । हाँ तो अब हम जीवन कथा के इस प्रसंग को और विस्तार देनें के पहले उनके नामकरण की मनोवैज्ञानिकता को थोड़ा सा खोज लें । माँ नें मुझे बताया कि उनकी माँ उनके पिता की चौथी पत्नी थीं और पहली तीनों पत्नियों से उन्हें कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुयी थी और लम्बी पूजा अर्चना के फलस्वरूप उनका जन्म एक दैवीय वरदान के रूप में लिया गया । किसी गहरी अभिलाषा को जो प्राणों के आर -पार छायी रहती है ,अवधी भाषा में हिंसत कहा जाता है । हिंसत अर्थात सम्पूर्ण मन प्राणों से चाही हुयी कोई कामना पिता ,माता और स्वजनों के लिये उनका जन्म ऐसी ही कामना की पूर्णतः थी ,अतः उन्हें हिंसती कहकर पुकारा गया । मेरे पिता के जीवनकाल में वे हिंसती ही थीं । ,बाद में वे हँसवती कैसे बनीं इस विस्तारण की ओर हम बाद में पढेंगें । घर में नयी बहू के रूप में सामान्य ग्रामीण स्तर के अनुसार सभी सुविधाये उपलब्ध थीं । सरकारी मास्टरी की नौकरी ,घर को चलाने लायक अन्न पैदा करते खेत और फल देने वाले आम -जामुन के वृक्ष यही तो होता है ग्राम्य सम्पन्नता का स्वप्न । यह सब कुछ उनके पास था । एक स्वस्थ्य ,सुशिक्षित प्रबुद्ध पति जो उनको साथ लेकर युग के साथ नयी मंजिलें छूने की साधना में निरत था । (
जिन दिनों की यह बात है उन दिनों ग्राम समृद्धता का अर्थ सीवर लाइन या सेनेटरी पिट से सम्बंधित शौचालयों की व्यवस्था से नहीं जुड़ा था । यह व्यवस्था उत्तर भारत के ग्रामों में तो क्या मुश्किल से किसी शहर में देखने को मिलती होगी । विद्याधर नायपाल ने अपनें बहुचर्चित ग्रन्थ Dark Continentमें भारतीय जीवन पद्धति पर व्यंग्य करते हुए लिखा है कि सारा भारत एक खुला शौचालय है और किसी बन्द स्थान में बैठकर मल विसर्जन की प्रक्रिया भारतवासी को वैसे ही नहीं आती है जैसे किसी जलते हुए बन्द कमरे में घुस जाने की प्रक्रिया । नायपाल नोबेल पुरस्कार विजेता हैं और आधुनिक जीवन शैली के उनके अपने पैमानें हैं पर आधी शताब्दी पहले के भारत में खुले, एकान्त भू भागों और झाड़ -झाखडो की कमी न थी ,जहाँ ग्रामीण नर -नारियां सुबह शाम मानव शरीर की प्राकृतिक आवश्यकतायें पूरी करते थे । अन्तर यह था कि पुरुष अपेक्षाकृत गाँव से बाहर के दूर स्थानों पर नित्य क्रिया के लिये जाते थे ,जब कि स्त्रियाँ नजदीक के रास्ते से हटकर फैले हुये ऊसरों ,बंजरों और खेतों में जाती थी । इसी सन्दर्भ में मुझे एक घटना का स्मरण आता है उन्होंने यह बात मुझे भूत -प्रेतों के किसी प्रसंग के सम्बन्ध में बतायी थी । गाँव के पास ही पक्का ताल नामक स्थान है । जहाँ ताल के अतिरिक्त एक शिव मन्दिर तथा इमली ,बेर ,और पीपल के वृक्ष भी थे पास के खेतों में स्त्रियां सुबह -शाम नित्य कर्म के लिये जाया करती थीं । शाम के समय विशेषतः वे दो चार के समूहों में बाहर निकलती थीं जिसे कनौजी भाषा में शाम 'बहिरे जाना 'कहा जाता है । एक दिन ग्रीष्म ऋतु में शाम नौ बजे के लगभग पेड़ों के पास खड़पड़ की आवाज हुयी और दूर से कोई आकृति हाँथ में कुछ लिये हुये जाती दिखायी पडी । पक्के ताल का आस -पास का स्थान सायंकाल के बाद सूनसान हो जाता था और वहाँ शिवमन्दिर और पेड़ों के साथ जुडी हुयी भूतों ,प्रेतों और चुड़ैलों की अनेक कथायें गाँव में चर्चा का विषय बन गयी थीं । किसी काली ,बाल बिखेरे अंधरे में भयावह लगनें वाली आकृति को दूर से देखकर लगभग तीस चालीस गज की दूरी पर बैठी स्त्रियाँ भय से घबराकर अपना पानी का लोटा बिखेर कर गाँव की ओर तीब्रगति से चल पड़ीं । दिवंगता हंसती नें उन्हें रूकनें के लिये कहा ,पर किसी चुड़ैल का आतंक उन्हें भीतर से कंपकंपा रहा था और वे रुकी नहीं । हिंसती नें हिम्मत नहीं हारी और पीपल के पेंड की ओर बढ़ने का साहस किया । खटपट की आवाज के साथ नीची झुकी डालियाँ हिल रही थीं -कोई था जो शायद उन्हें डराकर भगाना चाहता था । अज्ञात भय से थोड़ा -बहुत डरते हुये भी उन्होंने आगे बढनें का निश्चय किया और तब पाया कि पीपल के पेंड के तनें के एक कोटर में किसी नें दीपक जलाया है और उन्हें देखकर दीपक जलानें वाली काया नजदीक की झाड़ियों की ओर भागी जा रही है । उन्होंने हिम्मत करके पीछा किया और झाड़ियों के पास पहुँचकरदेखा कि काले रंग की एक नंगीं नारी आकृति सहमी बैठी है । उस आकृति के वस्त्र पास ही पड़े थे वे पहचान गयीं कि वह स्त्री कलुआ धानुक की पत्नी जलेबी थी । उनके वहाँ पहुँचते ही जलेबी नें उनके पैरों पर माथा रख दिया और कहा -जिज्जी ,तुम्हें राम की सौगन्ध किसी से बताना नहीं । छः साल शादी के हो गये ,कोई आल -औलाद नहीं । पण्डित राम आसरे के पास गयी तो उन्होंने कहा कि अमावस की रात में नग्न होकर शिव मन्दिर के पास के पीपल के कोटर में एक दीपक जला देना । पीपल देवता तुझे औलाद देंगें । उन्होंने यह सुनकर जलेबी को आश्वस्त किया वे इस राज को किसी को नहीं बतायेगीं । लौट कर आने पर कुछ दूर खड़ी स्त्रियों नें जानना चाहा कि उन्हें कोई दिखायी पड़ा या नहीं । उन्होंने यह कहकर उन स्त्रियों को शान्त कर दिया कि एक बिल्ली थी जो पीपल के कोटरों में अण्डों को तलाश रही थी । यह घटना अत्यन्त साधारण है और मैनें इसे उन्हें किसी नायिका के रूप में चित्रित करनें के लिये उद्धत नहीं किया है । यह घटना मात्र यह संकेत देती है कि विवाह के प्रारम्भिक वर्षो में भी उनके भीतर कहीं कुछ था जो उन्हें खतरों से जूझने के लिये प्रेरित करता था । अभी तक सम्भवतः वह अन्धविश्वासों और ग्राम्य जीवन में स्वीकार की जानें वाली भूत -प्रेतों की बातों से सम्पूर्णतः मुक्त नहीं हुयी थीं ,पर किसी घटना को प्रमाण के आधार पर समझनें ,जाननें का उनका द्रष्टिकोण उन्हें औरों से अलग बुद्धिपरक ग्राम संस्कृति की विकास कड़ी से जोड़ता था शायद यही कारण है कि जीवन के 13 -14 वर्ष सौभाग्य भोगकर और ग्राम्य कुलीनता के शिखर पर पहुँच कर भी उनका विश्लेषक जुझारूपन उन्हें नयी चुनौतियों को झेलने के लिये सक्षम बना सका । मुझे याद है कि उन्होंने अपनें गृहस्थ जीवन की खुशहाली का सरल और सन्तोषपूर्ण वर्णन इन शब्दों में किया था कि उनके घर में सदैव दो दो दुधारू गायें रहती थीं और पसेरियों आम ,कटहल और सहजन के अचार भरे पात्र थे । जिनसे मोहल्ले के सभी घरों से प्रेम व्यवहार हुआ करता था । दाम्पत्य जीवन के तेरह वर्षों में उन्होंने पांच सन्तानों को जन्म दिया । उन्नीसवें वर्ष में सबसे बड़ी पुत्री कमला गोद में आयी और उसके बाद मुझे ईश्वर नें किसी वरदान स्वरूप उनकी कोख में भेजा । तत्पश्चात एक और बालक जो कुछ दिवसों की अल्पायु के बाद ही चल बसा और फिर मेरे छोटे भाई उदय नारायण का जन्म हुआ । मुझे ठीक स्मरण नहीं है पर वे बताती थीं कि उनकी गोद में मेरा एक और छोटा भाई जिसे वे बच्चंना के नाम से पुकारती थीं भी था ,जब मेरे पिता उन्हें छोड़कर गये । उस समय बच्चना सम्भवतः एक वर्ष का था । कब और कैसे वह भी हमसे विलग हुआ ,इसकी स्मृति मुझे नहीं है । पिता की मृत्यु होनें के बाद भी एक बात ध्यान देनें योग्य है कि मेरे बाबा अर्थात उनके ससुर कालिका प्रसाद जी जीवित थे और मुझे स्पष्ट याद है कि वे मेरे हाई स्कूल पास करने के बाद इस संसार से विदा हुये थे । उन्होंने अपनें छोटे भाई दरबारी लाल जी की तरह दीर्घ आयु पायी । दरअसल अब मैं यह जान सका हूँ कि सम्भवतः मेरे पिता मियादी बुखार जिसे मोतीझारा कहा जाता है से पीड़ित हुए थे अपनी असाधारण शारीरिक शक्तियों के कारण प्रारम्भ के दस -बारह दिनों में शरीर को कोई आराम नहीं दिया उन्हें अपनें स्वास्थ्य पर सम्भवतः आवश्यकता से अधिक भरोसा रहा होगा । जब कभी मैं उनका स्मरण करता हूँ तो मुझे सिर्फ एक ही घटना का स्मरण आती है । बचपन में मैं अत्यन्त मनमौजी और खिलाड़ी था । कई बार वे मुझे अपने साथ बाग़ में ले जाते थे ,क्योंकि जब वे स्कूल पढानें जाते तो मैं सोया करता था और जब वे वापिस आते तो मैं हमउम्र लड़कों की खेल मण्डली में घर से बाहर घूमा करता था । शायद इसी कारण कभी कभी रात में सोते समय वे मुझसे कहते थे कि कल मेरे साथ बाग़ चलना ,क्योंकि उनके साथ बाग़ बगीचों में घूमकर मुझे खेल से अधिक आनन्द मिलता था । लगभग 40 फ़ीट लम्बे एक बड़े बाँस के सिरे पर एक टेढी हँसिया बाँध कर वे बाग जाने की तैय्यारी करते । मैं तो उस बांस को पकड़कर सीधा खड़ा भी नहीं कर सकता था । मुझे आश्चर्य होता था कि वे कैसे इतनें लम्बे और वजनदार बांस को खेल खेल में उठाकर कन्धे पर रखकर बाग़ जाते और मैं दो तीन झोलियाँ लेकर उनके पीछे पीछे जाता । बाग़ के दो पेड़ बुन्देला और चकइया अत्यन्त मीठे और रसीले आम देते थे । और फलते भी इतने थे कि जैसे पत्ती -पत्ती में आम उगे हों । ये बहुत ऊँचे और विशाल पेंड थे । बांस की लग्गी से वे ऊँची से ऊँची डाल को उसके मध्य स्थान में फाँसकर हिला देते थे और टपाटप गिरते हुये आमों का अम्बार नीचे फ़ैल जाता । मैं बिनते -बिनते थक जाता पर आम ख़त्म न होते । कई बार उनके कुछ साथी वहाँ इकठ्ठे होकर साथ -साथ आम खाते । मुझे याद है कि गाय और बछड़े आम और आम के छिलके खाते -खाते मुँह फेर लेते थे । मेरे लिये एक छोटी झोली अलग होती थी जिसे उठाकर मैं चल सकता था । बाकी के तीन -चार झोले वे अपनी बाँह में टांग लेते । बाँस को कन्धे पर रखते और पौरुष भरे अपनी कदमताल के साथ घर वापस आते । रास्ते में या द्वार पर मिलनें वाले सभी बच्चों को दो चार आम बाँटते । बस उनकी यही एक स्मृति मेरे मन में अंकित है । और अंकित है उनके महाप्रयाण की अन्तिम छवि जब गाँव के आबाल ,वृद्ध जनित फूट -फूट कर रो रह थे । मैं समझता हूँ कि शायद उचित उपचार न मिलनें के कारण वे असमय हमें अनाथ छोड़ कर चले गये । उस समय तक स्ट्रेप्टोमाइसिन तथा टायफायड की अन्य दवायें भारत में नहीं आ पायी थें । हमारा तो एक साधारण ग्राम्य परिवार था पर मोती लाल की पुत्र वधू कमला नेहरू विश्व की सबसे विकसित चिकित्सा पाकर भी क्षय रोग से उबर नहीं पायी थीं । उस समय तक क्षय रोग का वह उपचार संभ्भव नहीं था जो आज साधारण से साधारण व्यक्ति के लिये भी संभ्भव है और जिसके कारण चेचक व प्लेग की भांति क्षय रोग भी सम्भवतः अपनी अन्तिम साँसे ले रहा है चलते चलते यहाँ प्लेग का भी जिक्र हुआ है और इस सन्दर्भ में एक घटना मुझे याद आती है जिसे मैं लिखना चाहूँगा क्योंकि जीवन गाथा की उलझी भिन्न -भिन्न प्रसंग शाखाओं में वह कहीं मेरी स्मृति से उतर न जाये ।
प्रारम्भ में मैनें अपनें नाना रतन लाल शुक्ल का जिक्र किया है वे अत्यन्त परिश्रमी और औसत से अधिक शारीरिक सामर्थ्य के पुरुष थे । पर जैसा मैं बता चुका हूँ कि वे वैज्ञानिक प्रगति के प्रति सन्देहशील थे ,यह घटना मेरे सामनें घटित हुयी है । शायद मैं उस समय सातवीं ,आठवीं का विद्यार्थी रहा हूँगा । वर्ष तो मुझे याद नहीं पर प्लेग की विभीषका कानपुर जनपद में हाहाकार मचा रही थी । सम्भवतः अन्य जनपदों में भी मृत्यु के जबड़े बाये संहार प्रक्रिया में यह रोग जुटा हो ,पर मैं अपनें गाँव के विषय में ही स्पष्ट रूप से कह सकूँगा । सारा गाँव खाली हो गया था । बस्ती से काफी दूर बागों के बीच छप्पर डाल कर लोग रह रहे थे । कई घरों में जाँघ में गिल्टी निकलकर मृत्यु हो चुकी थी और निरन्तर चूहे मरने के समाचार आ रहे थे कहीं तो एक लाश श्मशान तक जाती और लौटते ही दूसरी लाश रखी हुयी मिलती । संक्रामक रोग होनें के कारण मृतक शरीरों को उठानें वाला नहीं मिल रहा था । गाँव से बाहर दूर के बागों में ही चूहों से छुटकारा मिलनें की आशा थी और इसलिये सारा गाँव सूना पड़ा था । एक नाना रतन लाल थे जो अपनें घर से निकलनें को तैयार नहीं थे । उनकी एक मात्र बेटी हमारे साथ बाग़ में रह रही थी । पर वे निडर भाव से घर में ही सोते । वे कहते कि डरे तो शेर चीते से ,मूसों से क्या डरना । हम सब चिन्तित थे पर वे अपनी जिद पर अड़े थे । इसी बीच उस समय की अंग्रेज सरकार नें टीका लगाने के लिये डाक्टरों का एक दल गाँव -गाँव भेजा । जो भी गाँव में रह रहा था ,सभी को टीका लगना था । नाना रतन लाल नें सुना तो उनकी श्रेष्ठ ब्राम्हण की पवित्रता भावना उन्हें कचोटने लगी । न जाने कौन सा अपवित्र पदार्थ सुई के द्वारा उनकी उच्चवंशीय काया में डाल दिया जाये । सभी को टीका लगेगा -यह सरकारी आदेश था और अँग्रेजी सरकार का आदेश आज के जनतान्त्रिक आदेश प्रक्रिया से अलग किस्म का होता था । उससे बच पाना कठिन था । उसको मानना ही पड़ता था । अब नाना रतन लाल करें तो क्या करें । वे घर छोड़कर बाग़ ,बगीचों की ओर भागे ,पर वहाँ भी लोग उनके होनें का पता बता ही देंगें ,इसलिये वे लगभग दो मील दूर एक लम्बे ताड़ के पेंड पर लंगोट लगाकर चढ़ कर बैठ गये । ऊपर के बड़े -बड़े ताड़ पंखों को शरीर के चारो ओर चिपटा लिया । डाक्टर टोली के आदेश पर न जाने कितनें लोग खोज -खॊज कर थक गये और नाना रतन लाल का कहीं पता नहीं । लोग आश्चर्य करते कि नाना रतन लाल का कहीं पता नहीं । लोग आश्चर्य करते कि नाना रतन लाल कहाँ छिप गये । क्या दुर्योधन की भांति किसी माया सरोवर में डुबकी तो नहीं लगाये बैठे हैं । आखिर डाक्टर टोली सभी को टीका लगाकर चौथे पहर शहर वापस चली गयी । नाना रतन लाल उतरे ,फिर घर आये । रात को नहाये ,ईश्वर भजन किया और हल्का -फुल्का खाकर सो गये । अगले ही दिन उनकी जांघ में गिल्टी निकल आयी । बुबेनिक प्लेग भला किसी को छोड़ता है ?पवित्र किन्तु आधुनिक चेतना से वंचित एक सदाशयी पुरुष की यह करुण कथा भारत के अन्धविश्वासी आल -जाल में फंसे कुलीन समुदाय के लिये एक चेतावनी के रूप में देखी जानी चाहिये । वे मेरे अत्यन्त प्रिय और प्रेरक बुजुर्गों में से थे । मुझे हर्ष है कि उनके द्वारा पोषित मेरी माँ ,सच्चे धर्म और अज्ञान पर आधारित अंधविश्वासों में अन्तर करना जान चुकी थीं । तभी तो उन्होंने निश्चित किया कि घर छोड़कर बाहर निकले बिना परिवार का भरण -पोषण लगभग असंभव सा है । बाबा वृद्ध थे और कुलीनता के आडम्बर में उन्होंने अपनें हाँथ में हल नहीं पकड़ा था । बीस बिस्वा ब्राम्हण और हल ये दोनों उन दिनों की ग्राम्य मान्यता में दो विपरीत ध्रुवों के छोर थे । थोड़ी खेती और वह भी अधिया बटाई पर । उस समय न तो नये किस्म के बीज थे और न ही नयी किस्म की खाद । जमींदार को लगान अलग से देना पड़ता था । लगभग सारा कृषक समाज गले तक कर्ज में डूबा था । प्रेमचन्द्र का गोदान 1935 के आस -पास की रचना है और ये सब बातें भी लगभग उसी दशक के आस -पास की हैं । दिवंगत सुन्दर लाल अवस्थी की पत्नी हिंसती अवस्थी नें निश्चय किया कि कुलीनता और कुल वधू का अर्थ घर की चहारदीवारी में सीमित रहना नहीं है । दिवंगत पति से शक्ति मांगीं कि वे अध्यापिका होनें लायक बन सकें । ककहरा तो जानती ही थीं अब उन्होंने लोअर प्राइमरी पास करने की ठानी पिता के छोड़े हुये भविष्य निधि के पांच सौ रुपये के चांदी के सिक्के उन्होंने सहेज कर रख दिये कि यह रकम बेटी के दहेज़ में काम आ सके । चेतना का वैज्ञानिक रूपान्तीकरण उन्हें इस स्थिति तक नहीं लाया था जहाँ बीघा -बिस्वा बेमानी हो जाते हैं आखिर बीस बिस्वा के घर की बेटी बीस बिस्वा में ही ब्याहनी होगी । इसके लिये दहेज़ हेतु सहेजी गयी रकम के अतिरिक्त और कितना कर्ज लेना पड़े ?चार बच्चों का लालन -पालन अध्यापकी और खेतों की छोटी -मोटी उपज से शायद संभ्भव हो जाये । पर दहेज़ के लिये कुछ अतिरिक्त व्यवस्था तो करनी ही होगी । उन दिनों उत्तर भारत विशेषतः उ ० प्र ० की नारियाँ घर से बाहर नहीं निकलीं थी । विजय लक्ष्मी पण्डित और कमला नेहरू अभी कौतूहल चर्चा का विषय बनीं हुयी थीं । प्राइमरी परिक्षा पास करके प्राइमरी अध्यापिका बननें का सुअवसर उनके हाथ लग गया । शायद इसलिये कि उनके दिवंगत पति जिला बोर्ड के एक सम्मानित और चर्चित अध्यापक थे । और यहाँ से शुरू हुआ स्वावलम्बन की दिशा में एक नया अभियान जिसनें उन्हें हिंसती से हंसवती बना दिया ।
....राजा -रानी खण्डहर के निचले हिस्से में हम सब बच्चे खेलते थे ,पर कहीं -कहीं टूटी -फूटी सीढ़ियों से चढकर एकाध कमरे थे जो मकड़ी के जाले ,चमगादड़ों ,छिपकलियों और विषखांपरों से भरे थे । हम सब वहाँ जानें से डरते थे पर बमभोला कभी -कभी कोनें के कमरे में चला जाता था । काफी देर बाद जब वह आता तो बताता कि उसनें मन्त्र सिद्ध किया है । उस गोधूलि को भी उसने हमें बताया कि उसने मन्त्र के द्वारा एक भूत को जानवर बना कर कमरे में पत्थरों के नीचे दबा दिया है । उसने कहा कि हम सब उसके साथ भूत को देखने टूटी सीढ़ियों पर चढ़कर बिना दरवाजे वाले कमरे की ओर चलें । हम सब शंकालु थे ,पर बचपन की उम्र रहस्यों का भेद जाननें के लिये उतावली रहती है और हम अनमने पाँव से संभ्भल -संभ्भल कर सीढियां चढ़नें लगे । दरवाजे के पास पहुँचते ही अन्दर से एक चमगादड़ फड़फड़ाया और ईंटों के घेरे से एक बिल्ली का बच्चा म्याऊँ करता हुआ उछल भागा । हम सब डरकर सीढ़ियों से उतरकर अपने -अपनें घरों की ओर भागे । बमभोला कहता रहा ,ठहरो -ठहरो ,मेरे पास जादू मन्तर है ,पर हम कहाँ रुकने वाले थे । दौड़ते -दौड़ते मैंने पीछे मुड़कर देखा कि सत्तो का बेटा गुजरिया जो पाँच छः वर्ष का था ,पिछड़ गया है और बमभोला सीढ़ियों से उतर कर आ रहा है । मैं दौड़कर घर पहुँच गया । माता जी ,कमला और राजा पहले ही घर आ चुके थे माँ नें मुझे डांटा कि मैं इधर -उधर खेलकूंद में समय न बर्बाद किया करूँ । मुंशी जी के यहाँ पढ़ाई पर जानें का टाइम हो रहा था । उन्होंने मुझे कटोरी में राब देकर गेंहू की दो रोटियाँ खाने को दीं । हम सबको राब के साथ रोटी खाना बहुत अच्छा लगता था । कितनी बढ़िया दानेदार राब थी वो । आधुनिक कनफेक्शनरी के नाम पर जानी जाने वाली समस्त चीजों को चखकर मैं पूरी ईमानदारी से कहना चाहूंगा कि उस राब जैसा स्वाद मुझे कहीं नहीं मिल पाया । माँ नें बताया कि फूफाजी सिठमरा से आने वाले हैं । यह खबर उन्हें स्कूल में मिली थी । स्कूल में पढने वाली एक लड़की की बुआ सिठमरा में ब्याही थीं । वे अपने मायके कुर्सी आयीं थीं और उन्हीं के द्वारा फूफा गुरु प्रसाद नें यह सन्देशा भेजा था कि वे इतवार को परिवार से मिलनें कुर्सी आयेंगें । यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि मेरे पिताजी की एक बड़ी बहन थीं ,जिनका नाम दुर्गा देवी था । उन्हें बचपन में मैनें एकाध बार घर में देखा था । वे हम सबके लिये ढेर सारे खिलौनें लाती थीं । उनके पति ,हमारे फूफा ,गुरु प्रसाद कानपुर की किसी मिल में काम करते थे । कोई साधारण काम ही करते होंगें ,क्योंकि वे अधिक पढ़े -लिखे नहीं थे । पिताजी की मृत्यु के पहले ही बुआ जी की मृत्यु हो चुकी थी । और वह भी एक कन्या -प्रसव के समय । फूफा की कुछ जमीन सिठमरा में थी और उनका एक भाई वहीं रहता था । वे कभी -कभी कानपुर से सिठमरा आते थे । उनके आने की बात सुनकर मैं बड़ा खुश हुआ और राब -रोटी खाकर मुन्शी जी के यहां पढने चला गया । करीब आठ ,साढ़े आठ बजे हमारे घर के पड़ोस में दाढी बाबा के घर पर कुछ शोर गुल सुनायी पड़ा । मेरी माता जी भी सम्भवतः वहाँ गयी हुयी थीं । मैं लालटेन की रोशनी में गणित के सवाल कर रहा था । उस समय मुझे बुलाने के लिये पड़ोस के लड़के रामू को भेजा गया । मुझे आश्चर्य था कि मुझे क्यों बुलाया जा रहा है । वहाँ जानें पर मैनें देखा कि गुलरिया लेटा पड़ा है और उसके कच्छे में खून के दाग हैं । बमभोले का कहीं पता नहीं है और वह न जाने पड़ोस के किस गाँव में भाग गया है । सभी बच्चों से पूछा जा रहा था कि गुलरिया के साथ कौन था ,पर किसी बच्चे में हिम्मत नहीं थी कि वे बमभोले के खिलाफ कुछ कहते । सभी उसके जादू मन्त्र से डरते । लोगों के बीच मुन्शी जी भी थे । उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि विष्णु सच -सच बताओ ,क्या हुआ था । मैनें जो कुछ देखा था ,सब बता दिया और कहा कि गुलरिया पीछे छूट गया था और बमभोला सीढ़ियों पर खड़ा था । पर उसके आगे क्या हुआ यह मैं नहीं जानता । बमभोले नें गुलरिया को भूत प्रेतों की बात से इतना डरा दिया था कि वह मुँह नहीं खोल रहा था । दाढी बाबा नें मुन्शी जी के पैरों पर माथा रखकर कहा कि बमभोला जब भी घर आयेगा ,उसे वे मुन्शीजी के हवाले कर देंगें । पर घर की इज्जत के लिये वे पुलिस को न बुलावें । आखिकार बबुई वैद्य के इलाज से गुलरिया ठीक हो गया ,पर बमभोला मुझे फिर कभी गाँव में देखने को नहीं मिला । लोग कहते थे कि वह अपनें मामा के पास कैंझरी में रह रहा है और वहीं किसी सर्कस कम्पनी में भर्ती करा दिया गया है । ईश्वर जाने जो भी बात रही हो ।
अगले दिन सुबह आठ बजे फूफा गुरु प्रसाद आ गये । खाने में कुछ अतरिक्त वस्तुयें भी बनायी गयी थीं । चौके में पीढा डालकर उन्हें बिठाया गया और माताजी नें खाना परोसा । वे सिर पर धोती का छोर नीचे की ओर खींचे हुये थीं । गर्मी होनें के कारण उन्होंने हाँथ से पँखा झलना शुरू किया । मैं अभीतक सवर्ण हिन्दू समाज की सामाजिक मर्यादाओं का ज्ञान नहीं कर पाया था । मुझको यह बात समझ में नहीं आयी कि फूफा जी के लिये इन अतिरिक्त सुविधाओं की व्यवस्था क्यों की गयी है । आज बुढापे में प्रवेश करते समय मैं हिन्दू समाज की इस आन्तरिक संरचना से परिचित हो गया हूँ कि किसी घर की स्त्री वरण करने वाला पुरुष भारतीय परम्परा में एक अत्यन्त विशिष्ट अतिथि के रूप में लिया जाता है । फूफा और सलहज का नाता वैसे भी रस भरा नाता माना जाता है और शायद इसीलिये खाते -खाते बीच में कुछ हास्य भरी चुटकियाँ लेते जाते थे । मेरे बाबा बूढ़े हो चुके थे और माताजी को ऐसे किसी नजदीकी रिश्तेदार की आवश्यकता थी ,जो आगे चलकर उनके बच्चों के लिए मदद गार साबित हो सके । कमला मेरे से बड़ी थीं और कुलीन कान्यकुब्ज ब्राम्हण समाज में उन दिनों लड़की के वयः सन्धि प्राप्त होते ही वर की तलाश आरम्भ हो जाती थी । फूफा इस सम्बन्ध में मदद कर सकते थे । मैं भी दो -तीन साल बाद अंग्रेजी स्कूल में भेजे जाने के लिये तैयार किया जा रहा था और ऐसी हालत में कानपुर में ठिकाना होना चाहिये था । फूफा जी के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ता का शायद यही कारण रहा होगा जिसके कारण माँ उन्हें अतिरिक्त आदर सम्मान दे रही थीं । आगे चलकर इन फूफा जी नें दूसरी शादी कर ली थी और तब हमारे सम्बन्ध मधुर नहीं रहे थे ,पर वह बात यथास्थल की जायेगी । कुर्सी में माँ का अध्यापकी जीवन अपनी नियमित दिनचर्या के साथ चलता रहा और वे परिवार की एक शिक्षित सदस्या के रूप में काफी सम्मान पाने लगीं ,पर अभी तक वे प्राइमरी पास ही थीं और उन्हें अपनी तरक्की के लिये लोअर मिडिल क्लास पास करना आवश्यक था । शिक्षिकाओं के लिये विशेष प्रावधान किया गया था कि वे संस्था के बाहर रहकर भी शिक्षिका का कार्य करते हुये भी परीक्षा में शामिल हो सकती हैं । हिन्दी भाषा और धर्म शास्त्रों का माता जी का ज्ञान उनके काम आया । गणित और सामाजिक विज्ञान के प्रश्न उन्होंने तैय्यार किये और वे लोअर मिडिल की परिक्षा उत्तीर्ण हो गयीं । अब प्रश्न उठा कि उन्हें अध्यापन कला की दक्षता हासिल करने के लिये कोई कोर्स करना चाहिये । उ ० प्र ० सरकार नें उन शिक्षिकाओं के लिये जो नार्मल या सीटी का कोर्स नहीं किये थीं तीन महीने का एक ए ० टी ० सी ० या एडिशनल ट्रेनिंग कोर्स सुनिश्चित किया । यह प्रशिक्षण इलाहाबाद में अप्रैल ,मई व जून में सुनिश्चित होना तय हुआ । अब मैं पांचवीं की परीक्षा में बैठने जा रहा था । कमला पिछले वर्ष पांचवीं पास कर चुकी थीं और लोअर मिडिल की तैय्यारी में लगी थीं । कुर्सी में मिडिल स्कूल नहीं था ,इसलिये वे घर पर ही तैय्यारी कर रही थीं । बारहवें वर्ष में प्रवेश करते ही उनमें शारीरिक परिवर्तन के कुछ लक्षण आभाषित होनें लगे थे । मुन्शीजी को मेरे से बड़ी आशायें थीं । वे गाँव के लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उनका लड़का 1942 के आन्दोलन में स्वतन्त्रता सेनानी बनकर कारावास में रहकर वापिस आ चुका था । खद्दर का कुर्ता पाजामा और टोपी में उसका व्यक्तित्व बड़ा सुशोभन लगता था और कुर्सी तथा आस -पास के लोग उसकी रह नुमाई में विश्वास रखते थे । जब मेरा प्राइमरी का रिजल्ट आया तो मैं आस -पास के दस कोसी स्कूलों में शायद सबसे ऊंचाई पर रहा हूँगा क्योंकि मुन्शी जी के सुपुत्र द्वारा सम्मानित किये जाने वाले बालकों में मुझे सबसे पहले बुलाया गया था और मुन्शी जी नें मेरी पीठ थपथपाई थी । पांचवीं पास करके मुझे मिडिल स्कूल में जाना था । मिडिल स्कूल शिवली में था ,कुर्सी में नहीं । माता जी नें तय किया कि मैं और कमला गाँव में कक्का के पास जाकर रहें मैं और कमला वहीं से प्राइवेट लोअर मिडिल क्लास का फ़ार्म भरें ,और मैं शिवली के मशहूर मिडिल स्कूल में छठी कक्षा में भर्ती होकर अपना अध्ययन जारी रखूँ । दस ग्यारह वर्ष का हो जाने के कारण मेरी समझ जीवन संघर्ष के वास्तविक रूप को देखनें की ओर झुक रही थी । माँ से अलग रहना मुझे रुचिकर न लगा । साथ ही मुझे मुन्शी जी की रहनुमाई से भी वंचित होना पड़ा ,पर चारा ही क्या था । आखिरकार अब मैं मिडिल स्कूल का विद्यार्थी था और उन दिनों मिडिल की शिक्षा पूरी करनें के बाद ट्रैनिंग करके मास्टरी मिल जाती थी । माँ नें सोचा होगा कि यदि लड़का आगे न पढ़ पाया तो वे मास्टर तो बनवा ही देंगीं । मास्टर बनना तो मेरे रक्त में था ही ,पर कब कहाँ और किस रूप में इसकी परिणित होगी यह भविष्य के गर्भ में ही था ।
शिवली के मिडिल स्कूल में मेरे प्रवेश के कुछ ही माह बाद मेरी एक मित्र मण्डली का परिगठन हो गया । उम्र की द्रष्टि से अभी मैं तेरह के आस -पास हूँगा ,पर पहली तिमाही में ही आन्तरिक परीक्षा के आधार पर मैं कक्षा में सर्वप्रथम रहा और लगभग हर विषय के प्राध्यापक नें मुझे सराहा । उनकी प्रशंसा से मैं संकोच में भर उठा और जब स्कूल के प्रधानाध्यापक शिव शंकर अग्निहोत्री नें मुझे अध्यापक कक्ष में बुलाकर अपने पिता के नाम को रोशन करने की बात कही ,तो मैं अपनें आँसू न रोक पाया और मैनें उनके चरणों में सिर रख दिया । उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और पितृ स्नेह का वात्सल्य भरा हाँथ फिराया । कक्षा के कुछ अन्य अच्छे विद्यार्थी मेरी सरल अहंकार हींन मनोभावना से प्रभावित हुये और वे मेरे नजदीकी मित्र बन गये । वंश लाल तिवारी ,श्री कृष्ण त्रिवेदी ,अवध बिहारी अग्निहोत्री ,रमा कान्त दीक्षित ,और मुन्नी लाल शुक्ल इनमें प्रमुख थे । आगे चलकर इन सभी नें गाँव के पैमानें से नापने पर अच्छी खासी उपलब्धियाँ हासिल की थी । वंश लाल न केवल अच्छे प्रवक्ता बनें बल्कि अपने समय के प्रमुख जन कलाकारों में स्थापित हुये । उनका जनक या शीरध्वज का धनुष यज्ञ का किया हुआ रोल उ ० प्र ० के कई जनपदों में चर्चित हुआ । अवध बिहारी तहसीलदार बनें । अन्य लोग भी अपने विषय के अधिकारी अध्यापक बनें और अपनें -अपनें जनपदों में प्रतिष्ठित व्यक्तित्व माने गये । पर ये सब बाद की बातें हैं । अभी तो कक्षा छः की शुरुआत थी । उन दिनों मिडिल स्कूल में कक्षा छः ,सात व आठ हुआ करते थे । दीगर भाषा के रूप में उर्दू पढ़ाई जाती थी । अंग्रेजी की शुरुआत उस समय तक मिडिल स्कूल में नहीं हुयी थी । शायद इसीलिये इन्हें वर्नाकुलर मिडिल स्कूल कहा जाता था । शहरों के हाई स्कूलों में उन दिनों पांचवीं- छठी से अंग्रेजी शुरू हो जाती थी ,पर देहातों के मिडिल स्कूलों में अंग्रेजी की जगह अधिकतर उर्दू का ही अध्ययन होता था । मिडिल पास करने के बाद देहात के मिडलची बच्चे शहर के स्कूलों में स्पेशल क्लास में भर्ती किये जाते थे और इस स्पेशल क्लास में अंग्रेजी में उत्तीर्ण होनें के बाद ही उन्हें आठवीं में उत्तीर्ण माना जाता था । शिवली के मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक शिवशंकर, जब मैं कक्षा छः में था ,तभी सेवा निवृत्त हो गये । वे अपनें क्षेत्र में अपनी योग्यता और चरित्र के लिये प्रसिद्ध थे । वे अविवाहित थे और स्कूल के प्रांगण में बनें मुख्य अध्यापक के निवास में रहते थे । उनका मार्गदर्शन हमें मात्र कुछ महीनों का ही मिला ,पर उनकी स्मृति मेरे मन में अभी तक शेष है । मेरे पिताजी उनके जूनियर रह चुके थे और कुछ महीनों में ही उन्होंने मुझे अपना अनुचर बना लिया था । उनके बाद सती प्रसाद जी स्कूल के मुख्य अध्यापक बनें । सती प्रसाद जी शिव शंकर लाल के छोटे चचेरे भाई थे । उनका कद छोटा पर व्यक्तित्व बड़ा सौम्य था । वे एक दबंग मुख्य अध्यापक माने जाते थे और सभी विद्यार्थी उनके अपनें दफ्तर से बाहर निकलते ही शोर -गुल्ल बन्द कर देते थे और पढ़ाई में लग जाते थे । यहाँ मैं यह कहना चाहूँगा कि सन 1945 के आस पास उ ० प्र ० के गाँवों में मिडिल स्कूल का मुख्य अध्यापक एक अत्यन्त सम्माननीय व्यक्ति माना जाता था । मुझे याद है कि वे अपनें जनेऊ में दो तीन चाभियाँ बांधे हुये थे और शाम को जब अपनें घर से बाहर खेत या बगीचों की ओर जाते ,तो उनके चलनें से उन चाभियों में घन घन की आवाज होती थी । रास्तों में या घर के बाहर खुले क्षेत्रों में खेलते हुये बच्चे चाभियों की खनखनाहट सुनते ही भागकर कोनों में या दीवारों के पीछे छुप जाते थे । उस समय तक शिवली का प्राइमरी स्कूल मिडिल स्कूल के साथ ही था और मिडिल स्कूल के मुख्य अध्यापक का रोब रुआब प्राइमरी बच्चों पर भी कायम था । माताजी बरसात के बाद गाँव आयीं और खेतों में होनें वाले ज्वार ,मक्का या दालों की खरीफ की फसल का हिसाब -किताब कुछ दिन तक रहकर कर गयीं । मेरी बहन कमला के लिये लोअर मिडिल में बैठने की किताबें भी वे ले आयीं जिन्हें पढ़कर माता जी नें लोअर मिडिल किया था । जहाँ तक मैं समझता हूँ कि उस समय भी लड़कियाँ फ़ार्म भरकर संस्थागत न होने पर भी इम्तहान में बैठ सकती थीं । कमला के कोर्स में मैथलीशरण गुप्त का एक खण्ड काव्य जयद्रथ वध लगा था । मुझे अच्छी तरह याद है कि जयद्रथ वध की पंक्तियाँ मुझे अपनें सम्मोहन में बाँध लेती थीं । इस खण्ड काव्य के प्रथम पृष्ठ पर ही राष्ट्र कवि मैथलीशरण गुप्त नें रायबरेली जनपद के दौलतपुर ग्राम में जन्में अपनें गुरु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के लिये ये पंक्तियाँ लिखी थी -
"पाई तुम्ही से वस्तु जो कैसे तुम्हें अर्पण करूँ, पर क्या परीक्षा रूप में पुस्तक न यह आगे धरूँ ?"खण्ड काव्य की प्रारभ्भिक चार पंक्तियाँ भी मुझे बहुत भायीं -
"अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है ,
न्यायार्थ अपनें बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है ।
इस तत्व पर ही पाण्डवों का कौरवों से रण हुआ जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ ।
अभी पाँच मई 2003 के आस -पास स्व ० हँसवती देवी के तेरहवीं अनुष्ठान के अवसर पर एकत्रित सगे -सम्बन्धियों के बीच बहन कमला नें प्रसंगवश यह कहा था कि मुझे तो लाला नें पढ़ा दिया था ,वरना मैं लोअर मिडिल की परीक्षा पास न कर पाती । ऐसा कहना एक बड़ी बहन का अपने छोटे भाई के प्रति अत्यधिक लगाव और प्यार के कारण ही हो सकता है । हाँ इतना अवश्य है कि हिन्दी के सम्बन्ध में उनकी कुछ एक जिज्ञासाओं का समाधान करनें का मैं प्रयास करता था । दरअसल कक्षा छः और सात में शिवली मिडिल स्कूल के उन दिनों के हिन्दी अध्यापक प ० उदय नारायण अपनें विषय के अधिकारी विद्वान थे । वे पास के हे गाँव -भैंसऊ से थे और उनका पढ़ाने का ढंग इतना रोचक था कि सारी कक्षा मंत्रमुग्ध सी हो जाती थी । वे बीच -बीच में पुराणों,महाकाव्यों और जनश्रुतियों के रोचक उदाहरण देकर साहित्य रसास्वादन की विद्यार्थी -प्रवृतियों को बढ़ावा देते रहते थे कभी -कभी वे विषय के अतिरिक्त भी काव्य रचना और साहित्य रचना की बातें कर उठते थे । शायद ऐसा रहा होगा कि उनका सजग साहित्यकार उनके अध्यापन के सांसारिक दायित्व के कारण अधिक विकास न पा सका हो और इसलिये वे कक्षा में पढ़ाते -पढ़ाते अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के कुछ नमूनें पेश करते रहते थे । उनका एक दोहा मुझे आज तक याद है जो उन्होंने किसी संग्रह से उठाकर हमें भाषा के अभिद्यार्थ के सन्दर्भ से सम्बन्धित कर एक से अनेक अर्थी बन जानें के सन्दर्भ में सुनाया था । एक पण्डित जी वैद्यकी भी करते थे और पत्रा भी देखते थे अर्थात ज्योतिष की प्रक्रिया में भी पारंगत थे वे इतनें चर्चित हो गये थे कि अंग्रेजी कवि गोल्डस्मिथ के स्कूल मास्टर की भाँति वे बहुत माने जाते थे । उनके पास दवाओं और भविष्य की जानकारी के लिये जिज्ञासुओं की भीड़ लगी रहती थी । एक बार एक स्त्री का पति परदेश गया था वह स्त्री पंक्ति में काफी देर से खड़ी थी ,यह पूछने कि उसका रूठा हुआ परदेसी पति कब आयेगा । दूसरी तरफ दूसरी पंक्ति के प्रारम्भ में एक माँ छः सात वर्ष के बच्चे के साथ खड़ी थी ,जिसे लम्बे अरसे से दस्त व बुखार से गुजरना पड़ रहा था । दोनों स्त्रियों नें उतावली के साथ अपनी -अपनी समस्या का निदान माँगा । पण्डित जी नें एक दोहा दोनों को दे दिया जो इस प्रकार है -
ककिर पाथर तार ,जामन फलसा आँवला
सेब कदम कंचनार ,पीपल रत्ती तून तज ।
अब विज्ञजन ही इस दोहे के दोनों अर्थ निकालनें का प्रयास करें । मैं चाहूंगा कि वे थोड़ी देर के लिये अपनें मष्तिष्क पर दबाव डालकर मात्रायें इधर -उधर कर और द्विअर्थक शब्द के अर्थ अभिप्रेत से दोनों स्त्रियों की समस्याओं का असरदार निदान सिद्ध करनें का प्रयास करें । प ० उदय नारायण की शाब्दिक मर्मभेदिता का थोड़ा बहुत प्रसाद मुझे अपने जीवन में मिल सका ,इसके लिये मैं उनका ऋणी हूँ । कमला अब कुछ बड़ी होनी लगी थीं और लड़की को सयानी होते देखकर अम्मा के चेहरे पर चिन्ता की रेखायें घनी होनें लगी थीं । बीस बिस्वा प्रभाकर के अवस्थियों की लड़की बीस बिस्वा कान्यकुब्जों के घर में ही व्याही जा सकती थी । वर तलाश का दौर आरम्भ हो चुका था जो कई वर्षों तक चला । कहीं खोर के पाण्डेय ,कहीं बाला के शुक्ल ,कहीं श्रीकान्त के दीक्षित ,कहीं चट्टू के तिवारी -जहाँ कहीं किसी सोलह सत्रह वर्ष के लड़के की खबर मिलती ,माताजी की टटोल निर्णय की दिशाएँ तलाश करने लगतीं ।
.. शादी हुयी थी ,पर पत्नी की मृत्यु हो चुकी है । वह लड़का एअरफ़ोर्से में एअरमैन बनकर चला गया था ,पर युद्ध समाप्ति के बाद वापिस आ गया है और राशनिंग विभाग में इंस्पेक्टर पद पर है । लडके के पिता नें कई सन्तानों के बाद भी दूसरी शादी कर ली है और वे अपनी ससुराल में रहते हैं । लड़के की बहिनें ब्याही जा चुकी हैं और छोटा भाई उसी के साथ रहता है और अर्ध सरकारी संस्थान में काम करता है । माँ नें मेरे भावी जीजा जी देखा और वे उन्हें पसन्द आ गये । मुन्नी लाल नें लड़के के पिता अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी को बुलावा दिया । उन्होंने कहा कि वे एक हजार चाँदी के नगद रुपये लेकर शादी व्याह करेंगें । बाकी खाना -पीना और मड़वे का सामान अलग से होगा । पिताजी मात्र पाँच सौ रुपये छोड़कर गये थे । खानें -पीने की व्यवस्था खेतों से हो भी जाये , तो भी साज -सामान ,बर्तन -भाड़े ,कपडे और मान्यों के लिये व्यवस्था कहाँ से हो । और फिर अतिरिक्त पांच सौ चांदी के रुपये कहाँ से लाये जाँय ? बात अटक गयी । एक दूसरा लड़का भी देखा गया जो गोपाल के तिवारियों का था और प्राईमरी स्कूल में अध्यापक था । वह बिना किसी माँग के लड़की के शरीर सौष्ठव और परिवार के कारण व्याह को तैय्यार था । कमला से छोटा होनें पर भी मैं इस सम्बन्ध के लिये आग्रहशील हो उठा और आर्थिक कारणों से कक्का भी राजी हो गये । पर, पड़ोस की स्त्रियों नें माता जी को बीघा -बिस्वा के चक्कर में डाल दिया । उन्हें कहा गया कि गोपाल के तिवारी सोलह या अठ्ठारह बिस्वा के होते हैं और प्रभाकर के अवस्थियों की बेटी उनके यहाँ नहीं व्याही जा सकती । प्रतिलोम विवाह में कन्यादान करनें वाला स्वर्ग का अधिकारी नहीं होता । असमय विधवा होनें वाली माँ शास्त्रानुसार पहले ही पूर्व जन्मों का फल भोग रही थी और अब काला अक्षर भैंस बराबर वाली पड़ोसी स्त्रियों नें उन्हें अज्ञान के कुहासे में झोकनें की ठान ली । कक्का भी पुरानी व्यवस्था की उपज थे और चिठ्ठी -पत्री व थोड़े हिसाब -किताब के अतिरिक्त आधुनिक चेतना से अनिभिज्ञ थे । परलोक का भय उन्हें भी सता रहा था और फिर नाते -रिश्तेदार क्या कहेगे । और तो और उनके अपनें छोटे भाई भी व्याह में तभी शामिल हो सकेंगें जब लड़की बीस बिस्वा में व्याही जाय । अन्धकार की वीथियों से बच निकलनें का अब कोई मार्ग नहीं रहा । मेरे भावी जीजा जी अपनें एक ममेरे भाई के साथ कानपुर के देव नगर में रहते थे । वे अपनी नयी माँ से सदैव दूर रहे थे ,पर शादी व्याह में पिता की अवज्ञा नये मूल्यों का निर्धारण उनके वश की बात नहीं थी । वे भी उसी व्यवस्था की उपज थे जिसमें पुरुष होना ही सारी नारी जाति से श्रेष्ठ हो जाना होता है । अब क्या था -माता जी नें तय किया कि वे अपनें खेत पांच सौ रूपये में पास के गाँठ -गिरों का काम करनें वाले शंकर दीक्षित के पास रख देंगीं और इस प्रकार शादी सम्पन्न करेंगीं । ऊपर के सामान के लिये कुछ अपनी कमायी से और कुछ सह -शिक्षिकाओं से जोड़ -तोड़ कर पैसे का इन्तजाम किया । मुझे ठीक याद नहीं है पर शादी से कुछ पहले ही मेरे स्कूल न जाने की खबर उनके पास आ पहुँची । मेरी आँखों के आगे उनका वह चित्र आज भी ताजा है जब वे रो -रोकर कहती रहीं कि मैनें उन्हें सब बाते क्यों नहीं बतायीं । वे मास्टर द्वितीय चन्द्र के घर जाकर माफी माँग लेती । पर अब तो पहली प्राथमिकता थी लड़की का विवाह करना । अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी अत्यन्त लालची व स्वार्थी व्यक्ति थे। न केवल उन्होंने चाँदी के हजार रुपये हड़प लिये ,मड़वे के नीचे यह नंग नाच भी किया कि सामान उनके मन मुताबिक़ नहीं है । अन्ततः माता जी को शम्भू शुक्ला से दो सौ रुपये और कर्ज लेकर तथा समधी के पांवों पर सिर रखकर अपनी कन्या ब्याहनी पडी । मैं मूक दर्शक बनकर सब देखता रहा । कई बार मेरा मन हुआ कि एक पत्थर उठाकर अम्बिका प्रसाद के सिर पर दे मारूं पर पथभ्रष्ट पुरुष समाज का एक बहुत बड़ा भाग व्यवस्था का समर्थक था और मेरा लड़कपन मेरे आड़े आ रहा था । आखिर मैं था ही क्या -स्कूल से भागा हुआ माँ पर आश्रित आवारा किस्म का लड़का । कितनी बार बुलाये जानें पर भी मैं मड़वे के नीचे पैर पूजने के लिये नहीं गया । हिन्दू समाज के धर्म विधायक ही यह बतायेंगें कि धर्मराज के खाते में मेरा यह कार्य डेबिट या क्रेडिट की किस श्रेणी में रखा जायेगा । मैं अपनी बड़ी बहन को बहुत प्यार करता था । वे मुझसे केवल पौनें दो वर्ष बड़ी थीं और हम दोनों न जाने कितनी बार लड़े -झगडे थे । उन्होंने न जानें कितनी बार मुझे नोचा -घसोटा था और मैनें भी उनके बालों को पकड़कर खींचा था । अब हम बड़े हो गये थे और बहन को घर से बाहर किसी अनिश्चित भविष्य में जाता देखकर मेरा मन फूट -फूट कर रो पड़ा । जीजा के लिये मेरे मन में अश्रद्धा न थी पर सिद्धान्त हीन बुढापे में दूसरी शादी करने वाले पिता के प्रति उनका चुप रहना मेरे मन में उदार आदर का भाव न जगा पाया था । यह तो परमात्मा का लाख -लाख शुक्र ही कहा जायेगा कि मात्र कुछ महीने अपनें ससुर के घर बलहापारा में रहनें के बाद कमला को कानपुर में अपनें पति व उनके ममेरे भाई के साथ रहने का अवसर मिल गया और कुछ वर्षों बाद जीजा जी स्वतन्त्र रूप से गृहस्थी बसाने में समर्थ हो गये ।
हमारा परिवार अब आर्थिक विपिन्नता के दौर से गुजरने लगा । खेतों से कोई अनाज नहीं मिल पा रहा था । माँ के वेतन से प्रति माह अतिरिक्त लिया गया कर्ज व ब्याज चुकाया जाना था । लड़की के घर हर तीज त्यौहार व पर्व पर कुछ न कुछ भेजना सामाजिक विधान था । मेरे लिये कानपुर में पढ़ाई का खर्च जुटाना अब सम्भव न था । राजा अभी गाँव में एकाध वर्ष फेल होकर छठी में ही थे ।इसलिये उनकी पढ़ाई का जुगाड़ चल रहा था । स्कूल व कानपुर से मेरा भाग आना सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पहलुओं का मिश्रण माना जाना चाहिये । सकारात्मक की बात फिर । नकारात्मक इस द्रष्टि से कि मैं गाँव के कुछ बुरी आदतों वाले लड़कों के सम्पर्क में आ गया । उनमें से एक आनन्दी त्रिपाठी जिन्हें आँखों की खराबी के कारण चिपडा तिवारी कहा जाता था मुझे हांथों द्वारा वीर्य स्खलन की प्रक्रिया दिखाकर उनके सुखद अनुभव की बात बतायी । शरीर में ही छिपे किसी आनन्द की बात एक कौतूहल बनकर मेरे मन में जागी । प्रयोग धर्मिता मेरे स्वभाव का ही अंग है और मैनें सोचा कि इस अनुभव से क्यों न गुजर कर देखा जाये । मेरे प्रथम प्रयास में मुझे लगा कि श्रष्टि का अनिवर्चनीय आनन्द मेरी नस नस में भरा है कि मैं तारामण्डल के ऊपर किसी मोहक रोमांचक आकाश गंगा से गुजर रहा हूँ । पर भटकन का यह मार्ग अधिक लम्बा नहीं चला । मैं बता ही चुका हूँ कि मुझे पत्र -पत्रिकाओं व पुस्तकें पढनें की आदत पड़ चुकी थी । मेरे एक मित्र के पिता रघुनन्दन लाल तिवारी कान्यकुब्ज इण्टरमीडिएट कालेज में अंग्रेजी के अध्यापक थे । माता जी उन्हें मामा कहती थीं । मित्र के साथ उनके घर जानें पर मुझे ब्रम्हवर्चस्व द्वारा लिखी हुयी एक पुस्तक ब्रम्हचर्य ही जीवन है ,वीर्य नाश ही मृत्यु है । देखनें को मिली । मैनें आग्रह करके वह पुस्तक पढनें को माँग ली । आज मैं Have lock ellis और Kinsey report पढनें के बाद शायद उस पुस्तक की बातों से सहमत न होऊँ पर उस समय उस पुस्तक का एक एक वाक्य मेरी निर्माणात्मक चेतना पर अपनी छाप छोडनें लगा । मैनें अपनी दुर्बल इच्छा शक्ति को धिक्कारा और अपने को काम के प्रवाह में बहनें वाले कीड़े मकौड़े की श्रेणी में पाकर आत्मग्लानि से भर उठा । यह बड़बोलापन ही होगा कि उस समय मुझे वैसा ही अहसास हुआ जैसा तुलसीदास को रत्नावली की फटकार सुन कर हुआ होगा या निराला को अपनी पत्नी की उन पंक्तियों से जिसमें उन्होंने उन्हें हिन्दी में कुछ कर दिखाने की चुनौती दी थी । पर आत्म तिरस्कार ,आत्मग्लानि और अपनी पतित दुर्बलता से उबरने की प्रवृत्ति को निश्चय ही आज मैं एक उपलब्धि के रूप में लेता हूँ । वह दिन और आज मैंने संयम की बल्गा को अपनें हाथ से कभी नहीं छोड़ा और मन का तुरंग सदैव मेरे इशारे पर ही चला । मनमानी करके वह मुझे कहीं नहीं ले जा सका । अभी जीवन शेष है । सभी महान जान कहते हैं कि अहंकार पतन की पहली सीढ़ी है । इसलिये मैं अत्यन्त समर्पित भाव से मानव चेतना के सजग प्रहरियों के प्रति नतमस्तक होता हूँ जिन्होनें मुझे सृजन के उस सुख को पहचाननें का अवसर दिया जो अतीन्द्रिय है । और यहां से प्रारम्भ होता है मेरे जीवन का वह अध्याय जहाँ एकाध साल बाद मैं माँ के संरक्षण से मुक्त होकर स्वतन्त्र विकास की दिशा में चल पड़ा । जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि रघुनन्दन लाल तिवारी कान्यकुब्ज इण्टर कालेज में अंग्रेजी अध्यापक थे । वे पुरानी ग्राम्य संस्कृति की उपज थे और एम ० ए ० अंग्रेजी होकर भी अपनें कन्धे पर कनस्तर रख कर आटा पिसवा लाते थे । बाद में वे उस कालेज के प्राचार्य भी हुये । वैसे तो वे कानपुर में रहते थे पर गर्मी की छुट्टी में शिवली आ जाते थे । उन्होंने पहले माताजी से मुझे कान्यकुब्ज कालेज में भर्ती करानें की बात कही थी ,पर माँ नें डी ० ए ० वी ० स्कूल की तारीफ़ सुनकर मुझे वहीं भेजा था । अबकी छुट्टियों में जब वे गाँव आये और उन्होंने घर से माँगकर पढी हुयी किताबों की बात सुनी तो उन्होंने घर बुलवाकर मुझे कहा कि मेरे पिता उनके अच्छे दोस्त थे और वे चाहेंगें कि मैं अपने पिता का नाम बदनाम न करूँ । मुझे स्कूल छोड़े एक वर्ष हो चला था । उन्होंने मुझसे कहा कि मैं कान्यकुब्ज कालेज की नवीं कक्षा की प्रवेश परिक्षा में भाग लूँ । उन्होंने हिन्दी व अंग्रेजी के छोटे -मोटे प्रश्न पूछे और उन्हें लगा कि मैं नवीं कक्षा में प्रवेश पा लूँगा । मुझे पता नहीं कि यह सब कैसे और क्यों कर सम्भव हुआ ,पर जब मैनें नवीं कक्षा की प्रवेश परीक्षा की रिजल्ट सूची में अपना प्रथम स्थान देखा तो मैं हतप्रभ रह गया । प्रवेश परीक्षा हिन्दी ,अंग्रेजी व गणित की हुयी थी उनकी अहैतुक कृपा ही मेरे भविष्य जीवन के निर्माण का आधार बन गयी । तय किया गया कि अब मैं कमला के साथ देव नगर में रखा जाऊँगाँ । धनकुट्टी वाला सम्बन्ध लगभग टूट चुका था क्योंकि मेरे प्रति की गयी उपेक्षा माता जी से छुपी नहीं रही थी और वे फूफा के प्रति एक अवज्ञा से भर उठी थीं । जीजा जी के ममेरे भाई देव नारायण अग्निहोत्री जमींदार परिवार से थे और वकील थे । उनका झुकाव वामपन्थी विचारधारा की ओर था । मुझे उनके यहाँ रहनें के कारण ही कामरेड यूसुफ और कामरेड मिराजकर जैसे प्रथम श्रेणी के वामपन्थी नेताओं के सम्पर्क में आने का मौक़ा मिला । इंग्लैण्ड के प्रधान मन्त्री चर्चिल नें दूसरे विश्वयुद्ध में विजय हासिल कर इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया था ,पर वे भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में नहीं थे । इंग्लैण्ड को Mother of Democracyके नाम जाना जाता है । आम चुनाव में चर्चिल की कंजरवेटिव पार्टी बहुमत नहीं पा सकी और लेबर पार्टी विजयी हुयी । मि ० एटली प्रधान मन्त्री चुने गये । ऐसा लगा कि भारत की स्वतन्त्रता का मार्ग कुछ प्रशस्त हो रहा है । अमरीका भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समाप्त होनें की माँग कर रहा था । इधर भारत की आन्तरिक स्थितियाँ भी जन विद्रोह व सैन्य विद्रोह के माध्यम से विस्फोटक हो चुकी थीं । जर्मनी के खिलाफ युद्ध में सोवियत युनियन ,ब्रिटेन ,अमरीका ,फ्रांस -Allied Nation के साथ था , पर बाद में वह अमरीका से अलग पूंजीवादी सत्ता के खिलाफ एक नये खेमें का गठन कर बैठा था । गान्धी जी नें द्वितीय विश्व महायुद्ध में अंग्रेजों का साथ इस शर्त पर दिया था कि वे युद्ध बाद भारत को आजाद करेंगें । पर रूस के मित्र राष्ट्रों से अलग हो जानें के बाद कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया नें युद्ध में मित्र राष्ट्रों का साथ देने का विरोध किया । भारत में इस पार्टी को प्रतिबन्धित कर दिया गया और पार्टी के दिग्गज नेता अण्डर ग्राउण्ड हो गये । इन्हीं में थे बम्बई के मेयर कामरेड मिराजकर व उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेता कामरेड यूसुफ । वे देवनारायण अग्निहोत्री के पास वेश बदल कर रहते थे क्योंकि सम्भवतः वे सी ० पी ० आई ० के सदस्य थे । मेरे जीजा का भी वामपन्थी झुकाव हो चुका था । मेरी बहन कमला उन सब के लिये खाने -पीनें का प्रबन्ध करती थीं क्योंकि अग्निहोत्री की पत्नी गाँव में रहकर जमीन -जायदाद की देख भाल कर रही थीं । ... मुझे याद है कि अखबार लेकर दोनों नेता कई स्थानों पर लाल निशान लगाया करते थे और उन श्रम बस्तियों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते थे जिनमें कम्युनिस्ट विचारधारा फैलायी जा सकती हो । वे अंग्रेजी कम्युनिष्ट विचारधारा का अखबार व अन्य अखबार --स्टैट्समैन /नेशनल हेराल्ड पढ़ा करते थे । वहीं से मुझे अखबार पढनें की आदत पड़ गयी । उन्हें कई बार चाय पीनें व सिगरेट का कश लेनें की आदत थी । वे मुझे सिगरेट का पैकेट ख़त्म होजाने
पर कैप्सटन सिगरेट लाने के लिये दौड़ाते थे । उनके पास विभिन्न प्रकार की पोशाकें थीं । कभी वे मुसलमान बनते तो कभी हिन्दू । कभी महाराष्ट्रीयन बनते तो कभी गुजराती । वे कई भाषायें जानते थे पर अधिकतर अँग्रेजी भाषा में वाद -विवाद करते । वकील साहब भी उनके साथ बैठते । मैं उनकी बातें सुनता रहता -नवीं क्लास का विद्यार्थी था । वे मुझे भी अपनी विचारधारा से जोड़ना चाहते थे । वे कुछ अंग्रेजी ,कुछ हिन्दी ,कुछ मराठी और कुछ गुजराती में बोलते । धीरे -धीरे मैं भी टूटी -फूटी अँग्रेजी बोलनें लग गया और मुझे विश्वास हो गया कि अब मैं डी ० ए ० वी ० स्कूल के अध्यापकश्री द्वितीय चन्द्र जी का नालायक शिष्य नहीं माना जाऊँगा ।
कान्यकुब्ज इण्टरमीडिएट कालेज में कक्षा नौ का रिजल्ट मुझे अध्यापकों की आँखों में सम्मानसूचक भावनाओं के साथ देखनें का आधार प्रदान कर गया । मैं तीन सेक्शनों में सबसे अधिक अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ था इधर घर की हालत बद से बद्त्तर होती जा रही थी । पीछे की ओर तीन तिदवारियां थी जिनमें एक तिंदवारी बैठ चुकी थी । और दूसरी की छत लटक चुकी थी । यह तय था कि वह अगली बरसात नहीं झेल पायेगी । आंगन के आगे का हिस्सा जिसमें दो तिंदवारी ,एक बैठका और चबूतरा था ,अभी तक गुजारे लायक थे । खेतों से कुछ मिल नहीं रहा था और माँ के ऊपर कर्ज का भार तो था ही ,पर साथ ही मेरे कमला के साथ रहने के कारण वे शायद अतिरिक्त उदारता के साथ कमला के यहां सामान भेज रहीं थीं । पर किया ही क्या जा सकता था ? कक्का अब काफी वृद्ध हो गये थे और ऐसा लग रहा था किवे अधिक नहीं चल पायेंगें। राजा कक्षा छः में फेल होते -होते बचे और सम्भवतः अध्यापकों की उदारता के कारण सातवीं कक्षा में भेज दिये गये वे कद काठी में मेरे बराबर हो गये थे और यह सुनिश्चित था कि आकार में वे मेरे से दीर्घ आकृति पायेंगें । मुझे यह कुछ अच्छा नहीं लग रहा था ,शायद इसलिये कि बड़ा होनें के कारण मैं हर बात में बड़ा रहना चाहता था । आज मैं इस नादानी पर हँसता हूँ क्योंकि मैं जान गया हूँ कि हर व्यक्ति प्रकृति की निराली रचना होता है और उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताये बहुत कुछ पूर्व निर्धारित होती हैं । किसी तरह यदि मैं दसवीं की परीक्षा सफलता पूर्वक उत्तीर्ण कर सकूं तो शायद कहीं किसी छोटी क्लास के विद्यार्थियों पढ़ाकर खर्चे का जुगाड़ किया जाये ,इस सम्भावना के साथ मैनें दसवीं में प्रवेश किया । अच्छे परीक्षा फल के कारण मैं फीस के भर से मुक्त था और कुछ पुस्तकें भी गुरुजन कृपा से मिल गयी थीं । वैसे मैं जीजा जी के पास रहकर भार नहीं बना था,क्योंकि मैं घर या बाहर का कोई न कोई काम करता रहता था । कई बार खाना बनानें और घर की सफाई में भी मैं सक्रिय योगदान करता था । मेरे जीजा जी श्री राजा राम त्रिपाठी वैसे हाई स्कूल पास नहीं थे ,पर एअर मैन रहनें के कारण उन्होंने कोई फ़ौजी इम्तिहान पास किया था ,जिसके कारण वे सिविल नौकरी में हाई स्कूल के समकक्ष मान लिए गए थे । वे लगभग पांच फ़ीट नौ इंच के सुगठित जवान थे । उनका चेहरा -मोहरा आकर्षक था ,पर उनके बाल असमय ही खिचड़ी बन गये थे । उन दिनों वे राशनिंग इंस्पेक्टर थे और मैं उन्हें काफी आदर भरी द्रष्टि से देखता था । पर वे अपनें ममेरे भाई देव नारायण अग्निहोत्री से शायद कुछ सहजता से नहीं जुड़े थे क्योंकि मैनें उन्हें कभी वाद -विवाद की चर्चा में शामिल होते नहीं देखा । आगे चलकर वे जयपुर में रहनें वाले एक मौसिया के शिष्य बन गए थे और आजीवन दो -दो घंटों की पूजा करके किसी अद्रश्य शक्ति की खोज में लगे रहते थे । उनके मौसिया जयपुर के राजघराने में शायद कभी पुरोहित रहे हों और ऐसा माना जाता था कि उन्हें माता कात्यायिनी की सिद्धि प्राप्त है। इसी बीच हाई स्कूल परीक्षा निकट आ गयी । जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि मुझे कक्षा की किताबे पढनें के अतिरिक्त लायब्रेरी की किताबे पढनें का गहरा शौक लग गया था । देवनागर से मेरा स्कूल चार पांच किलोमीटर से कम क्या होगा । पैदल आते जाते मुझे मार्ग में पड़ने वाले सभी पुस्तकालयों का पूरा ज्ञान हो गया । छुट्टियों में मैं गया प्रसाद व मारवाड़ी लायब्रेरी जाता ही रहता था । उस समय मुझे यह बताया गया था कि ज्ञान का जितना अधिक विस्तार पाया जा सके उतना ही अच्छा होता है और उसका सम्बन्ध परीक्षा अंकों के साथ नहीं होता । जैसे -जैसे मैं बड़ा हुआ और शिक्षा जगत से जुड़ा वैसे -वैसे मुझे इस ठोस सत्य का ज्ञान होनें लगा कि परीक्षा अंकों की भी अपनी अहमियत है और उसे दार्शनिकता के चश्मे से नहीं देखना चाहिये । अच्छे अंकों की उपलब्धि के लिये एक सुनिश्चित अध्ययन योजना और चयनित प्रश्नों की तैयारी कहीं अधिक लाभ प्रद होती है अपेक्षाकृत दूर विस्तार वाले अध्ययन के ,जहाँ लक्ष्य की सुनिश्चितता नहीं होती है । परीक्षा में बैठनें के बाद मुझे लगा कि मैं बहुत अधिक जानता था ,पर जानकारी की बहुलता मेरे लिये एक निश्चित अवधि के कारण सहारा न बनकर व्यवधान बन गयी । खैर परीक्षा समाप्त हुयी रिजल्ट जैसा भी हो स्वीकारना ही होगा । उस समय भी मुझे यह वाक्य अन्तर्शक्ति लेकर झकझोरता था -"कर्मण्ये वाधिकारस्ते ,माँ फलेषु कदाचन "आज मैं जानता हूँ कि गीता का यह सन्देश जीवन और समाज के बड़े कामों के सन्दर्भ में कहा गया है । पर उस कच्ची उम्र में मैं उसे अपनी छोटी सी स्कूली परीक्षा के साथ जोड़कर देख रहा था । इधर कानपुर में ममेरे भाई के साथ रहते हुये जीजा जी के साथ रहकर मेरी बहन को शायद पूरी स्वतन्त्रता के साथ रहनें का सुख नहीं मिलरहा था । घाटम पुर के बलहापारा में अग्निहोत्री जी का बहुत बड़ा परिवार था । कोई न कोई आता ही रहता । कई बार उनकी पत्नी आ बैठती । कमला पर काफी बोझ पड़ रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था कि यह व्यवस्था अधिक दिन नहीं चल पायेगी और जीजा जी को कोई न कोई अन्य व्यवस्था करनी होगी । इस बीच में मैनें पाया कि वे कई बार कुछ दिनों के लिये मानसिक रूप से विक्षिप्त हो उठते थे । वे क्रिया -कलापों में बुद्धि संगत जोड़ -तोड़ नहीं रख पाते थे और गुमसुम पड़े रहते थे । अग्निहोत्री जी की पत्नी नें बहन कमला को एकाध बार इशारा किया कि उन्हें कोई हवा -बैहर लग गयी है और कात्यायिनी की सिद्धि प्राप्त मौसिया जी के पास ले जाना उचित रहेगा समय अबाध गति से चल रहा था चलता ही रहा है और चलता ही रहेगा । माँ के सामनें सबसे बड़ा प्रश्न था सातवीं की परीक्षा के बाद राजा को कानपुर में रखनें की व्यवस्था हो ताकि वे आगे पढ़ सकें । वे अब उद्दण्ड हो गये थे और उनकी शरारतों की कहानियाँ माँ के नाक में दम कर रही थीं । यदि खेत किसी तरह से गिरवीं हुये बन्धन से मुक्त कर लिये जांयें, तो शायद पढ़ाई के खर्चे की कुछ गुंजाइश बन सके । व्याज तो खेतों की उपज के रूप में चुक रहा था ,पर पांच सौ चान्दी के रुपये कहाँ से आयें । परिस्थितियों की मजबूरी नें माँ को यह सोचनें पर विवश किया कि जिस प्रकार दहेज़ की अनिवार्यता नें खेतों को बन्धक करवाया है वैसे ही बड़े लडके की जल्दी शादी करके दहेज़ लेकर खेतों को मुक्त कराया जाये । हाई स्कूल का परिणाम आ गया और मैं 500 में से केवल 299 अंक पा सका । यदि एक अंक और मिल गया होता तो प्रथम श्रेणी तो हो ही जाती ,पर प्रकृति नें अपनी निर्माण प्रक्रिया में मुझमें कुछ ऐसी खामी भर दी है कि मैं चोटी पर पहुंचते -पहुंचते फिसल ही जाता हूँ । यह मेरी आदत नहीं रही है कि मैं अपनी असफलता को बहानों के पैबन्दों से बांधता चलूँ । मैं हमेशा यही कहता रहा कि मुझे उच्च द्वितीय श्रेणी ही मिल पायी है । कालेज के अध्यापक तो मुझे जानते ही थे। इसलिये 11 रहवीं कक्षा में प्रवेश में मुझे परेशानी नहीं हुयी और उनकी कृपा के कारण मेरा अध्ययन शुल्क माफ़ हो गया ।
भारत आजाद हो चुका था ,पर अभी तक गणतन्त्र नहीं बना था । 15 अगस्त 1947 को यूनियन जैक का झण्डा उतारकर तिरंगा फहराया गया था और राज गोपालाचारी भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने थे । निष्पक्ष व्यस्क चुनावों के बल पर जो कि भारतीय संविधान का मूल तत्व स्वीकार हुआ था 26 जनवरी 1950 को एक सार्व भौम भारतीय गणराज्य की स्थापना होनें वाली थी । नेहरू जी की अँग्रेजी वक्तृताओं को मैं काफी कुछ समझनें लगा था और स्वतन्त्र भारत में एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व के रूप में अपने को विकसित करनें की कल्पना मेरे मन में हिलोरें ले रही थी । यद्यपि गांधी जी हमारे बीच नहीं रहे थे ,पर उस महामानव द्वारा जलायी गयी ज्योति का प्रकाश बुझा नहीं था । उनके द्वारा तराशे गये नवरत्न अभी हमारे बीच थे और उनका समर्थतम शिष्य देश की अगुवाई कर रहा था । गान्धी जी के निधन पर नेहरू जी की कही हुयी पंक्तियाँ जो इतिहास की अमर धरोहर बन गयीं हैं -The Light has departed.को समझनें की क्षमता हाई स्कूल पास करने के बाद मेरे में आ गयी थी । आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर विश्व के कोटि -कोटि जन रो पड़ते हैं । कक्षा 11 में प्रवेश होते ही शिवली गाँव के पास के एक कस्बे रूरा से एक सज्जन मेरे पास आये जो अपनी कन्या के लिए वर की तलाश में थे । .
. इसी बीच एक अच्छी घटना मेरे जीवन में घट चुकी थी । कानपुर के आनन्द बाग़ के कुछ कमरों में अवध बिहारी प्रधान एम ० ए ० ,एल ० टी ० नें एक स्कूल चलाया था जिसे राष्ट्रीय विद्यालय की संज्ञा दी गयी थी । इस विद्यालय में मुख्यतः वे ही पंजाबी लड़के -लडकियां सायं कालीन कक्षाओं में आते थे जो भारत विभाजन के शिकार बनें थे और सरकार नें उन्हें प्राइवेट रूप से परीक्षा पास करनें की अनुमति दी थी । हुआ यह कि शिवली के राम अवतार शुक्ला जो पाना के छोटे भाई थे और जिनके छोटे भाई बबुईया से गाँव में मेरा काफी मेल -जोळ था ,नें मुझे राष्ट्रीय विद्यालय में एक हिन्दी अध्यापक की जरूरत की बात बतायी । राम अवतार नगर पालिका स्कूल में प्राईमरी अध्यापक थे और उन्होंने मिडिल पास करके प्रशिक्षण का कोर्स पूरा किया था । वे स्वयं को हाई स्कूल की कक्षाओं को पढानें में असमर्थ समझते थे । वे मुझे प्रधान जी के पास ले गये । मैं प्रारम्भ से ही धोती -कुर्ता पहनता था और पंजाबी युवक -युवतियों के बीच मेरी वेश -भूषा खप नहीं पा रही थी । साथ ही में मैं अभी अवस्था के द्रष्टिकोण से भी उन्हें परिपक्व नहीं लग रहा था । Qualification की उन्हें चिन्ता न थी क्योंकि जो भी अध्यापक चले जायें और कम से कम पैसे लें ,इसकी उन्हें तलाश थी । उन्होंने मुझे एक दो ट्रायल क्लास दी और जब सभी लड़के -लड़कियों की ओर से उन्हें एक स्वर में नव नियुक्त अध्यापक के प्रति आदर और समर्थन सुननें को मिला तो फिर उन्होंने मुझे दो हिन्दी पीरियड के लिये दस रुपये देनें का प्रस्ताव किया । मैनें इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया क्योंकि मैं जानता था कि कक्षा में कुछ युवतियां मुझसे उम्र में बड़ी थीं और स्कूल में अध्यापिकाओं का काम कर रही थीं । और उन्हें अपनी योग्यता बढ़ाने की चिंता थी । ऐसा करनें से उन्हें मिडिल और हाई स्कूल में घुसने का मौक़ा मिल सकता था । उनमें से कई शादी शुदा थीं और उन्हें घर पर पढ़ाने के लिये किसी सरल देहाती अध्यापक की आवश्यकता थी । मैं समझ गया कि दस रुपये के साथ -साथ मुझे और भी परिश्रम की हुयी कमाई का उचित अवसर मिल सकेगा । साथ ही मुझे विश्वास था कि धीरे -धीरे स्कूल में अपनी साख बना लूँगा और शायद एकाध वर्ष में मुझे अंग्रेजी कक्षायें तथा इण्टर पास करनें के बाद इण्टर कक्षाएँ मिल जायें । कुछ आमदनी का प्रबन्ध होते ही मैनें अपना अलग कमरा ले लिया था । शौच के लिये ऊपर जाना होता था ,पर कमरे में पानी का नल लग जाने से सुविधा थी । मैं उसी कमरे में खाना बनानें की व्यवस्था कर लेता था । । एक तख़्त ,एक कुर्सी -मेज ,एक अंगीठी ,कुछ एक बर्तन यही मेरी गृहस्थी हो गयी । खाना बनाकर सब सामान तख़्त के नीचे कर दिया जाता और चौड़ी चादर का ढक्कन डाल दिया जाता । कमरे के ऊपर एक पावा था जिस पर एक Stuffed कौवा रखा रहता था । वह इतना सजीव लगता था मानों बोलनें ही वाला हो और मुझसे मिलने वाले साथी कई बार उसे ताली बजाकर उड़ाने की कोशिश करते थे । कौवे के प्रति मुझे कुछ लगाव हो गया था क्योंकि मेरे जीवन का काफी कुछ हिस्सा मुझे तिरस्कार और उजली पंक्तियों वालों से उपेक्षा के रूप में मिला था । इसी कमरे में जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि रूरा के एक वयोवृद्ध सज्जन मुझसे मिलनें आये । उन्होंने मुझसे पूँछा कि मैं कहाँ पढता हूँ और कैसे अपना खर्च चलाता हूँ । उन्होंने कहा कि वे ऐसे ही मुझसे मिलनें चले आये हैं क्योंकि उनके पड़ोस में किसी अवस्थी की आढ़त की दुकान है और उनका कोई लड़का मेरे साथ पढता है और उसी नें उन्हें मेरे बारे में बताया है । कुछ देर बाद वे चले गये और मैं नहीं जानता कि मेरे बारे में वे क्या धारणा बनाकर ले गये । व्यवस्था कुछ ठीक हो रही थी । मैं छोटे भाई राजा को सातवीं कक्षा पास करनें पर अपनें साथ लाकर रखनें की योजना बना रहा था । उसी बीच एक और झटका लगा जिसनें हम सब को झकझोर डाला । असहायता की स्थिति और दयनीय हो उठी । जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि कक्का की तबियत ढीली रहने लगी थी । वे काफी बुजुर्ग हो गए थे । वे शायद 75 वर्ष के रहे होंगें । वे वयोवृद्ध होनें पर भी हमारे संरक्षण के लिये ढाल का काम करते थे । पिता जी के न रहने पर भी उनके रहते हुए पास -पड़ोस में किसी की मजाल न थी कि हमें कुछ उल्टा -सीधा बोल जाये । उनमें श्रेष्ठ कान्यकुब्ज कुलीन आभिजात्य भावना का उचित आत्मसम्मान था । आस -पास के सभी घरों में उनकी उपस्थिति का यथोचित सत्कार होता था । पर विधि का विधान कहीं टल पाया है । उन्हें दो -तीन दिन बुखार आया । मनिया बनचर की दवा दी गयी । मनिया बनचर मोहल्ले के जड़ी -बूटी विशेषज्ञ के नाम से जाने जाते थे ,पर तीसरे ही दिन कक्का की कमजोरी बढ़ गयी । माँ जो शिवली में ही मुख्य अध्यापिका थीं ,स्कूल से दौड़कर घर आयीं । वे ससुर के चरणों के पास बैठीं । कमला भी उन दिनों घर पर ही थीं । उन्होंने नातिन को आशीर्वाद देनें के लिये हाँथ उठाया ,पर हाँथ उठा का उठा ही रह गया । सनातन धर्मी प्रक्रिया में मृत्यु का आगमन ह्रदय चीर देनें वाला सम्बन्ध विच्छेद बनकर तो आता ही है ,पर साथ ही आर्थिक बोझ का एक अतिरिक्त कारण भी बन जाता है । कर्जे से दबी माँ को निश्चय ही या तो अपनें साथ की अध्यापिकाओं से या परिचित साहूकारों से पैसों की व्यवस्था करनी पडी होगी । बैलगाड़ी करके कक्का को खेरेश्वर में गंगा के किनारे अन्तिम विदा दी गयी । मैं कानपुर से खेरेश्वर पहुँच गया था । राजा गाड़ी के साथ ही थे । और थे साथ में पास -पड़ोस के लोग । तेरहवीं समाप्ति की प्रक्रिया तक मैं घर पर रहाऔर न जानें कितनें विधि -विधानों का मूक द्रष्टा बना रहा , पर मृत्यु की विभीषका भी जीजिविषा की चाह को समाप्त नहीं कर पाती और जीवन फिर अपनी सामान्य गति पर चलनें लगा । .
कक्का का साया उठ जानें के बाद राजा उर्फ़ उदय नारायण और अधिक स्वतन्त्र हो गये । गाँव के बागों से चुपके -चुपके आम तोड़ लाना तो शायद क्षम्य हो सकता था ,पर उनकी कुछ अभद्र छेड़खानी भी चर्चा में आने लगी । पैसे का अभाव तो था ही और वे कुछ सम्पन्न घरों के लड़कों की होंडा -होड़ी में फैशन के दीवानें हो उठे । मन्नी लाल वकील के छोटे लड़के जिन्हें छोटे बबुआ कहा जाता था ,वकील पिता के पुत्र होनें के नाते स्वयं को चलता पुर्जा समझते थे । वे उस समय नवीं -दसवीं में पढ़ रहे थे और अपनी नयी प्रकार के पोशाकों और जूतों की प्रदर्शनी करते रहते थे । उन्हें दादा गीरी का शौक था , पर कद काठी में छोटा होनें के कारण उन्हें एक ऐसे बॉडीगाड की जरूरत थे जो आर्थिक रूप से उनके बराबर तो न हो पर उच्च कुलीन घर का लंबा -चौड़ा बिगलैड़ लड़का हो । राजा इन मापदण्डों पर खरे उतरते थे और छोटे बबुआ नें उन्हें अपनें जाल में फँसा लिया । बाप वकील था ही । मार पीट करनें पर जमानत की व्यवस्था सुनिश्चित थी क्योंकि वकील साहब का कानपुर में भी एक मकान था । अब क्या था -राजा अब कुछ पथभ्रष्ट लड़कों के सरदार बनकर उभरने लगे ।
सातवीं के बाद मैं उन्हें कानपुर में अपने साथ ले आया और हरसहांय जगदम्बा सहायं हाई स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया । रामबाग में स्थित यह स्कूल काफी अच्छा माना जाता था ,पर मिडिल स्कूल में अंग्रेजी न होनें के कारण उन्हें सातवीं में भर्ती किया गया । वे अक्सर चमन गंज स्थित मन्नी लाल वकील के घर जाने लगे और छोटे बबुआ के साथ वहीं पर कई -कई दिन रुक जाते । वे जब कमरे में आते तो मेरे पूछनें पर वे बताते कि छोटे बबुआ पढ़ाई में उनकी मदद कर रहे हैं और उनके मकान पर काफी जगह है , इसलिये मैं उनकी चिन्ता न करूँ । पर ,मुझे उनके रंग ढंग में बदलाव लगनें लगा । वे नयी चाल की सिन्थेटिक धागे की कमीजें ,तंग पतलूनें और भारी जूतों में कुछ अतिरिक्त लम्बे लगते और मैं समझ नहीं पा रहा था कि खाना और कपड़ा जब वे कमरे में रहकर नहीं ले रहे हैं तो इसकी व्यवस्था कहाँ से हो जाती है । मैं अपनी पढ़ाई , अध्यापन और परिवार की चिंताओं में स्वयं इतना व्यस्त था कि इस ओर अधिक ध्यान देनें का समय नहीं निकाल पाया । फिर मैं उनसे बड़ा ही कितना था -मात्र दो ढाई वर्ष और वे कद काठी में मुझसे बड़े हो चले थे । कई बार मेरे मन में खुशी होती कि दूर के रिश्ते के एक वकील के घर का वे सहारा पा गये हैं और निश्चय ही कुछ बन जायेंगें ,पर किशोरावस्था से कच्ची तरुणाई की ओर बढ़ते हुये पितृविहीन बालक का कानपुर जैसे निकृष्ट शहर में विकास की ओर बढनें का सपना एक छलना ही साबित हुआ । वे धीरे -धीरे मारपीट ,दादागीरी और जबरदस्ती पैसा छिना लेने की असामाजिक गतिविधियों में फंसते गये और परोक्ष रूप में छोटे बबुआ से इन कामों के लिये उन्हें दाद मिलती रही । किसी प्रकार वे अँग्रेजी सातवीं पास कर आठवीं में आये और मुझे लगा कि शायद वे रास्ते पर चल निकलेंगें । कक्का का स्वर्गवास हुये एक वर्ष हो चुका था । घर की पिछली दो तिदवारियाँ बैठ चुकी थीं । अगली एक तिंदवारी भी टपकने लगी थी । कच्ची मिट्टी की दीवारें और छतें बिना देख रेख के बरसात की मार कैसे झेल पातीं । माँ चिन्तित थीं ,पर मार्ग क्या था ?व्याज देनें पर भी कर्ज का मूलधन ज्यों का त्यों खड़ा था और खेतों का गिरवीं होना समाज में परिवार की इज्जत का गिरवीं होना जैसा था । सम्भवतः मैं ग्यारहवीं परीक्षा के बाद बारहवीं परीक्षा के निकट पहुँच रहा हूँगा ,जब माँ नें मुझे बताया कि वे मुझे व्याह के बन्धन में बांधना चाहती हैं । अभी मैं सत्रह पर कर अठ्ठारहवीं में गया था और आज के क़ानून के मुताबिक़ मेरा व्याह एक गैर कानूनी प्रक्रिया थी । पर उन दिनों कुलीन घरानों में भी तेरह चौदह वर्ष की लड़की तथा सत्रह -अठ्ठारह वर्ष के लड़के का विवाह समाज की पूरी स्वीकृति पाता था | कामरेड मिराजकर और कामरेड यूसुफ और कामरेड कालीशंकर के सम्पर्क में रहकर मैं नर -नारी की समानता की बात सीख चुका था । और शादी में लड़के की नीलामी के सख्त खिलाफ था । मैनें माँ से यह बात कही । वे खूब हँसीं ,शायद मेरी नासमझी पर या मेरी दलील की खोखली आदर्श परस्ती के कारण । जो हो ,उन्होंने कहा कि उन्हें दहेज़ नहीं ,एक अच्छी बहू की तलाश है । उन्होंने बताया कि जो सज्जन एक वर्ष पहले कानपुर में मिलनें आये थे ,उन्हींकी सबसे छोटी लड़की पत्नी के रूप में मेरे लिये प्रस्तावित की जा रही है । मैनें बहुत बार मना किया कि मुझे पढ़ाई करनें का पूरा मौक़ा दिया जाये ,पर माँ नें कहा बगल में रहने वाले चाचा के परिवार के लोग कभी मकान में पड़े हुये बेड़े को लेकर और कभी घर की बर्बादी को लेकर कोई न कोई टंटा उठाते रहते हैं ,रिश्तेदारी हो जायेगी तो उन्हें कुछ सहारा होगा । लड़की के दो भाई हैं ,बाप हैं और चाचा हैं । पिता सरकारी नौकरी में हैं और चाचा भी किसी बैंक में हैं । घर में खेतपात हैं और रूरा के प्रतिष्ठित परिवारों में से एक हैं । साथ ही सुठियायँ के मिश्र हैं जो बड़े कुल वाले माने जाते हैं । उन्होंने कहा कि मैं चाहूं तो लड़की को देख आऊँ । पर मैनें कहा कि मैं शादी करूँगा ही नहीं । वे बोलीं तुम मत करना ,पर मैं लड़की तो देख आऊँ । कुछ माह बाद किसी छुट्टी पर गाँव जाने पर माँ नें बताया कि वे लड़की देख आयी हैं । इस बीच शायद मैं छमाही परीक्षा में कुछ अधिक अच्छे पेपर कर सका था । परीक्षा के बाद कुछ दिनों की छुट्टियाँ थीं । छुट्टियों के बाद जब मैं कक्षा में पहुँचा तो मेरे साथियों नें मुझे बधाई दी । नागरिक शास्त्र के अध्यापक कक्षा में आये और बोले कि विष्णु नारायण ,तुम नागरिक शास्त्र का सवाल हल करते हुए भी साहित्य रचना करनें लगते हो । ऐसा मत किया करो । साहित्य की भाषा में कई अर्थ निकलते हैं ,पर सामाजिक शास्त्रों की भाषा अपनें मूल अर्थों से जुडी रहनी चाहिये । फिर उन्होंने मुझे शाबासी देते हुए कहा कि मैनें परीक्षा में सर्वाधिक अंक पाकर एक प्रशंसा का काम किया है । अँग्रेजी अध्यापक सुभाष चन्द्र बोस की भारतीय राष्ट्र सेना के तीतर -बितर होने पर उससे निकल कर जीविका की तलाश में कानपुर पहुंचे थे । वे अपनी वंश परम्परा में एक हिन्दुस्तानी पिता और बर्मी माँ के पुत्र थे । उन्होंने शायद कोहिमा से अँग्रेजी में एम ० ए ० किया था । कैसे और किस सम्बन्ध के कारण मेरे कालेज में अँग्रेजी पढानें हेतु नियुक्त किये गये ,यह मैं नहीं जानता ,पर वे अँग्रेजी को अँग्रेजी में पढ़ाते थे । उनका उच्चारण विशुद्ध और व्याख्या पद्धति अत्यन्त प्रभावशाली थी । वे कालेज में मात्र डेढ़ -दो वर्ष रहे और फिर वे मणिपुर की किसी उच्च शिक्षण संस्था से जुड़ गये थे । उनकी शाबासी मेरे लिये एक संग्रहणीय धरोहर बनी रही और उसके कारण मैं एक छोटा -मोटा हीरो बनकर विद्यार्थियों की आँखों में उभर गया था । इसका एक अतिरिक्त फायदा यह भी हुआ कि राष्ट्रीय विद्यालय के प्रबन्धक -प्राचार्य नें मेरे ऊपर अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी डाल दी । न केवल हाई स्कूल की बल्कि इण्टर कक्षाओं की भी । तो ,माँ नें मुझे जब लड़की देखने की बात बतायी तो मैनें उत्सुकता वश जानना चाहा कि उन्होंने कैसे और कहाँ लड़की को देखा और उन्हें वो कैसी लगी । कानपुर देहात जनपद के मैथा प्रखण्ड ब्लाक के प्राईमरी स्कूलों की एक खेल कूंद प्रतियोगिता रूरा में आयोजित की गयी थी । इसमें दौड़ ,उछल कूंद ,शरीर सन्तुलन ,गृह कार्य जैसी अनेक प्रतियोगितायें दो तीन उम्र श्रेणियों के अनुसार नियोजित की गयी थीं । माता जी भी तीसरी ,चौथी और पांचवीं कक्षा की खेल प्रतिस्पर्धा में भाग लेनें वाली लड़कियों के साथ रूरा गयी थीं । तीन दिन के कैम्प का आयोजन था । रूरा की मुख्य अध्यापिका सुखरानी से उनका गहरा मैत्री भाव था और संयोग वश सुखरानी उन्ही सज्जन के घर के पास रहती थीं जो मुझे जमाता के रूप में देखने के लिये आये थे । आस पास के घर काफी बड़े थे और उनके पीछे खुले मैदान थे जिनमें कीकर और बेरो के पेंड़ उगे हुए थे । माँ नें मुझे बताया कि खेलों के पहले दिन सुखरानी नें उन्हें छत पर आने को कहा और पीछे बेरी के पेंड़ के नीचे घुटन्ना और फ्राक पहनें एक तेरह -चौदह वर्ष की लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह वासुदेव मिश्र की लड़की है , जिसकी शादी की बात वे चला रहे हैं । लड़की अरहर की एक सूखी डंडी लेकर बेर नीचे गिरा रही थी और उठा -उठा कर खा रही थी । माँ नें बताया कि उसकी कंजी आँखें और भरापूरा शरीर उन्हें अच्छा लगा । बाद में पांचवीं की लड़कियों की जब तीसरे दिन प्रखण्डीय प्रतियोगिता हुयी तो उसमें वही लड़की सुई डोरा के खेल में प्रथम आयी । सुईयां लेकर दस अध्यापिकायें एक तरफ खड़ी थीं और दूसरी तरफ से दस छात्रायें डोरा लेकर दौड़ीं । उन्हें दूसरे कोनें में आकर सुई में डोरा डालना था और लौटकर प्रारम्भ के स्थान पर पहुँचना था ।
. तीन बार में लगभग तीस लड़कियों नें भाग लिया और हर बार तीन प्रथम आने वाली लड़कियों की नौ की एक टीम बनी । अब इनका मुकाबला शुरू हुआ और इसमें वही लड़की प्रथम स्थान पर रही । शाम के समय ईनाम बटनें थे और वह ईनाम लेकर धोती पहन कर आयी । माँ नें कहा कि उन्हें वह बहुत अच्छी लगी और उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया है कि वे उसे बहू बनाकर घर लायेंगीं । उसके पिता सुखरानी के घर आये थे और शीघ्र ही वे वरीक्षा के लिये आयेंगें । मैनें उनसे दहेज़ की कोई बात नहीं की है । जिसनें लड़की दी ,उससे और क्या माँगना । बात आयी गयी हुयी । अभी जाड़े की समाप्ति थी और इण्टर की वार्षिक परीक्षा में कई माह बाकी थे । कमला के महीनें पूरे हो आये थे और इसी बीच प्रथम प्रसव की तैयारियां हो रही थीं । जीजा जी राशनिंग में कार्यरत थे ,पर सरकार इस विभाग को समाप्त करने की ओर कदम बढ़ा रही थी । कहा जा रहा था कि सभी कर्मचारियों को अन्यत्र कहीं खपा लिया जायेग़ा पर शायद उन्हें बीच के अन्तराल में कुछ दिन काम से अलग होना पड़े । इधर गाँव में घर की हालत और खराब हो रही थी । मुझे आश्चर्य था कि रूरा के वे प्रतिष्ठित सज्जन इस अधगिरे घर के पितृ हींन नवयुवक को अपनी कन्या को सौपनें का मन क्यों बना रहे हैं । शायद वे भी बीस बिस्वा की परम्परा के मानसिक गुलाम हों और इसलिये मेरे घर की अकिंचनता भी काल्पनिक बीस बिस्वा की पारम्परिक समृद्धता से उन्हें सुशोभन लगती हो । मैनें बहुत चाहा कि मैं इस व्याह को नकार दूँ , पर कर्ज से दबी विधवा माँ ,जो नानी बननें जा रही थी ,और जिनका छोटा बेटा उन्हें निरन्तर व्यथा के शूल दे रहा था , को अधिक दुखी करना मेरे मन को न भाया । मैं नहीं जानता कि कब ,कहाँ ,और कैसे वरीक्षा तथा फलदान की रश्म पूरी हुयी । पर हाँ इतना अवश्य जानता हूँ कि मेरी शादी से पहले ही गिरवी रखे खेत छुड़ा लिये गये । यह कैसे सम्भव हुआ यह बात माता जी नें मुझे खुलकर नहीं बतायी । मैं अपनी परीक्षा की तैयारियों में पूरी तरह से जुटा था कि मुझे एक दिन मेरे कमरे पर करीब दस बजे डी ० ए ० वी ० में पढ़ रहे एक लड़के नें आकर बताया कि मेरे छोटे भाई डी ० ए ० वी ० कालेज में पकड़ लिये गये हैं और वे वहाँ के कार्यालय अधीक्षक विद्याधर के कमरे में बिठाल लिये गये हैं । उन्हें इससे पहले कि पुलिस को दे दिया जाये ,उनके अभिभावकों तक मुझे सूचना के लिये भेजा गया है । मेरे बड़े भाई होनें की बात और मेरा पता शायद कार्यालय अधीक्षक को मेरे छोटे भाई नें ही बताया होगा । माँ तो गाँव में थीं और उन तक पहुँचना सम्भव न था । हड़बड़ा कर मैं उठा और अपनें मित्र बालकृष्ण दीक्षित के साथ साइकिल पर बैठकर डी ० ए ० वी ० कालेज के प्रांगण में पहुँचा । मारे शर्म के मैं पानी -पानी हो रहा था । चपरासी से अन्दर खबर भिजवायी और विद्याधर नें मुझे बुला भेजा । उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं किस क्लास में और कहाँ पढता हूँ और मेरा खर्चा कौन वहन करता है । मैंने उन्हें विनम्रता पूर्वक सब कुछ बताया । वे मेरी बात से कुछ प्रभावित से लगे । उन्होंने कहा कि मैं एक अच्छे घर का लड़का हूँ और मुझे अपनें छोटे भाई को गलत रास्ते पर जाने से रोकना चाहिये । उन्होंने बताया कि वह एक साइकिल उठाकर भागते समय पकड़ा गया और उनके पास लाया गया है । मैनें धिक्कार भरी नज़रों से राजा को देखा और कहा कि वे मृत पिता की आत्मा की शान्ति के लिये प्रतिज्ञा करें कि वे कभी असामाजिक और गैर कानूनी काम नहीं करेंगें । विद्याधर जी नें उन्हें छोड़ दिया और वे कालेज से बाहर आकर बोले कि वे अपनें काम के लिये शर्मिन्दा हैं और अब वे छोटे बबुआ के यहाँ जा रहे हैं और शाम तक कमरे में आ जायेगें । प्रभु की कृपा से उस दिन परिवार की इज्जत सुरक्षित रह गयी । पर , प्रभु कृपा पर हमारा अधिकार हमारे कर्मों से ही होता है और अभी शायद हम लोगों को और बहुत कुछ देखना बदा था ।
परीक्षा की तैयारियां समाप्त हुयीं और मैं परीक्षा में बैठा । मानसिक वेग ,आने वाले पाणिग्रहण व्यवस्था में छिपे सामाजिक आघात और टूटे -फूटे घर तथा जीजा की नौकरी की अस्थिरता -सभी कुछ झेलकर परीक्षा में सर्वोत्तम प्रदर्शन करना मेरे लिये सम्भव न हो सका । पर मैं जानता था कि मैं पास तो हो ही जाऊँगाँ और क्या पता प्रथम श्रेणी भी आ जाये । इधर कुछ एक बातें मेरे सन्दर्भ में अच्छी भी घटित हुयीं थीं । परीक्षा से कुछ दिन पहले इण्टर कालेज की कक्षाओं की एक अन्तर प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था । यह भाषण प्रतियोगिता थी । इसमें नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये एटम बम की विभीषिका और उससे उत्पन्न मानव जाति के सम्भावित सम्पूर्ण विनाश पर चर्चा करनें को कहा गया था । इसमें लगभग दो दर्जन से अधिक छात्रों नें भाग लिया था और वे लगभग सभी के सब अध्यापकों द्वारा लिखाये गये भाषणों को रट कर दोहरा रहे थे । कई तो बीच में भूले भी और डेढ़ दो हजार छात्रों के समुदाय के हंसी का पात्र भी बनें ।
मैं हिम्मत करके पहली बार बिना लिखे मात्र मानसिक तैय्यारी के आधार पर बोलनें के लिये खड़ा हो गया था पुस्तकालयों में घण्टों बैठे रहनें की मेरी आदत और विज्ञान तथा टेक्नालाजी में मेरी प्रगाढ़ रूचि के कारण काफी कुछ आंकड़े मेरी पकड़ में थे । हिन्दी मैं अच्छी बोल लेता था और बीच में अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी करने लगा था । जब मंच पर मेरा नाम पुकारा गया तो मुझे घबराहट का एक कम्पन सा हुआ ,पर भीतर की किसी शक्ति नें मुझे तुरन्त सँभाल लिया । मैं क्या बोला ,और कैसे बोला कैसे मंच पर पहुँचा और कैसे माइक तक पहुँचा ,यह सब जैसे स्वप्नावस्था में हुआ हो । जब मैंने अन्त किया तो कई मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही । उस भाषण के बाद मैं विद्यार्थियों में एक प्रकार का छोटा -मोटा विद्वान माना जाने लगा था । मेरे प्रथम पुरस्कार की बात राष्ट्रीय विद्यालय भी पहुँच गयी थी और अब वहां इण्टर में पढने वाली मेरे से बड़ी उम्र की अध्यापिकायें यह चाहने लगी थीं कि मैं उन्हें उनके घर पर अँग्रेजी पढ़ाने का काम ले लूँ । वे सभी सरकारी स्कूलों में स्थायी अध्यापिकायें थीं । इण्टर पास करके फिर स्नातक बनकर और फिर परास्नातक बनकर वे एक के बाद एक ऊँचें वेतनमानों में पहुँच सकती थीं । प्रशिक्षित तो वे थी हीं और साथ ही साथ नौकरी में होनें के कारण उनकी महत्त्वाकांक्षायें उभर आयी थीं । वे सब एकाध बच्चों की मातायें थीं और उम्र में उनसे छोटा होनें के कारण मैं उनके घर में सहज रूप में स्वीकारा जा सकता था । वे मेरी अध्यापन क्षमता को राष्ट्रीय विद्यालय में देख ही रही थीं । कई प्रस्तावों में से चुनकर मैनें तीन घरों में पढ़ाने की व्यवस्था को स्वीकृति दी । कारण यह था कि ये सब अगले वर्ष इण्टर में बैठकर फिर दो वर्ष बाद बी ० ए ० में बैठने की इच्छुक थीं और यदि हो सका तो एम ० ए ० करने की ओर भी उनमें रुझान दिख रहा था । मैनें सोचा कि यह मेरे लिये लगभग चार वर्ष का स्थायी आमदनी का साधन मिल रहा है और मैं ईमानदारी से अपना कर्तब्य निबाहूंगाँ । जो -जो मैं पढता सीखता जाऊँगा ,वो -वो निष्ठा के साथ पढ़ाने का प्रयास करूँगा । राष्ट्रीय विद्यालय के प्राचार्य प्रधान जी नें मुझे यह आश्वासन दे ही दिया था कि जब तक मैं कानपुर छोड़कर बाहर न जाऊँ तब तक उनके विद्यालय का सम्माननीय अध्यापक रहूँगा । खान -पान और पढ़ाई का हम दोनों भाइयों का खर्चा इस आमदनी में आसानी से निकल सकता था और अलग कमरे की व्यवस्था भी चल सकती थी -इस निश्चिन्तता के साथ मैं इण्टर परीक्षा परिणाम के इन्तजार में लग गया । बड़ी बहन कमला की सबसे पहली सन्तान एक बेटे के रूप में उनकी गोद में आयी । माता जी नानी बन गयीं और मैं मामा । कमला के ससुराल पक्ष में उनके ससुर दूसरा विवाह कर अपनी ससुराल में रह रहे थे । वे जीजा जी की शादी में सिर्फ दहेज़ लेने के लिये शामिल हुये थे और सब कुछ बटोर कर ससुराल चले गये थे । ससुर के घर के नाम पर कमला के पास कुछ था ही नहीं और उनकी देख रेख और सम्पूर्ण जिम्मेदारी का भार माँ पर ही था । मुझे ख्याल आता है कि कमला के पुत्र गिरीश के जन्म के कुछ माह बाद वे लौटकर देवनारायण अग्निहोत्री के मकान में रहनें नहीं गयीं । जीजा जी की सहमति से आनन्द बाग़ में अलग रहने के लिये एक किराये का मकान तलाशा गया । यह दो मंजिले पर था और इसमें दो कमरे और एक रसोईं थी तथा पुराने प्रचलन वाली बाल्टी टट्टी थी । मैं राम बाग़ में जिस कमरे में रहता था ,उससे लगभग दस मिनट की दूरी पर यह मकान था और अवकाश के समय वहाँ चला जाता था । मेरे ब्याह को बीते हुये इतनें वर्ष हो गये हैं कि मुझे समय सारिणी का ठीक ध्यान नहीं है । कई बार बच्चों की माँ नें मुझे बताया है कि जब मैनें 11 रहवीं की परीक्षा दी थी तभी मैं व्याह दिया गया था , पर मुझे लगता है कि मैं 12 हवीं की परीक्षा के बाद व्याहा गया । (
. तीन बार में लगभग तीस लड़कियों नें भाग लिया और हर बार तीन प्रथम आने वाली लड़कियों की नौ की एक टीम बनी । अब इनका मुकाबला शुरू हुआ और इसमें वही लड़की प्रथम स्थान पर रही । शाम के समय ईनाम बटनें थे और वह ईनाम लेकर धोती पहन कर आयी । माँ नें कहा कि उन्हें वह बहुत अच्छी लगी और उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया है कि वे उसे बहू बनाकर घर लायेंगीं । उसके पिता सुखरानी के घर आये थे और शीघ्र ही वे वरीक्षा के लिये आयेंगें । मैनें उनसे दहेज़ की कोई बात नहीं की है । जिसनें लड़की दी ,उससे और क्या माँगना । बात आयी गयी हुयी । अभी जाड़े की समाप्ति थी और इण्टर की वार्षिक परीक्षा में कई माह बाकी थे । कमला के महीनें पूरे हो आये थे और इसी बीच प्रथम प्रसव की तैयारियां हो रही थीं । जीजा जी राशनिंग में कार्यरत थे ,पर सरकार इस विभाग को समाप्त करने की ओर कदम बढ़ा रही थी । कहा जा रहा था कि सभी कर्मचारियों को अन्यत्र कहीं खपा लिया जायेग़ा पर शायद उन्हें बीच के अन्तराल में कुछ दिन काम से अलग होना पड़े । इधर गाँव में घर की हालत और खराब हो रही थी । मुझे आश्चर्य था कि रूरा के वे प्रतिष्ठित सज्जन इस अधगिरे घर के पितृ हींन नवयुवक को अपनी कन्या को सौपनें का मन क्यों बना रहे हैं । शायद वे भी बीस बिस्वा की परम्परा के मानसिक गुलाम हों और इसलिये मेरे घर की अकिंचनता भी काल्पनिक बीस बिस्वा की पारम्परिक समृद्धता से उन्हें सुशोभन लगती हो । मैनें बहुत चाहा कि मैं इस व्याह को नकार दूँ , पर कर्ज से दबी विधवा माँ ,जो नानी बननें जा रही थी ,और जिनका छोटा बेटा उन्हें निरन्तर व्यथा के शूल दे रहा था , को अधिक दुखी करना मेरे मन को न भाया । मैं नहीं जानता कि कब ,कहाँ ,और कैसे वरीक्षा तथा फलदान की रश्म पूरी हुयी । पर हाँ इतना अवश्य जानता हूँ कि मेरी शादी से पहले ही गिरवी रखे खेत छुड़ा लिये गये । यह कैसे सम्भव हुआ यह बात माता जी नें मुझे खुलकर नहीं बतायी । मैं अपनी परीक्षा की तैयारियों में पूरी तरह से जुटा था कि मुझे एक दिन मेरे कमरे पर करीब दस बजे डी ० ए ० वी ० में पढ़ रहे एक लड़के नें आकर बताया कि मेरे छोटे भाई डी ० ए ० वी ० कालेज में पकड़ लिये गये हैं और वे वहाँ के कार्यालय अधीक्षक विद्याधर के कमरे में बिठाल लिये गये हैं । उन्हें इससे पहले कि पुलिस को दे दिया जाये ,उनके अभिभावकों तक मुझे सूचना के लिये भेजा गया है । मेरे बड़े भाई होनें की बात और मेरा पता शायद कार्यालय अधीक्षक को मेरे छोटे भाई नें ही बताया होगा । माँ तो गाँव में थीं और उन तक पहुँचना सम्भव न था । हड़बड़ा कर मैं उठा और अपनें मित्र बालकृष्ण दीक्षित के साथ साइकिल पर बैठकर डी ० ए ० वी ० कालेज के प्रांगण में पहुँचा । मारे शर्म के मैं पानी -पानी हो रहा था । चपरासी से अन्दर खबर भिजवायी और विद्याधर नें मुझे बुला भेजा । उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं किस क्लास में और कहाँ पढता हूँ और मेरा खर्चा कौन वहन करता है । मैंने उन्हें विनम्रता पूर्वक सब कुछ बताया । वे मेरी बात से कुछ प्रभावित से लगे । उन्होंने कहा कि मैं एक अच्छे घर का लड़का हूँ और मुझे अपनें छोटे भाई को गलत रास्ते पर जाने से रोकना चाहिये । उन्होंने बताया कि वह एक साइकिल उठाकर भागते समय पकड़ा गया और उनके पास लाया गया है । मैनें धिक्कार भरी नज़रों से राजा को देखा और कहा कि वे मृत पिता की आत्मा की शान्ति के लिये प्रतिज्ञा करें कि वे कभी असामाजिक और गैर कानूनी काम नहीं करेंगें । विद्याधर जी नें उन्हें छोड़ दिया और वे कालेज से बाहर आकर बोले कि वे अपनें काम के लिये शर्मिन्दा हैं और अब वे छोटे बबुआ के यहाँ जा रहे हैं और शाम तक कमरे में आ जायेगें । प्रभु की कृपा से उस दिन परिवार की इज्जत सुरक्षित रह गयी । पर , प्रभु कृपा पर हमारा अधिकार हमारे कर्मों से ही होता है और अभी शायद हम लोगों को और बहुत कुछ देखना बदा था ।
परीक्षा की तैयारियां समाप्त हुयीं और मैं परीक्षा में बैठा । मानसिक वेग ,आने वाले पाणिग्रहण व्यवस्था में छिपे सामाजिक आघात और टूटे -फूटे घर तथा जीजा की नौकरी की अस्थिरता -सभी कुछ झेलकर परीक्षा में सर्वोत्तम प्रदर्शन करना मेरे लिये सम्भव न हो सका । पर मैं जानता था कि मैं पास तो हो ही जाऊँगाँ और क्या पता प्रथम श्रेणी भी आ जाये । इधर कुछ एक बातें मेरे सन्दर्भ में अच्छी भी घटित हुयीं थीं । परीक्षा से कुछ दिन पहले इण्टर कालेज की कक्षाओं की एक अन्तर प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था । यह भाषण प्रतियोगिता थी । इसमें नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये एटम बम की विभीषिका और उससे उत्पन्न मानव जाति के सम्भावित सम्पूर्ण विनाश पर चर्चा करनें को कहा गया था । इसमें लगभग दो दर्जन से अधिक छात्रों नें भाग लिया था और वे लगभग सभी के सब अध्यापकों द्वारा लिखाये गये भाषणों को रट कर दोहरा रहे थे । कई तो बीच में भूले भी और डेढ़ दो हजार छात्रों के समुदाय के हंसी का पात्र भी बनें ।
मैं हिम्मत करके पहली बार बिना लिखे मात्र मानसिक तैय्यारी के आधार पर बोलनें के लिये खड़ा हो गया था पुस्तकालयों में घण्टों बैठे रहनें की मेरी आदत और विज्ञान तथा टेक्नालाजी में मेरी प्रगाढ़ रूचि के कारण काफी कुछ आंकड़े मेरी पकड़ में थे । हिन्दी मैं अच्छी बोल लेता था और बीच में अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी करने लगा था । जब मंच पर मेरा नाम पुकारा गया तो मुझे घबराहट का एक कम्पन सा हुआ ,पर भीतर की किसी शक्ति नें मुझे तुरन्त सँभाल लिया । मैं क्या बोला ,और कैसे बोला कैसे मंच पर पहुँचा और कैसे माइक तक पहुँचा ,यह सब जैसे स्वप्नावस्था में हुआ हो । जब मैंने अन्त किया तो कई मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही । उस भाषण के बाद मैं विद्यार्थियों में एक प्रकार का छोटा -मोटा विद्वान माना जाने लगा था । मेरे प्रथम पुरस्कार की बात राष्ट्रीय विद्यालय भी पहुँच गयी थी और अब वहां इण्टर में पढने वाली मेरे से बड़ी उम्र की अध्यापिकायें यह चाहने लगी थीं कि मैं उन्हें उनके घर पर अँग्रेजी पढ़ाने का काम ले लूँ । वे सभी सरकारी स्कूलों में स्थायी अध्यापिकायें थीं । इण्टर पास करके फिर स्नातक बनकर और फिर परास्नातक बनकर वे एक के बाद एक ऊँचें वेतनमानों में पहुँच सकती थीं । प्रशिक्षित तो वे थी हीं और साथ ही साथ नौकरी में होनें के कारण उनकी महत्त्वाकांक्षायें उभर आयी थीं । वे सब एकाध बच्चों की मातायें थीं और उम्र में उनसे छोटा होनें के कारण मैं उनके घर में सहज रूप में स्वीकारा जा सकता था । वे मेरी अध्यापन क्षमता को राष्ट्रीय विद्यालय में देख ही रही थीं । कई प्रस्तावों में से चुनकर मैनें तीन घरों में पढ़ाने की व्यवस्था को स्वीकृति दी । कारण यह था कि ये सब अगले वर्ष इण्टर में बैठकर फिर दो वर्ष बाद बी ० ए ० में बैठने की इच्छुक थीं और यदि हो सका तो एम ० ए ० करने की ओर भी उनमें रुझान दिख रहा था । मैनें सोचा कि यह मेरे लिये लगभग चार वर्ष का स्थायी आमदनी का साधन मिल रहा है और मैं ईमानदारी से अपना कर्तब्य निबाहूंगाँ । जो -जो मैं पढता सीखता जाऊँगा ,वो -वो निष्ठा के साथ पढ़ाने का प्रयास करूँगा । राष्ट्रीय विद्यालय के प्राचार्य प्रधान जी नें मुझे यह आश्वासन दे ही दिया था कि जब तक मैं कानपुर छोड़कर बाहर न जाऊँ तब तक उनके विद्यालय का सम्माननीय अध्यापक रहूँगा । खान -पान और पढ़ाई का हम दोनों भाइयों का खर्चा इस आमदनी में आसानी से निकल सकता था और अलग कमरे की व्यवस्था भी चल सकती थी -इस निश्चिन्तता के साथ मैं इण्टर परीक्षा परिणाम के इन्तजार में लग गया । बड़ी बहन कमला की सबसे पहली सन्तान एक बेटे के रूप में उनकी गोद में आयी । माता जी नानी बन गयीं और मैं मामा । कमला के ससुराल पक्ष में उनके ससुर दूसरा विवाह कर अपनी ससुराल में रह रहे थे । वे जीजा जी की शादी में सिर्फ दहेज़ लेने के लिये शामिल हुये थे और सब कुछ बटोर कर ससुराल चले गये थे । ससुर के घर के नाम पर कमला के पास कुछ था ही नहीं और उनकी देख रेख और सम्पूर्ण जिम्मेदारी का भार माँ पर ही था । मुझे ख्याल आता है कि कमला के पुत्र गिरीश के जन्म के कुछ माह बाद वे लौटकर देवनारायण अग्निहोत्री के मकान में रहनें नहीं गयीं । जीजा जी की सहमति से आनन्द बाग़ में अलग रहने के लिये एक किराये का मकान तलाशा गया । यह दो मंजिले पर था और इसमें दो कमरे और एक रसोईं थी तथा पुराने प्रचलन वाली बाल्टी टट्टी थी । मैं राम बाग़ में जिस कमरे में रहता था ,उससे लगभग दस मिनट की दूरी पर यह मकान था और अवकाश के समय वहाँ चला जाता था । मेरे ब्याह को बीते हुये इतनें वर्ष हो गये हैं कि मुझे समय सारिणी का ठीक ध्यान नहीं है । कई बार बच्चों की माँ नें मुझे बताया है कि जब मैनें 11 रहवीं की परीक्षा दी थी तभी मैं व्याह दिया गया था , पर मुझे लगता है कि मैं 12 हवीं की परीक्षा के बाद व्याहा गया । (
तथ्य सत्य तभी बनते हैं जब वे आत्म अनुभूति के दायरे से गुजरात हैं । संसार में जन्म और मरण की प्रक्रिया अनवरत ढंग से चलती रहती है और हम निश दिन इसके साक्षी बने रहते हैं । अधिकतर ऐसे अवसर हमारे लिये दार्शनिक प्रश्न ही उठा पाते हैं । किसी अज्ञात शक्ति के प्रति थोड़ा सा नमन भाव और अनिश्चितता की अस्थायी मनोवैज्ञानिक व्याख्या हमें ऐसे क्षणों में उलझा लेती है । पर मृत्यु जब हमारी आत्मा के किसी अभिन्न सगे सम्बन्धी को अपनें घेरे में लेती है तब तथ्य एक सत्य बन जाता है । हम दार्शनिक न बनकर विवश मनुष्य बन जाते हैं और ज्ञान अपस्थान छोड़कर आंसुओं की अर्चना माँगता है । इसी प्रकार परिवार में नये अंकुरण और दैवी योजना हमें विस्मय से अभिभूत कर प्रकृति के सनातन जीवन -धर्मिता के प्रति नमित कर देती है । समय के विषय में एक कल्पना यह है कि वह अभिशापित होनें के कारण निरन्तर गतिमान रहता है और हर्ष -विषाद के प्रति सम्पूर्णतः तटस्थ रहकर अबाधित गति से श्रष्टि को प्रवह मान करता है । हमारे लिये काल की यह अबाधित गति प्रकृति की एक चिरन्तन प्रक्रिया है जो अपनी चिरन्तनता के कारण कई बार हमारा ध्यान तक आकृष्ट नहीं कर पाती । निरन्तरता ही सहजता के रूप में दिनचर्या बनकर हमारे लिये सामान्य क्रिया -कलापों की श्रेणी में आ जाती है । पर कुछ क्षण ऐसे होते हैं जब समय की निरन्तरता व्यक्ति विशेष के लिये रुक सी जाती है और उसे जीवन इतिहास के पन्नों में खो जाना पड़ता है । निरर्थकता के लम्बे आल -जाल में सार्थकता खोजनें का यह सजग प्रयास काल की चिरन्तन गति पर व्यक्ति विशेष के लिये एक विराम चिन्ह लगा देता है ।
लगभग 06 वर्ष का एक बालक ग्रीष्म ऋतु की एक शाम के धुंधलके में अपनें साथियों के साथ खेल कूंद में लगा हुआ था । वह यह तो जानता था कि उसके घर में उसके पिता किसी बीमारी से ग्रस्त हैं और उन्हें देखने के लिये गाँव के वयोवृद्ध वैद्य लालता प्रसाद जी अग्निहोत्री सुबह -शाम घर पर आते रहते हैं पर वह अभी तक मृत्यु की भीषणता के विषय में अनिभिज्ञ था । गाँव के हमउमर बालकों के बीच वह खेल कूंद में लगा रहनें के कारण बीमारी की भीषणता का अन्दाज नहीं कर पा रहा था । सम्भवतः पाँच छः वर्ष की उम्र ऐसी होती है जब मृत्यु की वास्तविकता का एहसास बच्चे के लिये सत्य बनकर नहीं उभरता । खेल -खेल के बीच दौड़ कर आते हुये उसके एक साथी नें खबर दी कि घर में रोना -पीटना प्रारम्भ हो गया है और उसके पिता का निधन हो चुका है । एक अज्ञात भय से ग्रसित होकर जब वह दालान में इकठ्ठा भीड़ में से रास्ता पाकर अन्दर घुसा तो उसनें अपनी माँ को अपनी बड़ी बहन और दो छोटे भाइयों के बीच बैठा हुआ और आर्तनाद करते हुये पाया । वह सहम कर माँ की गोद में छिप जाने के लिये प्रयत्न करनें लगा । माँ के पास बैठी मौसी और बुआ कही जाने वाली स्त्रियों नें उसे गोद में ले लिया । उसने सुना कि वैद्यराज पिताजी को अन्तिम प्रणाम देकर जा रहे हैं । भीड़ बढ़ती ही जा रही थी । गाँव के सभी वयोवृद्ध ,तरुण और आल -बाल वहाँ एकत्र हो चुके थे । वह अपनें पिता के साथ कुछ दिनों से गाँव के स्कूल में जानें लगा था और वह जानता था कि उसके पिता गाँव के मिडिल स्कूल में अध्यापक हैं और लोग उन्हें नमस्कार करते हैं और उनके साथ होनें के कारण उसे बहुत प्यार देते हैं । और उसे यह भी पता था कि उसके पिता अपनें स्वस्थ्य सुगठित शरीर और लम्बे कद के कारण गाँव के प्रमुख पुरुषों में स्थान पा चुके थे । उनकी शिक्षा और उनका चरित्र सभी के लिये प्रशंसा की वस्तु थी । इतना सब जानते हुये भी उसे यह ज्ञान न था कि पिता की मृत्यु के कारण परिवार के जीवन में आ जाने वाला अभाव उसे भविष्य में किन संकटों और संघर्षों में डाल देगा । माँ के पास बैठी स्त्रियां उन्हें सान्त्वना दे रही थीं पर वे मृत पिता के पैरों पर अपना सर रखे अचेत सी हो गयी थीं । उसकी बड़ी बहन और दोनों छोटे भाई भयभीत मृगशावकों की भांति चुप बैठे थे । द्रश्य की करुणामयता सभी का ह्रदय हिला रही थी । 32 -33 वर्ष का एक होनहार नवयुवक जो अपने स्वरूप ,शिक्षा और आचरण के बल पर कानपुर जनपद के शिवली -ग्राम का आदर्श पुरुष बन गया था नियति के क्रूर हांथों से अपनें परिवार से छीन लिया गया । अश्रुओं की धारा और हाहाकार स्वरों के बीच भयभीत बालक फूट -फूट कर रो पड़ा और बुआ ,मौसी की बांहों से छूटकर माँ की गोद में जा बैठा । बच्चों को निकट पाकर माँ का रक्षा भाव जागृत हुआ और उन्होंने बच्चो पर अपने दुलार भरे हाथ से स्पर्श किया । यहीं से उस जीवट की कहानी का प्रारम्भ होता है जो लगभग 65 -70 वर्ष आगे चलकर इतिहास के कई नये अध्याय रच गयी । साहस की इस अदभुत विजय कथा का कुछ ज्ञान आने वाली पीढ़ियों तक पहुँच सके इसलिये 06 वर्ष के उस बालक नें जो आज वार्धक्य के द्वार पर आ पहुंचा है इस जययात्रा को अक्षर वद्ध करने का विनम्र प्रयास किया है । यही उसकी अपनी मां के प्रति श्रद्धांजलि है । आइये प्रारम्भ से ही प्रारम्भ करें ।
2 बड़े होनें पर ये सब बातें मैनें उन्ही की ज़ुबानी सुनी । उनका नामकरण पहले हंसती और बाद में हंसवती क्यों कर हुआ ,वह सब भी विस्तार से सुना । बीसवीं शताब्दी के पहले दशक के आस -पास उत्तर भारत के पांच प्रमुख ब्राम्हण समुदायों का उच्चता की द्रष्टि से भूपतियों द्वारा सम्मानित होना एक इतिहास सिद्ध बात है । ये ब्राम्हण सम्प्रदाय हैं सारस्वत ,गौड़ ,कान्यकुब्ज ,मैथिल और उड़िया । कान्यकुब्जों की ही एक शाखा सरयूपारीण जानी जाती है और कान्यकुब्जों के ही पूर्वज बंगाल में ही सम्भवतः सेन राजाओं द्वारा आमन्त्रित होकर बंग श्रेष्ठता के अधिकारी बनें । कांगड़ा और उत्तर पश्चिम के अन्य समीपवर्ती पर्वत क्षेत्रों में भी कान्यकुब्ज समुदाय फ़ैल कर विस्तृत हुआ । इसी कान्यकुब्ज समुदाय में उन्नाव जनपद के नामी गिरामी बीघापुर शुक्लों के परिवार में उनकी माँ का जन्म हुआ था । कालान्तर में ये सुकुल कानपुर जनपद के शिवली ग्राम में समृद्ध भू भागों और बगीचों के स्वामी बनकर बस गये । बड़े होनें पर उनकी माता धोबिया गोपनाथ मिसरों के घर डुंडवा (शिवली के निकट स्थित ) में ब्याही गयीं । यहां हमें स्मरण रखना होगा कि उस समय कुलीन लड़कियों का विवाह वयः सन्धि प्राप्त करते ही कर दिया जाता था । इसी मिश्र परिवार में अत्यन्त दीर्घकाल तक प्रतीक्षा करने के बाद उनका जन्म हुआ । निसंतान माता -पिता नें लम्बे अन्तराल के बाद उनका अवतरण भगवत कृपा के रूप में स्वीकार किया । जब वे दो वर्ष की थीं तो चेचक की महामारी का प्रकोप आस -पास के ग्रामों में सुरसा विस्तार के साथ फ़ैल गया । घर के घर उजड़ गये और मृत शरीरों को उठानें वाला कोई मुश्किल से मिलता था । आज चेचक का समूल उन्मूलन हो जानें के कारण हम इसकी भीषणता का का अन्दाजा नहीं लगा पाते ,पर शीतला देवी के अभिशाप के रूप में जानी जाने वाली इस महामारी नें भारतवर्ष के न जाने कितनें घर उजाड़े हैं और लाखों चेहरों पर अपनें चिन्ह अंकित किये हैं । वे भी शीतला माता के प्रकोप से ग्रसित हुयीं पर माँ की ही कृपा रही होगी जिसके कारण वे अपनें प्रभावशाली चेहरे व मुख पर कुछ चिन्ह लेकर इस प्रकोप से मुक्त हो गयीं । उनके पिता जो उनके कथनानुसार एक लम्बी कद काठी के शक्तिवान पुरुष थे और जिनके चौथे विवाह की वे अकेली कन्या थीं ,शीतला माँ के प्रकोप से बच गये पर एक वर्ष बाद ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर चले गये । उनकी पहली तीनों पत्नियाँ काफी -काफी दिनों तक उनके साथ रहकर दिवंगत हो चुकी थीं और अब अपनी चौथी पत्नी तथा दैवीय वरदान के रूप में प्राप्त अपनी एक मात्र कन्या को संसार में स्मृति के रूप में छोड़कर वे लगभग नब्बे वर्ष की आयु में परलोकगमन कर गये । पिता के निधन के बाद उनकी माता उन्हें लेकर शिवली ग्राम में अपनें भाइयों के पास आ गयीं । डोंडवा ग्राम का घर सम्बन्धियों के अधिकार में आ गया और खेत भी वहां न रहनें के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की मलकियत बन गये । माता अपनें भाई रतन लाल के साथ शिवली में बस गयीं जहाँ खेलकूँद और बचपन की गलियों से गुजर कर वो 12 वर्ष समाप्त कर 13 वें वर्ष के प्रवेश द्वार पर जा पहुंचीं मामा रतनलाल एक समृद्ध किसान थे और थोड़ा बहुत हिसाब -किताब तथा हिन्दी का अक्षर ज्ञान भी उनके पास था ,पर विज्ञान की बढ़ती प्रगति गाथा से वे बिल्कुल अपरचित थे और अपनें समय के प्रचलित निर्जीव विश्वासों और रूढ़ियों में उनकी गहरी आस्था थी । वे जीवन में इसलिये दुःखी थे क्योंकि भगवान् नें उन्हें दो कन्यायें तो दी थीं ,पर कोई पुत्र नहीं दिया था । ये दोनों कन्यायें भी विवाह के अनेक वर्षों बाद जन्मी थीं । लगभग उसी समय के आस -पास उन्होंने अपनी भांजी का पाणिग्रहण अपनें घर के ही पास एक सुयोग्य पात्र के हांथों करना निश्चित कर लिया था । अक्सर वे मेरे से कहा करती थीं कि वे मेरे पिता के योग्य नहीं थीं ,क्योंकि वे लगभग अशिक्षित और चेचक के दागों से चिन्हित एक ग्राम्य बाला थीं जबकि मेरे पिता उस समय बी ० टी ० पास कर मिडिल स्कूल के अध्यापक हो चुके थे तथा शरीर और मुख सौष्ठव की द्रष्टि से गाँव के सर्वोत्तम व्यक्तियों में मानें जाते थे । वह काल भारतीय नारियों के लिये एक अन्धकार काल ही कहा जायेगा ,क्योंकि उस समय कन्याओं को अपनें पिता की जमीन -जायदाद पर कोई हक़ प्राप्त नहीं था और पुत्रहीन होनें की स्थिति में जमीन -जायदाद के हकदार परिवार के अन्य जन हो जाते थे भले ही वे आचरण की द्रष्टि से दुश्मन कहे जाने योग्य हों । शायद यही कारण था कि उनके मामा रतनलाल पुत्र की अनुपस्थिति में आन्तरिक व्यथा का जीवन जीते रहे और अन्त में हुआ भी यही कि उनके बाग़ और लम्बी -चौड़ी खेती उनकी मृत्यु के बाद उनके दूर के भाई -भतीजों नें क़ानून के बल पर अपनें अधिकार में ले ली । इसकी बात प्रसंग आने पर की जायेगी । अभी तो हम विवाह के अनुष्ठान की प्रक्रिया से गुजरकर सुखद जीवन के उन 12 -13 वर्षों की बात करना चाहेंगें । जो उन्होंने मेरे पिता के साथ साहचर्य में काटे । धोबिया गोपनाथ मिस्रों की बेटी प्रभाकर के अवस्थियों के घर व्याही गयी थी । 18 बिस्वा की मर्यादा लेकर वे 20 बिस्वा के घर में आईं थीं । उन्हें इस बात का सदैव अभिमान रहा कि वे प्रभाकर अवस्थियों के घर की कुलवधू हैं । बड़ा होकर जब कभी मैं उनसे बीघा -बिस्वा या जात -पात की निरर्थकता की बात करता तो वे चुप हो जाती थीं । पर उनके मुंह पर सहमति का भाव नहीं आता था । दरअसल वे जिस काल में वय सन्धि छोड़कर तरुणायी के दौर में आयीं वह काल कान्यकुब्जों के बीच मिथ्या प्रदर्शन और खोखले दंभ्भ का काल था । देश के अन्य भागों में अनेक समुदायों के लोग अंग्रेजी शिक्षा पाकर प्रगतिकी नयी मन्जिलें तय कर रहे थे जबकि कान्यकुब्ज ब्राम्हणों के एक प्रतिशत से भी कम घरों में आधुनिकता को स्फुरित करने वाली वायु मुश्किल से प्रवेश कर पायी होगी । आठ कनौजी नौ चूल्हे वाली कहावत उस समय उडनखटोले पर पैंगें लगा रही थी । कुलीनता का दंभ्भ ,बीस बिस्वा होनें का अभिमान हीनता ग्रंन्थि को छिपाने के लिये एक कामयाब हथियार के रूप में स्तेमाल किया जा रहा था ।
विवाह कर आये हुये घर में उनके ससुर कालिका प्रसाद अवस्थी और उनकी सास भी उपस्थित थीं । तेरह वर्ष की एक लड़की लम्बे घूँघट और पैरों में उलझ जाने वाली धोती पहने हुये गलियों में खेलनें -दौड़नें वाली ग्राम्य कन्या का रूप छोड़कर कुलबधू बन गयी । उन दिनों एकान्त में भी पति से बात करना कुलीनता को साह्य नहीं था फिर सास -ससुर की उपस्थिति से मुक्त उल्लास के प्रदर्शन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । घर बहुत बड़ा नहीं था ,पर इतना छोटा भी नहीं कि उसमें कोई असुविधा हो । बात यह थी कि कई पीढ़ियों पहले का बहुत बड़ा घर अब बढ़ते हुये सगे और चचेरे भाइयों के बीच बंटकर बड़ा नहीं रह गया था । जिस घर में वे आयीं उसमें बीच में दीवाल डालकर बटवारे की प्रक्रिया सम्पन्न हुयी थी । दूसरी ओर उनके ससुर कालिका प्रसाद जी के छोटे भाई दरबारी लाल का परिवार रहता था । गाँव के लोग कालिका प्रसाद को मालिक और दरबारी लाल को लाट साहिब कह कर पुकारते थे । दरवाजे पर गोल चबूतरे के बीच एक बड़ा नीम का वृक्ष था और आगे काफी खुला क्षेत्र पड़ा हुआ था । इस चबूतरे को कोतवाली के रूप में जाना जाता था क्योंकि संभ्भवतः वहाँ बैठकर आस -पड़ोस के झगडे निपटाये जाते होंगें । मालिक और लाट साहिब के पिता पुत्तू अवस्थी ,अपने समय के जाने -माने वैद्य और पहलवान थे । उनकी धाक उनकी मृत्यु के एक लम्बे अरसे के बाद भी आस पास के घरों में स्वीकारी जाती थी । हाँ तो अब हम जीवन कथा के इस प्रसंग को और विस्तार देनें के पहले उनके नामकरण की मनोवैज्ञानिकता को थोड़ा सा खोज लें । माँ नें मुझे बताया कि उनकी माँ उनके पिता की चौथी पत्नी थीं और पहली तीनों पत्नियों से उन्हें कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुयी थी और लम्बी पूजा अर्चना के फलस्वरूप उनका जन्म एक दैवीय वरदान के रूप में लिया गया । किसी गहरी अभिलाषा को जो प्राणों के आर -पार छायी रहती है ,अवधी भाषा में हिंसत कहा जाता है । हिंसत अर्थात सम्पूर्ण मन प्राणों से चाही हुयी कोई कामना पिता ,माता और स्वजनों के लिये उनका जन्म ऐसी ही कामना की पूर्णतः थी ,अतः उन्हें हिंसती कहकर पुकारा गया । मेरे पिता के जीवनकाल में वे हिंसती ही थीं । ,बाद में वे हँसवती कैसे बनीं इस विस्तारण की ओर हम बाद में पढेंगें । घर में नयी बहू के रूप में सामान्य ग्रामीण स्तर के अनुसार सभी सुविधाये उपलब्ध थीं । सरकारी मास्टरी की नौकरी ,घर को चलाने लायक अन्न पैदा करते खेत और फल देने वाले आम -जामुन के वृक्ष यही तो होता है ग्राम्य सम्पन्नता का स्वप्न । यह सब कुछ उनके पास था । एक स्वस्थ्य ,सुशिक्षित प्रबुद्ध पति जो उनको साथ लेकर युग के साथ नयी मंजिलें छूने की साधना में निरत था । (
जिन दिनों की यह बात है उन दिनों ग्राम समृद्धता का अर्थ सीवर लाइन या सेनेटरी पिट से सम्बंधित शौचालयों की व्यवस्था से नहीं जुड़ा था । यह व्यवस्था उत्तर भारत के ग्रामों में तो क्या मुश्किल से किसी शहर में देखने को मिलती होगी । विद्याधर नायपाल ने अपनें बहुचर्चित ग्रन्थ Dark Continentमें भारतीय जीवन पद्धति पर व्यंग्य करते हुए लिखा है कि सारा भारत एक खुला शौचालय है और किसी बन्द स्थान में बैठकर मल विसर्जन की प्रक्रिया भारतवासी को वैसे ही नहीं आती है जैसे किसी जलते हुए बन्द कमरे में घुस जाने की प्रक्रिया । नायपाल नोबेल पुरस्कार विजेता हैं और आधुनिक जीवन शैली के उनके अपने पैमानें हैं पर आधी शताब्दी पहले के भारत में खुले, एकान्त भू भागों और झाड़ -झाखडो की कमी न थी ,जहाँ ग्रामीण नर -नारियां सुबह शाम मानव शरीर की प्राकृतिक आवश्यकतायें पूरी करते थे । अन्तर यह था कि पुरुष अपेक्षाकृत गाँव से बाहर के दूर स्थानों पर नित्य क्रिया के लिये जाते थे ,जब कि स्त्रियाँ नजदीक के रास्ते से हटकर फैले हुये ऊसरों ,बंजरों और खेतों में जाती थी । इसी सन्दर्भ में मुझे एक घटना का स्मरण आता है उन्होंने यह बात मुझे भूत -प्रेतों के किसी प्रसंग के सम्बन्ध में बतायी थी । गाँव के पास ही पक्का ताल नामक स्थान है । जहाँ ताल के अतिरिक्त एक शिव मन्दिर तथा इमली ,बेर ,और पीपल के वृक्ष भी थे पास के खेतों में स्त्रियां सुबह -शाम नित्य कर्म के लिये जाया करती थीं । शाम के समय विशेषतः वे दो चार के समूहों में बाहर निकलती थीं जिसे कनौजी भाषा में शाम 'बहिरे जाना 'कहा जाता है । एक दिन ग्रीष्म ऋतु में शाम नौ बजे के लगभग पेड़ों के पास खड़पड़ की आवाज हुयी और दूर से कोई आकृति हाँथ में कुछ लिये हुये जाती दिखायी पडी । पक्के ताल का आस -पास का स्थान सायंकाल के बाद सूनसान हो जाता था और वहाँ शिवमन्दिर और पेड़ों के साथ जुडी हुयी भूतों ,प्रेतों और चुड़ैलों की अनेक कथायें गाँव में चर्चा का विषय बन गयी थीं । किसी काली ,बाल बिखेरे अंधरे में भयावह लगनें वाली आकृति को दूर से देखकर लगभग तीस चालीस गज की दूरी पर बैठी स्त्रियाँ भय से घबराकर अपना पानी का लोटा बिखेर कर गाँव की ओर तीब्रगति से चल पड़ीं । दिवंगता हंसती नें उन्हें रूकनें के लिये कहा ,पर किसी चुड़ैल का आतंक उन्हें भीतर से कंपकंपा रहा था और वे रुकी नहीं । हिंसती नें हिम्मत नहीं हारी और पीपल के पेंड की ओर बढ़ने का साहस किया । खटपट की आवाज के साथ नीची झुकी डालियाँ हिल रही थीं -कोई था जो शायद उन्हें डराकर भगाना चाहता था । अज्ञात भय से थोड़ा -बहुत डरते हुये भी उन्होंने आगे बढनें का निश्चय किया और तब पाया कि पीपल के पेंड के तनें के एक कोटर में किसी नें दीपक जलाया है और उन्हें देखकर दीपक जलानें वाली काया नजदीक की झाड़ियों की ओर भागी जा रही है । उन्होंने हिम्मत करके पीछा किया और झाड़ियों के पास पहुँचकरदेखा कि काले रंग की एक नंगीं नारी आकृति सहमी बैठी है । उस आकृति के वस्त्र पास ही पड़े थे वे पहचान गयीं कि वह स्त्री कलुआ धानुक की पत्नी जलेबी थी । उनके वहाँ पहुँचते ही जलेबी नें उनके पैरों पर माथा रख दिया और कहा -जिज्जी ,तुम्हें राम की सौगन्ध किसी से बताना नहीं । छः साल शादी के हो गये ,कोई आल -औलाद नहीं । पण्डित राम आसरे के पास गयी तो उन्होंने कहा कि अमावस की रात में नग्न होकर शिव मन्दिर के पास के पीपल के कोटर में एक दीपक जला देना । पीपल देवता तुझे औलाद देंगें । उन्होंने यह सुनकर जलेबी को आश्वस्त किया वे इस राज को किसी को नहीं बतायेगीं । लौट कर आने पर कुछ दूर खड़ी स्त्रियों नें जानना चाहा कि उन्हें कोई दिखायी पड़ा या नहीं । उन्होंने यह कहकर उन स्त्रियों को शान्त कर दिया कि एक बिल्ली थी जो पीपल के कोटरों में अण्डों को तलाश रही थी । यह घटना अत्यन्त साधारण है और मैनें इसे उन्हें किसी नायिका के रूप में चित्रित करनें के लिये उद्धत नहीं किया है । यह घटना मात्र यह संकेत देती है कि विवाह के प्रारम्भिक वर्षो में भी उनके भीतर कहीं कुछ था जो उन्हें खतरों से जूझने के लिये प्रेरित करता था । अभी तक सम्भवतः वह अन्धविश्वासों और ग्राम्य जीवन में स्वीकार की जानें वाली भूत -प्रेतों की बातों से सम्पूर्णतः मुक्त नहीं हुयी थीं ,पर किसी घटना को प्रमाण के आधार पर समझनें ,जाननें का उनका द्रष्टिकोण उन्हें औरों से अलग बुद्धिपरक ग्राम संस्कृति की विकास कड़ी से जोड़ता था शायद यही कारण है कि जीवन के 13 -14 वर्ष सौभाग्य भोगकर और ग्राम्य कुलीनता के शिखर पर पहुँच कर भी उनका विश्लेषक जुझारूपन उन्हें नयी चुनौतियों को झेलने के लिये सक्षम बना सका । मुझे याद है कि उन्होंने अपनें गृहस्थ जीवन की खुशहाली का सरल और सन्तोषपूर्ण वर्णन इन शब्दों में किया था कि उनके घर में सदैव दो दो दुधारू गायें रहती थीं और पसेरियों आम ,कटहल और सहजन के अचार भरे पात्र थे । जिनसे मोहल्ले के सभी घरों से प्रेम व्यवहार हुआ करता था । दाम्पत्य जीवन के तेरह वर्षों में उन्होंने पांच सन्तानों को जन्म दिया । उन्नीसवें वर्ष में सबसे बड़ी पुत्री कमला गोद में आयी और उसके बाद मुझे ईश्वर नें किसी वरदान स्वरूप उनकी कोख में भेजा । तत्पश्चात एक और बालक जो कुछ दिवसों की अल्पायु के बाद ही चल बसा और फिर मेरे छोटे भाई उदय नारायण का जन्म हुआ । मुझे ठीक स्मरण नहीं है पर वे बताती थीं कि उनकी गोद में मेरा एक और छोटा भाई जिसे वे बच्चंना के नाम से पुकारती थीं भी था ,जब मेरे पिता उन्हें छोड़कर गये । उस समय बच्चना सम्भवतः एक वर्ष का था । कब और कैसे वह भी हमसे विलग हुआ ,इसकी स्मृति मुझे नहीं है । पिता की मृत्यु होनें के बाद भी एक बात ध्यान देनें योग्य है कि मेरे बाबा अर्थात उनके ससुर कालिका प्रसाद जी जीवित थे और मुझे स्पष्ट याद है कि वे मेरे हाई स्कूल पास करने के बाद इस संसार से विदा हुये थे । उन्होंने अपनें छोटे भाई दरबारी लाल जी की तरह दीर्घ आयु पायी । दरअसल अब मैं यह जान सका हूँ कि सम्भवतः मेरे पिता मियादी बुखार जिसे मोतीझारा कहा जाता है से पीड़ित हुए थे अपनी असाधारण शारीरिक शक्तियों के कारण प्रारम्भ के दस -बारह दिनों में शरीर को कोई आराम नहीं दिया उन्हें अपनें स्वास्थ्य पर सम्भवतः आवश्यकता से अधिक भरोसा रहा होगा । जब कभी मैं उनका स्मरण करता हूँ तो मुझे सिर्फ एक ही घटना का स्मरण आती है । बचपन में मैं अत्यन्त मनमौजी और खिलाड़ी था । कई बार वे मुझे अपने साथ बाग़ में ले जाते थे ,क्योंकि जब वे स्कूल पढानें जाते तो मैं सोया करता था और जब वे वापिस आते तो मैं हमउम्र लड़कों की खेल मण्डली में घर से बाहर घूमा करता था । शायद इसी कारण कभी कभी रात में सोते समय वे मुझसे कहते थे कि कल मेरे साथ बाग़ चलना ,क्योंकि उनके साथ बाग़ बगीचों में घूमकर मुझे खेल से अधिक आनन्द मिलता था । लगभग 40 फ़ीट लम्बे एक बड़े बाँस के सिरे पर एक टेढी हँसिया बाँध कर वे बाग जाने की तैय्यारी करते । मैं तो उस बांस को पकड़कर सीधा खड़ा भी नहीं कर सकता था । मुझे आश्चर्य होता था कि वे कैसे इतनें लम्बे और वजनदार बांस को खेल खेल में उठाकर कन्धे पर रखकर बाग़ जाते और मैं दो तीन झोलियाँ लेकर उनके पीछे पीछे जाता । बाग़ के दो पेड़ बुन्देला और चकइया अत्यन्त मीठे और रसीले आम देते थे । और फलते भी इतने थे कि जैसे पत्ती -पत्ती में आम उगे हों । ये बहुत ऊँचे और विशाल पेंड थे । बांस की लग्गी से वे ऊँची से ऊँची डाल को उसके मध्य स्थान में फाँसकर हिला देते थे और टपाटप गिरते हुये आमों का अम्बार नीचे फ़ैल जाता । मैं बिनते -बिनते थक जाता पर आम ख़त्म न होते । कई बार उनके कुछ साथी वहाँ इकठ्ठे होकर साथ -साथ आम खाते । मुझे याद है कि गाय और बछड़े आम और आम के छिलके खाते -खाते मुँह फेर लेते थे । मेरे लिये एक छोटी झोली अलग होती थी जिसे उठाकर मैं चल सकता था । बाकी के तीन -चार झोले वे अपनी बाँह में टांग लेते । बाँस को कन्धे पर रखते और पौरुष भरे अपनी कदमताल के साथ घर वापस आते । रास्ते में या द्वार पर मिलनें वाले सभी बच्चों को दो चार आम बाँटते । बस उनकी यही एक स्मृति मेरे मन में अंकित है । और अंकित है उनके महाप्रयाण की अन्तिम छवि जब गाँव के आबाल ,वृद्ध जनित फूट -फूट कर रो रह थे । मैं समझता हूँ कि शायद उचित उपचार न मिलनें के कारण वे असमय हमें अनाथ छोड़ कर चले गये । उस समय तक स्ट्रेप्टोमाइसिन तथा टायफायड की अन्य दवायें भारत में नहीं आ पायी थें । हमारा तो एक साधारण ग्राम्य परिवार था पर मोती लाल की पुत्र वधू कमला नेहरू विश्व की सबसे विकसित चिकित्सा पाकर भी क्षय रोग से उबर नहीं पायी थीं । उस समय तक क्षय रोग का वह उपचार संभ्भव नहीं था जो आज साधारण से साधारण व्यक्ति के लिये भी संभ्भव है और जिसके कारण चेचक व प्लेग की भांति क्षय रोग भी सम्भवतः अपनी अन्तिम साँसे ले रहा है चलते चलते यहाँ प्लेग का भी जिक्र हुआ है और इस सन्दर्भ में एक घटना मुझे याद आती है जिसे मैं लिखना चाहूँगा क्योंकि जीवन गाथा की उलझी भिन्न -भिन्न प्रसंग शाखाओं में वह कहीं मेरी स्मृति से उतर न जाये ।
प्रारम्भ में मैनें अपनें नाना रतन लाल शुक्ल का जिक्र किया है वे अत्यन्त परिश्रमी और औसत से अधिक शारीरिक सामर्थ्य के पुरुष थे । पर जैसा मैं बता चुका हूँ कि वे वैज्ञानिक प्रगति के प्रति सन्देहशील थे ,यह घटना मेरे सामनें घटित हुयी है । शायद मैं उस समय सातवीं ,आठवीं का विद्यार्थी रहा हूँगा । वर्ष तो मुझे याद नहीं पर प्लेग की विभीषका कानपुर जनपद में हाहाकार मचा रही थी । सम्भवतः अन्य जनपदों में भी मृत्यु के जबड़े बाये संहार प्रक्रिया में यह रोग जुटा हो ,पर मैं अपनें गाँव के विषय में ही स्पष्ट रूप से कह सकूँगा । सारा गाँव खाली हो गया था । बस्ती से काफी दूर बागों के बीच छप्पर डाल कर लोग रह रहे थे । कई घरों में जाँघ में गिल्टी निकलकर मृत्यु हो चुकी थी और निरन्तर चूहे मरने के समाचार आ रहे थे कहीं तो एक लाश श्मशान तक जाती और लौटते ही दूसरी लाश रखी हुयी मिलती । संक्रामक रोग होनें के कारण मृतक शरीरों को उठानें वाला नहीं मिल रहा था । गाँव से बाहर दूर के बागों में ही चूहों से छुटकारा मिलनें की आशा थी और इसलिये सारा गाँव सूना पड़ा था । एक नाना रतन लाल थे जो अपनें घर से निकलनें को तैयार नहीं थे । उनकी एक मात्र बेटी हमारे साथ बाग़ में रह रही थी । पर वे निडर भाव से घर में ही सोते । वे कहते कि डरे तो शेर चीते से ,मूसों से क्या डरना । हम सब चिन्तित थे पर वे अपनी जिद पर अड़े थे । इसी बीच उस समय की अंग्रेज सरकार नें टीका लगाने के लिये डाक्टरों का एक दल गाँव -गाँव भेजा । जो भी गाँव में रह रहा था ,सभी को टीका लगना था । नाना रतन लाल नें सुना तो उनकी श्रेष्ठ ब्राम्हण की पवित्रता भावना उन्हें कचोटने लगी । न जाने कौन सा अपवित्र पदार्थ सुई के द्वारा उनकी उच्चवंशीय काया में डाल दिया जाये । सभी को टीका लगेगा -यह सरकारी आदेश था और अँग्रेजी सरकार का आदेश आज के जनतान्त्रिक आदेश प्रक्रिया से अलग किस्म का होता था । उससे बच पाना कठिन था । उसको मानना ही पड़ता था । अब नाना रतन लाल करें तो क्या करें । वे घर छोड़कर बाग़ ,बगीचों की ओर भागे ,पर वहाँ भी लोग उनके होनें का पता बता ही देंगें ,इसलिये वे लगभग दो मील दूर एक लम्बे ताड़ के पेंड पर लंगोट लगाकर चढ़ कर बैठ गये । ऊपर के बड़े -बड़े ताड़ पंखों को शरीर के चारो ओर चिपटा लिया । डाक्टर टोली के आदेश पर न जाने कितनें लोग खोज -खॊज कर थक गये और नाना रतन लाल का कहीं पता नहीं । लोग आश्चर्य करते कि नाना रतन लाल का कहीं पता नहीं । लोग आश्चर्य करते कि नाना रतन लाल कहाँ छिप गये । क्या दुर्योधन की भांति किसी माया सरोवर में डुबकी तो नहीं लगाये बैठे हैं । आखिर डाक्टर टोली सभी को टीका लगाकर चौथे पहर शहर वापस चली गयी । नाना रतन लाल उतरे ,फिर घर आये । रात को नहाये ,ईश्वर भजन किया और हल्का -फुल्का खाकर सो गये । अगले ही दिन उनकी जांघ में गिल्टी निकल आयी । बुबेनिक प्लेग भला किसी को छोड़ता है ?पवित्र किन्तु आधुनिक चेतना से वंचित एक सदाशयी पुरुष की यह करुण कथा भारत के अन्धविश्वासी आल -जाल में फंसे कुलीन समुदाय के लिये एक चेतावनी के रूप में देखी जानी चाहिये । वे मेरे अत्यन्त प्रिय और प्रेरक बुजुर्गों में से थे । मुझे हर्ष है कि उनके द्वारा पोषित मेरी माँ ,सच्चे धर्म और अज्ञान पर आधारित अंधविश्वासों में अन्तर करना जान चुकी थीं । तभी तो उन्होंने निश्चित किया कि घर छोड़कर बाहर निकले बिना परिवार का भरण -पोषण लगभग असंभव सा है । बाबा वृद्ध थे और कुलीनता के आडम्बर में उन्होंने अपनें हाँथ में हल नहीं पकड़ा था । बीस बिस्वा ब्राम्हण और हल ये दोनों उन दिनों की ग्राम्य मान्यता में दो विपरीत ध्रुवों के छोर थे । थोड़ी खेती और वह भी अधिया बटाई पर । उस समय न तो नये किस्म के बीज थे और न ही नयी किस्म की खाद । जमींदार को लगान अलग से देना पड़ता था । लगभग सारा कृषक समाज गले तक कर्ज में डूबा था । प्रेमचन्द्र का गोदान 1935 के आस -पास की रचना है और ये सब बातें भी लगभग उसी दशक के आस -पास की हैं । दिवंगत सुन्दर लाल अवस्थी की पत्नी हिंसती अवस्थी नें निश्चय किया कि कुलीनता और कुल वधू का अर्थ घर की चहारदीवारी में सीमित रहना नहीं है । दिवंगत पति से शक्ति मांगीं कि वे अध्यापिका होनें लायक बन सकें । ककहरा तो जानती ही थीं अब उन्होंने लोअर प्राइमरी पास करने की ठानी पिता के छोड़े हुये भविष्य निधि के पांच सौ रुपये के चांदी के सिक्के उन्होंने सहेज कर रख दिये कि यह रकम बेटी के दहेज़ में काम आ सके । चेतना का वैज्ञानिक रूपान्तीकरण उन्हें इस स्थिति तक नहीं लाया था जहाँ बीघा -बिस्वा बेमानी हो जाते हैं आखिर बीस बिस्वा के घर की बेटी बीस बिस्वा में ही ब्याहनी होगी । इसके लिये दहेज़ हेतु सहेजी गयी रकम के अतिरिक्त और कितना कर्ज लेना पड़े ?चार बच्चों का लालन -पालन अध्यापकी और खेतों की छोटी -मोटी उपज से शायद संभ्भव हो जाये । पर दहेज़ के लिये कुछ अतिरिक्त व्यवस्था तो करनी ही होगी । उन दिनों उत्तर भारत विशेषतः उ ० प्र ० की नारियाँ घर से बाहर नहीं निकलीं थी । विजय लक्ष्मी पण्डित और कमला नेहरू अभी कौतूहल चर्चा का विषय बनीं हुयी थीं । प्राइमरी परिक्षा पास करके प्राइमरी अध्यापिका बननें का सुअवसर उनके हाथ लग गया । शायद इसलिये कि उनके दिवंगत पति जिला बोर्ड के एक सम्मानित और चर्चित अध्यापक थे । और यहाँ से शुरू हुआ स्वावलम्बन की दिशा में एक नया अभियान जिसनें उन्हें हिंसती से हंसवती बना दिया ।
....राजा -रानी खण्डहर के निचले हिस्से में हम सब बच्चे खेलते थे ,पर कहीं -कहीं टूटी -फूटी सीढ़ियों से चढकर एकाध कमरे थे जो मकड़ी के जाले ,चमगादड़ों ,छिपकलियों और विषखांपरों से भरे थे । हम सब वहाँ जानें से डरते थे पर बमभोला कभी -कभी कोनें के कमरे में चला जाता था । काफी देर बाद जब वह आता तो बताता कि उसनें मन्त्र सिद्ध किया है । उस गोधूलि को भी उसने हमें बताया कि उसने मन्त्र के द्वारा एक भूत को जानवर बना कर कमरे में पत्थरों के नीचे दबा दिया है । उसने कहा कि हम सब उसके साथ भूत को देखने टूटी सीढ़ियों पर चढ़कर बिना दरवाजे वाले कमरे की ओर चलें । हम सब शंकालु थे ,पर बचपन की उम्र रहस्यों का भेद जाननें के लिये उतावली रहती है और हम अनमने पाँव से संभ्भल -संभ्भल कर सीढियां चढ़नें लगे । दरवाजे के पास पहुँचते ही अन्दर से एक चमगादड़ फड़फड़ाया और ईंटों के घेरे से एक बिल्ली का बच्चा म्याऊँ करता हुआ उछल भागा । हम सब डरकर सीढ़ियों से उतरकर अपने -अपनें घरों की ओर भागे । बमभोला कहता रहा ,ठहरो -ठहरो ,मेरे पास जादू मन्तर है ,पर हम कहाँ रुकने वाले थे । दौड़ते -दौड़ते मैंने पीछे मुड़कर देखा कि सत्तो का बेटा गुजरिया जो पाँच छः वर्ष का था ,पिछड़ गया है और बमभोला सीढ़ियों से उतर कर आ रहा है । मैं दौड़कर घर पहुँच गया । माता जी ,कमला और राजा पहले ही घर आ चुके थे माँ नें मुझे डांटा कि मैं इधर -उधर खेलकूंद में समय न बर्बाद किया करूँ । मुंशी जी के यहाँ पढ़ाई पर जानें का टाइम हो रहा था । उन्होंने मुझे कटोरी में राब देकर गेंहू की दो रोटियाँ खाने को दीं । हम सबको राब के साथ रोटी खाना बहुत अच्छा लगता था । कितनी बढ़िया दानेदार राब थी वो । आधुनिक कनफेक्शनरी के नाम पर जानी जाने वाली समस्त चीजों को चखकर मैं पूरी ईमानदारी से कहना चाहूंगा कि उस राब जैसा स्वाद मुझे कहीं नहीं मिल पाया । माँ नें बताया कि फूफाजी सिठमरा से आने वाले हैं । यह खबर उन्हें स्कूल में मिली थी । स्कूल में पढने वाली एक लड़की की बुआ सिठमरा में ब्याही थीं । वे अपने मायके कुर्सी आयीं थीं और उन्हीं के द्वारा फूफा गुरु प्रसाद नें यह सन्देशा भेजा था कि वे इतवार को परिवार से मिलनें कुर्सी आयेंगें । यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि मेरे पिताजी की एक बड़ी बहन थीं ,जिनका नाम दुर्गा देवी था । उन्हें बचपन में मैनें एकाध बार घर में देखा था । वे हम सबके लिये ढेर सारे खिलौनें लाती थीं । उनके पति ,हमारे फूफा ,गुरु प्रसाद कानपुर की किसी मिल में काम करते थे । कोई साधारण काम ही करते होंगें ,क्योंकि वे अधिक पढ़े -लिखे नहीं थे । पिताजी की मृत्यु के पहले ही बुआ जी की मृत्यु हो चुकी थी । और वह भी एक कन्या -प्रसव के समय । फूफा की कुछ जमीन सिठमरा में थी और उनका एक भाई वहीं रहता था । वे कभी -कभी कानपुर से सिठमरा आते थे । उनके आने की बात सुनकर मैं बड़ा खुश हुआ और राब -रोटी खाकर मुन्शी जी के यहां पढने चला गया । करीब आठ ,साढ़े आठ बजे हमारे घर के पड़ोस में दाढी बाबा के घर पर कुछ शोर गुल सुनायी पड़ा । मेरी माता जी भी सम्भवतः वहाँ गयी हुयी थीं । मैं लालटेन की रोशनी में गणित के सवाल कर रहा था । उस समय मुझे बुलाने के लिये पड़ोस के लड़के रामू को भेजा गया । मुझे आश्चर्य था कि मुझे क्यों बुलाया जा रहा है । वहाँ जानें पर मैनें देखा कि गुलरिया लेटा पड़ा है और उसके कच्छे में खून के दाग हैं । बमभोले का कहीं पता नहीं है और वह न जाने पड़ोस के किस गाँव में भाग गया है । सभी बच्चों से पूछा जा रहा था कि गुलरिया के साथ कौन था ,पर किसी बच्चे में हिम्मत नहीं थी कि वे बमभोले के खिलाफ कुछ कहते । सभी उसके जादू मन्त्र से डरते । लोगों के बीच मुन्शी जी भी थे । उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि विष्णु सच -सच बताओ ,क्या हुआ था । मैनें जो कुछ देखा था ,सब बता दिया और कहा कि गुलरिया पीछे छूट गया था और बमभोला सीढ़ियों पर खड़ा था । पर उसके आगे क्या हुआ यह मैं नहीं जानता । बमभोले नें गुलरिया को भूत प्रेतों की बात से इतना डरा दिया था कि वह मुँह नहीं खोल रहा था । दाढी बाबा नें मुन्शी जी के पैरों पर माथा रखकर कहा कि बमभोला जब भी घर आयेगा ,उसे वे मुन्शीजी के हवाले कर देंगें । पर घर की इज्जत के लिये वे पुलिस को न बुलावें । आखिकार बबुई वैद्य के इलाज से गुलरिया ठीक हो गया ,पर बमभोला मुझे फिर कभी गाँव में देखने को नहीं मिला । लोग कहते थे कि वह अपनें मामा के पास कैंझरी में रह रहा है और वहीं किसी सर्कस कम्पनी में भर्ती करा दिया गया है । ईश्वर जाने जो भी बात रही हो ।
अगले दिन सुबह आठ बजे फूफा गुरु प्रसाद आ गये । खाने में कुछ अतरिक्त वस्तुयें भी बनायी गयी थीं । चौके में पीढा डालकर उन्हें बिठाया गया और माताजी नें खाना परोसा । वे सिर पर धोती का छोर नीचे की ओर खींचे हुये थीं । गर्मी होनें के कारण उन्होंने हाँथ से पँखा झलना शुरू किया । मैं अभीतक सवर्ण हिन्दू समाज की सामाजिक मर्यादाओं का ज्ञान नहीं कर पाया था । मुझको यह बात समझ में नहीं आयी कि फूफा जी के लिये इन अतिरिक्त सुविधाओं की व्यवस्था क्यों की गयी है । आज बुढापे में प्रवेश करते समय मैं हिन्दू समाज की इस आन्तरिक संरचना से परिचित हो गया हूँ कि किसी घर की स्त्री वरण करने वाला पुरुष भारतीय परम्परा में एक अत्यन्त विशिष्ट अतिथि के रूप में लिया जाता है । फूफा और सलहज का नाता वैसे भी रस भरा नाता माना जाता है और शायद इसीलिये खाते -खाते बीच में कुछ हास्य भरी चुटकियाँ लेते जाते थे । मेरे बाबा बूढ़े हो चुके थे और माताजी को ऐसे किसी नजदीकी रिश्तेदार की आवश्यकता थी ,जो आगे चलकर उनके बच्चों के लिए मदद गार साबित हो सके । कमला मेरे से बड़ी थीं और कुलीन कान्यकुब्ज ब्राम्हण समाज में उन दिनों लड़की के वयः सन्धि प्राप्त होते ही वर की तलाश आरम्भ हो जाती थी । फूफा इस सम्बन्ध में मदद कर सकते थे । मैं भी दो -तीन साल बाद अंग्रेजी स्कूल में भेजे जाने के लिये तैयार किया जा रहा था और ऐसी हालत में कानपुर में ठिकाना होना चाहिये था । फूफा जी के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ता का शायद यही कारण रहा होगा जिसके कारण माँ उन्हें अतिरिक्त आदर सम्मान दे रही थीं । आगे चलकर इन फूफा जी नें दूसरी शादी कर ली थी और तब हमारे सम्बन्ध मधुर नहीं रहे थे ,पर वह बात यथास्थल की जायेगी । कुर्सी में माँ का अध्यापकी जीवन अपनी नियमित दिनचर्या के साथ चलता रहा और वे परिवार की एक शिक्षित सदस्या के रूप में काफी सम्मान पाने लगीं ,पर अभी तक वे प्राइमरी पास ही थीं और उन्हें अपनी तरक्की के लिये लोअर मिडिल क्लास पास करना आवश्यक था । शिक्षिकाओं के लिये विशेष प्रावधान किया गया था कि वे संस्था के बाहर रहकर भी शिक्षिका का कार्य करते हुये भी परीक्षा में शामिल हो सकती हैं । हिन्दी भाषा और धर्म शास्त्रों का माता जी का ज्ञान उनके काम आया । गणित और सामाजिक विज्ञान के प्रश्न उन्होंने तैय्यार किये और वे लोअर मिडिल की परिक्षा उत्तीर्ण हो गयीं । अब प्रश्न उठा कि उन्हें अध्यापन कला की दक्षता हासिल करने के लिये कोई कोर्स करना चाहिये । उ ० प्र ० सरकार नें उन शिक्षिकाओं के लिये जो नार्मल या सीटी का कोर्स नहीं किये थीं तीन महीने का एक ए ० टी ० सी ० या एडिशनल ट्रेनिंग कोर्स सुनिश्चित किया । यह प्रशिक्षण इलाहाबाद में अप्रैल ,मई व जून में सुनिश्चित होना तय हुआ । अब मैं पांचवीं की परीक्षा में बैठने जा रहा था । कमला पिछले वर्ष पांचवीं पास कर चुकी थीं और लोअर मिडिल की तैय्यारी में लगी थीं । कुर्सी में मिडिल स्कूल नहीं था ,इसलिये वे घर पर ही तैय्यारी कर रही थीं । बारहवें वर्ष में प्रवेश करते ही उनमें शारीरिक परिवर्तन के कुछ लक्षण आभाषित होनें लगे थे । मुन्शीजी को मेरे से बड़ी आशायें थीं । वे गाँव के लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उनका लड़का 1942 के आन्दोलन में स्वतन्त्रता सेनानी बनकर कारावास में रहकर वापिस आ चुका था । खद्दर का कुर्ता पाजामा और टोपी में उसका व्यक्तित्व बड़ा सुशोभन लगता था और कुर्सी तथा आस -पास के लोग उसकी रह नुमाई में विश्वास रखते थे । जब मेरा प्राइमरी का रिजल्ट आया तो मैं आस -पास के दस कोसी स्कूलों में शायद सबसे ऊंचाई पर रहा हूँगा क्योंकि मुन्शी जी के सुपुत्र द्वारा सम्मानित किये जाने वाले बालकों में मुझे सबसे पहले बुलाया गया था और मुन्शी जी नें मेरी पीठ थपथपाई थी । पांचवीं पास करके मुझे मिडिल स्कूल में जाना था । मिडिल स्कूल शिवली में था ,कुर्सी में नहीं । माता जी नें तय किया कि मैं और कमला गाँव में कक्का के पास जाकर रहें मैं और कमला वहीं से प्राइवेट लोअर मिडिल क्लास का फ़ार्म भरें ,और मैं शिवली के मशहूर मिडिल स्कूल में छठी कक्षा में भर्ती होकर अपना अध्ययन जारी रखूँ । दस ग्यारह वर्ष का हो जाने के कारण मेरी समझ जीवन संघर्ष के वास्तविक रूप को देखनें की ओर झुक रही थी । माँ से अलग रहना मुझे रुचिकर न लगा । साथ ही मुझे मुन्शी जी की रहनुमाई से भी वंचित होना पड़ा ,पर चारा ही क्या था । आखिरकार अब मैं मिडिल स्कूल का विद्यार्थी था और उन दिनों मिडिल की शिक्षा पूरी करनें के बाद ट्रैनिंग करके मास्टरी मिल जाती थी । माँ नें सोचा होगा कि यदि लड़का आगे न पढ़ पाया तो वे मास्टर तो बनवा ही देंगीं । मास्टर बनना तो मेरे रक्त में था ही ,पर कब कहाँ और किस रूप में इसकी परिणित होगी यह भविष्य के गर्भ में ही था ।
शिवली के मिडिल स्कूल में मेरे प्रवेश के कुछ ही माह बाद मेरी एक मित्र मण्डली का परिगठन हो गया । उम्र की द्रष्टि से अभी मैं तेरह के आस -पास हूँगा ,पर पहली तिमाही में ही आन्तरिक परीक्षा के आधार पर मैं कक्षा में सर्वप्रथम रहा और लगभग हर विषय के प्राध्यापक नें मुझे सराहा । उनकी प्रशंसा से मैं संकोच में भर उठा और जब स्कूल के प्रधानाध्यापक शिव शंकर अग्निहोत्री नें मुझे अध्यापक कक्ष में बुलाकर अपने पिता के नाम को रोशन करने की बात कही ,तो मैं अपनें आँसू न रोक पाया और मैनें उनके चरणों में सिर रख दिया । उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और पितृ स्नेह का वात्सल्य भरा हाँथ फिराया । कक्षा के कुछ अन्य अच्छे विद्यार्थी मेरी सरल अहंकार हींन मनोभावना से प्रभावित हुये और वे मेरे नजदीकी मित्र बन गये । वंश लाल तिवारी ,श्री कृष्ण त्रिवेदी ,अवध बिहारी अग्निहोत्री ,रमा कान्त दीक्षित ,और मुन्नी लाल शुक्ल इनमें प्रमुख थे । आगे चलकर इन सभी नें गाँव के पैमानें से नापने पर अच्छी खासी उपलब्धियाँ हासिल की थी । वंश लाल न केवल अच्छे प्रवक्ता बनें बल्कि अपने समय के प्रमुख जन कलाकारों में स्थापित हुये । उनका जनक या शीरध्वज का धनुष यज्ञ का किया हुआ रोल उ ० प्र ० के कई जनपदों में चर्चित हुआ । अवध बिहारी तहसीलदार बनें । अन्य लोग भी अपने विषय के अधिकारी अध्यापक बनें और अपनें -अपनें जनपदों में प्रतिष्ठित व्यक्तित्व माने गये । पर ये सब बाद की बातें हैं । अभी तो कक्षा छः की शुरुआत थी । उन दिनों मिडिल स्कूल में कक्षा छः ,सात व आठ हुआ करते थे । दीगर भाषा के रूप में उर्दू पढ़ाई जाती थी । अंग्रेजी की शुरुआत उस समय तक मिडिल स्कूल में नहीं हुयी थी । शायद इसीलिये इन्हें वर्नाकुलर मिडिल स्कूल कहा जाता था । शहरों के हाई स्कूलों में उन दिनों पांचवीं- छठी से अंग्रेजी शुरू हो जाती थी ,पर देहातों के मिडिल स्कूलों में अंग्रेजी की जगह अधिकतर उर्दू का ही अध्ययन होता था । मिडिल पास करने के बाद देहात के मिडलची बच्चे शहर के स्कूलों में स्पेशल क्लास में भर्ती किये जाते थे और इस स्पेशल क्लास में अंग्रेजी में उत्तीर्ण होनें के बाद ही उन्हें आठवीं में उत्तीर्ण माना जाता था । शिवली के मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक शिवशंकर, जब मैं कक्षा छः में था ,तभी सेवा निवृत्त हो गये । वे अपनें क्षेत्र में अपनी योग्यता और चरित्र के लिये प्रसिद्ध थे । वे अविवाहित थे और स्कूल के प्रांगण में बनें मुख्य अध्यापक के निवास में रहते थे । उनका मार्गदर्शन हमें मात्र कुछ महीनों का ही मिला ,पर उनकी स्मृति मेरे मन में अभी तक शेष है । मेरे पिताजी उनके जूनियर रह चुके थे और कुछ महीनों में ही उन्होंने मुझे अपना अनुचर बना लिया था । उनके बाद सती प्रसाद जी स्कूल के मुख्य अध्यापक बनें । सती प्रसाद जी शिव शंकर लाल के छोटे चचेरे भाई थे । उनका कद छोटा पर व्यक्तित्व बड़ा सौम्य था । वे एक दबंग मुख्य अध्यापक माने जाते थे और सभी विद्यार्थी उनके अपनें दफ्तर से बाहर निकलते ही शोर -गुल्ल बन्द कर देते थे और पढ़ाई में लग जाते थे । यहाँ मैं यह कहना चाहूँगा कि सन 1945 के आस पास उ ० प्र ० के गाँवों में मिडिल स्कूल का मुख्य अध्यापक एक अत्यन्त सम्माननीय व्यक्ति माना जाता था । मुझे याद है कि वे अपनें जनेऊ में दो तीन चाभियाँ बांधे हुये थे और शाम को जब अपनें घर से बाहर खेत या बगीचों की ओर जाते ,तो उनके चलनें से उन चाभियों में घन घन की आवाज होती थी । रास्तों में या घर के बाहर खुले क्षेत्रों में खेलते हुये बच्चे चाभियों की खनखनाहट सुनते ही भागकर कोनों में या दीवारों के पीछे छुप जाते थे । उस समय तक शिवली का प्राइमरी स्कूल मिडिल स्कूल के साथ ही था और मिडिल स्कूल के मुख्य अध्यापक का रोब रुआब प्राइमरी बच्चों पर भी कायम था । माताजी बरसात के बाद गाँव आयीं और खेतों में होनें वाले ज्वार ,मक्का या दालों की खरीफ की फसल का हिसाब -किताब कुछ दिन तक रहकर कर गयीं । मेरी बहन कमला के लिये लोअर मिडिल में बैठने की किताबें भी वे ले आयीं जिन्हें पढ़कर माता जी नें लोअर मिडिल किया था । जहाँ तक मैं समझता हूँ कि उस समय भी लड़कियाँ फ़ार्म भरकर संस्थागत न होने पर भी इम्तहान में बैठ सकती थीं । कमला के कोर्स में मैथलीशरण गुप्त का एक खण्ड काव्य जयद्रथ वध लगा था । मुझे अच्छी तरह याद है कि जयद्रथ वध की पंक्तियाँ मुझे अपनें सम्मोहन में बाँध लेती थीं । इस खण्ड काव्य के प्रथम पृष्ठ पर ही राष्ट्र कवि मैथलीशरण गुप्त नें रायबरेली जनपद के दौलतपुर ग्राम में जन्में अपनें गुरु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के लिये ये पंक्तियाँ लिखी थी -
"पाई तुम्ही से वस्तु जो कैसे तुम्हें अर्पण करूँ, पर क्या परीक्षा रूप में पुस्तक न यह आगे धरूँ ?"खण्ड काव्य की प्रारभ्भिक चार पंक्तियाँ भी मुझे बहुत भायीं -
"अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है ,
न्यायार्थ अपनें बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है ।
इस तत्व पर ही पाण्डवों का कौरवों से रण हुआ जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ ।
अभी पाँच मई 2003 के आस -पास स्व ० हँसवती देवी के तेरहवीं अनुष्ठान के अवसर पर एकत्रित सगे -सम्बन्धियों के बीच बहन कमला नें प्रसंगवश यह कहा था कि मुझे तो लाला नें पढ़ा दिया था ,वरना मैं लोअर मिडिल की परीक्षा पास न कर पाती । ऐसा कहना एक बड़ी बहन का अपने छोटे भाई के प्रति अत्यधिक लगाव और प्यार के कारण ही हो सकता है । हाँ इतना अवश्य है कि हिन्दी के सम्बन्ध में उनकी कुछ एक जिज्ञासाओं का समाधान करनें का मैं प्रयास करता था । दरअसल कक्षा छः और सात में शिवली मिडिल स्कूल के उन दिनों के हिन्दी अध्यापक प ० उदय नारायण अपनें विषय के अधिकारी विद्वान थे । वे पास के हे गाँव -भैंसऊ से थे और उनका पढ़ाने का ढंग इतना रोचक था कि सारी कक्षा मंत्रमुग्ध सी हो जाती थी । वे बीच -बीच में पुराणों,महाकाव्यों और जनश्रुतियों के रोचक उदाहरण देकर साहित्य रसास्वादन की विद्यार्थी -प्रवृतियों को बढ़ावा देते रहते थे कभी -कभी वे विषय के अतिरिक्त भी काव्य रचना और साहित्य रचना की बातें कर उठते थे । शायद ऐसा रहा होगा कि उनका सजग साहित्यकार उनके अध्यापन के सांसारिक दायित्व के कारण अधिक विकास न पा सका हो और इसलिये वे कक्षा में पढ़ाते -पढ़ाते अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के कुछ नमूनें पेश करते रहते थे । उनका एक दोहा मुझे आज तक याद है जो उन्होंने किसी संग्रह से उठाकर हमें भाषा के अभिद्यार्थ के सन्दर्भ से सम्बन्धित कर एक से अनेक अर्थी बन जानें के सन्दर्भ में सुनाया था । एक पण्डित जी वैद्यकी भी करते थे और पत्रा भी देखते थे अर्थात ज्योतिष की प्रक्रिया में भी पारंगत थे वे इतनें चर्चित हो गये थे कि अंग्रेजी कवि गोल्डस्मिथ के स्कूल मास्टर की भाँति वे बहुत माने जाते थे । उनके पास दवाओं और भविष्य की जानकारी के लिये जिज्ञासुओं की भीड़ लगी रहती थी । एक बार एक स्त्री का पति परदेश गया था वह स्त्री पंक्ति में काफी देर से खड़ी थी ,यह पूछने कि उसका रूठा हुआ परदेसी पति कब आयेगा । दूसरी तरफ दूसरी पंक्ति के प्रारम्भ में एक माँ छः सात वर्ष के बच्चे के साथ खड़ी थी ,जिसे लम्बे अरसे से दस्त व बुखार से गुजरना पड़ रहा था । दोनों स्त्रियों नें उतावली के साथ अपनी -अपनी समस्या का निदान माँगा । पण्डित जी नें एक दोहा दोनों को दे दिया जो इस प्रकार है -
ककिर पाथर तार ,जामन फलसा आँवला
सेब कदम कंचनार ,पीपल रत्ती तून तज ।
अब विज्ञजन ही इस दोहे के दोनों अर्थ निकालनें का प्रयास करें । मैं चाहूंगा कि वे थोड़ी देर के लिये अपनें मष्तिष्क पर दबाव डालकर मात्रायें इधर -उधर कर और द्विअर्थक शब्द के अर्थ अभिप्रेत से दोनों स्त्रियों की समस्याओं का असरदार निदान सिद्ध करनें का प्रयास करें । प ० उदय नारायण की शाब्दिक मर्मभेदिता का थोड़ा बहुत प्रसाद मुझे अपने जीवन में मिल सका ,इसके लिये मैं उनका ऋणी हूँ । कमला अब कुछ बड़ी होनी लगी थीं और लड़की को सयानी होते देखकर अम्मा के चेहरे पर चिन्ता की रेखायें घनी होनें लगी थीं । बीस बिस्वा प्रभाकर के अवस्थियों की लड़की बीस बिस्वा कान्यकुब्जों के घर में ही व्याही जा सकती थी । वर तलाश का दौर आरम्भ हो चुका था जो कई वर्षों तक चला । कहीं खोर के पाण्डेय ,कहीं बाला के शुक्ल ,कहीं श्रीकान्त के दीक्षित ,कहीं चट्टू के तिवारी -जहाँ कहीं किसी सोलह सत्रह वर्ष के लड़के की खबर मिलती ,माताजी की टटोल निर्णय की दिशाएँ तलाश करने लगतीं ।
.. शादी हुयी थी ,पर पत्नी की मृत्यु हो चुकी है । वह लड़का एअरफ़ोर्से में एअरमैन बनकर चला गया था ,पर युद्ध समाप्ति के बाद वापिस आ गया है और राशनिंग विभाग में इंस्पेक्टर पद पर है । लडके के पिता नें कई सन्तानों के बाद भी दूसरी शादी कर ली है और वे अपनी ससुराल में रहते हैं । लड़के की बहिनें ब्याही जा चुकी हैं और छोटा भाई उसी के साथ रहता है और अर्ध सरकारी संस्थान में काम करता है । माँ नें मेरे भावी जीजा जी देखा और वे उन्हें पसन्द आ गये । मुन्नी लाल नें लड़के के पिता अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी को बुलावा दिया । उन्होंने कहा कि वे एक हजार चाँदी के नगद रुपये लेकर शादी व्याह करेंगें । बाकी खाना -पीना और मड़वे का सामान अलग से होगा । पिताजी मात्र पाँच सौ रुपये छोड़कर गये थे । खानें -पीने की व्यवस्था खेतों से हो भी जाये , तो भी साज -सामान ,बर्तन -भाड़े ,कपडे और मान्यों के लिये व्यवस्था कहाँ से हो । और फिर अतिरिक्त पांच सौ चांदी के रुपये कहाँ से लाये जाँय ? बात अटक गयी । एक दूसरा लड़का भी देखा गया जो गोपाल के तिवारियों का था और प्राईमरी स्कूल में अध्यापक था । वह बिना किसी माँग के लड़की के शरीर सौष्ठव और परिवार के कारण व्याह को तैय्यार था । कमला से छोटा होनें पर भी मैं इस सम्बन्ध के लिये आग्रहशील हो उठा और आर्थिक कारणों से कक्का भी राजी हो गये । पर, पड़ोस की स्त्रियों नें माता जी को बीघा -बिस्वा के चक्कर में डाल दिया । उन्हें कहा गया कि गोपाल के तिवारी सोलह या अठ्ठारह बिस्वा के होते हैं और प्रभाकर के अवस्थियों की बेटी उनके यहाँ नहीं व्याही जा सकती । प्रतिलोम विवाह में कन्यादान करनें वाला स्वर्ग का अधिकारी नहीं होता । असमय विधवा होनें वाली माँ शास्त्रानुसार पहले ही पूर्व जन्मों का फल भोग रही थी और अब काला अक्षर भैंस बराबर वाली पड़ोसी स्त्रियों नें उन्हें अज्ञान के कुहासे में झोकनें की ठान ली । कक्का भी पुरानी व्यवस्था की उपज थे और चिठ्ठी -पत्री व थोड़े हिसाब -किताब के अतिरिक्त आधुनिक चेतना से अनिभिज्ञ थे । परलोक का भय उन्हें भी सता रहा था और फिर नाते -रिश्तेदार क्या कहेगे । और तो और उनके अपनें छोटे भाई भी व्याह में तभी शामिल हो सकेंगें जब लड़की बीस बिस्वा में व्याही जाय । अन्धकार की वीथियों से बच निकलनें का अब कोई मार्ग नहीं रहा । मेरे भावी जीजा जी अपनें एक ममेरे भाई के साथ कानपुर के देव नगर में रहते थे । वे अपनी नयी माँ से सदैव दूर रहे थे ,पर शादी व्याह में पिता की अवज्ञा नये मूल्यों का निर्धारण उनके वश की बात नहीं थी । वे भी उसी व्यवस्था की उपज थे जिसमें पुरुष होना ही सारी नारी जाति से श्रेष्ठ हो जाना होता है । अब क्या था -माता जी नें तय किया कि वे अपनें खेत पांच सौ रूपये में पास के गाँठ -गिरों का काम करनें वाले शंकर दीक्षित के पास रख देंगीं और इस प्रकार शादी सम्पन्न करेंगीं । ऊपर के सामान के लिये कुछ अपनी कमायी से और कुछ सह -शिक्षिकाओं से जोड़ -तोड़ कर पैसे का इन्तजाम किया । मुझे ठीक याद नहीं है पर शादी से कुछ पहले ही मेरे स्कूल न जाने की खबर उनके पास आ पहुँची । मेरी आँखों के आगे उनका वह चित्र आज भी ताजा है जब वे रो -रोकर कहती रहीं कि मैनें उन्हें सब बाते क्यों नहीं बतायीं । वे मास्टर द्वितीय चन्द्र के घर जाकर माफी माँग लेती । पर अब तो पहली प्राथमिकता थी लड़की का विवाह करना । अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी अत्यन्त लालची व स्वार्थी व्यक्ति थे। न केवल उन्होंने चाँदी के हजार रुपये हड़प लिये ,मड़वे के नीचे यह नंग नाच भी किया कि सामान उनके मन मुताबिक़ नहीं है । अन्ततः माता जी को शम्भू शुक्ला से दो सौ रुपये और कर्ज लेकर तथा समधी के पांवों पर सिर रखकर अपनी कन्या ब्याहनी पडी । मैं मूक दर्शक बनकर सब देखता रहा । कई बार मेरा मन हुआ कि एक पत्थर उठाकर अम्बिका प्रसाद के सिर पर दे मारूं पर पथभ्रष्ट पुरुष समाज का एक बहुत बड़ा भाग व्यवस्था का समर्थक था और मेरा लड़कपन मेरे आड़े आ रहा था । आखिर मैं था ही क्या -स्कूल से भागा हुआ माँ पर आश्रित आवारा किस्म का लड़का । कितनी बार बुलाये जानें पर भी मैं मड़वे के नीचे पैर पूजने के लिये नहीं गया । हिन्दू समाज के धर्म विधायक ही यह बतायेंगें कि धर्मराज के खाते में मेरा यह कार्य डेबिट या क्रेडिट की किस श्रेणी में रखा जायेगा । मैं अपनी बड़ी बहन को बहुत प्यार करता था । वे मुझसे केवल पौनें दो वर्ष बड़ी थीं और हम दोनों न जाने कितनी बार लड़े -झगडे थे । उन्होंने न जानें कितनी बार मुझे नोचा -घसोटा था और मैनें भी उनके बालों को पकड़कर खींचा था । अब हम बड़े हो गये थे और बहन को घर से बाहर किसी अनिश्चित भविष्य में जाता देखकर मेरा मन फूट -फूट कर रो पड़ा । जीजा के लिये मेरे मन में अश्रद्धा न थी पर सिद्धान्त हीन बुढापे में दूसरी शादी करने वाले पिता के प्रति उनका चुप रहना मेरे मन में उदार आदर का भाव न जगा पाया था । यह तो परमात्मा का लाख -लाख शुक्र ही कहा जायेगा कि मात्र कुछ महीने अपनें ससुर के घर बलहापारा में रहनें के बाद कमला को कानपुर में अपनें पति व उनके ममेरे भाई के साथ रहने का अवसर मिल गया और कुछ वर्षों बाद जीजा जी स्वतन्त्र रूप से गृहस्थी बसाने में समर्थ हो गये ।
हमारा परिवार अब आर्थिक विपिन्नता के दौर से गुजरने लगा । खेतों से कोई अनाज नहीं मिल पा रहा था । माँ के वेतन से प्रति माह अतिरिक्त लिया गया कर्ज व ब्याज चुकाया जाना था । लड़की के घर हर तीज त्यौहार व पर्व पर कुछ न कुछ भेजना सामाजिक विधान था । मेरे लिये कानपुर में पढ़ाई का खर्च जुटाना अब सम्भव न था । राजा अभी गाँव में एकाध वर्ष फेल होकर छठी में ही थे ।इसलिये उनकी पढ़ाई का जुगाड़ चल रहा था । स्कूल व कानपुर से मेरा भाग आना सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पहलुओं का मिश्रण माना जाना चाहिये । सकारात्मक की बात फिर । नकारात्मक इस द्रष्टि से कि मैं गाँव के कुछ बुरी आदतों वाले लड़कों के सम्पर्क में आ गया । उनमें से एक आनन्दी त्रिपाठी जिन्हें आँखों की खराबी के कारण चिपडा तिवारी कहा जाता था मुझे हांथों द्वारा वीर्य स्खलन की प्रक्रिया दिखाकर उनके सुखद अनुभव की बात बतायी । शरीर में ही छिपे किसी आनन्द की बात एक कौतूहल बनकर मेरे मन में जागी । प्रयोग धर्मिता मेरे स्वभाव का ही अंग है और मैनें सोचा कि इस अनुभव से क्यों न गुजर कर देखा जाये । मेरे प्रथम प्रयास में मुझे लगा कि श्रष्टि का अनिवर्चनीय आनन्द मेरी नस नस में भरा है कि मैं तारामण्डल के ऊपर किसी मोहक रोमांचक आकाश गंगा से गुजर रहा हूँ । पर भटकन का यह मार्ग अधिक लम्बा नहीं चला । मैं बता ही चुका हूँ कि मुझे पत्र -पत्रिकाओं व पुस्तकें पढनें की आदत पड़ चुकी थी । मेरे एक मित्र के पिता रघुनन्दन लाल तिवारी कान्यकुब्ज इण्टरमीडिएट कालेज में अंग्रेजी के अध्यापक थे । माता जी उन्हें मामा कहती थीं । मित्र के साथ उनके घर जानें पर मुझे ब्रम्हवर्चस्व द्वारा लिखी हुयी एक पुस्तक ब्रम्हचर्य ही जीवन है ,वीर्य नाश ही मृत्यु है । देखनें को मिली । मैनें आग्रह करके वह पुस्तक पढनें को माँग ली । आज मैं Have lock ellis और Kinsey report पढनें के बाद शायद उस पुस्तक की बातों से सहमत न होऊँ पर उस समय उस पुस्तक का एक एक वाक्य मेरी निर्माणात्मक चेतना पर अपनी छाप छोडनें लगा । मैनें अपनी दुर्बल इच्छा शक्ति को धिक्कारा और अपने को काम के प्रवाह में बहनें वाले कीड़े मकौड़े की श्रेणी में पाकर आत्मग्लानि से भर उठा । यह बड़बोलापन ही होगा कि उस समय मुझे वैसा ही अहसास हुआ जैसा तुलसीदास को रत्नावली की फटकार सुन कर हुआ होगा या निराला को अपनी पत्नी की उन पंक्तियों से जिसमें उन्होंने उन्हें हिन्दी में कुछ कर दिखाने की चुनौती दी थी । पर आत्म तिरस्कार ,आत्मग्लानि और अपनी पतित दुर्बलता से उबरने की प्रवृत्ति को निश्चय ही आज मैं एक उपलब्धि के रूप में लेता हूँ । वह दिन और आज मैंने संयम की बल्गा को अपनें हाथ से कभी नहीं छोड़ा और मन का तुरंग सदैव मेरे इशारे पर ही चला । मनमानी करके वह मुझे कहीं नहीं ले जा सका । अभी जीवन शेष है । सभी महान जान कहते हैं कि अहंकार पतन की पहली सीढ़ी है । इसलिये मैं अत्यन्त समर्पित भाव से मानव चेतना के सजग प्रहरियों के प्रति नतमस्तक होता हूँ जिन्होनें मुझे सृजन के उस सुख को पहचाननें का अवसर दिया जो अतीन्द्रिय है । और यहां से प्रारम्भ होता है मेरे जीवन का वह अध्याय जहाँ एकाध साल बाद मैं माँ के संरक्षण से मुक्त होकर स्वतन्त्र विकास की दिशा में चल पड़ा । जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि रघुनन्दन लाल तिवारी कान्यकुब्ज इण्टर कालेज में अंग्रेजी अध्यापक थे । वे पुरानी ग्राम्य संस्कृति की उपज थे और एम ० ए ० अंग्रेजी होकर भी अपनें कन्धे पर कनस्तर रख कर आटा पिसवा लाते थे । बाद में वे उस कालेज के प्राचार्य भी हुये । वैसे तो वे कानपुर में रहते थे पर गर्मी की छुट्टी में शिवली आ जाते थे । उन्होंने पहले माताजी से मुझे कान्यकुब्ज कालेज में भर्ती करानें की बात कही थी ,पर माँ नें डी ० ए ० वी ० स्कूल की तारीफ़ सुनकर मुझे वहीं भेजा था । अबकी छुट्टियों में जब वे गाँव आये और उन्होंने घर से माँगकर पढी हुयी किताबों की बात सुनी तो उन्होंने घर बुलवाकर मुझे कहा कि मेरे पिता उनके अच्छे दोस्त थे और वे चाहेंगें कि मैं अपने पिता का नाम बदनाम न करूँ । मुझे स्कूल छोड़े एक वर्ष हो चला था । उन्होंने मुझसे कहा कि मैं कान्यकुब्ज कालेज की नवीं कक्षा की प्रवेश परिक्षा में भाग लूँ । उन्होंने हिन्दी व अंग्रेजी के छोटे -मोटे प्रश्न पूछे और उन्हें लगा कि मैं नवीं कक्षा में प्रवेश पा लूँगा । मुझे पता नहीं कि यह सब कैसे और क्यों कर सम्भव हुआ ,पर जब मैनें नवीं कक्षा की प्रवेश परीक्षा की रिजल्ट सूची में अपना प्रथम स्थान देखा तो मैं हतप्रभ रह गया । प्रवेश परीक्षा हिन्दी ,अंग्रेजी व गणित की हुयी थी उनकी अहैतुक कृपा ही मेरे भविष्य जीवन के निर्माण का आधार बन गयी । तय किया गया कि अब मैं कमला के साथ देव नगर में रखा जाऊँगाँ । धनकुट्टी वाला सम्बन्ध लगभग टूट चुका था क्योंकि मेरे प्रति की गयी उपेक्षा माता जी से छुपी नहीं रही थी और वे फूफा के प्रति एक अवज्ञा से भर उठी थीं । जीजा जी के ममेरे भाई देव नारायण अग्निहोत्री जमींदार परिवार से थे और वकील थे । उनका झुकाव वामपन्थी विचारधारा की ओर था । मुझे उनके यहाँ रहनें के कारण ही कामरेड यूसुफ और कामरेड मिराजकर जैसे प्रथम श्रेणी के वामपन्थी नेताओं के सम्पर्क में आने का मौक़ा मिला । इंग्लैण्ड के प्रधान मन्त्री चर्चिल नें दूसरे विश्वयुद्ध में विजय हासिल कर इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया था ,पर वे भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में नहीं थे । इंग्लैण्ड को Mother of Democracyके नाम जाना जाता है । आम चुनाव में चर्चिल की कंजरवेटिव पार्टी बहुमत नहीं पा सकी और लेबर पार्टी विजयी हुयी । मि ० एटली प्रधान मन्त्री चुने गये । ऐसा लगा कि भारत की स्वतन्त्रता का मार्ग कुछ प्रशस्त हो रहा है । अमरीका भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समाप्त होनें की माँग कर रहा था । इधर भारत की आन्तरिक स्थितियाँ भी जन विद्रोह व सैन्य विद्रोह के माध्यम से विस्फोटक हो चुकी थीं । जर्मनी के खिलाफ युद्ध में सोवियत युनियन ,ब्रिटेन ,अमरीका ,फ्रांस -Allied Nation के साथ था , पर बाद में वह अमरीका से अलग पूंजीवादी सत्ता के खिलाफ एक नये खेमें का गठन कर बैठा था । गान्धी जी नें द्वितीय विश्व महायुद्ध में अंग्रेजों का साथ इस शर्त पर दिया था कि वे युद्ध बाद भारत को आजाद करेंगें । पर रूस के मित्र राष्ट्रों से अलग हो जानें के बाद कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया नें युद्ध में मित्र राष्ट्रों का साथ देने का विरोध किया । भारत में इस पार्टी को प्रतिबन्धित कर दिया गया और पार्टी के दिग्गज नेता अण्डर ग्राउण्ड हो गये । इन्हीं में थे बम्बई के मेयर कामरेड मिराजकर व उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेता कामरेड यूसुफ । वे देवनारायण अग्निहोत्री के पास वेश बदल कर रहते थे क्योंकि सम्भवतः वे सी ० पी ० आई ० के सदस्य थे । मेरे जीजा का भी वामपन्थी झुकाव हो चुका था । मेरी बहन कमला उन सब के लिये खाने -पीनें का प्रबन्ध करती थीं क्योंकि अग्निहोत्री की पत्नी गाँव में रहकर जमीन -जायदाद की देख भाल कर रही थीं । ... मुझे याद है कि अखबार लेकर दोनों नेता कई स्थानों पर लाल निशान लगाया करते थे और उन श्रम बस्तियों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते थे जिनमें कम्युनिस्ट विचारधारा फैलायी जा सकती हो । वे अंग्रेजी कम्युनिष्ट विचारधारा का अखबार व अन्य अखबार --स्टैट्समैन /नेशनल हेराल्ड पढ़ा करते थे । वहीं से मुझे अखबार पढनें की आदत पड़ गयी । उन्हें कई बार चाय पीनें व सिगरेट का कश लेनें की आदत थी । वे मुझे सिगरेट का पैकेट ख़त्म होजाने
पर कैप्सटन सिगरेट लाने के लिये दौड़ाते थे । उनके पास विभिन्न प्रकार की पोशाकें थीं । कभी वे मुसलमान बनते तो कभी हिन्दू । कभी महाराष्ट्रीयन बनते तो कभी गुजराती । वे कई भाषायें जानते थे पर अधिकतर अँग्रेजी भाषा में वाद -विवाद करते । वकील साहब भी उनके साथ बैठते । मैं उनकी बातें सुनता रहता -नवीं क्लास का विद्यार्थी था । वे मुझे भी अपनी विचारधारा से जोड़ना चाहते थे । वे कुछ अंग्रेजी ,कुछ हिन्दी ,कुछ मराठी और कुछ गुजराती में बोलते । धीरे -धीरे मैं भी टूटी -फूटी अँग्रेजी बोलनें लग गया और मुझे विश्वास हो गया कि अब मैं डी ० ए ० वी ० स्कूल के अध्यापकश्री द्वितीय चन्द्र जी का नालायक शिष्य नहीं माना जाऊँगा ।
कान्यकुब्ज इण्टरमीडिएट कालेज में कक्षा नौ का रिजल्ट मुझे अध्यापकों की आँखों में सम्मानसूचक भावनाओं के साथ देखनें का आधार प्रदान कर गया । मैं तीन सेक्शनों में सबसे अधिक अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ था इधर घर की हालत बद से बद्त्तर होती जा रही थी । पीछे की ओर तीन तिदवारियां थी जिनमें एक तिंदवारी बैठ चुकी थी । और दूसरी की छत लटक चुकी थी । यह तय था कि वह अगली बरसात नहीं झेल पायेगी । आंगन के आगे का हिस्सा जिसमें दो तिंदवारी ,एक बैठका और चबूतरा था ,अभी तक गुजारे लायक थे । खेतों से कुछ मिल नहीं रहा था और माँ के ऊपर कर्ज का भार तो था ही ,पर साथ ही मेरे कमला के साथ रहने के कारण वे शायद अतिरिक्त उदारता के साथ कमला के यहां सामान भेज रहीं थीं । पर किया ही क्या जा सकता था ? कक्का अब काफी वृद्ध हो गये थे और ऐसा लग रहा था किवे अधिक नहीं चल पायेंगें। राजा कक्षा छः में फेल होते -होते बचे और सम्भवतः अध्यापकों की उदारता के कारण सातवीं कक्षा में भेज दिये गये वे कद काठी में मेरे बराबर हो गये थे और यह सुनिश्चित था कि आकार में वे मेरे से दीर्घ आकृति पायेंगें । मुझे यह कुछ अच्छा नहीं लग रहा था ,शायद इसलिये कि बड़ा होनें के कारण मैं हर बात में बड़ा रहना चाहता था । आज मैं इस नादानी पर हँसता हूँ क्योंकि मैं जान गया हूँ कि हर व्यक्ति प्रकृति की निराली रचना होता है और उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताये बहुत कुछ पूर्व निर्धारित होती हैं । किसी तरह यदि मैं दसवीं की परीक्षा सफलता पूर्वक उत्तीर्ण कर सकूं तो शायद कहीं किसी छोटी क्लास के विद्यार्थियों पढ़ाकर खर्चे का जुगाड़ किया जाये ,इस सम्भावना के साथ मैनें दसवीं में प्रवेश किया । अच्छे परीक्षा फल के कारण मैं फीस के भर से मुक्त था और कुछ पुस्तकें भी गुरुजन कृपा से मिल गयी थीं । वैसे मैं जीजा जी के पास रहकर भार नहीं बना था,क्योंकि मैं घर या बाहर का कोई न कोई काम करता रहता था । कई बार खाना बनानें और घर की सफाई में भी मैं सक्रिय योगदान करता था । मेरे जीजा जी श्री राजा राम त्रिपाठी वैसे हाई स्कूल पास नहीं थे ,पर एअर मैन रहनें के कारण उन्होंने कोई फ़ौजी इम्तिहान पास किया था ,जिसके कारण वे सिविल नौकरी में हाई स्कूल के समकक्ष मान लिए गए थे । वे लगभग पांच फ़ीट नौ इंच के सुगठित जवान थे । उनका चेहरा -मोहरा आकर्षक था ,पर उनके बाल असमय ही खिचड़ी बन गये थे । उन दिनों वे राशनिंग इंस्पेक्टर थे और मैं उन्हें काफी आदर भरी द्रष्टि से देखता था । पर वे अपनें ममेरे भाई देव नारायण अग्निहोत्री से शायद कुछ सहजता से नहीं जुड़े थे क्योंकि मैनें उन्हें कभी वाद -विवाद की चर्चा में शामिल होते नहीं देखा । आगे चलकर वे जयपुर में रहनें वाले एक मौसिया के शिष्य बन गए थे और आजीवन दो -दो घंटों की पूजा करके किसी अद्रश्य शक्ति की खोज में लगे रहते थे । उनके मौसिया जयपुर के राजघराने में शायद कभी पुरोहित रहे हों और ऐसा माना जाता था कि उन्हें माता कात्यायिनी की सिद्धि प्राप्त है। इसी बीच हाई स्कूल परीक्षा निकट आ गयी । जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि मुझे कक्षा की किताबे पढनें के अतिरिक्त लायब्रेरी की किताबे पढनें का गहरा शौक लग गया था । देवनागर से मेरा स्कूल चार पांच किलोमीटर से कम क्या होगा । पैदल आते जाते मुझे मार्ग में पड़ने वाले सभी पुस्तकालयों का पूरा ज्ञान हो गया । छुट्टियों में मैं गया प्रसाद व मारवाड़ी लायब्रेरी जाता ही रहता था । उस समय मुझे यह बताया गया था कि ज्ञान का जितना अधिक विस्तार पाया जा सके उतना ही अच्छा होता है और उसका सम्बन्ध परीक्षा अंकों के साथ नहीं होता । जैसे -जैसे मैं बड़ा हुआ और शिक्षा जगत से जुड़ा वैसे -वैसे मुझे इस ठोस सत्य का ज्ञान होनें लगा कि परीक्षा अंकों की भी अपनी अहमियत है और उसे दार्शनिकता के चश्मे से नहीं देखना चाहिये । अच्छे अंकों की उपलब्धि के लिये एक सुनिश्चित अध्ययन योजना और चयनित प्रश्नों की तैयारी कहीं अधिक लाभ प्रद होती है अपेक्षाकृत दूर विस्तार वाले अध्ययन के ,जहाँ लक्ष्य की सुनिश्चितता नहीं होती है । परीक्षा में बैठनें के बाद मुझे लगा कि मैं बहुत अधिक जानता था ,पर जानकारी की बहुलता मेरे लिये एक निश्चित अवधि के कारण सहारा न बनकर व्यवधान बन गयी । खैर परीक्षा समाप्त हुयी रिजल्ट जैसा भी हो स्वीकारना ही होगा । उस समय भी मुझे यह वाक्य अन्तर्शक्ति लेकर झकझोरता था -"कर्मण्ये वाधिकारस्ते ,माँ फलेषु कदाचन "आज मैं जानता हूँ कि गीता का यह सन्देश जीवन और समाज के बड़े कामों के सन्दर्भ में कहा गया है । पर उस कच्ची उम्र में मैं उसे अपनी छोटी सी स्कूली परीक्षा के साथ जोड़कर देख रहा था । इधर कानपुर में ममेरे भाई के साथ रहते हुये जीजा जी के साथ रहकर मेरी बहन को शायद पूरी स्वतन्त्रता के साथ रहनें का सुख नहीं मिलरहा था । घाटम पुर के बलहापारा में अग्निहोत्री जी का बहुत बड़ा परिवार था । कोई न कोई आता ही रहता । कई बार उनकी पत्नी आ बैठती । कमला पर काफी बोझ पड़ रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था कि यह व्यवस्था अधिक दिन नहीं चल पायेगी और जीजा जी को कोई न कोई अन्य व्यवस्था करनी होगी । इस बीच में मैनें पाया कि वे कई बार कुछ दिनों के लिये मानसिक रूप से विक्षिप्त हो उठते थे । वे क्रिया -कलापों में बुद्धि संगत जोड़ -तोड़ नहीं रख पाते थे और गुमसुम पड़े रहते थे । अग्निहोत्री जी की पत्नी नें बहन कमला को एकाध बार इशारा किया कि उन्हें कोई हवा -बैहर लग गयी है और कात्यायिनी की सिद्धि प्राप्त मौसिया जी के पास ले जाना उचित रहेगा समय अबाध गति से चल रहा था चलता ही रहा है और चलता ही रहेगा । माँ के सामनें सबसे बड़ा प्रश्न था सातवीं की परीक्षा के बाद राजा को कानपुर में रखनें की व्यवस्था हो ताकि वे आगे पढ़ सकें । वे अब उद्दण्ड हो गये थे और उनकी शरारतों की कहानियाँ माँ के नाक में दम कर रही थीं । यदि खेत किसी तरह से गिरवीं हुये बन्धन से मुक्त कर लिये जांयें, तो शायद पढ़ाई के खर्चे की कुछ गुंजाइश बन सके । व्याज तो खेतों की उपज के रूप में चुक रहा था ,पर पांच सौ चान्दी के रुपये कहाँ से आयें । परिस्थितियों की मजबूरी नें माँ को यह सोचनें पर विवश किया कि जिस प्रकार दहेज़ की अनिवार्यता नें खेतों को बन्धक करवाया है वैसे ही बड़े लडके की जल्दी शादी करके दहेज़ लेकर खेतों को मुक्त कराया जाये । हाई स्कूल का परिणाम आ गया और मैं 500 में से केवल 299 अंक पा सका । यदि एक अंक और मिल गया होता तो प्रथम श्रेणी तो हो ही जाती ,पर प्रकृति नें अपनी निर्माण प्रक्रिया में मुझमें कुछ ऐसी खामी भर दी है कि मैं चोटी पर पहुंचते -पहुंचते फिसल ही जाता हूँ । यह मेरी आदत नहीं रही है कि मैं अपनी असफलता को बहानों के पैबन्दों से बांधता चलूँ । मैं हमेशा यही कहता रहा कि मुझे उच्च द्वितीय श्रेणी ही मिल पायी है । कालेज के अध्यापक तो मुझे जानते ही थे। इसलिये 11 रहवीं कक्षा में प्रवेश में मुझे परेशानी नहीं हुयी और उनकी कृपा के कारण मेरा अध्ययन शुल्क माफ़ हो गया ।
भारत आजाद हो चुका था ,पर अभी तक गणतन्त्र नहीं बना था । 15 अगस्त 1947 को यूनियन जैक का झण्डा उतारकर तिरंगा फहराया गया था और राज गोपालाचारी भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने थे । निष्पक्ष व्यस्क चुनावों के बल पर जो कि भारतीय संविधान का मूल तत्व स्वीकार हुआ था 26 जनवरी 1950 को एक सार्व भौम भारतीय गणराज्य की स्थापना होनें वाली थी । नेहरू जी की अँग्रेजी वक्तृताओं को मैं काफी कुछ समझनें लगा था और स्वतन्त्र भारत में एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व के रूप में अपने को विकसित करनें की कल्पना मेरे मन में हिलोरें ले रही थी । यद्यपि गांधी जी हमारे बीच नहीं रहे थे ,पर उस महामानव द्वारा जलायी गयी ज्योति का प्रकाश बुझा नहीं था । उनके द्वारा तराशे गये नवरत्न अभी हमारे बीच थे और उनका समर्थतम शिष्य देश की अगुवाई कर रहा था । गान्धी जी के निधन पर नेहरू जी की कही हुयी पंक्तियाँ जो इतिहास की अमर धरोहर बन गयीं हैं -The Light has departed.को समझनें की क्षमता हाई स्कूल पास करने के बाद मेरे में आ गयी थी । आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर विश्व के कोटि -कोटि जन रो पड़ते हैं । कक्षा 11 में प्रवेश होते ही शिवली गाँव के पास के एक कस्बे रूरा से एक सज्जन मेरे पास आये जो अपनी कन्या के लिए वर की तलाश में थे । .
. इसी बीच एक अच्छी घटना मेरे जीवन में घट चुकी थी । कानपुर के आनन्द बाग़ के कुछ कमरों में अवध बिहारी प्रधान एम ० ए ० ,एल ० टी ० नें एक स्कूल चलाया था जिसे राष्ट्रीय विद्यालय की संज्ञा दी गयी थी । इस विद्यालय में मुख्यतः वे ही पंजाबी लड़के -लडकियां सायं कालीन कक्षाओं में आते थे जो भारत विभाजन के शिकार बनें थे और सरकार नें उन्हें प्राइवेट रूप से परीक्षा पास करनें की अनुमति दी थी । हुआ यह कि शिवली के राम अवतार शुक्ला जो पाना के छोटे भाई थे और जिनके छोटे भाई बबुईया से गाँव में मेरा काफी मेल -जोळ था ,नें मुझे राष्ट्रीय विद्यालय में एक हिन्दी अध्यापक की जरूरत की बात बतायी । राम अवतार नगर पालिका स्कूल में प्राईमरी अध्यापक थे और उन्होंने मिडिल पास करके प्रशिक्षण का कोर्स पूरा किया था । वे स्वयं को हाई स्कूल की कक्षाओं को पढानें में असमर्थ समझते थे । वे मुझे प्रधान जी के पास ले गये । मैं प्रारम्भ से ही धोती -कुर्ता पहनता था और पंजाबी युवक -युवतियों के बीच मेरी वेश -भूषा खप नहीं पा रही थी । साथ ही में मैं अभी अवस्था के द्रष्टिकोण से भी उन्हें परिपक्व नहीं लग रहा था । Qualification की उन्हें चिन्ता न थी क्योंकि जो भी अध्यापक चले जायें और कम से कम पैसे लें ,इसकी उन्हें तलाश थी । उन्होंने मुझे एक दो ट्रायल क्लास दी और जब सभी लड़के -लड़कियों की ओर से उन्हें एक स्वर में नव नियुक्त अध्यापक के प्रति आदर और समर्थन सुननें को मिला तो फिर उन्होंने मुझे दो हिन्दी पीरियड के लिये दस रुपये देनें का प्रस्ताव किया । मैनें इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया क्योंकि मैं जानता था कि कक्षा में कुछ युवतियां मुझसे उम्र में बड़ी थीं और स्कूल में अध्यापिकाओं का काम कर रही थीं । और उन्हें अपनी योग्यता बढ़ाने की चिंता थी । ऐसा करनें से उन्हें मिडिल और हाई स्कूल में घुसने का मौक़ा मिल सकता था । उनमें से कई शादी शुदा थीं और उन्हें घर पर पढ़ाने के लिये किसी सरल देहाती अध्यापक की आवश्यकता थी । मैं समझ गया कि दस रुपये के साथ -साथ मुझे और भी परिश्रम की हुयी कमाई का उचित अवसर मिल सकेगा । साथ ही मुझे विश्वास था कि धीरे -धीरे स्कूल में अपनी साख बना लूँगा और शायद एकाध वर्ष में मुझे अंग्रेजी कक्षायें तथा इण्टर पास करनें के बाद इण्टर कक्षाएँ मिल जायें । कुछ आमदनी का प्रबन्ध होते ही मैनें अपना अलग कमरा ले लिया था । शौच के लिये ऊपर जाना होता था ,पर कमरे में पानी का नल लग जाने से सुविधा थी । मैं उसी कमरे में खाना बनानें की व्यवस्था कर लेता था । । एक तख़्त ,एक कुर्सी -मेज ,एक अंगीठी ,कुछ एक बर्तन यही मेरी गृहस्थी हो गयी । खाना बनाकर सब सामान तख़्त के नीचे कर दिया जाता और चौड़ी चादर का ढक्कन डाल दिया जाता । कमरे के ऊपर एक पावा था जिस पर एक Stuffed कौवा रखा रहता था । वह इतना सजीव लगता था मानों बोलनें ही वाला हो और मुझसे मिलने वाले साथी कई बार उसे ताली बजाकर उड़ाने की कोशिश करते थे । कौवे के प्रति मुझे कुछ लगाव हो गया था क्योंकि मेरे जीवन का काफी कुछ हिस्सा मुझे तिरस्कार और उजली पंक्तियों वालों से उपेक्षा के रूप में मिला था । इसी कमरे में जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि रूरा के एक वयोवृद्ध सज्जन मुझसे मिलनें आये । उन्होंने मुझसे पूँछा कि मैं कहाँ पढता हूँ और कैसे अपना खर्च चलाता हूँ । उन्होंने कहा कि वे ऐसे ही मुझसे मिलनें चले आये हैं क्योंकि उनके पड़ोस में किसी अवस्थी की आढ़त की दुकान है और उनका कोई लड़का मेरे साथ पढता है और उसी नें उन्हें मेरे बारे में बताया है । कुछ देर बाद वे चले गये और मैं नहीं जानता कि मेरे बारे में वे क्या धारणा बनाकर ले गये । व्यवस्था कुछ ठीक हो रही थी । मैं छोटे भाई राजा को सातवीं कक्षा पास करनें पर अपनें साथ लाकर रखनें की योजना बना रहा था । उसी बीच एक और झटका लगा जिसनें हम सब को झकझोर डाला । असहायता की स्थिति और दयनीय हो उठी । जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि कक्का की तबियत ढीली रहने लगी थी । वे काफी बुजुर्ग हो गए थे । वे शायद 75 वर्ष के रहे होंगें । वे वयोवृद्ध होनें पर भी हमारे संरक्षण के लिये ढाल का काम करते थे । पिता जी के न रहने पर भी उनके रहते हुए पास -पड़ोस में किसी की मजाल न थी कि हमें कुछ उल्टा -सीधा बोल जाये । उनमें श्रेष्ठ कान्यकुब्ज कुलीन आभिजात्य भावना का उचित आत्मसम्मान था । आस -पास के सभी घरों में उनकी उपस्थिति का यथोचित सत्कार होता था । पर विधि का विधान कहीं टल पाया है । उन्हें दो -तीन दिन बुखार आया । मनिया बनचर की दवा दी गयी । मनिया बनचर मोहल्ले के जड़ी -बूटी विशेषज्ञ के नाम से जाने जाते थे ,पर तीसरे ही दिन कक्का की कमजोरी बढ़ गयी । माँ जो शिवली में ही मुख्य अध्यापिका थीं ,स्कूल से दौड़कर घर आयीं । वे ससुर के चरणों के पास बैठीं । कमला भी उन दिनों घर पर ही थीं । उन्होंने नातिन को आशीर्वाद देनें के लिये हाँथ उठाया ,पर हाँथ उठा का उठा ही रह गया । सनातन धर्मी प्रक्रिया में मृत्यु का आगमन ह्रदय चीर देनें वाला सम्बन्ध विच्छेद बनकर तो आता ही है ,पर साथ ही आर्थिक बोझ का एक अतिरिक्त कारण भी बन जाता है । कर्जे से दबी माँ को निश्चय ही या तो अपनें साथ की अध्यापिकाओं से या परिचित साहूकारों से पैसों की व्यवस्था करनी पडी होगी । बैलगाड़ी करके कक्का को खेरेश्वर में गंगा के किनारे अन्तिम विदा दी गयी । मैं कानपुर से खेरेश्वर पहुँच गया था । राजा गाड़ी के साथ ही थे । और थे साथ में पास -पड़ोस के लोग । तेरहवीं समाप्ति की प्रक्रिया तक मैं घर पर रहाऔर न जानें कितनें विधि -विधानों का मूक द्रष्टा बना रहा , पर मृत्यु की विभीषका भी जीजिविषा की चाह को समाप्त नहीं कर पाती और जीवन फिर अपनी सामान्य गति पर चलनें लगा । .
कक्का का साया उठ जानें के बाद राजा उर्फ़ उदय नारायण और अधिक स्वतन्त्र हो गये । गाँव के बागों से चुपके -चुपके आम तोड़ लाना तो शायद क्षम्य हो सकता था ,पर उनकी कुछ अभद्र छेड़खानी भी चर्चा में आने लगी । पैसे का अभाव तो था ही और वे कुछ सम्पन्न घरों के लड़कों की होंडा -होड़ी में फैशन के दीवानें हो उठे । मन्नी लाल वकील के छोटे लड़के जिन्हें छोटे बबुआ कहा जाता था ,वकील पिता के पुत्र होनें के नाते स्वयं को चलता पुर्जा समझते थे । वे उस समय नवीं -दसवीं में पढ़ रहे थे और अपनी नयी प्रकार के पोशाकों और जूतों की प्रदर्शनी करते रहते थे । उन्हें दादा गीरी का शौक था , पर कद काठी में छोटा होनें के कारण उन्हें एक ऐसे बॉडीगाड की जरूरत थे जो आर्थिक रूप से उनके बराबर तो न हो पर उच्च कुलीन घर का लंबा -चौड़ा बिगलैड़ लड़का हो । राजा इन मापदण्डों पर खरे उतरते थे और छोटे बबुआ नें उन्हें अपनें जाल में फँसा लिया । बाप वकील था ही । मार पीट करनें पर जमानत की व्यवस्था सुनिश्चित थी क्योंकि वकील साहब का कानपुर में भी एक मकान था । अब क्या था -राजा अब कुछ पथभ्रष्ट लड़कों के सरदार बनकर उभरने लगे ।
सातवीं के बाद मैं उन्हें कानपुर में अपने साथ ले आया और हरसहांय जगदम्बा सहायं हाई स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया । रामबाग में स्थित यह स्कूल काफी अच्छा माना जाता था ,पर मिडिल स्कूल में अंग्रेजी न होनें के कारण उन्हें सातवीं में भर्ती किया गया । वे अक्सर चमन गंज स्थित मन्नी लाल वकील के घर जाने लगे और छोटे बबुआ के साथ वहीं पर कई -कई दिन रुक जाते । वे जब कमरे में आते तो मेरे पूछनें पर वे बताते कि छोटे बबुआ पढ़ाई में उनकी मदद कर रहे हैं और उनके मकान पर काफी जगह है , इसलिये मैं उनकी चिन्ता न करूँ । पर ,मुझे उनके रंग ढंग में बदलाव लगनें लगा । वे नयी चाल की सिन्थेटिक धागे की कमीजें ,तंग पतलूनें और भारी जूतों में कुछ अतिरिक्त लम्बे लगते और मैं समझ नहीं पा रहा था कि खाना और कपड़ा जब वे कमरे में रहकर नहीं ले रहे हैं तो इसकी व्यवस्था कहाँ से हो जाती है । मैं अपनी पढ़ाई , अध्यापन और परिवार की चिंताओं में स्वयं इतना व्यस्त था कि इस ओर अधिक ध्यान देनें का समय नहीं निकाल पाया । फिर मैं उनसे बड़ा ही कितना था -मात्र दो ढाई वर्ष और वे कद काठी में मुझसे बड़े हो चले थे । कई बार मेरे मन में खुशी होती कि दूर के रिश्ते के एक वकील के घर का वे सहारा पा गये हैं और निश्चय ही कुछ बन जायेंगें ,पर किशोरावस्था से कच्ची तरुणाई की ओर बढ़ते हुये पितृविहीन बालक का कानपुर जैसे निकृष्ट शहर में विकास की ओर बढनें का सपना एक छलना ही साबित हुआ । वे धीरे -धीरे मारपीट ,दादागीरी और जबरदस्ती पैसा छिना लेने की असामाजिक गतिविधियों में फंसते गये और परोक्ष रूप में छोटे बबुआ से इन कामों के लिये उन्हें दाद मिलती रही । किसी प्रकार वे अँग्रेजी सातवीं पास कर आठवीं में आये और मुझे लगा कि शायद वे रास्ते पर चल निकलेंगें । कक्का का स्वर्गवास हुये एक वर्ष हो चुका था । घर की पिछली दो तिदवारियाँ बैठ चुकी थीं । अगली एक तिंदवारी भी टपकने लगी थी । कच्ची मिट्टी की दीवारें और छतें बिना देख रेख के बरसात की मार कैसे झेल पातीं । माँ चिन्तित थीं ,पर मार्ग क्या था ?व्याज देनें पर भी कर्ज का मूलधन ज्यों का त्यों खड़ा था और खेतों का गिरवीं होना समाज में परिवार की इज्जत का गिरवीं होना जैसा था । सम्भवतः मैं ग्यारहवीं परीक्षा के बाद बारहवीं परीक्षा के निकट पहुँच रहा हूँगा ,जब माँ नें मुझे बताया कि वे मुझे व्याह के बन्धन में बांधना चाहती हैं । अभी मैं सत्रह पर कर अठ्ठारहवीं में गया था और आज के क़ानून के मुताबिक़ मेरा व्याह एक गैर कानूनी प्रक्रिया थी । पर उन दिनों कुलीन घरानों में भी तेरह चौदह वर्ष की लड़की तथा सत्रह -अठ्ठारह वर्ष के लड़के का विवाह समाज की पूरी स्वीकृति पाता था | कामरेड मिराजकर और कामरेड यूसुफ और कामरेड कालीशंकर के सम्पर्क में रहकर मैं नर -नारी की समानता की बात सीख चुका था । और शादी में लड़के की नीलामी के सख्त खिलाफ था । मैनें माँ से यह बात कही । वे खूब हँसीं ,शायद मेरी नासमझी पर या मेरी दलील की खोखली आदर्श परस्ती के कारण । जो हो ,उन्होंने कहा कि उन्हें दहेज़ नहीं ,एक अच्छी बहू की तलाश है । उन्होंने बताया कि जो सज्जन एक वर्ष पहले कानपुर में मिलनें आये थे ,उन्हींकी सबसे छोटी लड़की पत्नी के रूप में मेरे लिये प्रस्तावित की जा रही है । मैनें बहुत बार मना किया कि मुझे पढ़ाई करनें का पूरा मौक़ा दिया जाये ,पर माँ नें कहा बगल में रहने वाले चाचा के परिवार के लोग कभी मकान में पड़े हुये बेड़े को लेकर और कभी घर की बर्बादी को लेकर कोई न कोई टंटा उठाते रहते हैं ,रिश्तेदारी हो जायेगी तो उन्हें कुछ सहारा होगा । लड़की के दो भाई हैं ,बाप हैं और चाचा हैं । पिता सरकारी नौकरी में हैं और चाचा भी किसी बैंक में हैं । घर में खेतपात हैं और रूरा के प्रतिष्ठित परिवारों में से एक हैं । साथ ही सुठियायँ के मिश्र हैं जो बड़े कुल वाले माने जाते हैं । उन्होंने कहा कि मैं चाहूं तो लड़की को देख आऊँ । पर मैनें कहा कि मैं शादी करूँगा ही नहीं । वे बोलीं तुम मत करना ,पर मैं लड़की तो देख आऊँ । कुछ माह बाद किसी छुट्टी पर गाँव जाने पर माँ नें बताया कि वे लड़की देख आयी हैं । इस बीच शायद मैं छमाही परीक्षा में कुछ अधिक अच्छे पेपर कर सका था । परीक्षा के बाद कुछ दिनों की छुट्टियाँ थीं । छुट्टियों के बाद जब मैं कक्षा में पहुँचा तो मेरे साथियों नें मुझे बधाई दी । नागरिक शास्त्र के अध्यापक कक्षा में आये और बोले कि विष्णु नारायण ,तुम नागरिक शास्त्र का सवाल हल करते हुए भी साहित्य रचना करनें लगते हो । ऐसा मत किया करो । साहित्य की भाषा में कई अर्थ निकलते हैं ,पर सामाजिक शास्त्रों की भाषा अपनें मूल अर्थों से जुडी रहनी चाहिये । फिर उन्होंने मुझे शाबासी देते हुए कहा कि मैनें परीक्षा में सर्वाधिक अंक पाकर एक प्रशंसा का काम किया है । अँग्रेजी अध्यापक सुभाष चन्द्र बोस की भारतीय राष्ट्र सेना के तीतर -बितर होने पर उससे निकल कर जीविका की तलाश में कानपुर पहुंचे थे । वे अपनी वंश परम्परा में एक हिन्दुस्तानी पिता और बर्मी माँ के पुत्र थे । उन्होंने शायद कोहिमा से अँग्रेजी में एम ० ए ० किया था । कैसे और किस सम्बन्ध के कारण मेरे कालेज में अँग्रेजी पढानें हेतु नियुक्त किये गये ,यह मैं नहीं जानता ,पर वे अँग्रेजी को अँग्रेजी में पढ़ाते थे । उनका उच्चारण विशुद्ध और व्याख्या पद्धति अत्यन्त प्रभावशाली थी । वे कालेज में मात्र डेढ़ -दो वर्ष रहे और फिर वे मणिपुर की किसी उच्च शिक्षण संस्था से जुड़ गये थे । उनकी शाबासी मेरे लिये एक संग्रहणीय धरोहर बनी रही और उसके कारण मैं एक छोटा -मोटा हीरो बनकर विद्यार्थियों की आँखों में उभर गया था । इसका एक अतिरिक्त फायदा यह भी हुआ कि राष्ट्रीय विद्यालय के प्रबन्धक -प्राचार्य नें मेरे ऊपर अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी डाल दी । न केवल हाई स्कूल की बल्कि इण्टर कक्षाओं की भी । तो ,माँ नें मुझे जब लड़की देखने की बात बतायी तो मैनें उत्सुकता वश जानना चाहा कि उन्होंने कैसे और कहाँ लड़की को देखा और उन्हें वो कैसी लगी । कानपुर देहात जनपद के मैथा प्रखण्ड ब्लाक के प्राईमरी स्कूलों की एक खेल कूंद प्रतियोगिता रूरा में आयोजित की गयी थी । इसमें दौड़ ,उछल कूंद ,शरीर सन्तुलन ,गृह कार्य जैसी अनेक प्रतियोगितायें दो तीन उम्र श्रेणियों के अनुसार नियोजित की गयी थीं । माता जी भी तीसरी ,चौथी और पांचवीं कक्षा की खेल प्रतिस्पर्धा में भाग लेनें वाली लड़कियों के साथ रूरा गयी थीं । तीन दिन के कैम्प का आयोजन था । रूरा की मुख्य अध्यापिका सुखरानी से उनका गहरा मैत्री भाव था और संयोग वश सुखरानी उन्ही सज्जन के घर के पास रहती थीं जो मुझे जमाता के रूप में देखने के लिये आये थे । आस पास के घर काफी बड़े थे और उनके पीछे खुले मैदान थे जिनमें कीकर और बेरो के पेंड़ उगे हुए थे । माँ नें मुझे बताया कि खेलों के पहले दिन सुखरानी नें उन्हें छत पर आने को कहा और पीछे बेरी के पेंड़ के नीचे घुटन्ना और फ्राक पहनें एक तेरह -चौदह वर्ष की लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह वासुदेव मिश्र की लड़की है , जिसकी शादी की बात वे चला रहे हैं । लड़की अरहर की एक सूखी डंडी लेकर बेर नीचे गिरा रही थी और उठा -उठा कर खा रही थी । माँ नें बताया कि उसकी कंजी आँखें और भरापूरा शरीर उन्हें अच्छा लगा । बाद में पांचवीं की लड़कियों की जब तीसरे दिन प्रखण्डीय प्रतियोगिता हुयी तो उसमें वही लड़की सुई डोरा के खेल में प्रथम आयी । सुईयां लेकर दस अध्यापिकायें एक तरफ खड़ी थीं और दूसरी तरफ से दस छात्रायें डोरा लेकर दौड़ीं । उन्हें दूसरे कोनें में आकर सुई में डोरा डालना था और लौटकर प्रारम्भ के स्थान पर पहुँचना था ।
. तीन बार में लगभग तीस लड़कियों नें भाग लिया और हर बार तीन प्रथम आने वाली लड़कियों की नौ की एक टीम बनी । अब इनका मुकाबला शुरू हुआ और इसमें वही लड़की प्रथम स्थान पर रही । शाम के समय ईनाम बटनें थे और वह ईनाम लेकर धोती पहन कर आयी । माँ नें कहा कि उन्हें वह बहुत अच्छी लगी और उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया है कि वे उसे बहू बनाकर घर लायेंगीं । उसके पिता सुखरानी के घर आये थे और शीघ्र ही वे वरीक्षा के लिये आयेंगें । मैनें उनसे दहेज़ की कोई बात नहीं की है । जिसनें लड़की दी ,उससे और क्या माँगना । बात आयी गयी हुयी । अभी जाड़े की समाप्ति थी और इण्टर की वार्षिक परीक्षा में कई माह बाकी थे । कमला के महीनें पूरे हो आये थे और इसी बीच प्रथम प्रसव की तैयारियां हो रही थीं । जीजा जी राशनिंग में कार्यरत थे ,पर सरकार इस विभाग को समाप्त करने की ओर कदम बढ़ा रही थी । कहा जा रहा था कि सभी कर्मचारियों को अन्यत्र कहीं खपा लिया जायेग़ा पर शायद उन्हें बीच के अन्तराल में कुछ दिन काम से अलग होना पड़े । इधर गाँव में घर की हालत और खराब हो रही थी । मुझे आश्चर्य था कि रूरा के वे प्रतिष्ठित सज्जन इस अधगिरे घर के पितृ हींन नवयुवक को अपनी कन्या को सौपनें का मन क्यों बना रहे हैं । शायद वे भी बीस बिस्वा की परम्परा के मानसिक गुलाम हों और इसलिये मेरे घर की अकिंचनता भी काल्पनिक बीस बिस्वा की पारम्परिक समृद्धता से उन्हें सुशोभन लगती हो । मैनें बहुत चाहा कि मैं इस व्याह को नकार दूँ , पर कर्ज से दबी विधवा माँ ,जो नानी बननें जा रही थी ,और जिनका छोटा बेटा उन्हें निरन्तर व्यथा के शूल दे रहा था , को अधिक दुखी करना मेरे मन को न भाया । मैं नहीं जानता कि कब ,कहाँ ,और कैसे वरीक्षा तथा फलदान की रश्म पूरी हुयी । पर हाँ इतना अवश्य जानता हूँ कि मेरी शादी से पहले ही गिरवी रखे खेत छुड़ा लिये गये । यह कैसे सम्भव हुआ यह बात माता जी नें मुझे खुलकर नहीं बतायी । मैं अपनी परीक्षा की तैयारियों में पूरी तरह से जुटा था कि मुझे एक दिन मेरे कमरे पर करीब दस बजे डी ० ए ० वी ० में पढ़ रहे एक लड़के नें आकर बताया कि मेरे छोटे भाई डी ० ए ० वी ० कालेज में पकड़ लिये गये हैं और वे वहाँ के कार्यालय अधीक्षक विद्याधर के कमरे में बिठाल लिये गये हैं । उन्हें इससे पहले कि पुलिस को दे दिया जाये ,उनके अभिभावकों तक मुझे सूचना के लिये भेजा गया है । मेरे बड़े भाई होनें की बात और मेरा पता शायद कार्यालय अधीक्षक को मेरे छोटे भाई नें ही बताया होगा । माँ तो गाँव में थीं और उन तक पहुँचना सम्भव न था । हड़बड़ा कर मैं उठा और अपनें मित्र बालकृष्ण दीक्षित के साथ साइकिल पर बैठकर डी ० ए ० वी ० कालेज के प्रांगण में पहुँचा । मारे शर्म के मैं पानी -पानी हो रहा था । चपरासी से अन्दर खबर भिजवायी और विद्याधर नें मुझे बुला भेजा । उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं किस क्लास में और कहाँ पढता हूँ और मेरा खर्चा कौन वहन करता है । मैंने उन्हें विनम्रता पूर्वक सब कुछ बताया । वे मेरी बात से कुछ प्रभावित से लगे । उन्होंने कहा कि मैं एक अच्छे घर का लड़का हूँ और मुझे अपनें छोटे भाई को गलत रास्ते पर जाने से रोकना चाहिये । उन्होंने बताया कि वह एक साइकिल उठाकर भागते समय पकड़ा गया और उनके पास लाया गया है । मैनें धिक्कार भरी नज़रों से राजा को देखा और कहा कि वे मृत पिता की आत्मा की शान्ति के लिये प्रतिज्ञा करें कि वे कभी असामाजिक और गैर कानूनी काम नहीं करेंगें । विद्याधर जी नें उन्हें छोड़ दिया और वे कालेज से बाहर आकर बोले कि वे अपनें काम के लिये शर्मिन्दा हैं और अब वे छोटे बबुआ के यहाँ जा रहे हैं और शाम तक कमरे में आ जायेगें । प्रभु की कृपा से उस दिन परिवार की इज्जत सुरक्षित रह गयी । पर , प्रभु कृपा पर हमारा अधिकार हमारे कर्मों से ही होता है और अभी शायद हम लोगों को और बहुत कुछ देखना बदा था ।
परीक्षा की तैयारियां समाप्त हुयीं और मैं परीक्षा में बैठा । मानसिक वेग ,आने वाले पाणिग्रहण व्यवस्था में छिपे सामाजिक आघात और टूटे -फूटे घर तथा जीजा की नौकरी की अस्थिरता -सभी कुछ झेलकर परीक्षा में सर्वोत्तम प्रदर्शन करना मेरे लिये सम्भव न हो सका । पर मैं जानता था कि मैं पास तो हो ही जाऊँगाँ और क्या पता प्रथम श्रेणी भी आ जाये । इधर कुछ एक बातें मेरे सन्दर्भ में अच्छी भी घटित हुयीं थीं । परीक्षा से कुछ दिन पहले इण्टर कालेज की कक्षाओं की एक अन्तर प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था । यह भाषण प्रतियोगिता थी । इसमें नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये एटम बम की विभीषिका और उससे उत्पन्न मानव जाति के सम्भावित सम्पूर्ण विनाश पर चर्चा करनें को कहा गया था । इसमें लगभग दो दर्जन से अधिक छात्रों नें भाग लिया था और वे लगभग सभी के सब अध्यापकों द्वारा लिखाये गये भाषणों को रट कर दोहरा रहे थे । कई तो बीच में भूले भी और डेढ़ दो हजार छात्रों के समुदाय के हंसी का पात्र भी बनें ।
मैं हिम्मत करके पहली बार बिना लिखे मात्र मानसिक तैय्यारी के आधार पर बोलनें के लिये खड़ा हो गया था पुस्तकालयों में घण्टों बैठे रहनें की मेरी आदत और विज्ञान तथा टेक्नालाजी में मेरी प्रगाढ़ रूचि के कारण काफी कुछ आंकड़े मेरी पकड़ में थे । हिन्दी मैं अच्छी बोल लेता था और बीच में अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी करने लगा था । जब मंच पर मेरा नाम पुकारा गया तो मुझे घबराहट का एक कम्पन सा हुआ ,पर भीतर की किसी शक्ति नें मुझे तुरन्त सँभाल लिया । मैं क्या बोला ,और कैसे बोला कैसे मंच पर पहुँचा और कैसे माइक तक पहुँचा ,यह सब जैसे स्वप्नावस्था में हुआ हो । जब मैंने अन्त किया तो कई मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही । उस भाषण के बाद मैं विद्यार्थियों में एक प्रकार का छोटा -मोटा विद्वान माना जाने लगा था । मेरे प्रथम पुरस्कार की बात राष्ट्रीय विद्यालय भी पहुँच गयी थी और अब वहां इण्टर में पढने वाली मेरे से बड़ी उम्र की अध्यापिकायें यह चाहने लगी थीं कि मैं उन्हें उनके घर पर अँग्रेजी पढ़ाने का काम ले लूँ । वे सभी सरकारी स्कूलों में स्थायी अध्यापिकायें थीं । इण्टर पास करके फिर स्नातक बनकर और फिर परास्नातक बनकर वे एक के बाद एक ऊँचें वेतनमानों में पहुँच सकती थीं । प्रशिक्षित तो वे थी हीं और साथ ही साथ नौकरी में होनें के कारण उनकी महत्त्वाकांक्षायें उभर आयी थीं । वे सब एकाध बच्चों की मातायें थीं और उम्र में उनसे छोटा होनें के कारण मैं उनके घर में सहज रूप में स्वीकारा जा सकता था । वे मेरी अध्यापन क्षमता को राष्ट्रीय विद्यालय में देख ही रही थीं । कई प्रस्तावों में से चुनकर मैनें तीन घरों में पढ़ाने की व्यवस्था को स्वीकृति दी । कारण यह था कि ये सब अगले वर्ष इण्टर में बैठकर फिर दो वर्ष बाद बी ० ए ० में बैठने की इच्छुक थीं और यदि हो सका तो एम ० ए ० करने की ओर भी उनमें रुझान दिख रहा था । मैनें सोचा कि यह मेरे लिये लगभग चार वर्ष का स्थायी आमदनी का साधन मिल रहा है और मैं ईमानदारी से अपना कर्तब्य निबाहूंगाँ । जो -जो मैं पढता सीखता जाऊँगा ,वो -वो निष्ठा के साथ पढ़ाने का प्रयास करूँगा । राष्ट्रीय विद्यालय के प्राचार्य प्रधान जी नें मुझे यह आश्वासन दे ही दिया था कि जब तक मैं कानपुर छोड़कर बाहर न जाऊँ तब तक उनके विद्यालय का सम्माननीय अध्यापक रहूँगा । खान -पान और पढ़ाई का हम दोनों भाइयों का खर्चा इस आमदनी में आसानी से निकल सकता था और अलग कमरे की व्यवस्था भी चल सकती थी -इस निश्चिन्तता के साथ मैं इण्टर परीक्षा परिणाम के इन्तजार में लग गया । बड़ी बहन कमला की सबसे पहली सन्तान एक बेटे के रूप में उनकी गोद में आयी । माता जी नानी बन गयीं और मैं मामा । कमला के ससुराल पक्ष में उनके ससुर दूसरा विवाह कर अपनी ससुराल में रह रहे थे । वे जीजा जी की शादी में सिर्फ दहेज़ लेने के लिये शामिल हुये थे और सब कुछ बटोर कर ससुराल चले गये थे । ससुर के घर के नाम पर कमला के पास कुछ था ही नहीं और उनकी देख रेख और सम्पूर्ण जिम्मेदारी का भार माँ पर ही था । मुझे ख्याल आता है कि कमला के पुत्र गिरीश के जन्म के कुछ माह बाद वे लौटकर देवनारायण अग्निहोत्री के मकान में रहनें नहीं गयीं । जीजा जी की सहमति से आनन्द बाग़ में अलग रहने के लिये एक किराये का मकान तलाशा गया । यह दो मंजिले पर था और इसमें दो कमरे और एक रसोईं थी तथा पुराने प्रचलन वाली बाल्टी टट्टी थी । मैं राम बाग़ में जिस कमरे में रहता था ,उससे लगभग दस मिनट की दूरी पर यह मकान था और अवकाश के समय वहाँ चला जाता था । मेरे ब्याह को बीते हुये इतनें वर्ष हो गये हैं कि मुझे समय सारिणी का ठीक ध्यान नहीं है । कई बार बच्चों की माँ नें मुझे बताया है कि जब मैनें 11 रहवीं की परीक्षा दी थी तभी मैं व्याह दिया गया था , पर मुझे लगता है कि मैं 12 हवीं की परीक्षा के बाद व्याहा गया । (
. तीन बार में लगभग तीस लड़कियों नें भाग लिया और हर बार तीन प्रथम आने वाली लड़कियों की नौ की एक टीम बनी । अब इनका मुकाबला शुरू हुआ और इसमें वही लड़की प्रथम स्थान पर रही । शाम के समय ईनाम बटनें थे और वह ईनाम लेकर धोती पहन कर आयी । माँ नें कहा कि उन्हें वह बहुत अच्छी लगी और उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया है कि वे उसे बहू बनाकर घर लायेंगीं । उसके पिता सुखरानी के घर आये थे और शीघ्र ही वे वरीक्षा के लिये आयेंगें । मैनें उनसे दहेज़ की कोई बात नहीं की है । जिसनें लड़की दी ,उससे और क्या माँगना । बात आयी गयी हुयी । अभी जाड़े की समाप्ति थी और इण्टर की वार्षिक परीक्षा में कई माह बाकी थे । कमला के महीनें पूरे हो आये थे और इसी बीच प्रथम प्रसव की तैयारियां हो रही थीं । जीजा जी राशनिंग में कार्यरत थे ,पर सरकार इस विभाग को समाप्त करने की ओर कदम बढ़ा रही थी । कहा जा रहा था कि सभी कर्मचारियों को अन्यत्र कहीं खपा लिया जायेग़ा पर शायद उन्हें बीच के अन्तराल में कुछ दिन काम से अलग होना पड़े । इधर गाँव में घर की हालत और खराब हो रही थी । मुझे आश्चर्य था कि रूरा के वे प्रतिष्ठित सज्जन इस अधगिरे घर के पितृ हींन नवयुवक को अपनी कन्या को सौपनें का मन क्यों बना रहे हैं । शायद वे भी बीस बिस्वा की परम्परा के मानसिक गुलाम हों और इसलिये मेरे घर की अकिंचनता भी काल्पनिक बीस बिस्वा की पारम्परिक समृद्धता से उन्हें सुशोभन लगती हो । मैनें बहुत चाहा कि मैं इस व्याह को नकार दूँ , पर कर्ज से दबी विधवा माँ ,जो नानी बननें जा रही थी ,और जिनका छोटा बेटा उन्हें निरन्तर व्यथा के शूल दे रहा था , को अधिक दुखी करना मेरे मन को न भाया । मैं नहीं जानता कि कब ,कहाँ ,और कैसे वरीक्षा तथा फलदान की रश्म पूरी हुयी । पर हाँ इतना अवश्य जानता हूँ कि मेरी शादी से पहले ही गिरवी रखे खेत छुड़ा लिये गये । यह कैसे सम्भव हुआ यह बात माता जी नें मुझे खुलकर नहीं बतायी । मैं अपनी परीक्षा की तैयारियों में पूरी तरह से जुटा था कि मुझे एक दिन मेरे कमरे पर करीब दस बजे डी ० ए ० वी ० में पढ़ रहे एक लड़के नें आकर बताया कि मेरे छोटे भाई डी ० ए ० वी ० कालेज में पकड़ लिये गये हैं और वे वहाँ के कार्यालय अधीक्षक विद्याधर के कमरे में बिठाल लिये गये हैं । उन्हें इससे पहले कि पुलिस को दे दिया जाये ,उनके अभिभावकों तक मुझे सूचना के लिये भेजा गया है । मेरे बड़े भाई होनें की बात और मेरा पता शायद कार्यालय अधीक्षक को मेरे छोटे भाई नें ही बताया होगा । माँ तो गाँव में थीं और उन तक पहुँचना सम्भव न था । हड़बड़ा कर मैं उठा और अपनें मित्र बालकृष्ण दीक्षित के साथ साइकिल पर बैठकर डी ० ए ० वी ० कालेज के प्रांगण में पहुँचा । मारे शर्म के मैं पानी -पानी हो रहा था । चपरासी से अन्दर खबर भिजवायी और विद्याधर नें मुझे बुला भेजा । उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं किस क्लास में और कहाँ पढता हूँ और मेरा खर्चा कौन वहन करता है । मैंने उन्हें विनम्रता पूर्वक सब कुछ बताया । वे मेरी बात से कुछ प्रभावित से लगे । उन्होंने कहा कि मैं एक अच्छे घर का लड़का हूँ और मुझे अपनें छोटे भाई को गलत रास्ते पर जाने से रोकना चाहिये । उन्होंने बताया कि वह एक साइकिल उठाकर भागते समय पकड़ा गया और उनके पास लाया गया है । मैनें धिक्कार भरी नज़रों से राजा को देखा और कहा कि वे मृत पिता की आत्मा की शान्ति के लिये प्रतिज्ञा करें कि वे कभी असामाजिक और गैर कानूनी काम नहीं करेंगें । विद्याधर जी नें उन्हें छोड़ दिया और वे कालेज से बाहर आकर बोले कि वे अपनें काम के लिये शर्मिन्दा हैं और अब वे छोटे बबुआ के यहाँ जा रहे हैं और शाम तक कमरे में आ जायेगें । प्रभु की कृपा से उस दिन परिवार की इज्जत सुरक्षित रह गयी । पर , प्रभु कृपा पर हमारा अधिकार हमारे कर्मों से ही होता है और अभी शायद हम लोगों को और बहुत कुछ देखना बदा था ।
परीक्षा की तैयारियां समाप्त हुयीं और मैं परीक्षा में बैठा । मानसिक वेग ,आने वाले पाणिग्रहण व्यवस्था में छिपे सामाजिक आघात और टूटे -फूटे घर तथा जीजा की नौकरी की अस्थिरता -सभी कुछ झेलकर परीक्षा में सर्वोत्तम प्रदर्शन करना मेरे लिये सम्भव न हो सका । पर मैं जानता था कि मैं पास तो हो ही जाऊँगाँ और क्या पता प्रथम श्रेणी भी आ जाये । इधर कुछ एक बातें मेरे सन्दर्भ में अच्छी भी घटित हुयीं थीं । परीक्षा से कुछ दिन पहले इण्टर कालेज की कक्षाओं की एक अन्तर प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था । यह भाषण प्रतियोगिता थी । इसमें नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये एटम बम की विभीषिका और उससे उत्पन्न मानव जाति के सम्भावित सम्पूर्ण विनाश पर चर्चा करनें को कहा गया था । इसमें लगभग दो दर्जन से अधिक छात्रों नें भाग लिया था और वे लगभग सभी के सब अध्यापकों द्वारा लिखाये गये भाषणों को रट कर दोहरा रहे थे । कई तो बीच में भूले भी और डेढ़ दो हजार छात्रों के समुदाय के हंसी का पात्र भी बनें ।
मैं हिम्मत करके पहली बार बिना लिखे मात्र मानसिक तैय्यारी के आधार पर बोलनें के लिये खड़ा हो गया था पुस्तकालयों में घण्टों बैठे रहनें की मेरी आदत और विज्ञान तथा टेक्नालाजी में मेरी प्रगाढ़ रूचि के कारण काफी कुछ आंकड़े मेरी पकड़ में थे । हिन्दी मैं अच्छी बोल लेता था और बीच में अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी करने लगा था । जब मंच पर मेरा नाम पुकारा गया तो मुझे घबराहट का एक कम्पन सा हुआ ,पर भीतर की किसी शक्ति नें मुझे तुरन्त सँभाल लिया । मैं क्या बोला ,और कैसे बोला कैसे मंच पर पहुँचा और कैसे माइक तक पहुँचा ,यह सब जैसे स्वप्नावस्था में हुआ हो । जब मैंने अन्त किया तो कई मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही । उस भाषण के बाद मैं विद्यार्थियों में एक प्रकार का छोटा -मोटा विद्वान माना जाने लगा था । मेरे प्रथम पुरस्कार की बात राष्ट्रीय विद्यालय भी पहुँच गयी थी और अब वहां इण्टर में पढने वाली मेरे से बड़ी उम्र की अध्यापिकायें यह चाहने लगी थीं कि मैं उन्हें उनके घर पर अँग्रेजी पढ़ाने का काम ले लूँ । वे सभी सरकारी स्कूलों में स्थायी अध्यापिकायें थीं । इण्टर पास करके फिर स्नातक बनकर और फिर परास्नातक बनकर वे एक के बाद एक ऊँचें वेतनमानों में पहुँच सकती थीं । प्रशिक्षित तो वे थी हीं और साथ ही साथ नौकरी में होनें के कारण उनकी महत्त्वाकांक्षायें उभर आयी थीं । वे सब एकाध बच्चों की मातायें थीं और उम्र में उनसे छोटा होनें के कारण मैं उनके घर में सहज रूप में स्वीकारा जा सकता था । वे मेरी अध्यापन क्षमता को राष्ट्रीय विद्यालय में देख ही रही थीं । कई प्रस्तावों में से चुनकर मैनें तीन घरों में पढ़ाने की व्यवस्था को स्वीकृति दी । कारण यह था कि ये सब अगले वर्ष इण्टर में बैठकर फिर दो वर्ष बाद बी ० ए ० में बैठने की इच्छुक थीं और यदि हो सका तो एम ० ए ० करने की ओर भी उनमें रुझान दिख रहा था । मैनें सोचा कि यह मेरे लिये लगभग चार वर्ष का स्थायी आमदनी का साधन मिल रहा है और मैं ईमानदारी से अपना कर्तब्य निबाहूंगाँ । जो -जो मैं पढता सीखता जाऊँगा ,वो -वो निष्ठा के साथ पढ़ाने का प्रयास करूँगा । राष्ट्रीय विद्यालय के प्राचार्य प्रधान जी नें मुझे यह आश्वासन दे ही दिया था कि जब तक मैं कानपुर छोड़कर बाहर न जाऊँ तब तक उनके विद्यालय का सम्माननीय अध्यापक रहूँगा । खान -पान और पढ़ाई का हम दोनों भाइयों का खर्चा इस आमदनी में आसानी से निकल सकता था और अलग कमरे की व्यवस्था भी चल सकती थी -इस निश्चिन्तता के साथ मैं इण्टर परीक्षा परिणाम के इन्तजार में लग गया । बड़ी बहन कमला की सबसे पहली सन्तान एक बेटे के रूप में उनकी गोद में आयी । माता जी नानी बन गयीं और मैं मामा । कमला के ससुराल पक्ष में उनके ससुर दूसरा विवाह कर अपनी ससुराल में रह रहे थे । वे जीजा जी की शादी में सिर्फ दहेज़ लेने के लिये शामिल हुये थे और सब कुछ बटोर कर ससुराल चले गये थे । ससुर के घर के नाम पर कमला के पास कुछ था ही नहीं और उनकी देख रेख और सम्पूर्ण जिम्मेदारी का भार माँ पर ही था । मुझे ख्याल आता है कि कमला के पुत्र गिरीश के जन्म के कुछ माह बाद वे लौटकर देवनारायण अग्निहोत्री के मकान में रहनें नहीं गयीं । जीजा जी की सहमति से आनन्द बाग़ में अलग रहने के लिये एक किराये का मकान तलाशा गया । यह दो मंजिले पर था और इसमें दो कमरे और एक रसोईं थी तथा पुराने प्रचलन वाली बाल्टी टट्टी थी । मैं राम बाग़ में जिस कमरे में रहता था ,उससे लगभग दस मिनट की दूरी पर यह मकान था और अवकाश के समय वहाँ चला जाता था । मेरे ब्याह को बीते हुये इतनें वर्ष हो गये हैं कि मुझे समय सारिणी का ठीक ध्यान नहीं है । कई बार बच्चों की माँ नें मुझे बताया है कि जब मैनें 11 रहवीं की परीक्षा दी थी तभी मैं व्याह दिया गया था , पर मुझे लगता है कि मैं 12 हवीं की परीक्षा के बाद व्याहा गया । (