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खोखली शिक्षा

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                                      कोई भी जनतान्त्रिक व्यवस्था स्वतन्त्र चुनाव की माँग करती है । चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशी अपनें निर्वाचन क्षेत्र में अपनी जन प्रियता के बल पर चुने जाते हैं । कई बार ऐसा होता है विजय पाने वाला प्रत्याशी पराजित उम्मेदवार के मुकाबले में कम शिक्षित होता है । दरअसल राजनीतिक दलों की उम्मेदवारी पा लेना शिक्षा के मापदण्डों से निर्धारित नहीं होता । यदि केवल शिक्षा के मापदण्ड ही चुनाव का मापदण्ड मान लिये जांय तो सम्भवतः जनतन्त्र की प्रक्रिया बिल्कुल बेअसर और हास्यास्पद बन जायगी । स्पष्ट है कि शौक्षिक योग्यता उम्मीदवार का एक अनुषांगिक गुण तो माना जा सकता है पर लोगों की रूचि और बहुमत का समर्थन कुछ और गुणों के कारण होता है जिनका  शिक्षा से कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है । हाँ यह अवश्य है कि हर प्रभावी राजनीतिक दल में कुछ अतिशिक्षित लोग होते हैं जो उसकी नीति निर्धारण में अहम् भूमिका निभाते हैं । यदि शैक्षिक श्रेष्ठता  को ही सुशासन का सबसे प्रभावशाली अंग मान लिया जाय तो राज्य का संचालन एक विश्वविद्यालीय प्रक्रिया बन जायेगी । भारत की मौजूदा  केन्द्रीय सत्ता अपनें में विदेश के कई विश्वविद्यालयों के चमकते हीरों को छिपाये है पर उसका कोई प्रभाव भारत की जमीनी राजनीति पर दिखायी नहीं पड़ता । हारवर्ड ,आक्सफोर्ड ,एंसेलवेनिया ,एम ० आई ० टी ० ,और कैम्ब्रिज सभी से डाक्ट्रेट पाये हुये अर्थशास्त्री भारत की मौजूदा परिस्थितयों में असफल होते दिखायी देते हैं । पर इसका यह अर्थ नहीं है कि सामान्य ज्ञान से शून्य व्यक्ति ही राजनीति के पुरोधा बननें चाहिये ।
                                     आधुनिक शिक्षा एक विशेष प्रकार की जयकेट से जकड़ी हुयी है । उदाहरण के लिये विज्ञान का विद्यार्थी विश्व भूगोल से लगभग अनजान सा बना रहता है । कुछ दिन पहले एक समाचार पत्र  में एक खबर छपी थी कि बिहार में जिस मन्दिर का निर्माण हो रहा है वह विश्व के सबसे बड़े मन्दिर अंगकोरवाट से भी बड़ा होगा । सर्व विदित है कि अंगकोरवाट कम्बोडिया  में है और यह मन्दिर चोल राजाओं के द्वारा बनाया गया होगा । प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण एक होम्योपैथिक डा ० छात्रा से जब यह पूछा गया कि कम्बोडिया कहाँ है तो उसनें चुप रहकर अपनी सर्वज्ञता दिखानें की कोशिश की, इसी प्रकार एक बार एक बी ० टेक ० में पोजीशन लाने वाली विद्यार्थी नें थाईलैण्ड को बँगला देश के पूर्वी भाग के रूप में चिन्हित करनें का प्रयास किया । जाहिर है कि तकनीकी और प्रोफेसनल शिक्षा सामान्य ज्ञान को उतना महत्त्व नहीं देती जितना मोबाइल की टिक -टिक और इन्टरनेट की गिटपिट को । अब हालात यह है कि निम्न वर्ग के व्यक्ति भी अपनें बच्चों को सरकारी स्कूल में न भेजकर तथाकथित स्कूलों में भेज रहे हैं । घर में खाना बनानें वाली एक महिला के साथ एक दिन उसका आठ वर्षीय बालक भी साथ में आ गया । महिला खाना बनाने में लग गयी और बालक बाबा के पास बैठ गया । बूढ़े बाबा नें समय बिताने के लिये पूछा कि क्या कल उसकी छुट्टी है ? उसने उत्तर दिया  कि हाँ कल संडे है । बाबा नें पूछा कि संडे को हिन्दी में क्या कहते हैं ?तो उसनें उत्तर दिया शुक्रवार । यह बालक पब्लिक स्कूल में भर्ती किया गया है । और उसकी माँ आशा की यह ज्योति जलाये है कि उसका बच्चा एक दिन भारत का अधिकारी बनेगा । पब्लिक स्कूल में दसवीं पास और बारहवीं फेल लडकियां अंग्रेजी का  गलत -पलत उच्चारण की अपनी निरर्थकता को अपने सेज ,वेज ,पहनावे और बालों की साज -सज्जा से नाकारनें की कोशिश करती है । उस दिन तो मुझे  बड़ी हंसी आयी जब एम ० ए ० पास महिला नें कहा कि नेहरू जी हैरो पब्लिक स्कूल में पढ़े थे । इंग्लैण्ड का यह पब्लिक स्कूल महान पुरुषों की नर्सरी रहा है पर महिला यह भूल गयी कि 16 वर्ष तक नेहरू जी को घर पर ही अंग्रेज अध्यापिकायें भिन्न -भिन्न विषयों की शिक्षा देती रही थीं और इसके बाद ही वह हैरो कैम्ब्रिज और वैरिस्टरी के लिये इंग्लैण्ड भेजे गये थे । अब सड़ी -गली  गलियों और कूंचों में खुलनें वाले पब्लिक स्कूल अपनें को हैरो के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है समाज का निचला तपका भी अब हैरो की महत्वाकांक्षा पालने लगा है कि अंग्रेजी का ए बी सी डी जान लेने के बाद उनके बच्चे साहब बन जायेंगें । इस मिथ्या वंचना में उनका अपना सारा जीवन एक निरर्थक भाग दौड़ में बीत जाता है । अन्तराष्ट्रीय सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि भारत के 70 प्रतिशत इन्जीनियर किसी भी अच्छी नौकरी के नाकाबिल हैं और लगभग 35 प्रतिशत डाक्टर साधारण बीमारियों का साधारण उपचार भी नहीं जानते । जहां तक बी ० ए ० और एम०  ए ० की बात है उसके विषय में तो बात करना ही व्यर्थ है । 80 प्रतिशत से अधिक स्नातक अपनी एप्लिकेशन न तो शुद्ध हिन्दी और न ही गुजारे लायक अंग्रेजी में लिख पाते हैं वे अशिक्षित स्नातक ही समझे जांय तो ज्यादा अच्छा रहेगा । हाँ उन्हें पहननें -ओढनें ,और खाने -पीनें का जो नया मर्ज  लग गया है वह उन्हें अपराधों की दुनिया में ढ़केल देता है । आतंकवादियों का संगठन जिसे इण्डियन मुजाहिदीन कहा जाता है ऐसे ही लक्ष्य हीन छात्रों का संगठन है और कई हिन्दू सेनायें भी धर्म का सच्चा अर्थ जाननें में असमर्थ हैं । भारत का अशिक्षित ग्रामीण भी जीवन और धर्म की जितनी गहरी बातें जानता है उतना ज्ञान तो आज के संत-महात्माओं में भी देखने को नहीं मिलता । भारतीय सद्गृहस्थ का जीवन परिश्रम और पसीने की कमाई से पोषित होता है और निरन्तर ईश्वर की प्राप्ति की ओर उन्मुख रहता है । हमें  शिक्षा को फिर से उन्हीं नैतिक मूल्यों की ओर मोड़ना होगा जिनके बल पर कभी भारत संसार का गुरू और सर्वश्रेष्ठ संस्कृति का अधिकारी माना जाता था । हम इसी भगीरथ प्रयास में अपनें अकिंचन दान की क्षमता को स्वीकार करनें का साहस जुटाना चाहेंगें । और यह साहस आप सब लोगों के सहयोग से ही संभव हो सकेगा । 

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