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            '-----------माटी  'परिवार विदेशी परम्पराओं के अंधानुकरण में विश्वास नहीं रखता | वह औपनिशदिक युग  की विवेक और मीमांसा पद्धति में विश्वास करता है | ब्रम्हाण्ड के मूल में क्या है यही प्रश्न तो केनोपनिषद ने उठाया था | केना का अर्थ है किसके द्वारा अर्थात वह कौन सी परम शक्ति है जो चेतन -अचेतन को गतिमान या नियन्त्रित करती है | और फिर त्रिकालदर्शी श्रुतिकार स्वयं उत्तर प्रस्तुत करते हैं कि यह वह शक्ति है जो मस्तिष्क को चिन्तन शक्ति से सुनियोजित करती है | यह स्वयं में मस्तिष्क की विचार सीमा से परे है पर मानव मस्तिष्क को अपनी असीमित ऊर्जा का एक अंश देकर यह गतिमान करती रहती है | यही शक्ति आँखों को द्रष्टि देती है ,कानों को श्रवण शक्ति देती है ,और श्वांस प्रक्रिया का नियमन करती है | इन्द्रियों की गतिमयता और क्रियाशीलता उसी परमशक्ति से संचालित है और यही कारण है कि मस्तिष्क चिन्तन के क्षणों में उस शक्ति का आभाष करके भी उसका सम्पूर्ण आकलन नहीं कर पाता | एक कौंध भरी झलक उसे यह अहसास तो कराती है किसी ब्रम्हाण्ड व्यापी परमसत्ता के कौतूहलपूर्ण प्रचलन प्रक्रिया का | यह अहसास मानवजनित किसी भी भाषा में सम्पूर्णताः व्यक्त नहीं हो पाता | इस अहसास को प्रत्येक व्यक्ति अपनी आन्तरिक क्षमता के अनुरूप अनुभव करता है और यदि सदाशयी और आत्मप्रेरित ऐसे कुछ व्यक्ति मिल बैठें तो उच्च आदर्शों से प्रेरित एक नयी चिन्तना का प्रकाश फ़ैल उठता है | xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
                                  भारत में एक लम्बे काल से कार्यरत कई प्रकाशन मनोभूमि में नयी ऊर्जा का लाने का काम नहीं कर रहे हैं | वे भूंडी सम्पन्नता का प्रदर्शन करते हैं और विदेशी संस्कृति के क्रीत दास बनते जा रहे हैं | भोगवादी व्यवस्था इन मण्डलियों में चरम परिणित पर पहुँच चुकी है भले ही वह समाज सेवा और विपन्नता उन्मूलन की चादर ओढ़े हुये हों | 'माटी 'भारत की उभरती प्रतिभा को जीवन्त आदर्शों की ऊर्जा से अनुप्रेरित करने के लिये आगे आयी है | प्रतिभा अपने में देश काल और प्रस्तार की सीमाओं से परे होती है उसे कटघरे में बांधकर नहीं रखा जा सकता ,पर उसे यदि मानव कल्याण की ओर प्रेरित कर दिया जाये तो उसमें अपार संम्भावनायें छिपी रहती हैं | यदि प्रेरक शक्ति बचकाने चिन्तन की उपज हो और यदि उसमें इन्द्रिय विलास का रसायन घुला हो तो प्रतिभा मानव जाति के लिये वरदान की जगह अभिशाप भी बन सकती है | अन्तर्राष्ट्रीय जगत में इतने उदाहरण हैं नकारात्मक चिन्तन और नकारात्मक शक्ति प्रयोग के जिन्होनें मानव जाति का अकल्पनीय अहित किया है | भारत के सन्दर्भ में भी इस प्रकार के अनेक खलनायक और चरवाकीय चिन्तक पाये जाते हैं पर भारत की सबसे अनूठी विशेषता रही है पथ भ्रमित विस्फोटक प्रतिभा पर कल्याणकारी मानवीय मूल्य पद्धति का नियन्त्रण | यह मूल पद्धति धर्म ,नैतिकता ,आत्माहुति ,और तपश्चरण आदि कई नामों से व्यक्त होती रही है | परतन्त्रता के काल में एक लम्बे दौर से गुजरने के बाद भारतीय जीवन मूल्यों की चमक जब कुछ धीमी पडी थी तब इसे फिर से प्रच्छालन पद्धति द्वारा बंकिम चन्द्र , राम मोहन राय ,सुब्रमण्यम भारती आदि आदि ने प्रांजलता प्रदान की थी और फिर तो महापुरुषों का एक युग ही शुरू हो गया | बलिदान ,त्याग और आत्म उत्सर्ग की होड़ लग गयी | राष्ट्रीय गौरव के लिये सब कुछ निछावर करने की भारतीय ऋषि परम्परा अपने सम्पूर्ण वेग से उभर पडी | पर आज स्वतन्त्रता के बाद एक बार फिर हमारे जीवन की ,हमारे जीवन मूल्यों की वेग मयी धारा शैवाल भरे वर्तुल चक्रों में फंस गयी है | हम हीन भाव से ग्रस्त हो रहे हैं | हमारी मातायें ,बहनें ,बेटियां नारी शरीर के सौन्दर्य का बाजारीकरण मन्त्र अपनानें लग गयी हैं | तभी तो कविवर पन्त को लिखना पड़ा "आधुनिके ,तुम और सभी कुछ एक नहीं तुम नारी |"
                                          सौन्दर्य प्रसाधनों का बाजार भारतीय विश्व सुन्दरियों के बलबूते पर फैलने ,फूलने लगा है | महिलायें कभी वृद्धा न बनना चाहें यह तो समझ में आ सकता है पर पुरुष भी हास्यास्पद वासना से प्रेरित होकर सदैव तरुण ही बना रहना चाहे पाश्चात्य क्लब सभ्यता की विशेष देन ही है | प्रत्येक 'माटी 'पाठक को इस पतनशील मनोवृत्ति को रोकने के लिये प्रतिबद्धित होना पड़ेगा | बालपन का अपना सौन्दर्य है और तरुणायी का अपना शक्ति प्रस्तार | पर वार्धक्य भी एक गौरव की बात ही है , अवमानना ,तिरस्कार या उपेक्षा की नहीं | सतत ऋषि साधना से ही भारत की सामूहिक आयु रेखा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन रेखा से ऊपर जा सकेगी | हम मात्र कैप्सूल और इन्जेक्शन लेकर ही लम्बे जीवन की कामना न करें वरन सहज जीवन शक्ति को प्रकृति के सामंजस्य पूर्ण सहभागी बनकर प्राप्त करें | तभी तो सुदूर सहस्त्रों वर्ष पूर्व वृक्षों की अविरल व्यूह रचना में बैठे या सरिता तटों पर विचरते ऋषि ने गाया था -
            "  जीवेन शरदः शतम
               श्रणुयाम शरदः शतम
               पुब्रयाम शरदः शतम |"
       यह है भारतीय जीवन की कामना विकलांग पलंग सेवी निष्क्रिय जीवन की नहीं वरन स्वस्थ्य निर्माण समर्पित उच्चतर सोपानों की ओर बढ़ते निरन्तर उर्ध्वगामी जीवन स्पन्दनों की | और भारत ही नहीं पाश्चात्य संस्कृति में आशावादी कवियों का स्वर बुढ़ापे को नकारात्मक द्रष्टि से न लेकर सहज स्वीकारता हुआ हमें अपनी ओर बुलाता है |
                           " Grow old along with me
                             for the best in yet to come
                             the last for which the first was made ."

                         सभ्यता के ऊषाकाल में ही पौरत्य प्रतिभा ने वसुधैव कुटुम्बकम का दर्शन प्रतिपादित किया था | भारतीय मनीषी यह जान गये थे कि मेरे तेरे का दर्शन लघु चिंन्तना की उपज है | जो उदार है ,विशाल बुद्धि है और निसर्ग के लय ताल की गति समझता है उसके लिये तो सारी वसुधा ही कुटुम्ब है | न जानें कितनी सहस्त्राब्दियों के बाद आज सारे संसार का प्रबुद्ध वर्ग इस सत्य को स्वीकार कर पाया है | आज के बहु प्रचलित शब्द ग्लोबल इकनॉमी ,ग्लोबल विजन ,और वैश्विक जीवन पद्धति भारत के चिन्तन के अभिन्न ,अबाधित और सर्वमान्य जीवन लक्ष्य रहे हैं | 'माटी 'इस सेवा भावना से काम करने का प्रयास कर रही है कि युग के प्रवाह में इन सनातन मूल्यों पर पड़ जानें वाली धूल और  गर्द को साफ़ पोंछकर विश्व जनमानस  समक्ष प्रस्तुत कर दे | अहंकार की भावना से सर्वथा मुक्त केवल सम्पूर्ण समर्पित  भाव से और निःस्वार्थ सेवा भावना से प्रेरित होकर हम इस दिशा में चले हैं | हम जानते हैं कि हमारा यह प्रयास राम जी की सेवा में लगी गिलहरी के प्रयास से और अधिक कुछ नहीं है | पर हमें इस बात का गर्व है कि हम राजनीति के विद्युत् प्रकाश और चकाचौंध वाली छवि से सर्वथा मुक्त हैं | हो सकता है कालान्तर में कुछ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति हमारे साधना मार्ग पर हमसे मिलकर चलने का प्रयास करें पर हम ऐसा किसी निराधार प्रशंसा ,प्रचार या सांसारिक लाभ के लिये कभी नहीं होने देंगें | हमारा मार्ग तो पारस्परिक सौहाद्र ,निश्छल समर्पण और सहज त्याग के तीन पायों पर बनाया गया है , इस मार्ग पर जो चलेगा उसे राजनीतिक सत्ता ,और वैभव मद घरौन्दों को पददलित कर आगे बढ़ना होगा | 'माटी 'के लेखक ,पाठक मानव प्यार के उस विश्वव्यापी आवासीय आत्मसंगीत गुंजित भवन निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं जिसकी कल्पना सन्त कबीर ने की थी |
"जाति नहीं ,पांति नहीं ,वर्ग नहीं ,क्षेत्र नहीं ,
  रंग नहीं ,रूप नहीं ,नर -नारी का लिंग भेद नहीं ,
  अस्तित्व नहीं ,अनस्तित्व नहीं ,केवल सब कुछ होम कर देने वाला मानव प्यार |"
"कबिरा यह घर प्रेम का ,खाला का घर नाहिं ,
  सीस काटि भुहिं में धरे सो पैठे घर माहिं |"या
"कबिरा खड़ा बजार में लिये लकुटिया हाँथ ,
  जो घर जारे अपनों सो चले हमारे साथ |"
                                             तो बन्धुओं माटी आपसे आत्माहुति की मांग करती है | हमारे पास देने के लिये है केवल आपके प्रति अपार श्रद्धा ,आपके आदर्श सांसारिक जीवन में अनुगामी बनने की कामना और आपके लिये आत्मा से निकलते सच्ची प्रशंसा के स्वर | पर हम आपको वैभव ,पदाधिकार का दंम्भ और चित्रपटों की चमक नहीं दे पायेंगें | हम चाहेंगें विवेकशील भारतीय नैतिक परम्परा के सजग विचारक होने  नाते आप स्वयं निर्णय लें कि क्या हमारा मार्ग आप को हमतक आने के लिये प्रेरित नहीं करता | सकारात्मक और सहज स्वीकृति मिलने पर आप अनुभव करेंगें कि मानव जीवन का लक्ष्य देह सुख पर आधारित पश्चिमी जीवन मूल्यों से कहीं बहुत अधिक ऊंचा है | मुझे याद आता है ब्रिटिश कौन्सिल में आयोजित एक परिचर्चा का सन्दर्भ | कुछ ख्याति प्राप्त विद्वानों के बीच शिक्षा के सच्चे स्वरूप पर नोंक -झोंक हो रही थी | विश्वविद्यालयों से पी ० एच ० डी ० और डी ० लिट ०  पाये हुये कुछ दंभ्भी अंग्रेजी दा शिक्षा का संम्बन्ध उपाधि के मानकों से जोड़ रहे थे ,मुझसे रहा नहीं गया और मैनें कहा कि यदि उपाधि मानकों से ही ज्ञान का अटूट संबन्ध है तो रवीन्द्रनाथ और अकबर को तो अशिक्षित ही कहा जायेगा | यही क्यों भारत रत्न अब्दुल कलाम भी बिना थीसिस लिखे ही राष्ट्र के लिये सम्मान का प्रतीक बन गये थे  | ललित कलाओं के क्षेत्र में तो विश्वविद्यालीय शिक्षा अधिकतर लंगड़ा बना देनें का काम करती है और दर्शन तथा विज्ञान के क्षेत्र में भी वह केवल उन्हीं को लाभान्वित करती है जिनमें संस्कार बद्ध नैसर्गिक प्रतिभा के उत्पादक बिन्दु सन्निहित होते हैं | तभी तो सी ० वी ० रमन ने बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता के नोबल प्राइज पाया और तभी तो भारतीय मनीषा ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व जीरो खोजकर आज की वैज्ञानिक इन्फॉर्मेशन टेक्नालॉजी युग की नींव रख दी थी | जीरो की खोज के बिना कम्प्यूटर की कल्पना भी नहीं की जा सकती | पर भारतीय परम्परा प्रतिभा को अबाध रहने की स्वतन्त्रता तो देती है पर उसे मानव कल्याण के विपरीत दिशा में बहनें से बाधित करती है | इसीलिये प्रतिभा पर आभिजात्य संस्कारों का ,परित्रिष्टित जीवन द्रष्टि का ,और धार्मिक नियन्त्रणा का अनुशासन रखा जाता है | आज सर्वश्रेठ प्रतिभायें खरीद -फरोख्त का बाजारू माल बन चुकी हैं | Knowledge industry वणिक वृत्ति संचालित होकर मानव जीवन के उच्चतर लक्ष्यों की अवहेलना कर रही है | जो कुछ है सब बिकाऊ है | इंग्लैण्ड के इतिहास में कुछ इसी प्रकार के प्रश्न सोलहवीं शताब्दी में उठे थे जब मार्लो ने अपना बहुचर्चित नाटक डा ० फास्टस लिखा था उसमें भी आत्मशोधक डा ० फास्टस शैतान Mephosto-thilis की बातों में आकर सुरा सुन्दरी के अबाधित भोग के लिये अपनी आत्मा का सौदा करते हैं | इस युग में अपनी सारी लम्बी -चौड़ी मानवीय कल्याण की घोषणाओं के बावजूद अमेरिकन संस्कृति वस्तुतः जुगुप्सापूर्ण विलास संस्कृति बनकर रह गयी है | भारत में बुद्ध धर्म की वज्रयानी परम्परा मुद्रा और माया के चक्कर में फंसकर पतन की जिस निम्न छोर पर पहुँच गयी थी | कुछ वैसा ही आज अमेरिकन जीवन पद्धति में घटित होता दिखायी देता है | शक्ति और वैभव का अभिमान काल के प्रभाव में एक क्षणिक उन्माद ही है |उसे किसी भी राष्ट्र को सनातन मान कर नहीं चलना चाहिये | उत्थान पतन का कालचक्र सतत गतिमान रहता है जो उर्ध्व पर है उसे नीचे आना ही होगा पर चक्र की गति यदि सहज रहे तो ऊर्ध्वत्व का बिन्दु कुछ अधिक देर तक टिका रहता है | ऐसा कुछ आज पाश्चात्य सभ्यता में दिखायी नहीं देता | भारत नें एक अत्यन्त लम्बे काल तक मानव सभ्यता के सर्वोच्च स्थान पर अपनें को प्रतिस्थापित किया था और यह दीर्घ जीवन इसीलिये पा सका था क्योंकि उसनें स्वाभाविक कालचक्र की पतन गति को सयंम और आत्म अनुशासन के दोनों हांथों से पकड़कर धीमा कर रखा था | पिछले लगभग एक सहस्त्राब्दी से हम अन्धकार की चपेट में आ गये थे पर ऐसा लगता है कि यह भी श्रष्टि रचयिता की भारत को सीख देनें की एक दैवी योजना थी | अन्ततः हमारी इस देवभूमि से परमपिता को एक विशेष लगाव तो है ही | 'माटी 'आस्तिकता के इन आयामों को स्वीकार करती है | नास्तिकता के किसी भी स्वर को हम पूरी शक्ति के साथ नकारते हैं और हम विश्वास करते हैं कि हम देव पुत्र हैं ,कि हममें कहीं ईश्वरीय स्फुलिंग है ,कि हम मानव शरीर से देवत्व के सोपानों की ओर बढ़ सकते हैं | उन अनीश्वरवादी Nihilist विचारकों को हम भुष के तिनकों से अधिक महत्व नहीं देते जो मानव शरीर को मात्र पशु प्रवृत्तियों का संचयन बताते हैं | हम महर्षि अरविन्द के साथ खड़े हैं जो चाहते थे हर मानव महा मानव बनें और यह महामानव अपने आन्तरिक विकास की चरम उपलब्धि के क्षणों में ईश्वरीय गरिमा से मण्डित हो सकेगा | विकासवाद भी विकास की प्रक्रिया में Mutation के चरम महत्व को स्वीकार करता है और हमारा विश्वास है कि यह Mutation भी सृष्टि नियन्ता की मानव कल्याण प्रेरित भावभूमि से ही संचालित होता है | द्रष्टि का लंगड़ापन और भ्रामकता ही हमें विभिन्नता का बोध कराती है | अन्यथा विश्व के सभी मानव ज्योति शिखा से स्फुरित सर्वव्यापी स्फुलिंगों से ही अनुप्राणित हैं | कितना रक्त बहाया है मानव जाति ने गोर काले के  भेद को लेकर ,सम्प्रदाय विभिन्नता के नाम को लेकर | पूजा पद्धतियों के टकराव  लेकर , और भेष भूषा को लेकर | कितने क्षुद्र स्वार्थों की नींव पर तथा कथित धर्म साम्राज्यों की स्थापना की गयी  कितनी विजय गाथायें निरीह पवित्र ऊषा जैसी धवल मां ,बहिन ,बेटियों के शरीरों को कलुषित करके लिखी गयीं | 'माटी 'इन सबको धिक्कारती है | जहां कहीं भी पशु वृत्ति है ,जहां कहीं भी अबाध भोग की भावना  है ,जहां कहीं भी नंगें शोषण का मनोभाव है 'माटी 'उस द्वार को कभी नहीं खटखटायेगी हम प्रतिबद्धित होते है सभी झूठे दंम्भों को परित्याग कर एक नये विश्व समाज संरचना की ओर जो राष्ट्र धर्मिता की सुद्रढ़ नींव पर निर्मित होगा | हम संकल्पित होते हैं क्षुद्र ईर्ष्याओं ,स्वार्थों और टोली बन्दियों से मुक्त सहज स्पन्दित सरल सहभागी जीवन जीने के लिये जो भारत की मूल नैतिक धारणाओं से अनुप्राणित हो | वस्तुतः हम जड़ और चेतन के अन्तर को मिटाकर ब्रम्हाण्डीय श्रष्टि की एकता के संपोषक हैं | प्रथम मानव का यह चिन्तन कितना सम्पुष्ट और सार्थक है |
                        "ऊपर हिम था ,नीचे जल था
                           एक तरल था ,एक सघन
                            एक तत्व की ही प्रधानता
                            उसे कहो जड़ या चेतन |"
                  इस अखण्ड एकात्म भाव के प्रति समर्पित होकर हम विश्व चेतना का एक अंग बन सकेंगें | भारत का अतीत गण व्यवस्था का प्रहरी था जहां से निकले अंकुर डिमोक्रेसी के नाम पर इंग्लैण्ड तथा योरोप के अन्य देशों से छोटा मोटा परिवर्तन लेकर अमेरिका पहुंचे हैं | तभी तो आज  संसार यह मानने को विवश हो चुका है कि भारतीय चेतना में जनतन्त्र का रक्त स्पन्दन उसके अस्तित्व की अनिवार्यता रहा है | French Revolution के आदर्श Equality ,Liberty ,और Fratemity ,समानता ,स्वतन्त्रता और बन्धुत्व पाश्चात्य देशों में आज धूमिल पड़ गये हैं और केवल औपचारिकता के लिये दोहराये जा रहे हैं | पर फ्रांस ने जो कुछ कहा था वह तो भारत का ही उधार लिया गया दर्शन था इसलिये हमारे लिये ,हमारी राष्ट्रीय धर्मिता के लिये , हमारे वैश्विक जीवन द्रष्टि के लिये तो इन शब्दों के प्रति स्वागत भाव रहा है और रहेगा | तोड़ो इन जाति पाँति के बन्धनों को ,, तोड़ो इन क्षेत्रीय प्रतिबन्धों को ,तोड़ो इन मानसिक मकड़ी जालों को ,हम सब भारतवासी हैं ,आर्यपुत्र हैं ,हिन्दुस्तानी हैं ,इण्डियन हैं | हममें जन्म से बड़े -छोटे होने का भाव किसी काल में साम्राज़्यवादी विभाजक तत्वों द्वारा आरोपित कर दिया गया | वह हमारा मूल स्वर नहीं है | वह तो वस्तुतः कुलीन तन्त्रीय इंग्लैण्ड जैसे पाश्चात्य देशों का स्वर रहा है | और वहां भी समानता के प्रेरक उद्घोषकों ने यही कहा था -
                                "When Adam delved and Eve span
                                   Who was then a gentle man ."
                       तो आइये 'माटी 'के साथ हम एक जुट होकर चल पड़ें | अकेले हम सब परिचय हींन हैं ,छोटे हैं , अधूरे हैं , विखण्डित हैं और अपेक्षाकृत असमर्थ हैं पर सब मिलकर हम सार्थक बनते हैं | विश्व में एक अर्थवान श्रष्टि रच सकते हैं और ब्रम्हाण्ड रचयिता के इस अपार श्रष्टि सागर में कुछ परिचय के अधिकारी बन सकते हैं | 'माटी 'का प्रत्येक पाठक समष्टि चेतना में अपने अहंकार को विसर्जित कर महादेवी जी के उस भाव गरिमा से आलोड़ित हो सकता है | जो इन पंक्तियों में व्यक्त है |
                                "क्षुद्र हैं मेरे बुदबुद प्राण
                                  तुम्हीं में श्रष्टि तुम्हीं में नाश
                                  सिन्धु को क्या परिचय दें देव
                                  बिगड़ते बनते बीच बिलास |"
मातृ भूमि ,राष्ट्र भूमि को 'माटी 'परिवार के शत -शत प्रणाम |     

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