सभ्यता के उषाकाल में ही पौरत्य प्रतिभा ने वसुधैव कुटुम्बकम का दर्शन प्रतिपादित किया था । भारतीय मनीषी यह जान गये थे कि मेरे तेरे का दर्शन लघु चिन्तना की उपज है । जो उदार है ,विशाल बुद्धि है और निसर्ग के लय ताल की गति समझता है उसके लिये तो सारी वसुधा ही कुटुम्ब है । न जाने कितनी सहस्त्राब्दियों के बाद आज सारे संसार का प्रबुद्ध वर्ग इस सत्य को स्वीकार कर पाया है । आज के बहुप्रचलित शब्द "ग्लोबल इकनामी ""ग्लोबल विजन "और वैश्विक जीवन पद्धति भारत के चिन्तन के अभिन्न ,अबाधित और सर्वमान्य जीवन लक्ष्य रहे हैं । "माटी "इस सेवा भावना से काम करने का प्रयास कर रही है कि युग के प्रवाह में इन सनातन मूल्यों पर पड़ जाने वाली धूल और गर्द को साफ़ पोंछ कर विश्व जन मानस के समक्ष प्रस्तुत कर दे । अहंकार की भावना से सर्वथा मुक्त केवल सम्पूर्ण समर्पित भाव से और निः स्वार्थ सेवा भावना से प्रेरित होकर हम इस दिशा की ओर चले हैं । हम जानते हैं कि हमारा यह प्रयास रामजी की सेवा में लगी गिलहरी के प्रयास से और अधिक कुछ नहीं है । पर हमें इस बात का गर्व है कि हम राजनीति के विद्द्युत प्रकाश और चकाचौंध वाली छवि से सर्वथा मुक्त हैं । हो सकता है कालान्तर में कुछ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति हमारे साधना मार्ग पर हमसे मिलकर चलने का प्रयास करें, पर हम ऐसा किसी निराधार प्रशंसा ,प्रचार या सांसारिक लाभ के लिये कभी नहीं होने देंगें । हमारा मार्ग तो पारस्परिक सौहाद्र ,निश्छल समर्पण और सहज त्याग के तीन पायों पर पर बनाया गया है । इस मार्ग पर जो चलेगा उसे राजनीतिक सत्ता और वैभव पद घरौंदों को पददलित कर आगे बढ़ना होगा ।"माटी 'के लेखक ,पाठक मानव प्यार के उस विश्वव्यापी आवासीय आत्मसंगीत गुँजित भवन निर्माण की ओर बढ़ रहे है जिसकी कल्पना संत कबीर ने की थी ।
"जाति नहीं ,पाँति नहीं वर्ग नहीं ,क्षेत्र नहीं ,
रँग नहीं ,रूप नहीं ,नर -नारी का लिँग भेद नहीं ,
अस्तित्व नहीं ,अनस्तित्व नहीं ,केवल सब कुछ
होम कर देने वाला मानव प्यार ।"
"कबीरा यह घर प्रेम का ,खाला का घर नहि
सीस काटि भुहिं में धरे सो पैठे घर माँहिं ।"
या
"कबिरा खड़ा बजार में लिये लकुटिया हाँथ ,
जो घर जारे आपनो सो चले हमारे साथ ।"
तो बन्धुओ "माटी "आपसे आत्माहुति की माँग करती है । हमारे पास देने के लिये है केवल आपके प्रति अपार श्रद्धा ,आपके आदर्श सांसारिक जीवन में अनुगामी बनने की कामनाँ । और आपके लिये आत्मा से निकलते सच्ची प्रशंसा के स्वर । पर हम आपको वैभव ,पदाधिकारी का दम्भ और चित्रपटों की चमक नहीं दे पायेंगें । हम चाहेंगें विवेकशील भारतीय नैतिक परम्परा के सजग विचारक होने के नाते आप स्वयं निर्णय लें कि क्या हमारा मार्ग आप को हम तक आने के लिये प्रेरित नहीं करता ?सकारात्मक और सहज स्वीकृति मिलने पर आप अनुभव करेंगें कि मानव जीवन का लक्ष्य देह सुख पर आधारित पश्चिमी जीवन मूल्यों से कहीं बहुत अधिक ऊँचा है । मुझे याद आता है ब्रिटिश कौन्सिल में आयोजित एक परिचर्चा का सन्दर्भ । कुछ ख्याति प्राप्त विद्वानों के बीच शिक्षा के सच्चे स्वरूप पर नोंक -झोंक हो रही थी । विश्वविद्यालयों से पी ० एच ० डी ० और डी ० लिट ० पाये हुये कुछ अंग्रेजी दंभ्भी दां शिक्षा का सम्बन्ध उपाधि के मानकों से जोड़ रहे थे । मुझसे रहा नहीं गया और मैनें कहा कि यदि उपाधि मानकों से ही ज्ञान का अटूट सम्बन्ध है तो रवीन्द्रनाथ और अकबर को तो अशिक्षित ही कहा जायेगा । यही क्यों भारत रत्न अब्दुल कलाम भी बिना थीसिस लिखे ही राष्ट्र के लिये सम्मान का प्रतीक बन गये हैं । ललित कलाओं के क्षेत्र में तो विश्वविद्यालीय शिक्षा अधिकतर लंगड़ा बना देने का काम करती है और दर्शन तथा विज्ञान के क्षेत्र में भी वह केवल उन्हीं को लाभान्वित करती है जिनमें संस्कार बद्ध नैसर्गिक प्रतिभा के उत्पादक बिन्दु सन्निहित होते हैं । तभी तो सी ० बी ० रमन ने बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता के नोबल प्राइज़ पाया और तभी तो भारतीय मनीषा ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व जीरो खोजकर आज की वैज्ञानिक इन्फॉर्मेशन टेक्नालाजी युग की नींव रख दी थी । जीरो की खोज के बिना कम्प्यूटर की कल्पना भी नहीं की जा सकती । पर भारतीय परम्परा प्रतिभा को अबाध रहने की स्वतंत्रता तो देती है पर उसे मानव कल्याण के विपरीत दिशा में बहनें से बाधित करती है । इसीलिये प्रतिभा पर आभिजात्य संस्कारों का ,परितृष्टित जीवन द्रष्टि का और धार्मिक नियन्त्रणा का अनुशासन रखा जाता है । आज सर्वश्रेष्ठ प्रतिभायें खरीद -फरोख्त का बाजारू माल बन चुकी हैं । Knowledge Industry वणिक वृत्ति संचालित होकर मानव जीवन के उच्च्तर लक्ष्यों की अवहेलना कर रही है । जो कुछ है सब बिकाऊ है । इंग्लैण्ड के इतिहास में कुछ इसी प्रकार के प्रश्न सोलहवीं शताब्दी में उठे थे जब मार्लो ने अपना बहुचर्चित नाटक डा ० फॉस्टस लिखा था, उसमें भी आत्मशोधक डा ० फॉस्टस शैतान Mephosto-thilis की बातों में आकर सुरा -सुन्दरी के अबाधित भोग के लिये अपनी आत्मा का सौदा करते हैं। इस युग में अपनी सारी लम्बी -चौड़ी मानवीय कल्याण की घोषणाओं के बावजूद अमेरिकन संस्कृति वस्तुतः जुगुप्सापूर्ण विलास संस्कृति बन कर रह गयी है । भारत में बुद्ध धर्म की वज्रयानी परम्परा मुद्रा और माया के चक़्कर में फँसकर पतन की जिस निम्न छोर पर पहुँच गयी थी कुछ वैसा ही आज अमेरिकन जीवन पद्धति में घटित होता दिखायी देता है । शक्ति और वैभव का अभिमान काल के प्रवाह में एक क्षणिक उन्माद ही है उसे किसी भी राष्ट्र को सनातन मान कर नहीं चलना चाहिये । उत्थान -पतन का कालचक्र सतत गतिमान रहता है ,जो उर्ध्व पर है उसे नीचे आना ही होगा पर चक्र की गति यदि सहज रहे तो ऊर्धत्व का बिन्दु कुछ अधिक देर तक टिका रहता है । ऐसा कुछ आज पाश्चात्य सभ्यता में दिखायी नहीं देता । भारत ने एक अत्यन्त लम्बे काल तक मानव सभ्यता के सर्वोच्च स्थान पर अपने को प्रतिस्थापित किया था और यह दीर्घ जीवन इसीलिये पा सका था क्योंकि उसने स्वाभाविक काल चक्र की पतन गति को सयंम और आत्म अनुशासन के दोनों हांथो से पकड़कर धेीमा कर रखा था । पिछले लगभग एक सहत्राब्दी से हम अन्धकार की चपेट में आ गये थे पर ऐसा लगता है कि यह भी श्रष्टि रचयिता की भारत को सीख देने की एक दैवी योजना थी । अन्ततः हमारी इस देव भूमि से परम पिता को एक विशेष लगाव तो है ही । "माटी "आस्तिकता के इन आयामों को स्वीकार करती है । नास्तिकता के किसी भी स्वर को हम पूरी शक्ति के साथ नकारते है और हम विश्वाश करते हैं कि हम देव पुत्र हैं ,कि हममें कहीं ईश्वरीय स्फुलिंग है ,कि हम मानव शरीर से देवत्व के सोपानों की ओर बढ़ सकते हैं । उन अनीश्वर वादी Nihilist विचारकों को हम भुस के तिनकों से अधिक महत्व नहीं देते जो मानव शरीर को मात्र पशु प्रवृत्तियों का संचयन बताते हैं । हम महर्षि अरविन्द के साथ खड़े हैं जो चाहते थे कि हर मानव महामानव बनें और यह महामानव अपने आन्तरिक विकास की चरम उलब्धि के क्षणों में ईश्वरीय गरिमा से मण्डित हो सकेगा । विकासवाद भी विकास की प्रक्रिया में Mutation के चरम महत्त्व को स्वीकार करता है और हमारा विश्वाश है कि यह Mutation भी श्रष्टि नियन्ता की मानव कल्याण प्रेरित भावभूमि से ही संचालित होता है । दृष्टि का लंगड़ापन और भ्रामकता ही हमें विभिन्नता का बोध कराती है । अन्यथा विश्व के सभी मानव ज्योति शिखा से स्फुरित सर्वव्यापी स्फुलिंगों से ही अनुप्राणित हैं । कितना रक्त बहाया है मानव जाति ने गोरे -काले के भेद को लेकर , सम्प्रदाय विभिन्नता के नाम को लेकर ,पूजा पद्धतियों के टकराव को लेकर और वेष -भूषा को लेकर । कितने क्षुद्र स्वार्थों की नींव पर तथा कथित धर्म साम्राज्यों की स्थापना की गयी । कितनी विजय गाथायें निरीह पवित्र उषा जैसी धवल माँ ,बहिन ,बेटियों के शरीरों को कलुषित करके लिखी गयीं । "माटी "इन सबको धिक्कारती है । जहां कहीं भी पशु वृत्ति है ,,जहाँ क़हीं भी अवाध भोग की भावना है ,जहाँ कहीं भी नंगे शोषण का मनोभाव है 'माटी 'उस द्वार को कभी नहीं खटखटायेगी । हम प्रतिबद्धित होते हैं सभी झूठे दम्भों को परित्याग कर एक नये विश्व समाज संरचना की ओर जो राष्ट्रधर्मिता की सुदृढ़ नींव पर निर्मित होगा । हम संकल्पित होते हैं छुद्र ईर्ष्याओं ,स्वार्थों और टोली बन्दियों से मुक्त सहज स्पन्दित सरल सहभागी जीवन जीने लिये जो भारत की मूल नैतिक धारणाओं से अनुप्राणित हो । वस्तुतः हम जड़ और चेतन के अन्तर को मिटा कर ब्रम्हाण्डीय श्रष्टि की एकता के संपोषक हैं । । प्रथम मानव का यह चिन्तन कितना संपुष्ट और सार्थक है ।
"ऊपर हिम था नीचे जल था
एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन ।"
(क्रमशः )
"जाति नहीं ,पाँति नहीं वर्ग नहीं ,क्षेत्र नहीं ,
रँग नहीं ,रूप नहीं ,नर -नारी का लिँग भेद नहीं ,
अस्तित्व नहीं ,अनस्तित्व नहीं ,केवल सब कुछ
होम कर देने वाला मानव प्यार ।"
"कबीरा यह घर प्रेम का ,खाला का घर नहि
सीस काटि भुहिं में धरे सो पैठे घर माँहिं ।"
या
"कबिरा खड़ा बजार में लिये लकुटिया हाँथ ,
जो घर जारे आपनो सो चले हमारे साथ ।"
तो बन्धुओ "माटी "आपसे आत्माहुति की माँग करती है । हमारे पास देने के लिये है केवल आपके प्रति अपार श्रद्धा ,आपके आदर्श सांसारिक जीवन में अनुगामी बनने की कामनाँ । और आपके लिये आत्मा से निकलते सच्ची प्रशंसा के स्वर । पर हम आपको वैभव ,पदाधिकारी का दम्भ और चित्रपटों की चमक नहीं दे पायेंगें । हम चाहेंगें विवेकशील भारतीय नैतिक परम्परा के सजग विचारक होने के नाते आप स्वयं निर्णय लें कि क्या हमारा मार्ग आप को हम तक आने के लिये प्रेरित नहीं करता ?सकारात्मक और सहज स्वीकृति मिलने पर आप अनुभव करेंगें कि मानव जीवन का लक्ष्य देह सुख पर आधारित पश्चिमी जीवन मूल्यों से कहीं बहुत अधिक ऊँचा है । मुझे याद आता है ब्रिटिश कौन्सिल में आयोजित एक परिचर्चा का सन्दर्भ । कुछ ख्याति प्राप्त विद्वानों के बीच शिक्षा के सच्चे स्वरूप पर नोंक -झोंक हो रही थी । विश्वविद्यालयों से पी ० एच ० डी ० और डी ० लिट ० पाये हुये कुछ अंग्रेजी दंभ्भी दां शिक्षा का सम्बन्ध उपाधि के मानकों से जोड़ रहे थे । मुझसे रहा नहीं गया और मैनें कहा कि यदि उपाधि मानकों से ही ज्ञान का अटूट सम्बन्ध है तो रवीन्द्रनाथ और अकबर को तो अशिक्षित ही कहा जायेगा । यही क्यों भारत रत्न अब्दुल कलाम भी बिना थीसिस लिखे ही राष्ट्र के लिये सम्मान का प्रतीक बन गये हैं । ललित कलाओं के क्षेत्र में तो विश्वविद्यालीय शिक्षा अधिकतर लंगड़ा बना देने का काम करती है और दर्शन तथा विज्ञान के क्षेत्र में भी वह केवल उन्हीं को लाभान्वित करती है जिनमें संस्कार बद्ध नैसर्गिक प्रतिभा के उत्पादक बिन्दु सन्निहित होते हैं । तभी तो सी ० बी ० रमन ने बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता के नोबल प्राइज़ पाया और तभी तो भारतीय मनीषा ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व जीरो खोजकर आज की वैज्ञानिक इन्फॉर्मेशन टेक्नालाजी युग की नींव रख दी थी । जीरो की खोज के बिना कम्प्यूटर की कल्पना भी नहीं की जा सकती । पर भारतीय परम्परा प्रतिभा को अबाध रहने की स्वतंत्रता तो देती है पर उसे मानव कल्याण के विपरीत दिशा में बहनें से बाधित करती है । इसीलिये प्रतिभा पर आभिजात्य संस्कारों का ,परितृष्टित जीवन द्रष्टि का और धार्मिक नियन्त्रणा का अनुशासन रखा जाता है । आज सर्वश्रेष्ठ प्रतिभायें खरीद -फरोख्त का बाजारू माल बन चुकी हैं । Knowledge Industry वणिक वृत्ति संचालित होकर मानव जीवन के उच्च्तर लक्ष्यों की अवहेलना कर रही है । जो कुछ है सब बिकाऊ है । इंग्लैण्ड के इतिहास में कुछ इसी प्रकार के प्रश्न सोलहवीं शताब्दी में उठे थे जब मार्लो ने अपना बहुचर्चित नाटक डा ० फॉस्टस लिखा था, उसमें भी आत्मशोधक डा ० फॉस्टस शैतान Mephosto-thilis की बातों में आकर सुरा -सुन्दरी के अबाधित भोग के लिये अपनी आत्मा का सौदा करते हैं। इस युग में अपनी सारी लम्बी -चौड़ी मानवीय कल्याण की घोषणाओं के बावजूद अमेरिकन संस्कृति वस्तुतः जुगुप्सापूर्ण विलास संस्कृति बन कर रह गयी है । भारत में बुद्ध धर्म की वज्रयानी परम्परा मुद्रा और माया के चक़्कर में फँसकर पतन की जिस निम्न छोर पर पहुँच गयी थी कुछ वैसा ही आज अमेरिकन जीवन पद्धति में घटित होता दिखायी देता है । शक्ति और वैभव का अभिमान काल के प्रवाह में एक क्षणिक उन्माद ही है उसे किसी भी राष्ट्र को सनातन मान कर नहीं चलना चाहिये । उत्थान -पतन का कालचक्र सतत गतिमान रहता है ,जो उर्ध्व पर है उसे नीचे आना ही होगा पर चक्र की गति यदि सहज रहे तो ऊर्धत्व का बिन्दु कुछ अधिक देर तक टिका रहता है । ऐसा कुछ आज पाश्चात्य सभ्यता में दिखायी नहीं देता । भारत ने एक अत्यन्त लम्बे काल तक मानव सभ्यता के सर्वोच्च स्थान पर अपने को प्रतिस्थापित किया था और यह दीर्घ जीवन इसीलिये पा सका था क्योंकि उसने स्वाभाविक काल चक्र की पतन गति को सयंम और आत्म अनुशासन के दोनों हांथो से पकड़कर धेीमा कर रखा था । पिछले लगभग एक सहत्राब्दी से हम अन्धकार की चपेट में आ गये थे पर ऐसा लगता है कि यह भी श्रष्टि रचयिता की भारत को सीख देने की एक दैवी योजना थी । अन्ततः हमारी इस देव भूमि से परम पिता को एक विशेष लगाव तो है ही । "माटी "आस्तिकता के इन आयामों को स्वीकार करती है । नास्तिकता के किसी भी स्वर को हम पूरी शक्ति के साथ नकारते है और हम विश्वाश करते हैं कि हम देव पुत्र हैं ,कि हममें कहीं ईश्वरीय स्फुलिंग है ,कि हम मानव शरीर से देवत्व के सोपानों की ओर बढ़ सकते हैं । उन अनीश्वर वादी Nihilist विचारकों को हम भुस के तिनकों से अधिक महत्व नहीं देते जो मानव शरीर को मात्र पशु प्रवृत्तियों का संचयन बताते हैं । हम महर्षि अरविन्द के साथ खड़े हैं जो चाहते थे कि हर मानव महामानव बनें और यह महामानव अपने आन्तरिक विकास की चरम उलब्धि के क्षणों में ईश्वरीय गरिमा से मण्डित हो सकेगा । विकासवाद भी विकास की प्रक्रिया में Mutation के चरम महत्त्व को स्वीकार करता है और हमारा विश्वाश है कि यह Mutation भी श्रष्टि नियन्ता की मानव कल्याण प्रेरित भावभूमि से ही संचालित होता है । दृष्टि का लंगड़ापन और भ्रामकता ही हमें विभिन्नता का बोध कराती है । अन्यथा विश्व के सभी मानव ज्योति शिखा से स्फुरित सर्वव्यापी स्फुलिंगों से ही अनुप्राणित हैं । कितना रक्त बहाया है मानव जाति ने गोरे -काले के भेद को लेकर , सम्प्रदाय विभिन्नता के नाम को लेकर ,पूजा पद्धतियों के टकराव को लेकर और वेष -भूषा को लेकर । कितने क्षुद्र स्वार्थों की नींव पर तथा कथित धर्म साम्राज्यों की स्थापना की गयी । कितनी विजय गाथायें निरीह पवित्र उषा जैसी धवल माँ ,बहिन ,बेटियों के शरीरों को कलुषित करके लिखी गयीं । "माटी "इन सबको धिक्कारती है । जहां कहीं भी पशु वृत्ति है ,,जहाँ क़हीं भी अवाध भोग की भावना है ,जहाँ कहीं भी नंगे शोषण का मनोभाव है 'माटी 'उस द्वार को कभी नहीं खटखटायेगी । हम प्रतिबद्धित होते हैं सभी झूठे दम्भों को परित्याग कर एक नये विश्व समाज संरचना की ओर जो राष्ट्रधर्मिता की सुदृढ़ नींव पर निर्मित होगा । हम संकल्पित होते हैं छुद्र ईर्ष्याओं ,स्वार्थों और टोली बन्दियों से मुक्त सहज स्पन्दित सरल सहभागी जीवन जीने लिये जो भारत की मूल नैतिक धारणाओं से अनुप्राणित हो । वस्तुतः हम जड़ और चेतन के अन्तर को मिटा कर ब्रम्हाण्डीय श्रष्टि की एकता के संपोषक हैं । । प्रथम मानव का यह चिन्तन कितना संपुष्ट और सार्थक है ।
"ऊपर हिम था नीचे जल था
एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन ।"
(क्रमशः )