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छूत का कल्मष 

है अतर्कित
किन्तु है अनुभूत जीवन सत्य मेरा
जब कभी मिलकर
प्रतिष्ठित व्यक्तियों से लौटता हूँ
अशुचिता की वास
नासा -रन्ध्र  मेरे छेदती है
लिजलिजे स्पर्श का आभाष
मेरी चेतना को संक्रमित कर
ऊर्ध्वगामी वृत्तियों को रौंदता है |
इसलिये
मैनें चुना है साथ
तरु की छाँह में सुस्ता रहे गोपाल का
ताकि
उसके साथ मैं भी आँक लूँ
मन चित्र , क्षण भर ,
सामनें उस झिलमिलाते ताल का
धो सके जो छूत का कल्मष
जिसे अगुवा बनें जान नें दिया है | 

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