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..........अभी हिन्दू कोड बिल प्रभावी नहीं हुआ था । लड़की का स्थान मनुवादी स्मृति व्यवस्था में पुत्र के स्थान से कई श्रेणियाँ घटकर बैठता था । पुत्री को पिता की सम्पत्ति में कोई हक़ न था और साथ ही प्रतिलोम व अनुलोम विवाह परम्परा के अनुसार छोटे कुल की लड़की बड़े कुल में ली जा सकती थी ,पर बड़े कुल की लड़की का विवाह बड़े कुल में ही शास्त्र सम्मत माना जाता था । लोअर मिडिल की स्कूली शिक्षा पा जाने के बाद भी माता जी ब्राम्हण परिवार की रूढ़ियों से मुक्त नहीं हो सकी थीं । उनका वैधब्य उन्हें रूढ़ियों को और अधिक सम्मान देनें के लिये बाध्य करता था ,क्योंकि ऐसा करके वे अधिक आदर्श विधवा के रूप में स्वीकारी जा सकती थीं । अभी तक हम लोग आर्थिक विपन्नता के दौर को नहीं जानते थे । पिता की मृत्यु के बाद सम्पन्नता में कुछ कमी अवश्य आयी थी ,पर खेतों से खानें पीने को मिल जाता था और माँ के वेतन से ऊपरी खर्चा निकल आता था । पिता का छोड़ा हुआ भविष्य निधि का पैसा पास में था ही ,इसलिये ग्राम्य जीवन की पूरी आवश्यकतायें भलीभाँति पूरी हो रही थीं । हाँ ,पिछली एक दो बरसातों में मरम्मत न होनें के कारण शिवली के घर की पिछली तिंदवारी गिरने के कगार पर थी और दहेज़ का दानव अपनी लपलपाती अपनी लाल -लाल जीभ निकाले समय की प्रतीक्षा में खड़ा था ,जब वह अपनी भीषण दाढ़ों में परिवार के सुख और सन्तोष को चबाकर कुचल दे । पर इसमें अभी कुछ देर थी । जब मैं सातवीं कक्षा में आया ,तो उसके पहले के ग्रीष्मावकाश में माता जी को एटीसी के प्रशिक्षण के लिये इलाहाबाद जाना पड़ा । यह अतिरिक्त प्रशिक्षण सनद उन अप्रशिक्षित अध्यापिकाओं के लिये कार्यान्वित की गयी थी जो  सी ० टी ० या बी टी नहीं कर पायीं थीं । शायद मेरे इम्तहान हो चुके थे और माता जी मुझे भी अपनें साथ इलाहाबाद ले गयीं । अभी मैं इतना बड़ा नहीं हुआ था कि मुझे पुरुष श्रेणी में खड़ा करके देखा जाये । मैं कैशौर्य के द्वार पर ही खड़ा था और माँ के साथ प्रशिक्षण स्थल से कुछ दूर एक  धर्मशाला में अन्य अध्यापिकाओं के साथ ठहरने का मेरा  यह सुवसर बड़ा सुखद लगा । प्रशिक्षण में माता जी भोजन विभाग की प्रमुख बनायी गयी थीं । भोजन का पकाना और परोसना उनकी देख रेख में होता था । 
                                          काम करने के लिये जो सेविकायें नियुक्त थीं ,वे माता जी के सौजन्य और शालीनता से अत्यन्त प्रभावित थीं और उनकी हर बात का ध्यान रखती थीं । स्वाभाविक था कि उनका पुत्र होनें के नाते मुझे खाने पीनें का अच्छा से अच्छा भाग मिला करता था । दरअसल प्रशिक्षण की निरीक्षका अपनें समय की प्रसिद्ध शिक्षा विद राजरानी खत्री नियुक्त हुयी थीं । वे एम ० ए ०, बी एड ० थीं और अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति की थीं । माता जी की तरह वे भी एक बच्ची के जन्म के बाद विधवा हो गयी थीं । उनकी वह बच्ची बड़ी होकर एक मशहूर एलोपैथिक चिकित्सक बन गयी थी । राजरानी भजन सुनना बहुत पसन्द करती थीं । माताजी को भजन व भक्ति गीत बहुत अच्छी तरह आते थे । उनका उच्चारण शुद्ध था और वे अपनी प्राणवान भक्ति भावना से प्रेरित सुरली आवाज में भजनों के द्वारा लोगों को प्रभावित कर लेती थीं । वे राजरानी के अत्यन्त निकट आ गयीं और राजरानी का विश्वास पा जाने के कारण ही उन्हें खाने -पीने के सम्पूर्ण हिसाब -किताब को देखने व संभ्भालनें  का मौका मिला । पूरे तीन माह तक उन्होंने यह काम जो जो प्रशिक्षण के अतिरिक्त था ,पूर्ण मेहनत और ईमानदारी से किया  और इसके लिये उन्हें प्रशिक्षिकों की तरफ से प्रशंसा पत्र भी दिया गया । इसी प्रशिक्षण के दौरान निरीक्षिका राजरानी नें माता जी से कहा कि उनका हिंसती नाम कुछ अधिक अच्छा नहीं लगता  और इसे वे हंसवती में बदल लें । उन्होंने कहा कि वे अपनें प्रभाव से जिला शिक्षा बोर्ड के रिकार्ड में उनके नाम का परिवर्तन करा देंगीं । वे एक प्रार्थना पत्र लिख दें जिसमें वे लिखें कि अशिक्षित होनें के कारण उनके माता -पिता उन्हें हिंसती कहनें लगे थे ,पर उनका सही नाम हंसवती है । मैं नहीं जानता कि माता जी नें प्रार्थना पत्र में क्या लिखा ,पर इतना अवश्य हुआ कि प्रशिक्षण के बाद अध्यापिका हिंसती देवी हंसवती देवी बन गयीं । अन्तिम विदायी समागम में माँ के काम की भूरि -भूरि प्रशंसा हुयी और अब अध्यापिका हंसवती देवी के लिये प्राईमरी से मिडिल स्कूल जानें का मार्ग खुल गया । (क्रमशः )

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